प्यारे दोस्तों
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
उस घटना को घटे दशकों बीत गए जब 17 दिसंबर 2010 को मोहम्मद बूअज़ीज़ी नाम के एक व्यक्ति ने ट्यूनीशिया के शहर सिदी बूजिद में ख़ुद को आग लगा लिया था। पुलिसकर्मियों द्वारा प्रताड़ित किए जाने के बाद फेरी लगाकर सामान बेचने वाले बूअज़ीज़ी को आत्महत्या जैसा कठोर क़दम उठाना पड़ा। कुछ समय बाद ही ट्यूनीशिया के इस छोटे से शहर के हज़ारों लोग अपना ग़ुस्सा ज़ाहिर करने के लिए सड़कों पर उतर आए। उनका आक्रोश देश की राजधानी ट्यूनिश तक फैल गया, जहाँ ज़ीन एल एबिदीन बेन अली की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए ट्रेड यूनियनों, सामाजिक संगठनों, राजनीतिक दलों, और नागरिक समूहों ने कमर कस लिया। ट्यूनीशिया के प्रदर्शनों ने मिस्र से स्पेन तक भूमध्य सागर के चारों ओर इसी तरह विद्रोह को प्रेरित किया, क़ाहिरा का तहरीर स्क्वायर लाखों लोगों के भावनात्मक उद्गार– ‘अश्शाब्यूरिदिस्क़त अन्निज़ाम (लोग शासन को उखाड़ फेंकना चाहते हैं)‘ – से गूँज उठा।
सड़कों पर लोगों का हुजूम था, उनकी भावनाओं को स्पैनिश शब्द indignados द्वारा व्यक्त किया गया, जिसका अर्थ होता है आक्रोशित या नाराज़। वे ये कहने के लिए जमा हुए थे कि उनकी उम्मीदें दृश्य और अदृश्य दोनों तरह की ताक़तों द्वारा कुचली जा रही हैं। 2007-08 के ऋण संकट के कारण उत्पन्न वैश्विक मंदी के बावजूद उनके अपने ही समाजों के अरबपतियों और राज्य के साथ उनके मधुर संबंध उन्हें साफ़ तौर पर दिखाई दे रहे थे। इस बीच, वित्ती पूँजी की ताक़तों ने मानवीय नीतियाँ लागू करने की उनकी सरकारों की क्षमता (यदि वे लोगों के अनुकूल थीं) को नष्ट कर दिया था, साफ़ तौर पर यह पता तो नहीं चलता था, लेकिन उनके परिणाम कम विनाशकारी नहीं थे।
शासन को उखाड़ फेंकने के नारे को हवा देने वाली भावना को उन बहुसंख्यक लोगों का व्यापक रूप से समर्थन मिला जो बुरे और कम बुरे के बीच चुनाव करते–करते थक गए थे; ये लोग अब चुनावी खेल के दायरे से परे कुछ चाह रहे थे, जिससे बदलाव की उन्हें बहुत कम उम्मीद थी। राजनेता जिस वादे के साथ चुनाव में खड़े होते थे, चुनाव जीत जाने के बाद ठीक उसका उल्टा करते थे।
उदाहरण के लिए, यूनाइटेड किंगडम में नवंबर–दिसंबर 2010 में जो छात्र आंदोलन हुआ वह लिबरल डेमोक्रेट्स द्वारा फ़ीस नहीं बढ़ाने की उनकी प्रतिज्ञा के विश्वासघात के ख़िलाफ़ था; इसकी परवाह किए बिना कि उन्होंने किसे वोट दिया, इसका नतीजा यह हुआ कि लोगों को नुक़सान उठाना पड़ा। ब्रिटेन में छात्र ग्रीस, फ़्रांस: अब यहाँ भी! का नारा लगा रहे थे। वे इसमें चिली को भी जोड़ सकते थे, जहाँ छात्र (जिन छात्रों को लॉस पेंगुइन, या ‘द पेंगुइन‘ के नाम से जाना जाता है) शिक्षा में कटौती के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरे थे; मई 2011 में उनका विरोध फिर से शुरू होने वाला था, जो एल इनविएरेनोस्टुडिएंटिल चिलेनो, ‘चिली स्टूडेंट विंटर‘ में लगभग दो सालों तक चला। सितंबर 2011 में, संयुक्त राज्य अमेरिका में घेराव करने वाला आंदोलन (ऑक्युपाई मूवमेंट) वैश्विक प्रतिरोध की लहर का हिस्सा बनने वाला था, जो संयुक्त राज्य सरकार के रेहन (mortgage) आपदा से होने वाली बेदख़ली को रोक पाने में विफल रहने के नतीजे में शुरू हुआ, जिसका परिणाम 2007-08 के ऋण संकट के रूप में सामने आया। किसी ने वॉल स्ट्रीट की दीवारों पर लिख दिया, ‘अमेरिकन ड्रीम का अनुभव करने का एकमात्र तरीक़ा यही है कि उसे सोते समय अनुभव किया जाए।‘
