प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
21 अप्रैल को संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) के प्रमुख डेविड बेस्ले ने कहा था कि दुनिया ‘भूख की महामारी’ का सामना कर रही है। उस दिन, खाद्य संकट के ख़िलाफ़ वैश्विक नेटवर्क और खाद्य सुरक्षा सूचना नेटवर्क ने खाद्य संकट पर 2020 की अपनी वैश्विक रिपोर्ट जारी की थी। इस रिपोर्ट के अनुसार 55 देशों के 31.8 करोड़ लोग अत्यधिक खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे हैं और भूखों मरने की कगार पर हैं। ये आँकड़े हालाँकि बहुत कम संख्या दर्शा रहे हैं। यदि हम भारी काम करने के लिए ज़रूरी कैलोरी के सेवन के रूप में भूख को मापते हैं, तो वैश्विक महामारी से पहले से ही वास्तविक संख्या 2.5 अरब के क़रीब थी।
उनके अनुसार इस भूख के कारण हैं, सशस्त्र संघर्ष, ख़राब मौसम और आर्थिक अनिश्चितता। रिपोर्ट में कहा गया है कि किसी ‘झटके या प्रकोप, जैसे कि कोविद -19 महामारी’ के परिणामस्वरूप और लोग तीव्र खाद्य असुरक्षा की स्थिति में जा सकते हैं। दुनिया की आधी आबादी पर महामारी के परिणामस्वरूप भूखों मरने का संकट मँडरा रहा है।
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान इस ‘भूख की महामारी’ के ख़तरों को समझने में जुटा हुआ है। हमारे वरिष्ठ फ़ेलो पी. साईनाथ (पीपुल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के संस्थापक), रिचर्ड पिथौस (ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के दक्षिण अफ्रीका कार्यालय के समन्वयक) और मेरे द्वारा तैयार किया गया न्यूज़लेटर इस ‘भूख की महामारी’ के व्यापक प्रभाव पर केंद्रित है। न्यूज़लेटर के अंत में हमने ग्रेट लॉकडाउन के इस पहलू पर दस सूत्रीय एजेंडा प्रस्तुत किया हैं। और हम इस सूची पर आपकी राय भी चाहते हैं।
अंतरर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जिसे ग्रेट लॉकडाउन कहता है, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार उससे 2.7 अरब लोग पूरी तरह से बेरोज़गार या लगभग बेरोज़गार हो गए हैं, और इनमें से कई लोग ग़रीबी और भुखमरी की विकट स्थिति में जाने से केवल एक-दो दिन पीछे हैं। दुनिया के कई हिस्से काफ़ी समय पहले से भुखमरी का सामना कर रहे हैं। सामाजिक आंदोलन ज़मीन पर एकजुटता के क्षैतिज संगठन बनाने के लिए जो कुछ भी कर सकते हैं कर रहे हैं, लेकिन भोजन की माँग के लिए किए जाने वाले आंदोलन (फ़ूड रायट्स) भारत, दक्षिण अफ्रीका, होंडुरास में पहले से ही एक सच्चाई है। कई देशों में, सरकारें [इन माँगों] का जबाब सैन्य बल से दे रही हैं, रोटी से नहीं गोलियों से।
महामारी से पहले, 2014 में, संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने लिखा था: ‘वर्तमान खाद्य उत्पादन और वितरण प्रणाली दुनिया को खिला सकने में विफल हो रही है।’ यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बयान है। इसे गंभीरता से लेने की ज़रूरत है। अब आधे-अधूरे उपायों से काम नहीं चलेगा। हमें खाद्य-क्षेत्र में सामाजिक क्रांति की ज़रूरत है ताकि भोजन के उत्पादन और वितरण पर से पूँजी की पकड़ को तोड़ा जा सके।
भूख ऐसा कटु सच है जिसे आधुनिक सभ्यता को एक सदी पहले ही ख़ारिज कर देना चाहिए था। इंसानों के लिए कार बनाना या विमान उड़ाना सीखने का क्या मतलब था अगर वो इसके साथ-साथ भूख के अपमान को ख़त्म न कर सके हों?
