ज़मीन और सपनों के लिए तेलुगूभाषी जनता का संघर्ष
यह डोसियर तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष की विशाल सांस्कृतिक विरासत का ब्यौरा पेश करता है और इस बात पर रोशनी डालता है कि कैसे गीतों और नाटकों ने जनता को उपनिवेशवाद, राजशाही और जमींदारी के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत दी। यह स्पष्ट है कि कला और संस्कृति वर्ग संघर्ष में जन्म लेती है और फिर वर्ग संघर्ष को आगे बढ़ाने में मदद करती है। एक ऐसे समाज में जिसे साक्षर होने से रोका गया था, वहाँ गीतों और नाटकों ने जनता में आत्मविश्वास बढ़ाने और उन्हें संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
1934 में तेलुगू कवि श्रीरंगम श्रीनिवास राव (1910-1983), जिन्हें लोग प्यार से श्री श्री कहते थे, ने महा प्रस्थानम (महा प्रस्थान) शीर्षक से एक कविता लिखी। तब तक तेलुगू भाषा में इस कविता जैसा कुछ नहीं लिखा गया था। आज दक्षिण-मध्य भारत और दूसरे इलाक़ों में जाकर बसे यहाँ के लोगों को मिलाकर यह दस करोड़ लोगों की भाषा है। श्री श्री की कविता को एक युद्ध गीत की तरह गाया जाता था, हालांकि यह किसी सेना के लिए नहीं लिखी गई थी, बल्कि क्रांतिकारियों के लिए थी, जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंक एक समाजवादी भारत का निर्माण करना चाहते थे। इसके शब्द बहुत सरल हैं, इतने आसान कि घिसे-पिटे मालूम होते हैं, लेकिन ये बोल सच कहते हैं:
घंटियाँ बज रही हैं।
एक दूसरी दुनिया पुकार रही है।
दूसरी, दूसरी, दूसरी दुनिया
उफनती, बजती, पुकारती
बढ़े चलो।
ओ, चलो, बढ़ो.
आगे, आगे, हमेशा बढ़े चलो।1
మరో ప్రపంచం,
మరో ప్రపంచం పిలిచింది!
పదండి ముందుకు,
పదండి త్రోసుకు!
పోదాం, పోదాం పైపైకి!
కదం త్రొక్కుతూ,
పదం పాడుతూ,
హ్రుదంతరాళం గర్జిస్తూ-
పదండి పోదాం,
వినబడలేదా
మరో ప్రపంచపు జలపాతం?
यह गीत लोगों को उनकी क़ाबिलियत पर भरोसा दिलाने और साथ ही एक अजेय दिखने वाले दुश्मन से लड़ने के लिए ज़रूरी प्रेरणा देने के लिए लिखा गया था। श्री श्री मानो कहना चाहते हैं कि ख़ुद पर भरोसा हो तो कुछ भी मुमकिन है। लेकिन अगर अंत में हार हासिल हो तो बलिदान का क्या अर्थ रह जाता है? भविष्य जनता को पुकारते हुए कह रहा था कि तुम्हारा बलिदान बेकार नहीं जाएगा। अंतत: जीत हासिल होने की निश्चितता, जिसके लिए बलिदान और संघर्ष अनिवार्य है, ही सबसे बड़ी प्रेरणा थी। बस आगे बढ़ो।
डोसियर, ‘ज़मीन और सपनों के लिए तेलुगू जनता का संघर्ष’, इस विचार पर आधारित है कि कला और संस्कृति दोनों वर्ग संघर्ष की उपज हैं और बदले में वे वर्ग संघर्ष पैदा भी करते हैं। इस डोसियर में हम उस व्यापक सांस्कृतिक सृजन का एक ब्योरा प्रस्तुत कर रहे हैं, जो भारत के इस हिस्से में चले महान संघर्षों से सामने आए और लोगों को लंबे प्रतिरोध में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया। यह क्रांतिकारी तेलुगू साहित्य का विस्तृत अध्ययन नहीं है और न ही यह भारत के तेलुगूभाषी क्षेत्र के कम्युनिस्ट आंदोलन का पूरा इतिहास है। हम यह दस्तावेज़ आपके साथ इस उम्मीद से साझा कर रहे हैं कि कला और राजनीति के बीच के संबंध का अध्ययन और साथ ही तेलुगू जनता के वर्ग संघर्ष के सांस्कृतिक संसार के अध्ययन में आम जिज्ञासा बढ़े।
हमने गीतों को चुना क्योंकि एक ऐसे समाज, जिसे पूरी तरह साक्षर होने से रोका गया हो, में सिनेमा के आने से पहले कहानी कहना और गीत गाना ही लोकतांत्रिक संस्कृति के प्रमुख रूप थे। तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष की कम्युनिस्ट नेता मल्लू स्वराज्यम (1931-2022) का कहना था कि औरतें और दलित गांव में धान से भूसा अलग करते समय रात के आसमान को शोषितों के गीतों से भर दिया करते थे। वे गीत ईश्वर और उनके जीवन के बारे में हुआ करते थे। स्वराज्यम कहती थीं, वे गीत इतने ख़ूबसूरत थे कि ‘चाँदनी तले सोते हुए लोग भी उनका लुत्फ़ उठाते थे’।2
ये गीत तेलुगू समाज में प्रचलित लोककला परंपरा से निकले थे, जैसे क़िस्सागोई के वे रूप जो गायन एवं नाट्य शैली का इस्तेमाल कर कथा कहते हैं। उदाहरण के लिए हरिकथा (भगवान विष्णु की कथा),पाकिर पाटलु (सूफ़ी गीतों का संकलन), भागवतम् (महाभारत की कहानियाँ) और साथ ही मज़दूर-किसानों के जीवन पर आधारित बुर्राकथा और गोलासुद्दुलु जैसे गैर-धार्मिक क़िस्से, जिन्हें एक गायक दो ढोल की थाप के साथ गाता था। इन्हीं संगीतमय कला रूपों के ज़रिए मज़दूरों व किसानों ने दबंग जातियों के विचारों को चुनौती दी। और सामाजिक बदलाव के इस कलात्मक अभियान में वामपंथ शुरू से ही शामिल हो गया था। मल्लू स्वराज्यम ने बताया कि वे विद्रोह शुरू करने के लिए कम-से-कम तीस गाँवों में गईं थीं जहां ‘मैंने एक गीत के ज़रिए लोगों में क्रांति की लौ जलाई थी। मुझे इससे ज़्यादा और क्या चाहिए था?’3
हमें गोरे स्वामियों का यह राज नहीं चाहिए
औपनिवेशिक राज ने भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकतर क्षेत्र में सामाजिक विकास को दबाकर रखा। इस सिलसिले में कुछ मूलभूत आँकड़े चौंकाने वाले हैं: 1881 से 1921 के बीच लोगों का अनुमानित जीवन काल 25 साल था और शिशु मृत्यु दर प्रति 1,000 जन्म पर 200 से अधिक थी।4 ज़मीन से जुड़े समाज सुधार आंदोलनों का भारत के उन बड़े हिस्सों में असर नहीं पड़ा था, जहां लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा को लेकर, बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह को लेकर रूढ़िवादी, जातीय प्रतिबंधों ने सामाजिक जीवन की संभावनाओं को दबा रखा था।
लेकिन आंध्र-तेलंगाना क्षेत्र सहित भारत के दक्षिणी भाग में ऐसा नहीं था, यहाँ उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक सामाजिक परिवर्तन ने जड़ें जमा ली थीं।5 कंडुकुरी वीरेसलिङ्गं (1848-1919), गुरुजाडा अप्पाराव (1862-1915) और गरिमेला सत्यनारायण (1893-1952) जैसे लेखकों ने लड़कियों की शिक्षा, विधवाओं के पुनर्विवाह के अधिकार के लिए अभियान चलाए तथा नौच या देवदासी प्रथा के ख़िलाफ़ भी आवाज़ उठाई। इस प्रथा के तहत निचली जातियों के परिवारों से युवा लड़कियों को ईश्वर को सौंप दिया जाता था (यानी उन्हें मंदिरों में रहने के लिए भेज दिया जाता था और वे मंदिरों की संपत्ति हो जाती थीं) और उच्च जातियों के पुरुष उनका यौन शोषण करते थे।6 साक्षरता दर कम होने की वजह से इस क्षेत्र के समाज सुधारक लोगों तक अपना संदेश गीतों और नाटकों के ज़रिए लेकर जाते थे।7 उदाहरण के लिए गुरुजाडा अप्पाराव ने जनपद लोक परंपरा में गीत लिखे, जिन्हें याद रखना और गाना आसान था क्योंकि वे जनभाषा में लिखे गए थे। गरिमेला सत्यनारायण का गीतलु (स्वराज के गीत) इतना प्रभावशाली था कि ब्रिटिश शासन ने 1912 में इस पर प्रतिबंध लगा दिया था और कवि को कुल साढ़े तीन साल के लिए राजद्रोह के कानून में कैद रखा था।8 सत्यनारायण का बहुत लोकप्रसिद्ध गीत ‘मकोड्डी तेल्ला डोरा तनामु’ (हमें गोरे स्वामियों का राज नहीं चाहिए) पर भी सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था, इस गीत की शुरूआत इन पंक्तियों से होती है::
हमारा जीवन दाँव पर है।
हमारा आत्मसम्मान छिन गया है।
…
हमें चावल का एक थाल नहीं मिलता।
नमक छूना हो चुका है अपराध।
वो हमारे मुँह में भर देगा मिट्टी और जाएगा [हमें दफ़नाने]।
हमें अन्न के लिए लड़ना होगा कुत्तों से [कचरे के ढेर में]।
लेकिन हमें गोरे स्वामियों का राज नहीं चाहिए, हे ईश्वर!9
తెల్లదొరతనము – దేవా
మా ప్రాణాలపై
పొంచి
మానాలు హరియించె
…
పట్టెడన్నమె
లోపమండి
ఉప్పు ! ముట్టుకుంటే
దోషమండి!
