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प्रवासियों की दुनिया में शरणार्थियों की तीन नई किस्में: छत्तीसवाँ न्यूज़लेटर (2024)

कोई भी प्रवासी अपना घर छोड़ना नहीं चाहता है और न ही उन देशों में द्वयं दर्जे का नागरिक बनना चाहता है जिनकी वजह से उन्हें अपनी ज़मीन से अलग होना पड़ा।

राशिद दिआब (सूडान), Out of Focus [फोकस से बाहर/धुँधला], 2015.

 

प्यारे दोस्तो, 

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान  की ओर से अभिवादन।

गर्मियों का एक दिन था, नाइजर के ऊपर चमकता सूरज क्षितिज से नीचे उतरने से इन्कार कर रहा था। मैं छाँव के लिए अगाडेज़ शहर में तौबा उ पारादीस  नाम के एक छोटे शांत-से रेस्टोरेंट में चला गया, वहाँ मेरे अलावा तीन बेचैन से लग रहे आदमी थे। इन तीनों नाईजीरियाई पुरुषों ने असमाका से सरहद पार करके हमारे उत्तर की ओर अल्जेरिया जाने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें सीमा बंद मिली। उनकी उम्मीद थी कि वे आखिरकार भूमध्य सागर पार कर यूरोप पहुँच जाएंगे, लेकिन उसके लिए उनका अल्जेरिया में दाखिल होना ज़रूरी था और उसके बाद पार करना था विशाल सहारा रेगिस्तान। जब तक मैं उन्हें मिला वो इसमें से कुछ भी पार नहीं कर पाए थे। 

अल्जेरिया ने अपनी सरहद बंद कर दी थी और असमाका शहर बहुत से मायूस लोगों से भर गया था जो पीछे मुड़ना नहीं चाहते थे और आगे बढ़ नहीं सकते थे। इन तीनों ने मुझे बताया कि वे नाइजर किसी शारीरिक खतरे की वजह से छोड़कर नहीं आए, बल्कि इसलिए आए थे कि उन्हें अपने शहर में आजीविका का संकट झेलना पड़ रहा था। नाइजर में बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी ने नामुमकिन हालात पैदा कर दिए। उन्होंने कहा, ‘स्कूल खत्म करने के बाद भी हम अपने परिवारों पर बोझ बने हुए थे तो हम घर पर कैसे रहते?’ तीन पढ़े-लिखे नाइजीरियाई युवक, जीविका कमाने के लिए परेशान, घर पर रह सकने में असमर्थ, अपनी इच्छा के विरुद्ध सिर्फ गरिमा से आजीविका कमाने के लिए एक जानलेवा सफर पर निकल पड़े।          

कई महाद्वीपों में प्रवासियों से मेरी यही बातचीत हुई है। साल 2020 में विश्व भर में प्रवासियों की आबादी अंदाज़तन 28.1 करोड़ थी, अगर इनकी गिनती एक अलग देश के तौर पर की जाती तो यह जनसंख्या के हिसाब से चीन, भारत और यूनाइटेड स्टेट्स के बाद दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश होता। ज़ाहिर है हर प्रवासी की अपनी एक अनोखी कहानी होती है लेकिन इनमें कुछ रुझान एक से होते हैं। आज अधिकतर प्रवासी शरणार्थियों को पुरानी संधियों की पुरानी श्रेणियों में नहीं गिना जा सकता – शरणार्थी जो ‘नस्ल, धर्म, राष्ट्रीयता, किसी खास सामाजिक समूह या राजनीतिक विचार के सदस्य होने’ के कारण उत्पीड़न झेल रहे हों। यह परिभाषा 1951 की संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी कन्वेन्शन और प्रोटोकॉल  से ली गई है जो शीत युद्ध के शुरुआती दौर में लिखी गई थी। उस समय तनाव काफी ज़्यादा था क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में पश्चिमी देशों का बहुमत था। 1950 में जनवरी से अगस्त तक यूएसएसआर ने कई संगठनों का बहिष्कार किया क्योंकि संयुक्त राष्ट्र चीनी जनवादी गणराज्य को सुरक्षा परिषद में स्थान नहीं दे रहा था। यूँ भी यह कन्वेन्शन शरणार्थी की पश्चिमी अवधारणा पर आधारित थी, यानी वह लोग जो ‘स्वतंत्रता’ (जो अमूमन माना जाता था कि पश्चिम में मिलेगी) पाने के लिए ‘अस्वतंत्रता’ (जिसका मतलब माना जाता था यूएसएसआर) से भाग रहे थे। इसमें उन लोगों की आवाजाही के लिए कोई प्रावधान नहीं था जो वैश्विक अर्थव्यवस्था के नवउपनिवेशवादी ढाँचे के कारण घोर आर्थिक परेशानियों में धकेल दिए गए।       

 

नबिला होराख्श (अफ़ग़ानिस्तान), Windows [खिड़कियाँ], 2019.