शासन को उखाड़ फेंकने का नारा इसलिए दिया गया था क्योंकि संस्थानों में विश्वास कम हो गया था; नवउदारवादी सरकारों और केंद्रीय बैंकरों द्वारा जो कुछ प्रस्तावित किया जा रहा था लोग उससे अधिक की उम्मीद करने लगे थे। लेकिन विरोध केवल इस बात के लिए नहीं था कि सरकार को उखाड़कर फेंक दिया जाए, क्योंकि व्यापक मान्यता यही थी कि यह सरकारों की समस्या नहीं थी: यह मानव समाज के सामने उपलब्ध उन राजनीतिक संभावनाओं के बारे में थीं जो संकटग्रस्त हैं। एक या पीढ़ी अधिक ने विभिन्न प्रकार की सरकारों द्वारा बजट कटौती का अनुभव किया था, यहाँ तक कि सोशल डेमोक्रेटिक सरकारों ने भी कहा था कि धनी बांडधारकों के अधिकार – उदाहरण के लिए – समस्त नागरिकों के अधिकारों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। प्रगतिशील मानी जाने वाली सरकारों की यह असफलता हैरान करने वाली थी कि वह अपने लोगों पर कम पैसे ख़र्च करेगी, इससे इस तरह की भावनाओं को बल मिला, जैसा कि बाद में 2015 ग्रीस में सीरिज़ा गठबंधन सरकार ने किया।
वास्तव में इस विद्रोह का वैश्विक चरित्र था। बैंगकॉक में 14 मार्च 2010 को लाल क़मीज़ में दस लाख लोग सैन्य, राजशाही, और धनाढ्य वर्गों के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरे; स्पेन में, 15 अक्टूबर 2011 को मैड्रिड की सड़कों पर पाँच लाख indignados ने मार्च किया। फाइनेंशियल टाइम्स ने ‘वैश्विक आक्रोश का वर्ष‘ शीर्षक से एक प्रभावशाली लेख लिखा, इसी अख़बार के एक प्रमुख टिप्पणिकार ने लिखा कि इस विद्रोह ने ‘अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आपस में जुड़े संभ्रांत लोगों को साधारण नागरिकों से सामने लाकर खड़ा कर दिया है जो ये मानते हैं कि आर्थिक विकास का लाभ उन्हें नहीं मिला और जो भ्रष्टाचार को लेकर बेहद आक्रोशित हैं।‘
अक्टूबर 2008 में आर्थिक सहयोग तथा विकास संस्थान (OECD) द्वारा जारी एक रिपोर्ट से पता चला है कि 1980 और 2000 के दशक के बीच दुनिया के बीस सबसे अमीर देशों में से प्रत्येक में असमानता बढ़ी, जो ओईसीडी के सदस्य हैं। विकासशील देशों में स्थिति और भयावह थी; 2008 में संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (UNCTAD) द्वारा जारी एक रिपोर्ट से पता चला है कि विकासशील देशों में सबसे ग़रीब हर पाँचवें व्यक्ति द्वारा की जाने वाली राष्ट्रीय खपत का हिस्सा 1990 और 2004 के बीच 4.6% से घटकर 3.9% हो गया था। लैटिन अमेरिका, कैरिबियन, और उप–सहारा अफ़्रीका की स्थिति सबसे अधिक भयावह थी, जहाँ सबसे ग़रीब हर पाँचवें व्यक्ति का राष्ट्रीय खपत या आय में केवल 3% का योगदान है। 2008 में बैंकों को एक गंभीर संकट से उबारने में मदद करने के लिए जो भी धनराशि एकत्रित की गई थी, वह उन लाखों लोगों के बीच किसी भी प्रकार से वितरित नहीं की गई, जिनका जीवन लगातार मुश्किलों में घिरता जा रहा है। उस अवधि में विद्रोह को प्रेरित करने वाला यह मुख्य कारण था।