अंग्रेज़ी के पुराने श्रद्धेय थॉमस माल्थस ग़लत थे जब उन्होंने लिखा था कि अनंत काल के लिए, खाद्य उत्पादन समांतर रूप से (1-2-3-4) बढ़ेगा और आबादी गुणात्मक रूप से (1-2-4-8) बढ़ेगी, और आबादी की ज़रूरतें मनुष्य की भोजन पैदा करने की क्षमता से आगे निकल जाएँगी। जब 1789 में माल्थस ने अपना ग्रंथ लिखा था, तब पृथ्वी पर लगभग एक अरब लोग थे। आज पृथ्वी की आबादी आठ अरब है, और फिर भी वैज्ञानिक हमें बताते हैं कि सब को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन से ज़्यादा भोजन का उत्पादन किया जाता है। लेकिन भुखमरी फिर भी है। क्यों?
भुखमरी दुनिया के पीछे पड़ी है, क्योंकि बहुत से लोग वंचित हैं। आप गाँव में रहते हों चाहे शहर में अगर आपके पास ज़मीन नहीं है, तो आप ख़ुद अपने भोजन का उत्पादन नहीं कर सकते। यदि आपके पास ज़मीन है, लेकिन बीज और उर्वरक तक पहुँच नहीं है, तो किसान के रूप में आपकी क्षमताएँ बाधित होती हैं। यदि आपके पास कोई ज़मीन नहीं है और भोजन ख़रीदने के लिए पैसे भी नहीं, तो आप भूखों मरते हैं।
असल समस्या यही है। बूर्जुआ व्यवस्था इस पर ध्यान देती नहीं, क्योंकि उसके लिए पैसा पूजनीय है, ज़मीन ग्रामीण हो या शहरी, बाज़ार के नियमानुसार बाँटी जाती है, और भोजन केवल एक अन्य वस्तु है जिससे पूँजी मुनाफ़ा कमाते रहना चाहती है। जब भुखमरी को ख़त्म करने के लिए बड़े पैमाने पर भोजन वितरण कार्यक्रम लागू किए जाते हैं, तो वे अक्सर कॉर्पोरेट फ़ार्म से लेकर सुपरमार्केट तक पूँजी द्वारा कब्ज़ा ली गई खाद्य प्रणाली के लिए सरकारी-सब्सिडीयों के रूप में कार्य करते हैं।
पिछले दशकों में, खाद्य-उत्पादन में वैश्विक आपूर्ति शृंखला का जाल फैल गया है। किसान अब अपनी उपज को सीधे बाज़ार में नहीं ले जा सकता; उसे अपनी फ़सल एक ऐसे सिस्टम को बेचनी पड़ती है जिसमें खाद्य-सामग्री पहले [फ़ैक्ट्रियों में] प्रॉसेस होती है, फिर एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाई जाती है, और फिर विभिन्न रिटेल आउटलेट्स पर बेचने के लिए उसे पैक किया जाता है। ये भी इतना आसान नहीं है, क्योंकि वित्तीय दुनिया किसान की उपज पर सट्टेबाज़ी भी करती है। 2010 में, खाद्य अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र के पूर्व रिपोर्टीयर, ओलिवियर डी स्कटर ने लिखा था कि हेज फ़ंड, पेंशन फ़ंड और निवेश बैंकों ने कमोडिटी डेरिवेटिव्स (एक वस्तु के बदले दूसरी) के माध्यम से कृषि-क्षेत्र पर सट्टेबाज़ी का अधिकार जमा दिया है। उन्होंने लिखा था कि ये वित्तीय घराने ‘आमतौर पर कृषि बाज़ार की मौलिकताओं के प्रति लापरवाह’ हैं।