 

‘शरणार्थी’ की परिभाषा को बदलने की कई कोशिशों के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय कानून में यह आज भी उत्पीड़न से जुड़ी है और न कि भूख से। उदाहरण के लिए अगाडेज़ में वे तीन युवक 1951 की कन्वेन्शन के हिसाब से किसी उत्पीड़न का सामना नहीं थे, लेकिन वे लंबे समय से चले आ रहे आर्थिक संकट से बर्बाद हो चुके देश में बहुत कुछ सहन करने को मजबूर थे। यह संकट इन वजहों से पैदा हुआ: ब्रिटिश शासकों से विरासत में मिला शुरुआती कर्ज़; पेरिस क्लब के कर्ज़दाता देशों से और कर्ज़ लेकर वह आधारभूत ढाँचा तैयार किया गया जो नाइजीरिया के औपनिवेशिक इतिहास में नज़रंदाज़ कर दिया गया था (जैसे कि नाइजर बाँध योजना); अर्थव्यवस्था के आधुनिकीकरण के लिए और भी अंदरूनी कर्ज़ लिया गया; नाइजीरिया की प्रचुर तेल बिक्री से जो रॉयल्टी मिलनी चाहिए थी उसकी चोरी। नाइजीरिया तेल संपदा के हिसाब में दुनिया में दसवें नंबर पर आता है लेकिन फिर भी यहाँ गरीबी की दर लगभग 40% है। इस शर्मनाक स्थिति के लिए कुछ हद तक असीम सामाजिक असमानता भी ज़िम्मेदार है: नाइजीरिया के सबसे अमीर व्यक्ति अलिको डेंगोटे के पास इतनी संपत्ति है कि वो अगले बयालीस साल तक रोज़ाना 10 लाख डॉलर खर्च कर सकता है। अगाडेज़ में मिले उन तीन युवकों के पास सिर्फ इतने ही पैसे हैं कि वे सहारा मरुस्थल पार कर सकें, लेकिन उसके बाद भूमध्य सागर पार करने के लिए उनके पास कुछ नहीं। मैं जब उनसे बात कर रहा था तो मेरे ज़हन में एक ख्याल घूम रहा था कि वे अपनी पहली रुकावट ही पार नहीं कर पाएंगे। उनके सामने चुनौती थी घर लौटने की जहाँ कुछ नहीं बचा था क्योंकि उन्होंने अपना सब कुछ इस नाकाम सफर के लिए बेच दिया था। 

ये युवक यूरोप क्यों जाना चाहते हैं? क्योंकि यूरोप बाकी दुनिया के सामने अपनी संपदा और अवसरों वाली छवि पेश करता है। वे युवक मुझे बार-बार यही बता रहे थे। पुराने उपनिवेशवादियों के देश पुकारते हैं, उनके शहर जो काफी हद तक चुराई हुई संपदा से बसे थे, वे अब प्रवासियों को आकर्षित करते हैं। और वे पुराने उपनिवेशवादी अब भी विकासशील देशों को लूटने में लगे हैं: नाइजीरिया में काम कर रही पाँच सबसे बड़ी तेल कंपनियाँ है शेल (यूके), शेव्रान (यूएस), टोटलएनर्जीज़ (फ़्रांस), एक्सॉनमोबिल (यूएस) और एनी (इटली)। ये पुराने उपनिवेशवादी अपने पुराने उपनिवेशों को हथियार भी बेचते हैं और जब ये पुराने उपनिवेश अपनी संप्रभुता स्थापित करने की कोशिश करते हैं तो उन पर बमबारी करते हैं।

1996 में भारतीय लेखक अमिताव कुमार ने ‘इराक़ी रेस्टोरेंट’ नाम की एक कविता लिखी जो इस न्यूज़लेटर में बयान की गई भयानक सच्चाई का वर्णन करती है: 

बग़दाद का हर घर 

अमरीकियों ने तब्दील कर दिया भट्टी में 

और इंतजार करते रहे

इराक़ी आएँ 

खानसामों की तरह 

यूएस में जैसे आए थे उनसे पहले वियतनामी। 

 

पाब्लो कलाका (वेनेज़ुएला): Pacha en barna [बार्सिलोना में पाचा], 2016. पाब्लो पांच दशक से चल रहे आर्टिस्ट्स् कलेक्टिव, Utopix, का हिस्सा हैं.

