प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
9 अक्टूबर 2020 को संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य कार्यक्रम को नोबेल शांति पुरस्कार मिला। पुरस्कार के प्रशस्ति पत्र में नॉर्वेजियन नोबेल समिति ने ‘भूख और सशस्त्र संघर्ष के बीच की कड़ी‘ की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि ‘युद्ध और संघर्ष खाद्य असुरक्षा और भूख का कारण बन सकते हैं, ठीक उसी तरह जैसे भूख और खाद्य असुरक्षा अप्रत्यक्ष संघर्ष भड़का सकती है और हिंसा के उपयोग को बढ़ावा दे सकती है।‘ नोबेल समिति ने कहा कि भुखमरी को जड़ से ख़त्म करने के लिए ज़रूरी है ‘युद्ध और सशस्त्र संघर्ष का अंत’।
महामारी के दौरान, भूखे पेट सोने वालों की तादाद बहुत ज़्यादा बढ़ गई है और अनुमानों के अनुसार आधी मानव आबादी के पास भोजन की अपर्याप्त पहुँच है। यह सच है कि युद्ध जीवन को बाधित कर देते हैं और भुखमरी बढ़ाते हैं, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा ईरान और वेनेजुएला जैसे तीस देशों पर लगाए गए एकतरफ़ा प्रतिबंध भी आम जीवन को बाधित करते हैं और भुखमरी का सबब बने हैं। और इस तथ्य को भी नज़रअंदाज़ करना असंभव है कि भुखमरी का सबसे भयावह तांडव भारत जैसे देशों की तरह उन जगहों पर हो रहा है जहाँ सशस्त्र युद्ध नहीं बल्कि अलग क़िस्म का संरचनात्मक और अनाम युद्ध चल रहा है, यानी वर्ग युद्ध।
पिछले साल, संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 29 सितंबर को खाद्य हानि और अपशिष्ट की जागरूकता के अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में नामित किया था। 2020 में ये दिन पहली बार मनाया जाना था; लेकिन किसी ने इस पर ख़ास ध्यान नहीं दिया। 2011 के आँकड़ों के अनुसार, मानव उपभोग के लिए विश्व स्तर पर उत्पादित खाद्य का लगभग एक तिहाई बर्बाद हो जाता है। इतनी बड़ी बर्बादी मुनाफ़ों पर टिकी व्यवस्था का परिणाम है, जिसमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से भूखों को भोजन देने के बजाय उसे बर्बाद करना अधिक लाभदायक समझा जाता है। यही वर्ग युद्ध का चरित्र है।
दक्षिण सूडान और सूडान में भूख का संकट सबसे ज़्यादा प्रत्यक्ष और भयावह हैं; दक्षिण सूडान की कुल 1 करोड़ 30 लाख की आबादी में से आधी से अधिक आबादी गृहयुद्ध और ख़राब मौसम की वजह से भुखमरी से पीड़ित हैं, और महामारी के दौरान तीव्र भूख का सामना करने वाले बच्चों की संख्या दोगुनी होकर 11 लाख से अधिक हो गई है। सूडान में हर दिन कम–से–कम 120 बच्चों की मौत हो जाती है। इन हालात की जड़ है क्षेत्रीय खाद्य प्रणालियों व व्यापार पर लगातार होना वाल हमला और ग़रीबी तथा नीचे खिसकते सहारा रेगिस्तान के कारण नष्ट हो रही कृषि योग्य भूमि।