నోట – మట్టికొట్టి
పోతాడండి!
అయ్యొ! కుక్కలతో
పోరాడి – కూడు తింటామండీ
మా కొద్దీ
తెల్లదొరతనము – దేవా
इस उपमहाद्वीप में सीधे-सीधे राज करने की बजाय ब्रिटिश शासन ने ऐसे राजा और सामंत खड़े किए जो उनके नाम पर राज करें, औपनिवेशिक राज्य को राजस्व दें और इन सामंती शासकों के प्रशासनिक तंत्र के ज़रिए व्यवस्था बरक़रार रखी जाती थी। हैदराबाद का निज़ाम (पुश्तैनी शासक), जो दुनिया के सबसे अमीर लोगों में से एक था, उसका दबदबा तीन भाषाई क्षेत्रों में था: तेलंगाना (तेलुगू भाषी), मराठवाड़ा (मराठी भाषी) और हैदराबाद-कर्णाटक (कन्नड़ भाषी)। निज़ाम ने अपने राज्यों की प्रजा की संस्कृतियों की उपेक्षा की, उसे औपचारिक कार्यों में उर्दू का इस्तेमाल करने पर मजबूर किया हालांकि उर्दू आबादी के सिर्फ़ 12 प्रतिशत लोगों की ज़बान थी।10 अत्याचार और शोषण के तमाम साधनों में से भाषा भी एक साधन थी। ब्रिटिश साम्राज्य के नाम पर निज़ाम ने एक सामंती व्यवस्था के तहत शासन किया जिसकी जड़ें इस क्षेत्र के एक अजीबोगरीब जातिगत विभाजन में थी। भूस्वामियों, जो केवल दबंग जातियों के होते थे, ने बहुत सी शोषित जातियों को दबाकर और विभिन्न प्रकार से उनका शोषण कर (इसमें जबरन श्रम लेना भी शामिल है) संपदा जुटाई और सत्ता बरक़रार रखी।
शोषण के विरुद्ध एकजुट होकर जनता ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया । इस क्षेत्र के लोगों ने कई तरीक़ों से ख़ुद को संगठित किया, लेकिन इनमें से बहुतों का विवरण इतिहास की किताबों में नहीं है। 1921 में मदापति हनुमंत राव (1885-1970) और बहादुर वेंकट राम रेड्डी (1869-1953), जो कि मध्यवर्गीय परिवारों में जन्मे थे और निज़ाम के प्रशासन में काम करते थे, ने आंध्र जन संगम (एजेएस) का गठन किया। वे अपनी भाषा के प्रति भेदभाव से परेशान हो चुके थे इसलिए उन्होंने पुस्तकालय, वाचनालय यानी रीडिंग रूम, और तेलुगू के स्कूल खोले (इनमें 1928 में हैदराबाद का पहला लड़कियों का स्कूल भी शामिल है)। तेलंगाना के सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन कर चुके प्रोफेसर अड़पा सत्यनारायण लिखते हैं कि एजेएस के ज़रिए पुस्तकालय आंदोलन बीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध के ‘सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों में से एक अहम आंदोलन बन कर उभरा और उसने जन जागृति में योगदान दिया’।11
1928 में मदापति हनुमंत राव के नेतृत्व में आंध्र जन संगम का नाम बदलकर आंध्र महासभा (एएमएस) हो गया। बद्दम येल्ला रेड्डी (1906-1979), रवि नारायण रेड्डी (1908-1991) और देवुलापल्ली वेंकटेश्वर राव (1912-1984) जैसे एएमएस के कई युवा नेता कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए और इस ‘उदारवादी सांस्कृतिक संगठन’ को, इतिहासकार सुनील पुरुषोतम के शब्दों में, ‘एक जुझारू जन संगठन’ बनाने पर ज़ोर दिया।12 एक जन संगठन के रूप में एएमएस प्रचलित लोक कलाओं के माध्यम से जनता के बीच अपना संदेश लेकर गया, जैसे कि गीत और नाटक, जो पर्दाफ़ाश करते थे ब्रिटिश उपनिवेशवाद के ढाँचे, निज़ाम के राज और ग्रामीण दुनिया पर भूस्वामियों के शिकंजे का। एएमएस के नेताओं ने किसानों के आंदोलन को यूरोप में नाज़ीवाद के ख़तरे और भारत में इसके असर की आशंका के मद्देनज़र पैदा हुई नाजीवाद विरोधी विश्वदृष्टि से भी जोड़ा। 1933 में क्रांतिकारी कवि श्री श्री ने जयभेरी (विजय नाद) लिखी जिसमें उनके दौर के कलाकारों के भीतर रिस रहे गुस्से के भाव को दिखाया:
दी है समिधा
विश्व की अग्नि में।
मैंने भी
रोया है एक अश्रु
विश्व की वर्षा में।
मेरा भी
नाद शामिल है
विश्व की चिंघाड़ में।
.
సమిధ నొక్కటి
ఆహుతిచ్చాను!
నేను సైతం
విశ్వవ్రుష్టికి
అశ్రు వొక్కటి ధారపోశాను!
నేను సైతం
భువన ఘోషకు
వెర్రిగొంతుక విచ్చి మ్రోశాను!
उपनिवेशवाद, राजशाही और ज़मींदारी के विरुद्ध लड़ाई खेतों और सड़कों पर लड़ी जानी थी, लेकिन इन संघर्षों के लिए ज़रूरी था लोगों में आत्मविश्वास और यक़ीन पैदा होना कि वे न सिर्फ़ सत्ता के ढाँचे से लड़ सकते हैं बल्कि जीत भी सकते हैं। यह आत्मविश्वास और यक़ीन संघर्ष से तो पैदा होता ही है लेकिन साथ-साथ कल्पना से भी पनपता है। इसीलिए बहुत से अन्य उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों की तरह एएमएस ने ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचने और दुनिया को लेकर उनकी समझ तैयार करने में गीतों और नाटकों की भूमिका पर ज़ोर दिया। इस काम से एएमएस पॉप्यूलर कल्चर यानी लोकप्रिय संस्कृति का हिस्सा बना और उनके गीत इस क्षेत्र के संघर्षों से लगातार गहराई से जुड़े रहे हैं, जैसे कि पाडावेक्कू आंध्र महासभा पड़ाव (आंध्र महासभा की नाव पर सवार हो), जिसके लेखक का नाम कोई नहीं जानता:
ओ बंधु, हो जाओ सवार नाव पर, मेरे बंधु
ओ बंधु, हो जाओ सवार नाव पर, मेरे बंधु
आंध्र महासभा [एएमएस] की नाव, बंधु
रवि नारायणरेड्डी के हाथ है पतवार
बद्दम बालरेड्डी ने संभाली है पाल
नाव बढ़ रही है अपने लक्ष्य की ओर
ओ बंधु, हो जाओ सवार नाव पर, मेरे बंधु
सामंतों और लुटेरों की इस पर नहीं है जगह
जनता के शोषकों
सत्य भुलाया नहीं जाएगा
लक्ष्य है एक ऐसी जगह
जहाँ राज करेगा सर्वहारा
आँधियों से निकलकर,
और नौकाओं की पालों के परे
ओ बंधु, हो जाओ सवार नाव पर, मेरे बंधु।13
ఎక్కు బాబా – పడవెక్కు బాబా
ఆంధ్ర సభయను
పడవెక్కు బాబా
చుక్కా నీ బట్టే
రావి నారాయణరెడ్డి
ఎతైనలే తెరచాప
బద్దం ఎల్లారెడ్డి
గడలు బట్టిరి
కార్యకర్తలు ప్రాణాలొడ్డి
కదులు తుందీ పడవ
గమ్య స్థానము జేరు
ఎక్కు బాబా – పడవెక్కు బాబా
దొరలు దోపిడీ దార్లకు
దొరకదింత చోటైనా!
ప్రజా పీడితులకిచట
నిజము నిల్వ నీడవరు!