यदि [उपरोक्त] सिस्टम को कोई भी झटका लगता है, तो पूरी शृंखला ध्वस्त हो जाती है और किसान अक्सर अपनी मेहनत का फल लोगों को खिला पाने की बजाये, अपनी उपज जलाने या दफ़नाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। ऐम विलियम्स ने संयुक्त राज्य अमरीका के बारे में फ़ाइनेंशियल टाइम्स में लिखा है, ‘ये महामंदी के दृश्य हैं: किसान अपने उत्पादों को नष्ट कर रहे हैं जबकि हज़ारों अमेरिकी फ़ूड बैंकों के बाहर क़तार लगाए खड़े हैं।’
यदि आप दुनिया के कृषि श्रमिकों, किसानों और सामाजिक आंदोलनों की सुनें, तो इस संकट के दौरान सिस्टम को पुनर्गठित करने के तरीक़े आप उनसे सीख सकते हैं। हमने उनसे जो कुछ सीखा है, उसका छोटा-सा हिस्सा पेश कर रहे हैं। इनमें तुरंत लागू किए जा सकने वाले आपातकालीन उपायों के साथ दूरगामी उपाय भी हैं जिनसे सतत खाद्य सुरक्षा की गारंटी और फिर खाद्य संप्रभुता —दूसरे शब्दों में, जनता द्वारा नियंत्रित खाद्य प्रणाली— क़ायम की जा सती है।
- आपातकालीन खाद्य वितरण लागू किया जाए। सरकारों द्वारा नियंत्रित खाद्य-पदार्थों के अधिशेष स्टॉक भुखमरी रोकने के लिए खोल दिए जाने चाहिए। सरकारों को अपने संसाधनों का उपयोग लोगों को खिलाने के लिए करना चाहिए।
- एग्रीबिज़नेस, सुपरमार्केट, और सट्टाबाज़ारों में पड़ी खाद्य-सामग्री ज़ब्त कर खाद्य वितरण प्रणाली में शामिल की जाए।
- जनता के खाने का बंदोबस्त करें। खाद्य-सामग्री बाँटना पर्याप्त नहीं है। सरकारों को, सार्वजनिक कोशिशों के अलावा, सामुदायिक रसोइयाँ बनानी चाहिए ताकि लोगों को खाना मिल सके।
- फ़सल की कटाई में चुनौतियों का सामना कर रहे किसानों के लिए सरकारी सहायता की मांग करें। सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कटाई में विश्व स्वास्थ्य संगठन के नियमों का पालन हो।
- कृषि मज़दूरों, किसानों और अन्य श्रमिकों के जीवन निर्वाह के लिए वेतन की माँग करें; इसकी परवाह किए बिना कि ग्रेट लॉकडाउन के दौरान वे लोग काम कर पा रहे हैं या नहीं। बल्कि ये व्यवस्था इस संकट के बाद भी जारी रहनी चाहिए। आपातकाल के दौरान श्रमिकों को महत्व देने का कोई अर्थ नहीं रहेगा यदि ‘सामान्य समय’ में न्याय के लिए उनके संघर्षों को नज़रअंदाज़ कर उनका तिरस्कार ही करना है।
- किसानों के लिए वित्तीय सहायता प्रोत्साहित करें ताकि वे ग़ैर-खाद्य नक़दी फ़सलों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करने की बजाये खाद्य फ़सलें पैदा कर सकें। ग़रीब देशों में लाखों छोटे किसान वे नक़दी फ़सलें पैदा करते हैं जो समृद्ध देश अपने जलवायु क्षेत्र में उगा नहीं सकते; स्वीडन में काली मिर्च या कॉफ़ी उगाना मुश्किल है। विश्व बैंक भी ग़रीब देशों को डॉलर कमाने के लिए नक़दी फ़सलों पर ध्यान देने की ‘सलाह’ देता है, लेकिन इससे उन छोटे किसानों को किसी भी प्रकार मदद नहीं मिली जो अपने परिवार चला पाने के लिए ज़रूरी फ़सल भी पैदा नहीं कर पाते हैं। इन किसानों को, उनके समुदायों और मानवता के बाक़ी हिस्सों की तरह, खाद्य सुरक्षा गारंटी की ज़रूरत है।