इस बात की ओर इशारा करना ज़रूरी है कि इन सभी आँकड़ों में एक आशावादी संकेत भी था। मार्च 2011 में, लैटिन अमेरिका और कैरिबियन के लिए संयुक्त राष्ट्र आर्थिक आयोग (ECLAC) की प्रमुख एलिसिया बारसेना ने लिखा कि आय असमानता के उच्च स्तर के बावजूद, इस क्षेत्र की कुछ सरकारों की सामाजिक नीतियों के कारण क्षेत्र में ग़रीबी की दर में गिरावट आई थी। बारसेना के दिमाग़ में राष्ट्रपति लूला डा सिल्वा के नेतृत्व वाली ब्राज़ील की सोशल डेमोक्रेट सरकार की बोल्सा फ़मिलिया जैसी योजनाएँ, तथा राष्ट्रपति इवो मोरालेस के नेतृत्व में बोलीविया और राष्ट्रपति हूगो शावेज़ के नेतृत्व वाली वेनेज़ुएला की वामपंथी सरकारों का उदाहरण था। दुनिया के इन हिस्सों में नाराज़गी सरकार का हिस्सा बन गई थी और वे ख़ुद के लिए एक अलग एजेंडा लागू कर रहे थे।
अमीरों ने अपनी भाषा को ‘लोकतंत्र संवर्धन’ की भाषा से कितनी तेज़ी से बदलकर क़ानून और व्यवस्था की भाषा में ढाल लिया, जनता द्वारा क़ब्ज़े में ली गई सार्वजनिक स्थलों को ख़ाली कराने के लिए पुलीस तथा एफ़-16 लाड़ाकू विमान भेजे गए तथा उन दोशों को बमबारी और तख़्तापलट करने की धमकी दी गई।
अरब स्प्रिंग, जो नाम 1848 के यूरोप के विद्रोहों से प्रेरित होकर रखा गया, जल्दी ठंडा हो गया क्योंकि पश्चिमी ताक़तों ने क्षेत्रीय शक्तियों (ईरान, सऊदी अरब और तुर्की) के बीच युद्ध की स्थिति पैदा कर दी, जिसका केंद्रबिंदु लीबिया और सीरिया में था। 2011 में नाटो द्वारा लीबिया पर हमला करके उसे तबाह किए जाने बाद अफ़्रीकी संघ अलघ–थलग पड़ गया, फ़्रांसीसी फ़्रांक और अमेरिकी डॉलर के विकल्प के रूप में अफ़्रीक़े (Afrique) को अपनाने को लेकर की जाने वाली चर्चा स्थगित कर दी गई, और माली से लेकर नाइजर तक साहेल क्षेत्र में बड़े पैमाने पर फ़्रांसीसी और अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप किया गया।
सीरिया में सरकार को उखाड़ फेंकने का भारी दबाव 2011 में शुरू हुआ और 2012 में गहरा गया। 2003 में इराक़ पर अवैध अमेरिकी युद्ध के बाद अरब एकता में विखंडन शुरू हुआ जो लगातार बढ़ता ही गया है; सीरिया ईरान और उसके विरोधियों (सऊदी अरब, तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात) के बीच क्षेत्रीय युद्ध का एक मोर्चा बन गया है; और इन सबकी वजह से फ़िलिस्तीनियों की समस्या की केंद्रीयता कम हो गई है। मिस्र की नयी सरकार के गृह मंत्री जनरल मोहम्मद इब्राहीम ने बहुत ठंडे अंदाज़ में कहा, ‘हम न्यायाधीशों, पुलिस और सेना के बीच एकता का एक स्वर्णिम युग में जी रहे हैं।’ उत्तरी अटलांटिक उदारवादी जनरल के पीछे भागे; दिसंबर 2020 में, फ़्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्राँ ने मिस्र के राष्ट्रपति – पूर्व जनरल – अब्देल फ़त्ताह अल–सीसी को फ़्रांस के सर्वोच्च पुरस्कार लीजन डे ऑनर से सम्मानित किया।
इस बीच, वॉशिंगटन ने लैटिन अमेरिका में तख़्तापलट के कई षड्यंत्र किए जिन्हें पिंक ज्वार के नाम से जाना जाता है। 2002 में वेनेज़ुएला सरकार से लेकर 2009 में होंडुरास के ख़िलाफ़ तख़्तापलट तक की कोशिश तथा लैटिन अमेरिकी गोलार्ध में हैती से लेकर अर्जेंटीना तक की प्रगतिशील सरकारों के ख़िलाफ़ हाइब्रिड युद्ध की लम्बी कड़ी है। वस्तुओं की क़ीमतों में गिरावट – विशेष रूप से तेल की क़ीमतों में – ने गोलार्ध की आर्थिक गतिविधियों को छिन्न–भिन्न कर दिया है। इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर वाशिंगटन वामपंथी सरकारों पर सूचना, वित्तीय, राजनयिक और सैन्य दबाव बना रहा है, इनमें से कई इस दबाव को झेल नहीं पा रहे हैं। 2012 में पराग्वे के फ़र्नांडो लुगो की सरकार के ख़िलाफ़ तख़्तापलट से इसकी शुरुआत हुई और 2016 में ब्राज़ील के राष्ट्रपति दिल्मा को भी इसी तरह सत्ता से बेदख़ल किया गया।
