आर्थिक अवसाद की गिरफ़्त में दुनिया: संकट का एक मार्क्सवादी विश्लेषण
नोटबुक संख्या 4 को इ. अहमद टोनाक (ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के अर्थशास्त्री) तथा सुंगुर सवरान (इस्ताम्बुल ओकान विश्वविद्यालय में एक प्रशिक्षक तथा देव्रिमसी मार्क्सिज़्म और रिवोल्यूशनरी मार्क्सिज़्म के संपादक) ने मिलकर लिखा है।
इस नोटबुक के संपादन, अनुवाद, डिजाइन और वेबसाइट पर अपलोड करने में निम्नलिखित लोगों का सहयोग शामिल है: विजय प्रशाद, सेलिना डेला क्रोस, मिकाएला होंडो एर्सकोग, डेबी वेनेज़ियाल, पिलर ट्रोया फर्नांडीज, मैसा बास्कुआस, एमिलियानो लोपेज़, डैफने मेलो, लुइज़ फेलिप अल्बुकर्क, क्रिस्टियन गनाका, टिंग्स चैक, इंग्रिड नेव्स, डेनिएला रग्गेरी, एमिलकर गुएरा, और एरियाना हेरेनु।
प्रस्तावना
हम अनिश्चितता, निराशा तथा दरिद्रता के एक स्याह दौर से गुज़र रहे हैं। यह साम्राज्यवादी देशों पर भी लागू होता है, जहाँ भोजन बैंकों पर आश्रित लोगों की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है। ब्रिटेन में भोजन बैंकों द्वारा बाँटे जाने वाले पैकेटों की संख्या 2015-16 में 11 लाख से बढ़कर 2020-21 में 25 लाख पहुँच गई है। ब्रिटेन में 2020-21 के दौरान तक़रीबन 10 लाख भोजन के पैकेट जरूरतमंद बच्चों को बाँटे गए।1 इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि सबका जीवन दुख से भरा हुआ है। एक तरफ जहाँ महामारी ने 10 करोड़ लोगों को अत्यधिक ग़रीबी के दलदल में धकेल दिया, वहीं दूसरी तरफ, 2020 में दुनियाभर के अरबपतियों की सम्पत्ति में 3.6 ट्रिलियन डॉलर की बढ़ोत्तरी हुई।2 वैश्विक पारिवारिक धन में अरबपतियों की हिस्सेदारी बढ़कर 3.5 प्रतिशत पहुँच गई। पूंजीवाद जनित असमानता ने एक ऐसी दुनिया का निर्माण किया है जिसमें 2,153 शीर्ष अरबपतियों के पास दुनिया की कुल आबादी में 60 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले निर्धनतम 4.6 अरब लोगों से भी ज़्यादा धन है।3 ये दोनों रुझान महामारी का परिणाम नहीं हैं। ये दशकों से मौजूद रहे हैं। ये रुझान संकट से घिरे पूंजीवाद के नियमों के परिणाम हैं।
इस नोटबुक में हम एक दशक से भी ज़्यादा समय से वैश्विक अर्थव्यवस्था को अपनी गिरफ़्त में जकड़े इस भीषण संकट पर प्रकाश डालेंगे। संकट का विश्लेषण करना पेशेवर अर्थशास्त्रियों की तकनीकी कुशलता के प्रदर्शन का बेमतलब का काम नहीं है। बल्कि, सतही लक्षणों से परे जाकर पूरी प्रक्रिया की जड़ तक पहुँचना आवश्यक है। इसके माध्यम से हम सभी देशों के कामगार वर्गों और दरिद्रता तथा निराशा के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले दुनिया के उत्पीड़ित देशों के लिए आगे का रास्ता उजागर कर पाएँगे। दुनिया के मेहनतकशों तथा दरिद्रों को मूर्त एवं ठोस परिणाम दिलाने के लिए इन संकटों को पैदा करने वाले पूंजीवाद के अन्तर्विरोधों का विश्लेषण करना जरूरी है। ग़लत विश्लेषण लोगों को गुमराह करेंगे और उनके संघर्षों को नुकसान पहुँचाएंगे।