- खाद्य आपूर्ति शृंखला के जाल पर पुनर्विचार करें, जो कि हमारे भोजन में कार्बन की बड़ी मात्रा जोड़ता है। वैश्विक वितरण के बजाये क्षेत्र-आधारित खाद्य आपूर्ति शृंखलाओं का पुनर्निर्माण करें।
- डेरिवेटिव और वायदा बाज़ारों पर अंकुश लगाकर खाद्य पदार्थों की सट्टेबाज़ी पर रोक लगाएँ।
- ग्रामीण और शहरी दोनों प्रकार की ज़मीन बाज़ार के तर्क के बिना बाँटी जानी चाहिए, और बाज़ार इस तरह स्थापित किए जाने चाहिए कि वे खाद्य-पदार्थों का उत्पादन और खाद्य-अधिशेष का वितरण कॉर्पोरेट सुपरमार्केट के नियंत्रण के बाहर सुनिश्चित कर सकें। समुदायों का अपने क्षेत्र की खाद्य प्रणाली पर सीधा नियंत्रण होना चाहिए।
- सार्वभौमिक स्वास्थ्य प्रणाली का निर्माण करें। 1978 की अल्मा-अता घोषणा में जिसकी माँग की गई थी। मज़बूत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियाँ स्वास्थ्य संबंधी आपात स्थितियों से निपटने में ज़्यादा सक्षम होती हैं। इस तरह के सिस्टम में एक मज़बूत ग्रामीण घटक होना चाहिए और ये सब के लिए उपलब्ध रहना चाहिए, उन लोगों के लिए भी जिनके पास पहचान के काग़ज़ न हों।
ये सच है कि दुनिया में चारों ओर, यहाँ तक कि सबसे अमीर देशों में भी, बहुत से लोग इस [कोरोना] संकट से पहले ही भूख से मर रहे थे, जो पूँजीवाद की विफलताओं का गहरा संकेत है। और इस संकट के दौरान लगातार तेज़ी से फैलती भुखमरी, पूँजीवाद की विफलता को और भी प्रखर रूप से दर्शाती है। रोटी, इंसान की सबसे अहम ज़रूरतों में से एक है, और इस संकट के दौरान लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के लिए तत्काल क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है। लेकिन ज़रूरत ये भी है कि ज़मीन (ग्रामीण और शहरी); खाद्य-उत्पादन के साधनों (जैसे कि बीज और उर्वरक); और खाद्य पदार्थों के सामाजिक मूल्य को मुनाफ़े के असामाजिक तर्क के ख़िलाफ़ दृढ़ता से बचाया जाए।
1943 में ब्रिटिश साम्राज्य के नौकरशाहों ने बंगाल से अनाज लेकर वहाँ के लोगों को भयानक अकाल से ग्रस्त होने के लिए छोड़ दिया। उस अकाल में दस से तीस लाख लोग मारे गए। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य सुकांता भट्टाचार्य, जो उस समय उन्नीस साल के थे, उन्होंने फासिवाद विरोधी लेखकों और कलाकार-संघ के लिए ‘अकाल’ काव्यशास्त्र का संपादन किया था। इस किताब में भट्टाचार्य की ‘हे महाजीवन’ कविता भी प्रकाशित है।
हे महाजीवन! अब और कविता नहीं
अब कठिन, कठोर गद्य ला
पद की कोमल-झंकार मिटाकर
गद्य का कड़ा हथौड़ा आज चला।उपयोगी नहीं अब, कविता की स्निग्धता
कविता, तुम्हें दी आज के लिए छुट्टी
भूख के राज में पृथ्वी है [नीरस] गद्य
पूर्णिमा का चाँद लगता है जली रोटी।
स्नेह-सहित,
विजय।