प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
हेक्टर बेजर ने हाल ही में जारी हुए हमारे डोज़ियर “लैटिन अमेरिका का वर्तमान परिदृश्य: हेक्टर बेजर के साथ एक साक्षात्कार” (फ़रवरी 2022) में कहा, ‘दक्षिणपंथ बौद्धिक रूप से बेहद ग़रीब है। हर जगह दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों की कमी है’।
बेजर इन विषयों पर पूरे अधिकार के साथ बोलते हैं, क्योंकि पिछले साठ वर्षों से वे अपने देश पेरू और पूरे लैटिन अमेरिका में हुई बौद्धिक और राजनीतिक बहसों में गहराई से शामिल रहे हैं। बेजर ज़ोर देकर कहते हैं कि ‘सांस्कृतिक दुनिया में, वामपंथ के पास सब कुछ है, दक्षिणपंथ के पास कुछ भी नहीं है’। जब हमारे समय की महान सांस्कृतिक बहसों की बात आती है, जो कि राजनीतिक क्षेत्र में सामाजिक परिवर्तन (जैसे महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकार, प्रकृति और मानव अस्तित्व के प्रति ज़िम्मेदारी, आदि) के रूप में प्रकट होती हैं, तो इतिहास की सुई लगभग पूरी तरह से वामपंथ की ओर झुक जाती है। प्रकृति के विनाश या अमेरिका में स्वदेशी लोगों के ख़िलाफ़ हुई ऐतिहासिक हिंसा को सही ठहराने वाले किसी दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी को ढूँढ़ना मुश्किल है।
बेजर के मूल्यांकान ने मुझे पिछले साल सैंटियागो (चिली) में जियोर्जियो जैक्सन के साथ हुई बातचीत की याद दिला दी। जैक्सन, जो कि चिली के नये राष्ट्रपति गेब्रियल बोरिक के महासचिव होंगे, ने मुझे बताया था कि वामपंथ का व्यापक एजेंडा कई प्रमुख सामाजिक मुद्दों पर दृढ़ता से क़ायम है। लैटिन अमेरिकी समाज के बड़े हिस्से में रूढ़िवाद की गहरी जड़ें होने के बावजूद, अब यह बिलकुल स्पष्ट हो चुका है कि बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं -विशेष रूप से युवा लोग- जो नस्लवाद और लिंगवाद को बर्दाश्त नहीं करेंगे। इस सच्चाई के साथ साथ यह भी उतना ही सच है कि आर्थिक संबंधों की वस्तुगत संरचना, जैसे प्रवास और घरेलू श्रम की प्रकृति, सभी पुराने पदानुक्रमों/भेदभावों को इस तरह से पुन: पेश करती है कि लोग उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहते हैं, और इसलिए नस्लवाद और लिंगवाद की कठोर जड़ें अब भी मौजूद हैं। बेजर और जैक्सन इस बात से सहमत होंगे कि न तो पेरू में और न ही चिली में और न ही लैटिन अमेरिका के अधिकांश हिस्सों में कोई भी बुद्धिजीवी प्रतिक्रियावादी सामाजिक विचारों के बचाव में पूरे विश्वास के साथ खड़ा हो सकता।
हेक्टर बेजर न केवल लैटिन अमेरिका के सबसे प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों में से एक हैं, बल्कि वे 2021 में कुछ हफ़्तों के लिए पेरू में राष्ट्रपति पेड्रो कैस्टिलो की सरकार में विदेश मंत्री भी रहे। वे कुछ हफ़्तों तक ही सरकार में रह सके क्योंकि कैस्टिलो सरकार पर पेरू के सबसे सम्मानित वामपंथी बुद्धिजीवी को सरकार से हटाने का ज़बरदस्त दबाव डाला गया। इस दबाव के दो कारण थे: पहला, यह कि एक ट्रेड यूनियन नेता और शिक्षक रहे कैस्टिलो, जो कि अपने चुनावी अभियान में जितने वामपंथी लग रहे थे उतना वामपंथ अभ्यास में नहीं ला पाए हैं, और उनकी चुनावी जीत के बावजूद पेरू का सत्ताधारी वर्ग ही सत्ता में क़ाबिज़ है। और दूसरा, यह कि पेरू, जैसा कि बेजर ने कहा, ‘एक ऐसा देश है जिस पर विदेश हावी है’। और लैटिन अमेरिका ‘विदेश’ शब्द को अच्छे से समझता है: इसका अर्थ है संयुक्त राज्य अमेरिका।