 

कुछ समय से मैं उन प्रवासियों के बारे में सोच रहा हूँ जो मोरक्को और स्पेन के बीच मेलिला से सरहद पार करने की कोशिश कर रहे हैं या कोलंबिया और पनामा के बीच डेरियन गैप से होकर सीमा पार करना चाह रहे हैं, या फिर वे जो जेलों में कैद हैं जैसा कि पापुआ न्यू गिनी के मानुस आइलैंड के डिटेन्शन सेंटर में या एल पासो डेल नॉरते प्रोसेसिंग सेंटर में। इनमें से ज़्यादातर ‘आईएमएफ़ शरणार्थी’, ‘तख्तापलट से हुए शरणार्थी’ या जलवायु परिवर्तन से हुए शरणार्थी हैं। 1951 की कन्वेन्शन के शब्दकोष में ये शब्द नहीं हैं। एक नई कन्वेन्शन को इनके अस्तित्व को गंभीरता से देखना होगा।

कुल 28.1 करोड़ दर्ज किये गए प्रवासियों में से 2 करोड़ 64 लाख पंजीकृत शरणार्थी हैं और 41 लाख ऐसे लोग पंजीकृत हैं जो शरण माँग रहे हैं। इसका मतलब है कि बाकी 25.05 करोड़ प्रवासी आईएमएफ़, तख्तापलट या जलवायु परिवर्तन से हुए शरणार्थी हैं। संयुक्त राष्ट्र की विश्व प्रवासन रिपोर्ट 2024 जब यह दर्ज करती है कि ‘टकराव, विनाश और अन्य कारणों की वजह से विस्थापित लोगों की संख्या आज आधुनिक काल के आँकड़ों के हिसाब से अपने चरम पर है’ तो वहाँ इन प्रवासियों की भी बात हो रही है और सिर्फ उत्पीड़न से बचकर भागे प्रवासियों की नहीं। 

 

 ज़वे मॉन (म्यांमार), A Mother [एक माँ], 2013.

 

मैं उन परिस्थितियों की और चर्चा करना चाहता हूँ जिनकी वजह से ये शरणार्थी बन रहे हैं, जिन्हें पहले शरणार्थी माना भी नहीं जाता था:

  1. आईएमएफ़ शरणार्थी
    • लगभग हर विकासशील देश तीसरी दुनिया के देशों के कर्ज़ के बोझ से प्रभावित हुआ, जिसका एक उदाहरण है 1982 में मेक्सिको का दिवालिया होना। इसका सिर्फ एक ही इलाज मौजूद था कि आईएमएफ़ के ढाँचागत अजस्ट्मन्ट योजना से मदद लेने के लिए उसकी शर्तें मान ली जाएँ। विकासशील देशों को स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए दी जाने वाली सब्सिडी कम करनी पड़ी और अपनी अर्थव्यवस्थाओं को निर्यात आधारित शोषण के लिए खोलना पड़ा। 
    • इसका कुल हासिल यह था कि बहुमत जनता की आजीविका का स्तर बेहद गिर गया जिसने उन्हें अपने देश में अनिश्चित काम धंधे और खतरनाक तरीकों से विदेशों में प्रवास की ओर धकेल दिया। अफ्रीकन डेवलपमेंट बैंक की एक 2018 की रिपोर्ट बताती है कि विश्व भर में खेती पर हो रहे हमलों की वजह से पश्चिम अफ्रीका के किसानों को ग्रामीण इलाके छोड़कर शहरों में कम उत्पादकता वाली असंगठित क्षेत्र की सेवाओं में काम करने को मजबूर होना पड़ा। वहाँ से वे ज़्यादा आय के सब्ज़ ख्वाब का पीछा करते हुए पश्चिमी देशों या खाड़ी के देशों में चले जाते हैं। मसलन 2020 में सबसे ज़्यादा प्रवासी तीन देशों में गए (यूनाइटेड स्टेट्स, जर्मनी और सऊदी अरब) जहाँ प्रवासियों के साथ बहुत बुरा व्यवहार होता है। प्रवास के यह रुझान बेहद मायूसी के हैं, किसी उम्मीद के नहीं।
  1. तख्तापलट से हुए शरणार्थी
    • सोवियत संघ के विघटन के बाद से यूएस ने अपनी सैन्य और आर्थिक शक्ति का इस्तेमाल उन देशों की सरकारों को गिराने में किया है जो अपनी सीमाओं में संप्रभुता स्थापित करने की कोशिश कर रही थीं। फिलहाल दुनिया के एक तिहाई देश, खासतौर से विकासशील देश, यूएस के दंडनीय प्रतिबंधों का सामना कर रहे हैं। चूंकि यह प्रतिबंध अमूमन उन देशों को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था का इस्तेमाल करने से रोकते हैं इसलिए इन नीतियों से आर्थिक संकट और बड़े स्तर पर विपत्ति उत्पन्न होती है। वेनेज़ुएला के 61 लाख प्रवासी जो अपना देश छोड़कर गए, उनके जाने की वजह यूएस के गैरकानूनी प्रतिबंध का राज ही है जिसने इस देश की अर्थव्यवस्था को अनिवार्य चीज़ों के लिए तरसा दिया है। 
    • गौर करने की बात है कि यूएस और यूरोपियन यूनियन जैसे देश या समूह तख्तापलट की नीतियाँ तो बहुत सख्ती से लागू करते हैं लेकिन इन लड़ाइयों से बचकर भागे शरणार्थियों पर इन्हें ही सबसे कम दया आती है। उदाहरण के लिए जर्मनी ने अफ़गानों को वापस भेजना शुरू कर दिया है, जबकि उधर वेनेज़ुएला से परेशान होकर आए लोग जो मेक्सिको के हुआरेज़ में कैम्प डाले हुए हैं उन्हें यूएस निकाल रहा है। 
  1. जलवायु परिवर्तन से हुए शरणार्थी
    • पेरिस में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP21) में तमाम सरकारों के नेताओं ने विस्थापन को लेकर एक टास्क फोर्स का गठन करना स्वीकार किया था। तीन साल बाद, 2018 में संयुक्त राष्ट्र ग्लोबल कम्पैक्ट ने भी यह स्वीकार किया कि जलवायु परिवर्तन की वजह से जो लोग अपनी जगह छोड़ रहे हैं उनकी रक्षा की जानी चाहिए। फिर भी अब तक जलवायु परिवर्तन से हुए शरणार्थियों की अवधारणा स्थापित नहीं हो पाई है। 
    • 2021 में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट ने अंदाज़ा लगाया कि 2050 तक कम-से-कम 21.6 करोड़ लोग जलवायु परिवर्तन की वजह से शरणार्थी हो जाएँगे। जैसे-जैसे समुद्र में पानी का स्तर बढ़ेगा छोटे-छोटे द्वीप गायब हो जाएँगे और उनकी आबादी एक ऐसे भयानक संकट के पीड़ित बन जाएंगे जिसका कारण वे खुद नहीं हैं। जिन देशों का कार्बन फुटप्रिन्ट सबसे ज़्यादा है उन्हें ही उन लोगों की ज़िम्मेदारी लेनी होगी जो बढ़ते हुए समुद्र स्तर की तबाही की वजह से अपनी ज़मीन खो देंगे। 

 मलक मत्तर (फिलिस्तीन), Electricity [बिजली], 2016 

 

कोई भी प्रवासी अपना घर छोड़ना नहीं चाहता है और न ही उन देशों में दोयम दर्जे का नागरिक बनना चाहता है जिनकी वजह से उन्हें अपनी ज़मीन से अलग होना पड़ा (जैसा कि ज़ेटकिन फ़ोरम फॉर सोशल रिसर्च की रिपोर्ट, इम्पोर्ट डेपोर्ट: यूरोपियन माइग्रन्ट रेजीमस् इन टाइम्स ऑफ क्राइसिस  से पता चलता है)। महिलाएँ खासतौर से लंबी दूरी के सफर नहीं करना चाहतीं क्योंकि यौन हिंसा का खतरा उनके लिए बहुत बढ़ जाता है। वे चाहती हैं कि जहाँ भी रहें गरिमापूर्ण ढंग से रहें। दिनोंदिन बढ़ते हुए शरणार्थियों के संकट से निपटने के लिए सबसे कारगर तरीके हैं: गरीब देशों में विकास की नई नीतियाँ, तबाही और युद्ध लाने वाली जबरन तख्तापलट की नीतियों को खत्म करना और जलवायु परिवर्तन को लेकर मज़बूत कदम उठाना।

एक दशक पहले, फिलिस्तीनी कवि डॉ. फ़ादी जौदा ने ‘मीमेसिस’ [नकल] लिखी, जो इसी विचार को पेश करती है:

मेरी बच्ची 

             उस मकड़ी को भी न मारे 

जिसने उसकी साइकिल के हैंडलों के बीच 

जाल बुन लिया है 

उसने इंतजार किया 

दो हफ्ते 

मकड़ी के खुद-ब-खुद चले जाने का 

मैंने कहा अगर तुम जाला तोड़ दो 

तो वो जान जाएगी 

ये जगह घर बनाने लायक नहीं 

और तुम चला पाओगी अपनी साइकिल 

उसने कहा ऐसी ही तो

बनते हैं दूसरे लोग मुहाजिर?

सस्नेह,

विजय