2018 के अंत में, सूडान में हज़ारों लोग अपने राष्ट्रपति उमर अल–बशीर को चुनौती देते हुए सड़कों पर उतरे। अल–बशीर को हराकर सूडान में नागरिक–सैन्य सरकार बनी, जिसने भी समाज की सबसे केंद्रीय समस्याओं का समाधान नहीं किया, और इसलिए सितंबर 2019 में एक बार फिर से विरोध प्रदर्शनों की लहर उठी। बदलाव लाने की कोशिशों के दूसरे संघर्ष के एक साल बाद, अब सूडान में हालात प्रतिकूल हैं। जिन युवाओं ने उन दोनों विद्रोहों में सक्रिय हिस्सा लिया था, वे अब भूख और सामाजिक पतन की संभावनाओं का सामना कर रहे हैं। सूडान के युवा, देश की 4 करोड़ 20 लाख आबादी के आधे से अधिक हैं, जो असंभव रोज़गार संभावनाओं का सामना कर रहे हैं।
यह ठीक ही है कि सूडान के विरोध प्रदर्शनों में से एक आंदोलन, जिसे विश्वविद्यालय के छात्रों ने अक्टूबर 2009 में शुरू किया था, जिसका नाम है ‘गिरिफ़ना’, जिसका अरबी में मतलब है ‘हम तंग आ चुके हैं’। युवा, जिनके भीतर भविष्य की बड़ी उम्मीदें होती हैं, वे जिन परिस्थितियों में बड़े हुए हैं उनसे निराश हैं और अपना जीवन शुरू होने से पहले ही वे उनसे ‘तंग आ चुके हैं’। लेकिन क्या उन्हें इस निराशा के लिए दोषी ठहराया जा सकता है? पिछले महीनों में जब सूडान में सामाजिक संकट गहरा रहा था, सरकार कलाकारों को गिरफ़्तार कर रही थी। गिरफ़्तार हुए कलाकारों में से कुछ गिरिफ़ना से भी जुड़े रहे हैं, जैसे कि हजूज़ कूका, जिन पर उपद्रव का आरोप लगाया गया है। सूडानीज़ प्रोफ़ेशनल एसोसिएशन, जिसने पिछले साल विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया, ने इन गिरफ़्तारियों की निंदा की है। जनता को भोजन खिलाने, उन्हें दवाइयाँ दिलाने, और उनके मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने जैसी चुनौति के बावजूद देश की सरकार का ध्यान बोलने की आज़ादी पर प्रतिबंध लगाने और युवाओं की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले कलाकारों को डराने धमकाने की ओर केंद्रित है।
बोलने की आज़ादी के ख़िलाफ़ सरकार के दमन से वहाँ की पीढ़ियाँ परिचित हैं। अल–बशीर जून 1989 के तख़्तापलट के बाद सत्ता में आए और अपने साथ दमघोटू कट्टरवाद की क्रूरता लाए। अल–बशीर की सरकार ने आज़ादी की आवाज़ें बंद करनी शुरू कीं –अमीना अल–गिज़ौली, जो कि एक शिक्षिका थीं, और उनके भाई कमाल अल–गिज़ौली, जो वकील थे, जैसे लोगों को गिरफ़्तार किया जाने लगा। अमीना के पति, कवि महज़ूब शरीफ़ को सूडान की कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने के कारण 20 सितंबर को गिरफ़्तार कर लिया गया और सूडान बंदरगाह के जेल में भेज दिया गया; गिरफ़्तारी के समय वो 41 वर्ष के थे। 2014 में उनकी मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु से पहले जब मैं उनसे मिला था, तो उन्होंने बताया था कि उन्हें अंदाज़ा था कि उन्हें गिरफ़्तार किया जा सकता है; क्योंकि वे उससे पहले भी तीन बार जेल में रह चुके थे। उनका युवा जीवन (1971-73, 1977-78, और 1979-1981) जेलों की क्रूरता में बीता था। जेल में रहते हुए, महज़ूब ने ख़ुद को और अपने आसपास के लोगों को प्रेरित करने के लिए कविताएँ लिखीं। जेल की दीवारों में क़ैद रहने के बावजूद, उनके चेहरे पर मुस्कान बरक़रार रही।