కష్ట జీవుల రాజ్యం
గమ్యముగా చేసుకొని
సుడిగుండముల రాటి
సూటిగా దాటిగ పోను
ఎక్కు బాబా – పడవెక్కు బాబా
तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन
1930 के दशक में एएमएस में युवा क्रांतिकारियों के शामिल होने से न सिर्फ़ संगठन में बदलाव आए बल्कि तेलंगाना की राजनीतिक दुनिया भी काफ़ी बदल गई। इन युवा कम्युनिस्टों ने एएमएस को अपने सदस्यता के नियम बदलने पर मजबूर किया जिससे ग़रीब और निरक्षर जनता भी बड़ी संख्या में संगठन से जुड़ सके। इन नए तबक़ों से आए सदस्यों ने माँग उठानी शुरू की कि संगठन अपने सांस्कृतिक कार्यों के साथ और पहलुओं में भी हस्तक्षेप करे। इसके चलते 1941 के पारित प्रस्तावों में माँग की गई कि वेट्टी (जाति आधारित बँधुआ मज़दूरी) और जाग़ीरदारी व्यवस्था को ख़त्म किया जाए और बटाईदारों के अधिकारों को लागू किया जाए। आमतौर पर संगम कहा जाने वाला एएमएस अपने रास्ते की रुकावटों को क्रांतिकारी ढंग से तोड़ते हुए पूरे ग्रामीण तेलंगाना तक पहुँच चुका था।14 एएमएस ने उन लेखकों और कलाकारों को भी आकर्षित किया जिन्होंने समाज को लोकतांत्रिक बनाने और औपनिवेशवादी निज़ाम के संस्थागत ढाँचे को ख़त्म करने के संघर्ष में अपनी कला से योगदान दिया।
क्रांतिकारी सोच केवल एएमएस के सदस्यों और उसकी कलात्मक क्रियाओं में ही नहीं पनप रही थी बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के कलाकारों और लेखकों में फैल रही थी। 1936 में वामपंथ से प्रभावित लेखकों और कलाकारों ने प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) की स्थापना की जिसका नेतृत्व प्रेमचंद (1880-1936), रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861-1941), मुल्क राज आनंद (1905-2004), ख्वाजा अहमद अब्बास (1914-1987) और सरोजिनी नायडू (1879-1949) जैसे दिग्गज कर रहे थे। 1943 तक रंगकर्मियों ने भारतीय जन नाट्य संघ या इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) का गठन कर लिया था।
आंध्र क्षेत्र भी प्रलेस और इप्टा के विकास से अछूता नहीं रहा। 1943 में प्रलेस का अधिवेशन पहली बार आंध्र में हुआ और इसी साल मुंबई में इप्टा बना। इप्टा के उद्घाटन समारोह में उर्दू शायर मखदूम मोहिउद्दीन (1908-1969) और तेलुगू नाटकों के निर्देशक गरिकापति राजाराव (1915-1963) मौजूद थे, जिन्होंने दो महीने के अंदर ही, 1 जून 1943 को आंध्र के विजयवाड़ा क्षेत्र में इप्टा की पहली मीटिंग रखवाई। तीन साल बाद, मई 1946 में प्रलेस ने अपना पहला ग्रीष्मकालीन साहित्यिक स्कूल लगाया जिससे निकली प्रजा नाट्य मंडली (पीएनएम)।15
आंध्र क्षेत्र में निज़ाम की ताक़तों और तेलंगाना के किसानों के संघर्ष की पृष्ठभूमि में प्रलेस और इप्टा विकसित हुए। ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन ने निज़ाम से कहा कि उसे युद्ध कर के रूप में अनाज मुहैया करवाए। निज़ाम ने ग़रीब किसानों की फसलें ज़ब्त करना शुरू कर दिया। कम्युनिस्ट कवि बंदी यदागिरी ने इस महान किसान संघर्ष पर निज़ाम सरकरोड़ा (ओ शासक, निज़ाम) लिखी:
ओ शासक, निज़ाम!
तुम तो नाज़ियों से भी क्रूर निकले
तुमने सताया हमें बहुत
ओ शासक, निज़ाम!
तुमने छीन ली सारी फसल
न छोड़ा एक भी दाना अन्न का
ओ शासक, निज़ाम!
न खेती को ज़मीन
न सिर पे छत
हम भागे अनजान जगह छिपने के लिए
तुमने सोचा था
देखे तुम्हारी पुलिस औ’ सेना
हम डाल देंगे हथियार
ओ शासक, निज़ाम!
न पुलिस न सेना
न डंडों की मार
न बम न हथियार
तुम ले आओ जितना भी अंबार
हम डालेंगे न हथियार
शासक निज़ाम
तुमने खड़ी की एक भ्रष्ट पुलिस
जो बचाए तुम्हें बनकर दीवार
ओ शासक, निज़ाम!
नलगोंडा है बीचोंबीच
किनारे की ओर है सूर्यपेटा
हैदराबाद है उससे परे
और फिर गोलकुंडा
गोलकुंडा किले के नीचे दफ़नाएंगे तुम्हें हम
शासक निज़ाम।16
నైజాము సర్కరోడా
నాజీల మించినోడా
యమబాధ పెడ్తివి కొడుకో
నైజాము సర్కరోడా!
పండిన పంటనంత
తిండికైన ఉంచకుండ
తీసుక వెళ్ళినావు
నైజాము సర్కరోడా!
దున్నాను భూమిలేక
వుండాను ఇల్లులేక
పరదేశము వెల్తీమి కొడుకో
నైజాము సర్కరోడా!
పోలీసు మిల్ట్రి జూసి
మేము లొంగి వస్తామని
ఒక ఆశపడ్తివి కొడకో!
నైజాము సర్కరోడా!!
పోలీసు మిల్ట్రి గాని
లాఠీల దెబ్బలుగాని
మిషీను గన్నూలుగాని
తుపాకి బాంబులు గాని
నీ వెన్ని తెచ్చినగాని
మేం లొంగీరాం కొడకో!
నెజాము సర్కరోడా!!!
కంచారు గాడ్దులాను
లంచగొండి పోలీసోల్ల
నీవు పెంచినావు కొడకో
నైజాము సర్కరోడా!
చుట్టుముట్టు సూర్యపేట
నట్టనడుమ నల్లగొండ
ఆవాలా హైద్రాబాదా
తర్వాత గోలకొండ
గోలకొండాఖిల్లా కిందా నీ
గోరి కడ్తం కొడకో
నై జాము సర్కరోడా..!
पालकुर्ती गाँव में कम्युनिस्टों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए इस क्षेत्र पर शासन करने वाले निज़ाम के अधिकारी (जिसे देशमुख भी कहा जाता था) विष्णुर रामचंद्रा रेड्डी ने एएमएस सदस्य चित्यला ऐलम्मा की ज़मीन हड़प ली। अब तक किसानों को इस तरह की हरक़तों का तजुर्बा हो चुका था। एएमएस के स्थानीय नेताओं की अगुआई में अट्ठाईस किसान ऐलम्मा की फसल बचाने के लिए इकट्ठा हुए और देशमुख के दो सौ गुंडों को भगा डाला। इसके जवाब में देशमुख ने एएमएस के नेताओं को पकड़ने के लिए अपने लोग भेजे, नेताओं को गिरफ़्तार कर उन्हें यातनाएँ दी गईं। महीनों के संघर्ष के बाद 4 जुलाई 1946 को एक हज़ार किसानों ने देशमुख के ख़िलाफ़ जुलूस निकाला। उसके गुंडों ने जुलूस पर गोलियाँ चलाईं जिसमें डोड्डी कोमारैया की मौत हो गई। वह एक ग़रीब किसान, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य और एएमएस संगठन के स्थानीय नेता थे। जुलूस इकट्ठा होकर देशमुख के घर तक गया और घर को आग लगा दी। अगले हफ़्ते में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) ने किसानों को संगठित किया और उन्होंने देशमुख से दो सौ एकड़ ज़मीन छीनकर भूमिहीन किसानों में बाँट दी। तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन का आग़ाज़ हो चुका था।17
सीपीआई के नेतृत्व में किसानों का आंदोलन पूरे ग्रामीण इलाक़े में फैल गया। न तो हैदराबाद राज्य का सैन्य बल और न ही रज़ाकार (हैदराबाद का एक स्वयंसेवी अर्द्धसैन्य बल) इस ज्वार को रोक पाए। एक के बाद एक गाँव ख़ुद को निज़ाम के राज से आज़ाद घोषित करते गए और वहां ग्राम राज्यमों (ग्रामीण कम्यून) की स्थापना हुई जिन्होंने सामाजिक ऊँच-नीच पर प्रहार किया और ज़मीन का पुनर्वितरण किया। सभी जातियों के पुरुष और महिलाओं ने सशस्त्र टुकड़ियों में हिस्सेदारी की और एक बहुत बड़े जनशासित मुक्त क्षेत्र के निर्माण के लिए लड़ाई लड़ी, इस क्षेत्र में लगभग पाँच हज़ार गाँव शामिल थे।18