यह सबको पता है कि वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था को 2008 में एक भीषण वित्तीय उथल-पुथल का सामना करना पड़ा था। इसको वैश्विक वित्तीय संकट के नाम से जाना जाता है। एक प्रमुख वॉल स्ट्रीट निवेश बैंक ‘लेहमैन ब्रदर्स’ के दिवालियापन से उपजी दहशत पूरी दुनिया में फैल गई। इस दहशत ने वैश्विक वित्तीय व्यवस्था को धराशायी कर दिया। फ़्रांस की तत्कालीन वित्त मंत्री क्रिस्टीन लेगार्ड (वह आगे चलकर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक तथा यूरोपीय केंद्रीय बैंक की अध्यक्ष बनीं) ने संयुक्त राज्य अमेरिका के राजकोष सचिव (Treasury Secretary) को चेताया कि वो लेहमैन ब्रदर्स के बाद प्रमुख बीमा कम्पनी ‘अमेरिकन इंटरनेशनल ग्रुप’ (AIG) को किसी भी हालत में दिवालिया नहीं होने दे सकतीं।
यह संकट कृत्रिम उफान पर सवार वैश्विक उत्तर (इसमें संयुक्त राज्य अमेरिका ही नहीं, अपितु ब्रिटेन, स्पेन, आयरलैंड तथा अन्य देश भी शामिल थे) के आवासीय बाज़ारों के कारण पैदा हुआ था। यह संकट इसलिए पैदा हुआ क्योंकि उन उपभोक्ताओं को भी धड़ल्ले से ऋृण दिया गया, जिनके पास उसको चुकता करने की क्षमता नहीं थी। खस्ताहाल ऋृण बाज़ार अपनी कीमतों के अव्यावहारिक रूप से बढ़ जाने के कारण ढ़ह गया। चूँकि इस बाज़ार के ऋृणों को विभिन्न तरह के उत्पादों के रूप में ढ़ाल कर वित्तीय बाज़ार में परोसा गया था, इसलिए ऋृण बाज़ार के ढ़हते ही अन्य वित्तीय बाज़ार तथा वित्तीय संस्थान भी इसकी चपेट में आ गए।
लेहमैन ब्रदर्स के दिवालियापन से उपजे वैश्विक संकट को ‘वैश्विक वित्तीय संकट’ बताया गया मगर यह सटीक नहीं था। इससे इस संकट का असली स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। यह संकट सिर्फ वित्तीय क्षेत्रक तक सीमित नहीं था बल्कि तथाकथित वास्तविक अर्थव्यवस्था – यानी कि उत्पादन तक फैला हुआ था। जल्द ही बहुत सारे देशों में संवृद्धि तथा निवेश में तीव्र एवं अभूतपूर्व गिरावट और बेरोज़गारी में बेतहाशा वृद्धि देखने को मिली (यूरोपीय यूनियन के दो सदस्य देशों स्पेन तथा ग्रीस में सालों तक युवा बेरोज़गारी की दर 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा बनी रही)। अत: पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के शासक वर्ग तथा सरकारों ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के तत्कालीन फ़्रेंच प्रबंध निदेशक डोमिनिक स्ट्रॉस-कान (इन्हें वित्तीय तथा सरकारी गलियारों में DKS के नाम से भी जाना जाता था) द्वारा गढ़े गए शब्द ‘महामंदी’ (the Great Recession) का प्रयोग शुरू कर दिया।