ख़ूबसूरत बच्चे जन्म लेते हैं, हर घंटे
चमकदार आँखों और प्यार भरे दिलों के साथ,
वे आते हैं, और सजा देते हैं मातृभूमि।
क्योंकि गोलियाँ बीज नहीं हैं जीवन का।
उदासी युवाओं की स्वाभाविक मनोदशा नहीं है; परिपक्व होते युवाओं को आशा और उम्मीद की ज़रूरत होती है। लेकिन जब उम्मीद की किरण फीकी हो तो उदासी और निराशा युवाओं की चेतना में घर कर जाती है। भारत की बस्तियों से लेकर ब्राज़ील के फ़वेलों तक, जहाँ दुनिया के सबसे ग़रीब लोग रहते हैं, युवाओं में उम्मीद को ज़िंदा रहने दें, ऐसी संस्थाएँ न के बराबर हैं। सरकारों द्वारा संचालित स्कूली शिक्षा उनकी ज़िंदगियों की असल सच्चाईयों से दूर हैं और युवाओं में आशा जगाने वाली औपचारिक रोज़गार संभावनाएँ बेहद कम हैं। इसीलिए युवा, व्यक्तिगत उन्नति और सामाजिक अस्तित्व के संसाधन प्रदान करने वाले कट्टरपंथी धार्मिक संगठनों से लेकर माफ़िया दलों जैसे कई तरह के समूहों में शरण लेते हैं। लेकिन महज़ूब और अमीना की तरह कई अन्य युवा इस तरह के समूहों को पर्याप्त नहीं मानते और दुनिया में कुछ बेहतरी लाने के लिए स्वयं द्वारा निर्मित संगठन और समाजवादी संगठनों का रुख़ करते हैं।
इस महीने प्रकाशित हुआ हमारा डोज़ियर, ‘कोरोनाशॉक में ब्राज़ील के हाशिये पर रहने वाले युवा’ ब्राज़ील के कामकाजी इलाक़ों में युवाओं की स्थिति पर रौशनी डालता है। यह लेख ब्राज़ील के शहरों के हाशिये पर रहने वाले कामकाजी युवाओं की सांस्कृतिक और सामाजिक दुनिया पर किए गए एक लम्बे अध्ययन पर आधारित है। ये अध्ययन ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के शोधकर्ताओं ने पॉप्युलर यूथ अपराइज़िंग (Levante Popular da Juventude) और वर्कर्स मूव्मेंट फ़ोर राइट्स (Movimento de Trabalhadoras e Trabalhadores por Direitos या MTD) के साथ मिलकर किया है। हमारे शोधकर्ता इस बात का विस्तृत मूल्यांकन कर रहे हैं कि युवाओं को क्या परेशान करता है, और वे किन चीज़ों से चकित होते हैं।
डोज़ियर से पता चलता है कि कैसे ब्राज़ील के युवा सार्वजनिक लोकतांत्रिक संस्थानों –जैसे कि शैक्षिक और कल्याणकारी संस्थान– के पतन का सामना कर रहे हैं। सरकार इस सामाजिक संकट को आपराधिक संकट के रूप में देखती है और युवाओं में बढ़ती अपराधिकता पर रोक लगाने के लिए इन बस्तियों में अपना दमनकारी रवैया बढ़ा रही है। भूखे बच्चों को खिलाने के बजाय, सरकार उनके विरोध प्रदर्शनों को दबाने के लिए पुलिस बल भेजती है। युवाओं में बढ़ते क्रोध और निराशा के दो कारण हैं; एक ओर सरकारें अपना कल्याणकारी रुख़ त्याग चुकी हैं, दूसरी ओर एक ऐसी विचारधारा को बढ़ावा दिया जा रहा है जो युवाओं को –संस्थागत समर्थन के बिना– अपनी कड़ी मेहनत के माध्यम से एंटरेप्रेनॉर बनने के लिए कहती है। रोज़गार के नाम पर अस्थायी और बेहद ख़राब परिस्थितियों वाले अनौपचारिक काम मुश्किल से मिलते हैं।