प्रजा नाट्य मंडली ने आंदोलनरत किसानों को शिक्षित और प्रेरित करने के लिए तत्काल गीत और नाटक लिखे; आंध्र क्षेत्र से कार्यकर्ता रेल से तेलंगाना गए और लोगों को प्रेरित किया तथा इससे और भी कलाकार मंडली में शामिल हुए।19 इस दौर में जो सबसे यादगार नाटक लिखा गया वो था माँ भूमि, इसे कम्युनिस्ट कलाकार सनकारा सत्यनारायण और वासीरेड्डी भास्कर राव (ये दोनों आंध्र क्षेत्र के कृष्णा जिले से थे) ने 1947 में लिखा था।20 यह नाटक नलगोंडा जिले के दो सौ चालीस गाँवों में पुलिस के दमन पर लिखा गया था। यह ज़िला तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन का केंद्र था और यहाँ निज़ाम के राज्य ने 15,350 लोगों को गिरफ़्तार किया था, उन्हें यातना दी थी (इसमें 74 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएँ भी शामिल हैं) और क़ैद में 52 लोगों की हत्या की थी। यह नाटक शुरू होता है एक मुसलमान किसान बंदगी की कहानी से जिसकी ज़मीन हथियाने के लिए देशमुख ने उसे मार डाला और इसके बाद कहानी बढ़ती है कि कैसे एएमएस के ज़रिए जनता उठ खड़ी हुई।21 देशमुख ने धार्मिक और जातीय भेदभाव के आधार पर एएमएस को तोड़ने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुआ। नाटक का अंत कब्रिस्तान में होता है जहाँ लोग बंदगी को श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा होते हैं और कसम खाते हैं कि एएमएस के नेतृत्व में लड़ाई जारी रखेंगे, ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करेंगे और खेती करेंगे और निज़ाम के राज से जिसने भी हाथ मिलाया था गाँव में उसका बहिष्कार करेंगे। 1948 के अंत तक 125 मंडलियाँ माँ भूमि का मंचन कर चुकी थीं और कम-से-कम दो करोड़ लोग यह नाटक देख चुके थे।22
इन नाटकों के मंचन ने लोगों को प्रेरित और शिक्षित किया तथा साथ ही इस पूरे क्षेत्र में रंगमंच और कला की संस्कृति में भी बदलाव लाया। तेलंगाना आंदोलन में शामिल रही कम्युनिस्ट लेखिका कोंडापल्ली कोटेश्वरअम्मा (1918-2018) याद करती हैं ‘उस दौर में औरतों को नाटकों में अभिनय करने की आज़ादी नहीं थी। इसलिए महिला कॉमरेड ने बंगाल का उदाहरण दिया जहाँ रवीन्द्रनाथ टैगोर की बेटी एक नाटक में काम कर रही थीं। वरिष्ठ नेताओं ने हमारी माँग मान ली और हम नाटकों में अभिनय कर पाए’। शंकर वासी रेड्डी के नाटक मुंडाडुगु (एक कदम आगे की ओर) पहला नाटक था जिसमें महिलाओं ने पुरुषों के साथ काम किया।23
एक कम्युनिस्ट और आंध्र महिला सभा की नेता मोटुरु उदयम (1924-2002) सशस्त्र आंदोलन के समय तो भूमिगत यानी अन्डरग्राउन्ड थीं लेकिन उन्होंने विजयवाड़ा में हुई इप्टा की पहली मीटिंग में शिरकत की। इस क्षेत्र में साइकिल चलाने वाली पहली महिला उद्यम ने बुर्राकथा स्क्वाड नाम के एक सांस्कृतिक समूह का नेतृत्व किया जो नाटकों इत्यादि का मंचन करते थे, इनमें एक नाटक सोवियत युद्ध की नायिका तान्या पर भी था।24 अपने कई जेलवासों में से एक में 1947 में उदयम ने जेलों की अमानवीय स्थिति को लेकर विरोध प्रकट करने के लिए चेवुलपिल्ली मैजिस्ट्रैट (खरगोश जैसे कानों वाला मैजिस्ट्रैट) लिखा। बाद में वह याद करती हैं कि कैसे जेल में वह नाटक देखने के बाद कुछ क़ैदी कम्युनिस्ट हो गए थे।25
सशस्त्र आंदोलन के दौरान कवि सुड्डाला हनुमंथु (1908-1982) ने एक गीत लिखा ‘पलेतुरी पिल्ला गड़ा पसूलगासे मोनागाड़’ (जानवरों को हाँकने में दक्ष गाँव का लड़का [बँधुआ बाल मज़दूर]) इसका इस्तेमाल ‘माँ भूमि’ नाटक में और फिर बाद में 1979 में इस पर बनी फिल्म में हुआ।26 हनुमंथु नलगोंडा से थे (तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन का केंद्र), कम्युनिस्ट बनने से पहले उन्होंने थोड़े समय के लिए निज़ाम की सरकार के लिए काम किया था। निज़ाम के राज्य के तौर-तरीक़ों से क्षुब्ध होकर वह कम्युनिस्ट बन गए। उन्होंने कुछ वाकये बताए जिनका उन पर प्रभाव पड़ा जैसे कि एक सरकारी अधिकारी का एक बूढ़े आदमी को सिर्फ इसलिए मारना कि उसने अधिकारी का सामान उठाने से मना कर दिया था। निज़ाम की सरकार रोज़ाना जनता की बेइज़्ज़ती और शोषण करती थी और इसके विरुद्ध जनता के प्रतिरोध को देखकर हनुमंथु प्रेरित हुए। उन्होंने एक गीत लिखा ‘वे वे देब्बाकु देब्बा’ (हर धक्के का जवाब दो धक्के से), इसका शीर्षक एक बूढ़ी महिला की उस समय कही बात से लिया गया जब एएमएस की एक मीटिंग पर रज़ाकारों ने हमला किया:
हर धक्के का जवाब दो
निज़ाम की सेना के राक्षस
आयें हैं हमसे लड़ने
वार करो कुल्हाड़ी से
चाकू से कर दो उनके टुकड़े
जब वो चीखें चिल्लाएँ
कौवों और चीलों को उन्हें खाने दो!
हो! हो! हर धक्के का जवाब दो
सिपाही और रज़ाकार क्यों आए हैं इधर?
क्यों होती है लूट?
क्यों चलती हैं गोलियाँ?
क्यों मरते हैं लोग?
क्या समझता है निज़ाम खुद को?…
जब तक दुश्मन का नहीं हो खात्मा
वचन दो तुम हथियार नहीं छोड़ोगे!
दुश्मन से लड़ने में लगा दो पूरी जान
तुम्हारे अस्त्र उतने ही हैं बलवान
जितने इंद्र के
हो! हो! हर धक्के का जवाब दो
जागो और उठो, ओ किसान, ओ मेहनतकश
राव, रेड्डी, कुर्मा, गोल्ला
बढ़ई, कुम्हार, धोबी, नाई
हरिजन, आदिवासी
कसो अपनी कमर
उठाओ हसिया, भाला, कुल्हाड़ी
दांती, तलवार, बंदूक
कूद पड़ो युद्ध में
करो जयनाद…
एक गिरा एक झटके से
तीन गिरे एक फटके से
हो! हो! हर धक्के का जवाब दो।27
దెబ్బకు దెబ్బ – వెయ్ వెయ్
దయ్యపు గుండా
గోయలు తుర్కలు
కయ్యమునకు మనపైబడి వచ్చిరి
ఇయ్యరమొయ్యర వేయర బడితను
కుయ్యో మొర్రన కోయర చురికతొ
చ్రియ్యలు, వ్రయ్యలు , వ్రయ్యలుగా ఎగ
రేయర కాకులుమేయగ గ్రద్దలు
వెయ్ వెయ్ – వేయర దెబ్బ
దెబ్బకు దెబ్బ – వెయ్ వెయ్
ఎక్కడి సైనికు లెక్కడి
రజా కార్లెందుకు ఇక్కడ?
ఎందుకు దోపిళ్ళెందుకు
కాల్పులు ఎందుకు
హత్యలు యెవడా? నైజామ్.
…
రాక్షస పాలన
విధ్వంసము గావించే వరకు
ఎత్తిన
ఆయుధ మెపుడు దించమని
శపథము చేసి,
శత్రమూకలను, చెండాడర, నీ
కందినదే వజ్రాయధమగునిల
వెయ్ వెయ్ – వేయర దెబ్బ
లేరాలేరా! రారా! వేగమే రైతా! కూలీ!
రావూరెడ్డి
కూర్మాగొల్ల కుమ్మర కమ్మర
చాకల, మంగల, హరిజన, గిరిజన,
నడవర ముందుకు, నడుం బిగించి,
కొడవలి కఠారి గొడ్డలి చిల్ల బాకూ
వడిళల బర్మి తుపాకిచేకొనిరణములొ
దూకర జై యని…
నరకర ఎగబడి పొడవర తెగబడి
ఏటుకు ఇద్దరు,
పోటుకు ముగ్గురు.