युद्ध और तख़्तापलट तथा आईएमएफ़ जैसे संगठनों के भारी दबाव की वजह से आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था को बदलने की सभी उम्मीदें ख़त्म होती चली गईं। बेरोज़गारों और भूखे लोगों को राहत देने के लिए सरकारों द्वारा किए गए प्रयासों का गला घोंटने के लिए ‘कर और सब्सिडी सुधार’ तथा ‘श्रम बाज़ार सुधार’ की पुरानी शब्दावली का इस्तेमाल किया गया। कोरोनोवायरस से बहुत पहले, उम्मीदों पर पानी फिर गया था और सड़ांध सामान्य–सी बात हो गई थी क्योंकि समुद्र पार करने वाले प्रवासियों को यातना शिविरों में बंद किया जा रहा था जबकि निर्जीव धन को सीमाओं के परे कर–मुक्त जगहों पर पहुँचाया जा रहा था (अपतटीय वित्तीय केंद्रों में 36 ट्रिलियन डॉलर जमा किया गया, जो बहुत बड़ी राशि है)।
एक दशक पहले की उठापटक पर एक सरसरी नज़र डालते हुए इस बात की ज़रूरत है कि हम मिस्र की जेलों के दरवाज़े पर रुकें, जहाँ कुछ युवा बंद हैं, जिन्हें उनकी आशावादिता की वजह से गिरफ़्तार किया गया था। दो राजनीतिक क़ैदी अला अब्देल अल–फ़त्ताह और अहमद दाउमा अपनी–अपनी जेल की कोठरियों से चिल्लाकर एक–दूसरे से बात करते हैं, उनके वार्तालाप को दो लोगों के स्केच के रूप में प्रकाशित किया गया था। उन्होंने किसलिए लड़ाई लड़ी? ‘हम उस एक दिन के लिए लड़े, जो दिन दम घोंटने वाली निश्चितता के बिना गुज़रे, भविष्य भी वैसा ही हो जैसा कि अतीत था।’ उन्होंने वर्तमान से बाहर निकलने की माँग की; उन्होंने भविष्य माँगा। अला और अहमद ने लिखा, क्रांतिकारी जब उठ खड़े होते हैं तो ‘प्यार के सिवा किसी बात की परवाह नहीं करते।‘
क़ाहिरा में अपने जेल की कोठरियों में वे भारतीय किसानों की कहानियाँ सुनते हैं, जिनके संघर्ष ने एक राष्ट्र को प्रेरित किया है; वे सुदूर पापुआ न्यू गिनी और संयुक्त राज्य अमेरिका के हड़ताली नर्सों के बारे में सुनते हैं; वे इंडोनेशिया और दक्षिण कोरिया में कारख़ाने के हड़ताली श्रमिकों के बारे में सुनते हैं; वे सुनते हैं कि फ़िलिस्तीनियों और सहरावी लोगों के विश्वासघात ने दुनिया भर में लोगों को सड़कों पर आने के लिए प्ररित किया है। 2010-2011 में कुछ महीनों के लिए ‘दम घोंटने वाली निश्चितता‘ को किनारे कर दिया गया जिसका कोई भविष्य नहीं है; एक दशक बाद, सड़कों पर लोग एक ऐसे भविष्य की तलाश कर रहे हैं जो असहनीय वर्तमान से अलग हो।
स्नेह–सहित,
विजय।
मैं हूँ ट्राईकॉन्टिनेंटल:
फ़र्नांडो विसेंटो प्रीटो, शोधार्थी, अर्जेंटीना कार्यालय
पिछले एक सालों में मैंने ऑब्ज़रवेट्री ऑन द कंजंगचर इन लैटिन अमेरिका एंड द कैरिबियन (OBSAL) के सदस्य के तौर पर रिपोर्ट संख्या 5 , 6, 7, 8 और 9 पर काम किया। इन रोपोर्टों में क्षेत्र पर महामारी के प्रभावों के साथ–साथ साम्राज्यवादी आक्रमण की दृढ़ता और इसके विरोध, लोकप्रिय प्रतिरोध, तथा पिछले महीनों में मिली महत्वपूर्ण जीत का विश्लेषण किया गया है। फ़िलहाल मैं अगली रिपोर्ट के लिए जानकारी जुटा रहा हूँ। मैंने लेनिन 150, मारीटेगुई, दि वेन्स ऑफ़ द साउथ आर स्टिल ओपन, चे, और वाशिंगटन बुललेट्स: ए हिस्ट्री ऑफ़ द सीआईए, कूप्स, एंड अस्ससिनेशन्स नामक पुस्तक के स्पैनिश संस्करणों के संपादन पर भी काम किया है।