डोज़ियर एक ज़रूरी विश्लेषण पर ख़त्म होता है। भूमिहीन श्रमिक आंदोलन (MST) के केली माफ़र्ट ‘सॉलिडैरिटी इंकॉर्पोरेशन’ और ‘जन एकजुटता’ के बीच अंतर स्पष्ट कर रहे हैं। सॉलिडैरिटी इंकॉर्परेशन, दान देने का दूसरा नाम है। दान देने की ज़रूरत जायज़ है, लेकिन, दान देकर न तो समाज बदला जा सकता है और न ही श्रमिक वर्ग में विश्वास पैदा किया जा सकता है। दान, ग़रीबी की ही तरह हतोत्साहित कर सकता है।
लेकिन ‘जन एकजुटता’ श्रमिक वर्ग के समुदायों के भीतर से उभरती है; आपसी सहायता और सम्मान पर आधारित जन एकजुटता से ऐसे संगठनों का निर्माण होता है जो लोगों की गरिमा को बढ़ाते हैं। ये प्रगतिशील संगठन युवा लोगों को आपूर्ति इकट्ठा करने और वितरित करने के काम में शामिल होने, देश में कृषि–पारिस्थितिक आधारित भोजन को बढ़ावा देने वाले MST सहकारी समितियों के साथ काम करने, पुलिस हिंसा के ख़िलाफ़ और भूमि सुधार के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो, ये संगठन युवाओं में पूँजीवादी व्यवस्था की क्रूरताओं से अलग एक दुनिया होने की संभावना में विश्वास जगाने के लिए उन्हें संगठित करते हैं। विश्व खाद्य कार्यक्रम, जो कि पश्चिमी खाद्य निगमों के ऊर्ध्वाधर मूल्य शृंखलाओं, सॉलिडैरिटी इंकॉर्पोरेशन के दान के मॉडल और एकफ़सलीय खेती में विश्वास करता है, हमारे डोज़ियर से अहम सबक़ ले सकता है। नोबेल पुरस्कार मिलने के साथ विश्व खाद्य कार्यक्रम में विविध और स्थानीय खाद्य उत्पादन व वितरण को बढ़ावा देने का हौसला आना चाहिए।
महज़ूब ने जेल से लिखा था, गोलियाँ बीज नहीं हैं जीवन का। हमारे दुखों के जवाब बेहद स्पष्ट हैं, पर ये जवाब उन मुट्ठीभर लोगों को बहुत महँगा पड़ता है जो सत्ता, विशेषाधिकार और संपत्ति पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखना चाहते हैं। उनके पास खोने के लिए बहुत कुछ है, यही कारण है कि वे सब कुछ कस कर पकड़े रखना चाहते हैं। वे दुनिया पर गोलियाँ बरसाते रहते हैं, यह सोचते हुए कि वे बीज हैं।
स्नेह–सहित,
विजय।
मीसा बासकुस
शोधकर्ता, ब्यूनस आयर्स कार्यालय
इस साल मैं ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के पहले पॉडकास्ट ‘अनकवरिंग द क्राइसिस’ के लिए समन्वय का काम कर रही हूँ। वर्तमान संकट और देखभाल की केंद्रीयता पर ख़ास ध्यान देते हुए हम, इस पॉडकास्ट के माध्यम से, महामारी और इसके प्रभावों को नारीवादी दृष्टिकोण से समझने में अपनी भूमिका निभाना चाहते हैं। जून में, हमने एपिसोड 0, ‘दिस जाइयंट विद फ़ीट ऑफ़ क्ले‘ लॉन्च किया; जुलाई में, हमने एपिसोड 1, ‘गार्डीयंस ऑफ़ द कम्यूनिटी‘ लॉन्च किया; और अगस्त में, ‘होम इज़ अंडर डिस्प्यूट‘। मैं अब पॉडकास्ट के एपिसोड 3 पर काम कर रही हूँ, जो आने वाले कुछ हफ़्तों में लॉन्च होगा। मैं कोरोनाशॉक के लैंगिक प्रभावों पर जल्द ही जारी होने वाले एक अध्ययन में भी शामिल रही हूँ।