వెయ్ వెయ్ – వేయర దెబ్బ
तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन 1946 से 1951 तक चला और किसानों ने इस दौरान ज़मींदारों को अपदस्थ करने और एक समाजवादी उत्पादन प्रणाली तैयार करने में काफ़ी सफलता हासिल कर ली थी। इस समय में 10 लाख एकड़ भूमि किसानों में बाँटी गई, इसके बाद जन समितियाँ इनको सुविधाएँ देतीं और सब चीज़ की देखरेख करतीं। वेट्टी (जाति आधारित बँधुआ मज़दूरी) को ख़त्म कर दिया गया और देवदासी प्रथा को भी। जनता ने संकीर्ण पहचान से जुड़े संबंधों को त्याग कर मज़बूत सामाजिक रिश्तों का निर्माण किया। सशस्त्र आंदोलन के लोकप्रिय गीतों से यह बात स्पष्ट होती है, उदाहरण के लिए ‘जाति से तुम्हें रोटी नहीं मिलती, मेरे भाई; हमें मिलकर लड़ना ही होगा’। यह सब बिना जन कलाकारों, गायकों और गाथागायकों के संभव नहीं था, जिनके गीतों और नाटकों ने लाखों ग़रीबों और शोषितों को एक ऐसी दुनिया की कल्पना करने के लिए प्रेरित किया जहाँ वे बेड़ियों में क़ैद नहीं थे और साथ ही इस दुनिया को हासिल करने के लिए उनमें आत्मविश्वास भी पैदा किया।28
1948 में निज़ाम हैदराबाद को नव-निर्मित भारत से आज़ाद रखने के लिए आतुर था जिससे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और भारत सरकार नाराज़ हो गए थे। इसलिए भारत सरकार ने हैदराबाद पर कब्ज़ा कर उसे भारतीय संघ में शामिल करने के लिए सेना भेजी। निज़ाम का राज खत्म होने के बाद भारतीय सेना ने अपनी बंदूकों की नली एएमएस के नेताओं और क्रांतिकारी किसानों की ओर मोड़ दी। कम्युनिस्ट नेता पी सुंदरैया (1913-1985) जिन्होंने तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाई थी, के अनुसार:
4,000 कम्युनिस्टों और किसान क्रांतिकारियों को मार गिराया गया; 10,000 से ज़्यादा कम्युनिस्ट कार्यकर्ता और आम लड़ाकुओं को तीन-चार साल के लिए डिटेन्शन या हिरासत शिविरों तथा जेलों में ठूँस दिया गया; लगभग 50,000 लोगों को समय-समय पर पुलिस और सेना कैम्पों में घसीटकर ले जाया गया, वहाँ उन्हें हफ्तों तक पीटा गया, यातनाएँ दी गईं; हज़ारों गाँवों के लाखों लोगों को पुलिस और सेना के तलाशी अभियान का सामना करना पड़ा और बर्बरतापूर्ण लाठी चार्ज झेलना पड़ा; पुलिस और सेना की कार्रवाइयों के कारण लोगों को लाखों की संपत्ति गँवानी पड़ी जो या तो लूट ली गई या बर्बाद कर दी गई; [और] हज़ारों महिलाओं को यौन उत्पीड़न झेलना पड़ा और अन्य तरह की बेइज़्ज़ती भी सहनी पड़ी।29
1950 में श्री श्री का कविता संग्रह ‘महा प्रस्थानम’ प्रकाशित हुआ, जिससे इस कम्युनिस्ट कवि की कविताएँ जनता का गीत बन गईं। 1951 में सीपीआई ने औपचारिक तौर से तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन का अंत कर दिया, हालांकि इसके बाद भी कुछ इलाक़ो में लड़ाई जारी रही। 1956 में नई भारत सरकार ने बचे हुए सशस्त्र आंदोलन को भी कुचल दिया और आंध्र प्रदेश राज्य की स्थापना की। लेकिन इसके बावजूद इसकी विरासत बची रही। नेहरू को भी इस दौर में हुए भूमि पुनर्वितरण के कुछ पहलुओं को स्वीकार करना पड़ा, और जनता कभी उन गीतों को भूली नहीं।
लाल सितारा अब भी जगमगा रहा है
1950 में संविधान लागू होने के बाद 1952 के लोकसभा चुनावों में 16 कम्युनिस्ट जीतकर संसद पहुँचे। इनमें से सात सीटें तेलंगाना के उन हिस्सों में से थीं जहाँ सशस्त्र आंदोलन हुआ था। एक आठवीं सीट हरिन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय (1898-1990) ने जीती थी जो निर्दलीय लड़े थे और सीपीआई ने उन्हें समर्थन दिया था, वे सरोजिनी नायडू (कांग्रेस की भूतपूर्व अध्यक्ष और कवि) और विरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के एक नेता) के छोटे भाई थे। सशस्त्र आंदोलन के दौरान चट्टोपाध्याय ने ‘टेल्स ऑफ तेलंगाना’ (तेलंगाना की कहानियाँ) नाम से एक कविता लिखी जो इस क्षेत्र और देश भर में काफ़ी पढ़ी गई:
एक कथा तेलंगाना की, एक दुखद कथा
…
[तेलंगाना] दूसरा नाम है इतिहास का
…
ये गूँजता है बार बार
भविष्य के अंधेरे गलियारों में
जिनसे गुज़रता है ऐतिहासिक तर्क और बढ़ता है
अपनी भव्य सिद्धि की ओर।30
तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन की गूँज सही में समय से परे लगातार सुनाई देती रही है।
तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन दरअसल किसानों के अपनी मुक्ति के लिए लड़े गए संघर्ष के लंबे इतिहास का एक अध्याय है, जो 1946 में इस आंदोलन के शुरू होने से बहुत पहले से चला आ रहा है। इसमें किसानों के वे विरोध प्रदर्शन भी शामिल हैं जिनके चलते नेल्लोर में सितंबर 1931 में पहला आंध्र प्रदेश ज़मींदारी विरोधी सम्मेलन हुआ था और साथ ही 1937 में इच्छापूरम (श्रीकाकुलम जिला) से मद्रास तक किसानों का ऐतिहासिक जुलूस भी। किसानों के विरोध प्रदर्शनों की इसी कड़ी के चलते अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) की एक क्षेत्रीय इकाई का गठन हुआ और इसके बाद इस क्षेत्र को दो बार एआईकेएस के सम्मेलन की मेज़बानी भी मिली, एक बार पलासा (1940) और फिर विजयवाड़ा (1944)। विजयवाड़ा के सम्मेलन के लिए एआईकेएस ने 1,00,000 किसानों को लामबंद किया और इसके समापन के बाद एक बड़ा अभियान चला जिसमें 2,000 गाँव की जनता तक किसान संघर्ष का संदेश पहुँचाया गया। इसके अगले साल 50,000 किसानों ने आंध्र क्षेत्र की किसान सभा के सम्मेलन के लिए अपने-अपने गाँव से तेनाली (गुन्टूर जिला) तक रैली निकाली।31 किसानों का संघर्ष तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन में तब्दील हुआ और इसके बाद 1960 के दशक में विद्रोह की नई शृंखला के रूप में जारी रहा।
जब 1953 में आंध्र प्रदेश का गठन हुआ तो भारत सरकार ने इस क्षेत्र में वाणिज्यिक खेती का विकास शुरू किया, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में पहले से मौजूद समस्याएँ और बढ़ गईं, जैसे जाति आधारित असमानता और कुछ दबंग जातियों द्वारा राज्य भर में कुछ सुविधाएँ हासिल कर लेना, इन दोनों की ही वजह से शोषित जातियों, ख़ासकर भूमिहीन मज़दूरों के खिलाफ हिंसा और उनकी क्षति और बढ़ गई। इससे इस क्षेत्र के किसानों में प्रतिरोध की भावना पैदा हुई जिससे सरकार एक भूमि सुधार जाँच कमेटी बैठाने को मजबूर हुई और 1955 के आंध्र प्रदेश (तेलंगाना क्षेत्र) इनाम उन्मूलन अधिनियम जैसे सुधार पारित हुए।32 यह संघर्ष इस क्षेत्र में किसान आंदोलन का सीधा परिणाम था।
भारत की आज़ादी के बाद हुए कुछ मामूली से सुधारों से खेत मज़दूरों और किसानों के सामने जो संकट था वह ख़त्म नहीं हुआ। तेलंगाना सशस्त्र आंदोलन के जो संकल्प थे, वो आज भी ज़िंदा हैं और अलग-अलग रूपों में बार-बार उभरेंगे, जिसमें किसानों का सशस्त्र आंदोलन भी शामिल है और इन आंदोलनों के साथ जन्म लेने वाली कविता भी।