भले ही दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों -जैसे कि प्रसिद्ध उपन्यासकार और प्रोफ़ेसर मारियो वर्गास लोसा- का दृष्टिकोण घिसा पिटा है, लेकिन यही लेखक और विचारक हैं जो पेरू के कुलीन वर्ग और वाशिंगटन के ‘बैकरूम बॉयज़’ (जैसा कि नोम चॉम्स्की उन्हें बुलाते हैं) के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। शक्तिशाली वर्ग के विचारों का दर्पण होने के कारण दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों के वाहियात विचार उचित प्रकट होते हैं और हमारी संस्थाओं व सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं को आकार देते रहने में सक्षम बने रहते हैं। जो लोग नहीं जानते उन्हें बता दूँ कि वर्गास लोसा ने चिली के चुनावों में असफल रहे राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जोस एंटोनियो कास्ट का सार्वजनिक रूप से समर्थन किया था; कास्ट के पिता नाज़ी लेफ़्टिनेंट थे और उनके भाई शिकागो बॉयज़ में से एक थे, जिन्होंने ऑगस्टो पिनोशे (जिनकी कास्ट आज भी प्रशंसा करते हैं) की सैन्य तानाशाही के दौरान लागू की गई नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को विकसित किया था।
भले ही हमारे समय की प्रमुख सामाजिक प्रक्रियाओं पर होने वाली बहस वामपंथियों के पक्ष में है, लेकिन आर्थिक व्यवस्था के बारे में होने वाली चर्चा के मामले में ऐसा नहीं है। जैसा कि बेजर ने कहा, ‘दुनिया अभी भी बैंकों की है’। बौद्धिक संपदा और वित्त को बैंकरों के बुद्धिजीवी नियंत्रित करते हैं, यानी वो प्रोफ़ेसर जो मुट्ठी-भर लोगों की शक्ति, विशेषाधिकारों और संपत्ति को सही ठहराने के लिए ‘बाज़ार के उदारीकरण’ और ‘व्यक्तिगत पसंद’ के नारों को दोहराते हैं। बैंकरों के बुद्धिजीवी उनके बेकार विचारों के बदले में लोगों द्वारा चुकाई जाने वाली क़ीमत की चिंता नहीं करते। वैश्विक कर दुरुपयोग (सरकारों को हर साल लगभग 500 बिलियन डॉलर का कर चुकाना पड़ता है), अवैध टैक्स स्वर्गों में पड़े खरबों अनुत्पादक डॉलर, और लगातार बढ़ रही सामाजिक असमानता जैसे प्रमुख मुद्दे शायद ही कभी बैंकरों के बुद्धिजीवियों की चिंताओं में शामिल होते हैं। दक्षिणपंथ ‘बौद्धिक रूप से ग़रीब’ हो सकता है, लेकिन उनके विचार दुनिया भर की सामाजिक-आर्थिक नीति को गढ़ रहे हैं।
हेक्टर बेजर जैसे विचारक से बात करना सौभाग्य की बात है। हमारे डोज़ियर में दिए गए विस्तृत साक्षात्कार में कई तरह के सवालों पर बात की गई है, इनमें से कुछ पर भविष्य के विश्लेषणों के लिए तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है और अन्य बातें ऐसी हैं जिन्हें ध्यान में रख कर हमें यह मूल्यांकन करना चाहिए कि दक्षिणपंथ के विचारों का वर्चस्व आज भी कैसे जारी है। बेशक, इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि दुनिया के अधिकांश हिस्सों में दक्षिणपंथ की राजनीतिक ताक़तें सत्ता पर क़ाबिज़ हैं। ये ताक़तें संस्थानों के द्वारा, विशेषज्ञ समूह बनाकर, और विश्वविद्यालयों को फ़ंड देकर वास्तविक विश्लेषण को दबाती हैं और दक्षिणपंथी विचारों का समर्थन करती हैं। बेजर ने ज़ोर देकर कहा कि शैक्षणिक संस्थानों में बौद्धिक विचार एक ऐसी संस्कृति से ग्रस्त है जो जोखिम को हतोत्साहित करती है और -लोकतांत्रिक सार्वजनिक फ़ंड कम होने के कारण- शक्तिशाली अभिजात वर्ग द्वारा दिए जाने वाले फ़ंड के आदी हो जाते हैं।