सशस्त्र आंदोलन ख़त्म होने के एक दशक बाद, 31 अक्टूबर 1967 को लेविडी गाँव के रहने वाले दो कम्युनिस्ट किसान, कोरन्ना और मन्गन्ना, गिरिजन समागम सम्मेलन (गिरिजन यानी भारत के पूर्वी घाट पर रहने वाले आदिवासी) में जा रहे थे। वो सम्मेलन में पहुँचे इससे पहले ही उन्हें गाँव के ज़मींदारों ने घेर लिया और मार डाला। जब उनकी हत्या की खबर सम्मेलन तक पहुँची तो गिरिजनों ने जवाब में ज़मींदारों पर हमला कर दिया और पूरे इलाक़े में संघर्ष फैल गया। पूरे एक साल तक गिरिजनों और दूसरे आदिवासी किसानों ने आंध्र प्रदेश के इस हिस्से में ज़मींदारों और पुलिस थानों पर हमले जारी रखे। यह शासन के ख़िलाफ़ किसानों के तीखे संघर्ष के एक नए दौर की शुरूआत थी। विद्रोह आस-पास के जिलों में फैला, जिसमें श्रीकाकुलम भी शामिल है जो इसका केंद्र बना। इस आंदोलन के तीन नेता उभरे: सुब्बा राव पाणिग्रही (1933-1969), जो एक मंदिर के पुजारी रह चुके थे, वेमपतापु सत्यनारायण या ‘सत्यम’ (1934-1970), जो एक स्कूल शिक्षक थे, और अदीभाटला कैलासम (1970 में सत्यम के साथ इनकी मृत्यु हुई), वे भी स्कूल शिक्षक थीं। इन्होंने आदिवासियों सहित बड़ी संख्या में किसानों को लामबंद किया कि वे माओवादी रुझान वाली भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) की सशस्त्र टुकड़ियों में शामिल हों। भारत सरकार इस माओवादी विद्रोह को कुचलने के लिए आतुर थी इसलिए इस इलाके में 12,000 सैनिक भेजे गए। इन तीनों नेताओं को मार डाला गया और यह आंदोलन अंतत: बिखर गया।
साठ के दशक के अंतिम सालों में इस क्रांतिकारी उबाल के बीच फिल्मकार बी. नरसिंह राव (जन्म 1946) ने ग्रामीण हैदराबाद में आर्ट लवर्स एसोसिएशन की स्थापना की, जहाँ हर हफ़्ते मीटिंग में यह चर्चा होती थी कि किसान संघर्ष की ज़रूरतें पूरी करने के लिए क्रांतिकारी कला की रचना करने की आवश्यकता है। इन्हीं मीटिंगों के दौरान, सदस्यों – जिनमें से अब कई माओवादी आंदोलन में शामिल हैं – ने जन नाट्य मंडली (जेएनएम) की स्थापना की। लोकप्रिय कला की कम्युनिस्ट परंपरा से प्रेरणा लेकर जेएनएम ने लोक गीतों और क्रांतिकारी गीतों को इकट्ठा किया, उन्हें सहेजा और दूसरों से साझा किया, हैदराबाद के आसपास के गाँव में घूमकर कविताएँ इकट्ठा कीं और उनके साथ अपनी कविताएँ साझा कीं।
4 जुलाई 1970 को क्रांतिकारी कलाकारों और लेखकों ने माओवादी रुझान वाले विप्लव रचैतल संगम (इसे विरासम भी कहा जाता था) की स्थापना की, इसके संस्थापक अध्यक्ष थे श्री श्री। ये लेखक और कलाकार जोसेफ स्टालिन और माओत्से तुंग की मार्क्सवादी सांस्कृतिक अवधारणाओं से प्रेरित थे, जिन्होंने कहा था कि कला विषयवस्तु में अनिवार्य रूप से ‘सर्वहारा से जुड़ी, रूप में राष्ट्रीय’ और ‘जनता से निकलकर जनता तक जानी चाहिए’।33 विरासम ने एक मासिक पत्रिका अरुणतारा निकाली, जिसमें कविताओं के साथ राजनीतिक विश्लेषण भी छपते थे। इसमें छपी सामग्री में से सबसे ज़रूरी रही के.जी. सत्यमूर्ति (1931-2012, जिन्हें उनके गुप्तवास के नाम शिवसागर से भी जाना जाता है) की लिखी एक कविता और गीत ‘नारूडो भसकरुडो’ (ओ मनुष्य! ओ भास्कर!, 1970)। यह इतनी महत्त्वपूर्ण इसलिए थी कि यह जनता के लिए बोलचाल की भाषा में लिखी तेलुगू साहित्य में अपनी किस्म की पहली कविता थी।34 यह गीत एक भास्कर नाम के शहीद को श्रद्धांजलि देता है:
तुम सुंदर वृक्ष के बीचे बैठे
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुम्हारी आँखें हैं लाल
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुम कूद पड़े संघर्ष में
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
एक बैरंका वृक्ष के नीचे
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुमने उठाए हथियार
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
हथियार उठाकर
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुमने तोड़ दिए संबंध अपने परिवार और समुदाय से
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
एक गोड़दंगी वृक्ष के नीचे
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुमने अपनी कुल्हाड़ी की धार तेज़ की
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
धारदार कुल्हाड़ी से
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुमने वार किया भालू पर
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
एक महुआ वृक्ष के नीचे
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुम लड़े तीर कमान से
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तीर कमान से
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुमने हासिल की विजय
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुम्हारी वीरता देखी
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
उन्होंने [राज्य] ज़हरीली आँखों से
…
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
उन्होंने [राज्य] काट दिया तुम्हारा सिर
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
सिंगनेरी सीमा के पास
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
…
जो राह दिखाई तुमने
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
है हमारा पथ महान
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुम्हारी दिखाई राह पर
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
हम लेंगे शस्त्र थाम
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
एक बैरंका वृक्ष के नीचे
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुमने उठाए हथियार
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
हथियार उठाकर
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!
तुमने तोड़ दिए संबंध अपने परिवार और समुदाय से
ओ मनुष्य! ओ भास्कर!35
కన్నెర సేస్తివయ్యా నరుడో! భాస్కరుడా!
కన్నార సేసి నీవు నరుడో! భాస్కరుడా!
కదనాన దూకితివా నరుడో! భాస్కరుడా!
బర్రెంక సెట్టుకింద నరుడో! భాస్కరుడా!
బందూకు పడ్తివయ్య నరుడో! భాస్కరుడా!
బందూకు సేతబట్టి నరుడో! భాస్కరుడా!
బంధాలు తెంచ్తివయ్య నరుడో! భాస్కరుడా!
గొట్టంకి సెట్టుకింద నరుడో! భాస్కరుడా!
గొడ్డళ్ళు నూర్తివయ్య నరుడో! భాస్కరుడా!
గొడ్డళ్ళు నూరి నీవు నరుడో! భాస్కరుడా!
గుడ్డెలుగు కొడ్తివయ్య నరుడో! భాస్కరుడా!
విప్పపూ సెట్టుకింద
నరుడో! భాస్కరుడా!
విల్లు సారించితివా
నరుడో! భాస్కరుడా!
విల్లంబు సారించి
నరుడో! భాస్కరుడా!
విజయ మే అన్నావో నరుడో! భాస్కరుడా!
నీదు శౌర్యం సూసి నరుడో! భాస్కరుడా!
కళ్ళల్లో జిల్లేళ్ళు నరుడో! భాస్కరుడా!
…
నీ శిరసు తీస్తిరయ్య నరుడో! భాస్కరుడా!
శింగేరి గట్టుకింద నరుడో! భాస్కరుడా!
…
నీవు సూపినబాట నరుడో! భాస్కరుడా!
మాదొడ్డ బాటయ్య నరుడో! భాస్కరుడా!
నీ బాటనే మేము నరుడో! భాస్కరుడా!
బందూకు పడ్తాము నరుడో! భాస్కరుడా!
బర్రెంక సెట్టుకింద నరుడో! భాస్కరుడా!
బందూకు పట్టాము నరుడో! భాస్కరుడా!
బందూకు సేతబట్టి నరుడో! భాస్కరుడా!
బంధాలు తెంచాము నరుడో! భాస్కరుడా!
इन क्रांतिकारी परंपराओं से प्रेरित होकर युवा लोकगीत गायक गुम्मादी विट्ठल राव (1949-2023) – जिन्हें गदर भी कहा गया – विरासम की एक मीटिंग में गए और नरसिंह राव से मिले, जिन्होंने बाद में माँ भूमि (1979) और दासी (1988) जैसी क्रांतिकारी फिल्में बनाईं। नरसिंह ने गदर से कहा ‘एक क्रांतिकारी गीत में जनता की आजीविका के संघर्ष दिखने चाहिए और इस स्थिति से उबरने के उनके दैनिक संघर्ष भी’।.36
ऐसी ही क्रांतिकारी गीत रचने की अपनी तलाश में गदर और उनके ग्रुप को यह लोकप्रिय लोक गीत ‘अपुरा बंडोडो’ (रुको, ओ रिक्शेवाले) मिला:
रिक्शा रोको, रिक्शेवाले।
मैं तुम्हारे पास आती हूँ
तुम और मैं भागते हैं
मैं तुम्हारे गाल पर काट लूँगी!
रुको, रिक्शेवाले!
मैं तुम्हारे रिक्शे के पीछे चलूँगी।
रुको ज़रा पहनने दो मुझे साड़ी
पहनने दो ज़रा ब्लाउज़।
रुको, रिक्शेवाले!
मैं तुम्हारे रिक्शे के पीछे चलूँगी।37
నిలుపుర బండోడో బండిమీద నేనొస్తా
నువ్వు నేను పారిపోదాం
నీ బుగ్గ కొరుకుత
అపుర బండోడో బండెంట నేనొస్తా
చీరగట్టిందాకా
రైకా దొడిగిందాకా
అపుర బండోడో
బందెంటనేనొస్తా..
गौर करने पर यह काफी रूमानी लगा और एक रिक्शेवाले की परेशानियों से भरी ज़िंदगी इसमें नहीं दिखाई दी। इस गीत की धुन पर गदर ने इसका एक रूपांतर लिखा जो लोगों की ज़िंदगी से ज़्यादा जुड़ा हुआ था:
सत्य थिएटर में दिखाऊँगी तुम्हें फिल्में।
लाल बाज़ार में दूँगी तुम्हें
खाने को लड्डू।
कारखाने में दिलाऊँगी तुम्हें ताड़ी।
अल्फा होटल में दिलाऊँगी तुम्हें आलू बिरयानी
रुको, रिक्शेवाले
मैं तुम्हारे रिक्शे के पीछे चलूँगी।38
సత్యా టాకీస్లోన నీక్ సిన్మా జూపిస్తా
లాల్బజార్ కాడా లడ్డు మిఠాయ్ దినిపిస్తా
కార్ఖాన కాడా – నిక్ కల్లు బోపిస్తా
ఆల్ఫా హోటల్లో ఆలు బిర్యాని దినిపిస్తా
ఆపుర రిక్షోడో రిక్షెంట నేనొస్తా
నిలుపుర రిక్షోడో రీక్ష మీద నేనొస్తా
लेकिन यह भी नाकाफ़ी लगा। रिक्शेवाले के लिए इतना सब लेने के लिए महिला के पास पैसा कहाँ से आएगा? इसलिए गदर सही संदर्भ की तलाश में लगे रहे:
हम कर लें जितनी भी मेहनत, खाली रहेंगे हमारे पेट।
इस कांग्रेस राज में, खाली रहेंगे हमारे पेट।
तुम चलाओ अपना रिक्शा और मैं दूँगी तुम्हारा साथ।39
డొక్క నిండని మనకు
కాయ కష్టం జేశ్నా – కడుపే నిండని
మనకు
ఈ కాంగ్రెస్ పాలనలో
మన కడుపు నిండదిరా
నిలుపుర రిక్షోడో – రిక్ష మీద నేనొస్తా
यह गीत अपने नवीनतम और अंतिम स्वरूप में बेहद लोकप्रिय हुआ और इसके रचयिता गदर भी। पिछले साल यानी 2023 में 74 बरस की उम्र में गदर की मौत हो गई। वे जन नाट्य मंडली के सबसे प्रसिद्ध कलाकार थे और उन्होंने अपने जीवन काल में 5,000 से ज़्यादा गीत लिखे व गाए थे, जिनमें से कई लोककथाओं में शामिल हो चुके हैं, और लाखों लोग बिना इनके स्रोत को जाने इन्हें बहुत पसंद करते हैं।40
गदर तेलंगाना के मेडक जिले के तुपरण गाँव की एक शोषित जाति से थे और उन्हें पैसों की कमी के चलते इंजीनियरिंग कॉलेज छोड़ना पड़ा। 1972 में वे पीपल्स वॉर ग्रुप में शामिल हुए। आपातकाल (1975-1977) के दौरान जब भारत सरकार ने संविधान की धज्जियां उड़ानी शुरू की तो उन्हें गिरफ़्तार कर पैंतालीस दिन जेल में रखा गया। 1986 में वे अन्डरग्राउन्ड हो गए और आठ महीने दण्डकारण्य जंगल में काम किया। 1992 में उन्होंने ग़रीब परिवारों के बच्चों और पुलिस एनकाउन्टरों में जिनके माँ-बाप मारे गए, उन बच्चों के लिए बोधि स्कूल शुरू किया। 1995 में मुख्यधारा की एक फिल्म के लिए गीत लिखने के लिए पीपल्स वॉर ग्रुप से उन्हें निलंबित कर दिया गया। 6 अप्रैल 1997 को एक अज्ञात व्यक्ति ने उनकी हत्या की कोशिश की। उन्हें छह गोलियाँ मारी गई थीं। वे बच तो गए लेकिन ताउम्र उनकी रीढ़ की हड्डी में एक गोली फँसी रही। लेकिन इस सबके बावजूद उनके गीत नहीं रुके।41
कला को जनता से निकल, जनता तक जाना चाहिए
तेलुगूभाषी लोगों के संघर्षों और जीवन में गीत बहुत गहराई से जुड़े हुए हैं। गीतों में ही इतिहास को बचाए रखा जाता है; गीतों में ही ऐतिहासिक व्याख्याओं को चुनौती देकर वर्ग संघर्ष दिखाया जाता है; और गीतों के ज़रिए ही सामाजिक एकजुटता और आत्मविश्वास के नए संघर्ष जन्म लेते हैं।
दुनियाभर में कई ऐसी कलाकृतियाँ हैं जो ज़मींदारों की निर्दयी सत्ता को चुनौती देती हैं। ज़मींदार न सिर्फ़ किसानों द्वारा पैदा की गई अतिरिक्त फसल पर अपना अधिकार चाहते हैं बल्कि वो अपने प्रति ऐसी श्रद्धा भी चाहते हैं जिसका इंसानियत से कोई मेल नहीं। 1927 में युवा माओत्से तुंग (1893-1976) किसानों की स्थिति का जायज़ा लेने हुनान गए और पूछा:
हज़ारों कानून और राजनीतिक विज्ञान के स्कूल खोले गए हैं, लेकिन क्या ये स्कूल जनता, पुरुषों और महिलाओं तक, ग्रामीण इलाकों के दूरदराज़ के कोनों तक, उतनी राजनीतिक शिक्षा पहुँचा पाए हैं जितनी किसान संगठनों ने इतने कम समय में पहुँचाई है?42
किसान संगठनों ने ही किसानों को नए नारों से अवगत करवाया और उनमें आत्मविश्वास जगाया। किसान संगठनों और उनसे जुड़ी सांस्कृतिक इकाइयों ने ही अपने नाटकों, गीतों और नारों से हज़ार साल की ज़मींदार वर्ग की सत्ता को तोड़ने में मदद दी।
किसानों के ज़हन में यह विचार बहुत गहराई से बैठा हुआ है कि राजाओं और ज़मींदारों के वर्ग को आर्थिक और राजनीतिक ताक़त भगवान ने दी है। इस विचार को ख़त्म करने के लिए साहस, संगठन और आत्मविश्वास की ज़रूरत होती है, और ये मिलते हैं संयुक्त राजनीतिक और सांस्कृतिक संघर्ष से। अगर भूमि पुनर्वितरण के बावजूद किसान ज़मींदारों को दैविक ही मानते रहेंगे तो दबंग जातियाँ हर बार सत्ता में वापसी करती रहेंगी। राजनीतिक संघर्ष सत्तारूढ़ वर्ग की ताक़त को तोड़ता है लेकिन इस जीत को बरक़रार सांस्कृतिक संघर्ष रखता है, और यही सांस्कृतिक संघर्ष ज़मींदारों और किसानों, दोनों को अंतत: इंसान बनने की आज़ादी देता है।
संदर्भ सूची
1 V. Ramakrishna, ‘Left Cultural Movement in Andhra Pradesh: 1930s to 1950s’, Social Scientist 40, no. 1–2 (January–February 2012), 21–30.
2 मल्लू स्वराज्यम, ‘न माते तुपाकी तुतलु’ [गोलियों जैसे मेरे शब्द]। (हैदराबाद, हैदराबाद बुक ट्रस्ट, 2019), 23, हमारा अनुवाद।
3 स्वराज्यम, ‘न माते’, हमारा अनुवाद।
4 K. Navaneetham and C. S. Krishnakumar, ‘Mortality Trends and Patterns in India: Historical and Contemporary Perspectives’, in Shaping India: Economic Change in Historical Perspective, eds. D. Narayana and Raman Mahadevan (New Delhi: Routledge, 2020), 266–294.
5 आंध्र और तेलंगाना दोनों तेलुगूभाषी क्षेत्र हैं। आज़ादी से पहले आंध्र ब्रिटिश राज के अंतर्गत आता था जबकि तेलंगाना हैदराबाद के निज़ाम के अधीन था। आज़ादी के बाद और संगठित संघर्ष के बाद इन दो क्षेत्रों को मिलाकर आंध्र प्रदेश (1956) राज्य बनाया गया। 2014 में राज्य को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया गया – आंध्र प्रदेश और तेलंगाना।
6 Tameshnie Deane, ‘The Devadasi System: An Exploitation of Women and Children in the Name of God and Culture’, Journal of International Women’s Studies 24, no. 1 (2022): 8.
7 A. K. Prabhakar, M A Telugu Janapada Vibhagam (Hyderabad: Dr B. R. Ambedkar Open University, 2009).
8 एस वी सत्यनारायण, ‘तेलगुलो उद्यम गीतलु’ (तेलुगू में आंदोलन के गीत)। हैदराबाद: ए पी प्रग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन, 2005, 54–56, हमारा अनुवाद।
9 सत्यनारायण, ‘तेलगुलो उद्यम गीतलु’।
10 P. Sundarayya, Telangana People’s Struggle and Its Lessons (Calcutta: Communist Party of India (Marxist), 1972), 3.
11 Adapa Satyanarayana and Dyavanapalli Satyanarayana, Telangana History, Culture, and Movements (From Pre-History to Formation of the State) (Hyderabad: Telangana Publications, 2022); Adapa Satyanarayana, ‘The Pioneer of People’s Literature in Telangana’, The Hans, 1 November 2016, https://www.thehansindia.com/hans/opinion/news-analysis/how-hurricanes-will-change-as-earth-warms-890664?infinitescroll=1.