इन संस्थागत सीमाओं के बाहर दक्षिणपंथ के विचार इसलिए प्रबल हैं क्योंकि दो अक्षों पर इतिहास की कुरूपता का पर्याप्त लेखा-जोखा नहीं किया गया है। पहला यह कि, लैटिन अमेरिका, पूर्व उपनिवेशित दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह, आज भी एक ‘औपनिवेशिक मानसिकता’ से जकड़ा हुआ है। यह मानसिकता पश्चिमी विचारों और पेरू जैसे देशों के लंबे इतिहास में मौजूद मुक्तिकामी विचारों (जैसे जोस कार्लोस मारियातेगी के लेख) के बजाय पश्चिम के स्थापनावादी विचारों से बौद्धिक पोषण प्राप्त करती है। बेजर कहते हैं कि इस तरह की सीमा को हम ‘निवेशक’ के विचार से समझ सकते हैं। पेरू जैसे कई देशों में, मुख्य निवेशक बहुराष्ट्रीय बैंक नहीं हैं, बल्कि श्रमिक वर्ग के प्रवासी हैं जो प्रेषण भुगतान घर भेजते हैं। फिर भी, जब ‘निवेशक’ के विचार पर चर्चा की जाती है, तो जो छवि सामने आती है वह एक पश्चिमी बैंकर की होती है, न कि जापान या संयुक्त राज्य अमेरिका में काम करने वाले पेरू के किसी श्रमिक की। दूसरा, पेरू जैसे देशों ने तानाशाही के युग में, जब अभिजात वर्ग ने सामाजिक धन को पहले से कहीं ज़्यादा तेज़ी से हथियाया, तानाशाही में भाग लेने वालों और उससे लाभान्वित हुए लोगों को दण्ड मुक्त कर दिया है। तानाशाही के औपचारिक रूप से समाप्त होने के बाद भी पेरू में किसी भी राजनीतिक शासन ने तानाशाही के कुलीन वर्ग की शक्ति को सामने लाने का एजेंडा नहीं अपनाया। नतीजतन, असाधारण रूप से शक्तिशाली आर्थिक अभिजात वर्ग, संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ घनिष्ठ संबंधों के साथ, देश के नीति तंत्रों का संचालक बना हुआ है। बेजर कहते हैं, ‘पेरू व्यापार द्वारा उपनिवेशित राज्य है’, और ‘राज्य का प्रबंधन करने की उम्मीद रखने वाले किसी भी व्यक्ति को भ्रष्ट राज्य का सामना करना पड़ेगा’। ये महत्वपूर्ण शब्द हैं।
बेजर, और उनके जैसे हज़ारों अन्य बुद्धिजीवियों के विचारों की स्पष्टता इस बात का प्रमाण है कि विचारों की लड़ाई जारी है और ठीक से लड़ी जा रही है। ‘बौद्धिक रूप से ग़रीब’ दक्षिणपंथ के बुद्धिजीवियों के पास दुनिया को परिभाषित करने की स्वतंत्र जगहें नहीं हैं। इतिहास के बेहतर पक्ष की पुष्टि के लिए गंभीर बहसों की ज़रूरत है। ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान में हम यही करते हैं।
जब मैं बेजर की बात सुन रहा था, तब एडुआर्डो गैलेनो की किताब ‘मिरर्स: स्टोरीज़ ऑफ़ ऑलमोस्ट एवरीवन’ (2008), का आख़िरी दृष्टांत ‘लॉस्ट एंड फ़ाउंड’ याद आया। अदृश्य/ गुप्त की याद दिलाते इस दृष्टांत को पढ़िए:
बीसवीं सदी, जो पैदा हुई थी
शांति और न्याय की घोषणा करते हुए, ख़ून में नहाई हुई
ख़त्म हुई। जैसी अन्यायपूर्ण दुनिया इसे विरासत में मिली थी
उससे कहीं अधिक अन्यायपूर्ण दुनिया इसने आगे की पीढ़ियों के लिए छोड़ी।
इक्कीसवीं सदी, जो कि उसी तरह से
शांति और न्याय की बात करती हुई आई थी,
अपने पूर्वज का ही अनुसरण कर रही है।
बचपन में मुझे पूरा यक़ीन था कि
पृथ्वी पर जो कुछ भी रास्ता भटकता है
वो अंत में चाँद पर चला जाता है।
लेकिन अंतरिक्ष यात्रियों को ख़तरनाक सपनों या टूटे वादों या
टूटी उम्मीदों का कोई निशान नहीं मिला।
चाँद पर नहीं तो वो सब कुछ कहाँ गया होगा?
शायद वे कभी भटके नहीं थे।
शायद वे यहीं धरती पर छिपे हुए हैं। इंतज़ार में।
स्नेह-सहित,
विजय।