12 Sunil Purushotham, From Raj to Republic: Sovereignty, Violence, and Democracy in India (Redwood City: Stanford University Press, 2021), 190. इसके साथ ही देखें Rama Sundari Mantena, ‘The Andhra Movement, Hyderabad State, and the Historical Origins of the Telangana demand: Public Life and Political Aspirations in India, 1900–1956’, India Review 13, no. 4 (2014): 337–357.
13 ‘पड़ाव पत’, जयधीर तिरुमाला राय द्वारा संपादित पुस्तक ‘तेलंगाना पोराता पटलु’ में से। हैदराबाद: सहिति सर्कल, 1990, पेज नं 37, हमारा अनुवाद।
14 Purushotham, Raj to Republic, 191.
15 Ramarao Peddi, ‘Theatre of the Marginalised. Politics of Representation’ (Ph.D. Thesis, University of Hyderabad, 2003), 200.
16 यादगिरी, ‘नैज़ामु सरकरोड़ा’, पुस्तक ‘तेलंगाना पोराता पटलु’ में से, पेज नं 96। हमारा अनुवाद।
17 Sundarayya, Telangana People’s Struggle and Its Lessons, 26. See also, G. Kamalakar, ‘Tribal and Peasant Armed Struggle in Telangana’, Interaction 36, no. 1 (2018): 51–60; Dhanaraju Vulli, ‘Making Peoples History in Telangana Movement: Remembering Voyya Raja Ram Dhanaraju’, International Research Journal of Social Sciences 3, no. 6 (June 2014): 37–43.
18 Sundarayya, Telangana People’s Struggle and Its Lessons; Mohan Ram, ‘The Telangana Peasant Armed Struggle, 1946–1951’, Economic and Political Weekly 8, no. 23 (June 1973); Mohan Ram, ‘The Communist Movement in Andhra Pradesh’, Radical Politics in South Asia, eds. Paul Brass and Marcus Franda (Cambridge: MIT Press, 1973); Ravi Narayana Reddy, Heroic Telangana: Reminiscences & Experiences, no.17, October 1973 (New Delhi: Communist Party Publications).
19 V. Ramakrishna, ‘Left Cultural Movement in Andhra Pradesh’.
20 Srinath Sriperumbudur, ‘The Freedom Struggle and the Telugu Song, Theatre, and Cinema in South India’, Journal of Indian History and Culture, no. 28 (December 2021): 448–465.
21 शेख बंदगी के संघर्ष के बारे में और जानने के लिए देखें, Devulapalli Venkateswara Rao, Telangana Peoples’ Armed Struggle (Devulapalli Venkateshwara Rao Research Centre, 2002), 31–39.
22 Ramarao Peddi, ‘Theatre of the Marginalised’, 252–288.
23 Stree Shakti Sanghatana, We Were Making History: Life Stories of Women in the Telangana People’s Struggle (London: Zed Books, 1989), 123.
24 तान्या नाज़ियों से लड़ने वाली एक युवा सोवियत कम्युनिस्ट ज़ोया कोस्मोडेम्यास्काया का छद्मनाम था, इन्हें युद्ध के शुरुआती दौर में ही पकड़ कर फाँसी दे दी गई थी। इनकी कहानी पूरे यूएसएसआर और दुनियाभर के कम्युनिस्टों में फैल गई। 1944 में इनके जीवन पर लेव आर्नश्तम ने बेहतरीन फिल्म ज़ोया बनाई। Ramarao Peddi, ‘Theatre of the Marginalised’, 201.
25 Sanghatana, We Were Making History, 194–195.
26 Vulli Dhanaraju, ‘Voice of the Subaltern Poet: Contribution of Suddala Hanumanthu in Telangana Peoples’ Movement’, Research Journal of Language, Literature, and Humanities 2, no. 7 (2015); और देखें: के आनंदाचारी द्वारा संपादित पुस्तक ‘प्रजाकवि सुड्डाला हनुमंथु समग्र साहित्यम-जीवितम’ [जनकवि सुड्डाला हनुमंथु का संपूर्ण साहित्य एवं जीवनी] (हैदराबाद: नव तेलंगाना पब्लिशिंग हाउस, 2024)।
27 जयधीर तिरुमाला राय, ‘तेलंगाना पोराता पटलु’, पेज नं 146, हमारा अनुवाद।
28 पसनूरी रविंदर, ‘तेलंगाना उद्यम पाट-प्रदेशिका’ [तेलंगाना आंदोलन के गीत: क्षेत्रीय अवलोकन] (हैदराबाद: तेना, 2016); एस वी सत्यनारायण, ‘तेलगुलो उद्यम गीतलु’ [तेलुगू में आंदोलन के गीत], (हैदराबाद: पोत्ती श्रीरामुलू तेलुगु यूनिवर्सिटी, 2019)।
29 Sundarayya, Telangana People’s Struggle and Its Lessons, vii.
30 Reproduced in Sundarayya, Telangana People’s Struggle and Its Lessons, 383–414.
31 Telakapalli Ravi, ‘Peasant Struggles in Andhra Pradesh and Telangana: Reports from the Field’, Review of Agrarian Studies 5, no. 2 (2015): 114; तेलकपल्ली रवि, जी रघुपाल, साय्याद निसार, एवं महेंद्र एम रेडी, ‘वीर तेलंगाना माड़ी’ [हमारा वीर तेलंगाना] (हैदराबाद: भारत की कोम्मनस्त पार्टी (मार्क्सवादी), 2006); जी रघुपाल एवं बी वेंकटेश्वरलु, ‘सी सी ओ नलगोंडा वीरूलु’ [तैयार रहो, नलगोंडा के नायक](हैदराबाद: प्रजाशक्ति, 2011); यू रामकृष्ण, ‘कृष्णा ज़िला कम्युनिस्ट उद्यम गाथालु: त्यागदनुला वीरचरित्रालु’ [कृष्णा ज़िला के कम्युनिस्ट आंदोलन और वीरतापूर्ण बलिदान की कहानियाँ] (विजयवाड़ा: भारत की कॉम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), 2012); के आनन्दाचारी, पी वी कृष्णा राव, एवं नन्ना नगेस्वर राव, ‘खम्माम ज़िला कम्युनिस्ट योधुलू’ [खम्माम ज़िला के कम्युनिस्ट योद्धा] (खम्माम: बोडेपड़ि विज्ञान केंद्र, 2012); एम वी एस कोटेस्वर राव, सी एच हरी बाबू, एवं सुधा किरण, ‘गुंटूर डिस्ट्रिक्ट कम्युनिस्ट वीरूलू’ [गुंटूर ज़िला के कम्युनिस्ट शहीद] (हैदराबाद: प्रजाशक्ति बुक हाउस, 2013); जी रघुपाल, एवं एस यादगिरी, ‘वारंगल वीर गाथालु’ [वारंगल की वीर गठाएँ] (वारंगल: भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), 2006); वाई सिद्दय्या, ‘प्रकासम ज़िला अमर वीरुलु’ [प्रकासम ज़िला के अमर सैनिक] (हैदराबाद: प्रजाशक्ति बुक हाउस, 2012).
32 K. Srinivasulu, ‘Caste, Class, and Social Articulation in Andhra Pradesh: Mapping Differential Regional Trajectories’, Working Paper no. 179, Overseas Development Institute, Osmania University, 2002, 8.
33 Joseph Stalin, J. V. Stalin Works, vol. 7 (Moscow: Foreign Languages Publishing House, 1954); N. Venugopal Rao, Understanding Maoists: Notes of a Participant Observer from Andhra Pradesh (Kolkata: Setu Prakashani, 2013), 99; Tricontinental: Institute for Social Research, Go to Yan’an: Culture and National Liberation, dossier no. 52, 16 May 2022, https://dev.thetricontinental.org/dossier-yanan-forum/.
34 Venugopal, Understanding Maoists.
35 K. G. Satyamurthy, ‘Narudo Bhaskarudo’, in Shivasagar Poetry, ed. Gurram Sitharamulu (Hyderabad: Anvikshi Publishers, 2019), 36–38.
36 बी नर्सिंग राव, ‘अग्नि सरस्सुना विरिसिना वज्रम’ [अग्नि ताल में खिला हीरा] (हैदराबाद: विस्वनाथ साहित्य पीठम, 2023), 5, हमारा अनुवाद।
37 Gaddar, My Life Is a Song: Gaddar’s Anthems for the Revolution, trans.Vasanth Kannabiran (New Delhi: Speaking Tiger Books, 2021), E-book.
38 Gaddar, My Life Is a Song, 44–64.
39 Gaddar, My Life Is a Song.
40 For more on Gaddar and for a selection of his songs in English translation, see My Life Is a Song.
41 Gaddar, My Life Is a Song; Keshav Kumar, ‘Singing for Revolution: Revisiting the Life and Lyrics of Gaddar’, Maidaanam, 3 October 2023, https://maidaanam.com/singing-for-revolution-revisiting-the-life-and-lyrics-of-gaddar/.
42 Mao Zedong, ‘Report on an Investigation of the Peasant Movement in Hunan’, in Selected Works of Mao Tse-tung, vol. 1 (Peking: Foreign Languages Press, 1965), 47.