हम ‘महामंदी’ शब्द के इस्तेमाल से परहेज कर रहे हैं। हमारा मत है कि यह शब्द संकट के असली रूप पर पर्दा डालने के लिए गढ़ा गया था। यह शब्द अपने आप में विरोधाभासी है। परंपरागत परिभाषा के अनुसार मंदी कम से कम दो तिमाही से अधिक की अल्पावधि के दौरान संवृद्धि की दर के नकारात्मक बने रहने की स्थिति होती है। मंदी में अर्थव्यवस्था में संकुचन होता है। ‘वैश्विक वित्तीय संकट’ के पश्चात वैश्विक अर्थव्यवस्था तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में संकुचन आया। लेकिन मंदी की संकीर्ण तकनीकी अवधारणा अन्य महत्त्वपूर्ण कारकों को नज़रअंदाज़ करती है। ‘महामंदी शब्द विरोधाभासी इसलिए है क्योंकि ‘मंदी’ की संकीर्ण तकनीकी अवधारणा के दायरे से बाहर इसका प्रयोग कर पाना असंभव है। महामंदी वाक्यांश को DSK ने ईजाद किया था ताकि राजकीय पदाधिकारियों तथा वित्तीय मामलों के जानकारों को ‘आर्थिक अवसाद’ (depression) शब्द का प्रयोग करने से रोका जा सके। महामंदी शब्द का प्रयोग आर्थिक अवसाद की हक़ीक़त पर पर्दा डालने के लिए किया गया था। संयुक्त राज्य अमेरिका के फ़ेडरल रिज़र्व बैंक के चैयरमैन पद पर लगभग दो दशक तक आसीन रहे ऐलन ग्रीनस्पैन बाज़ार तथा पूंजीवाद की कारगरता के सबसे रूढ़िवादी पैरोकारों में एक थे। 2006 में फ़ेडरल रिज़र्व बैंक के चैयरमैन पद का त्याग करने की वजह से वो आर्थिक महाअवसाद के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार अधिकारी के रूप में देखे जाने से बच गए। वो उन लोगों में शामिल थे, जिन्होंने इसकी तुलना 1930 के दशक के आर्थिक महाअवसाद से करते हुए कहा कि ‘ऐसा वित्तीय संकट सदी में एक बार’ आता है। ‘महामंदी’ शब्द यह मानता है कि यह एक भीषण संकट है, लेकिन इस तथ्य पर भी पर्दा डालता है कि यह आर्थिक अवसाद है।
इतिहास बताता है कि पूंजीवाद को इस तरह के संकटों का बारंबार सामना करना पड़ता है। सबसे आम संकट हर दशक के दौरान कमोबेश एक बार आता है। इसको परंपरागत रूप से व्यावसायिक चक्र (business cycles) कहा जाता है (जिन कारणों से व्यावसायिक चक्र पर विशेषज्ञ लेखन मुख्यधारा के अर्थशास्त्र के स्थापित दायरे से बाहर है उन पर हम बाद में प्रकाश डालेंगे)। एक व्यावसायिक चक्र की परिणति मंदी में होती है। इस संक्षिप्त अवधि की मंदी के दौरान अर्थव्यवस्था सिकुड़ जाती है। इस प्रकार के संकट को आम तौर पर बाज़ार की शक्तियों के समायोजन के माध्यम से दूर किया जाता है। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में युद्धोत्तर काल में इस तरह के संकट को दूर करने में सरकारी नीतियों की भी मदद ली जाती थी।
पूंजीवाद के इतिहास में आर्थिक अवसाद एक अलग प्रकार का संकट होता है। यह बहुत लंबे समय तक मौजूद रहता है। कभी-कभी एक दशक तक और कभी-कभी एक से भी ज़्यादा दशकों तक। इसे बाज़ार के समायोजन की पारंपरिक युक्तियों से दूर नहीं किया जा सकता है। इसको ख़त्म करने के लिए आर्थिक क्षेत्र के साथ-साथ राजनीतिक, वैचारिक और यहां तक कि सैन्य क्षेत्र में भी आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता होती है। जब वैश्विक पूंजीवाद आर्थिक अवसाद की चपेट में आता है, तब परंपरागत रूप से अब से पहले तक उसे आर्थिक महाअवसाद की संज्ञा दी जाती रही है। ऐसा पहला संकट – जिसे उस समय ‘दीर्घ आर्थिक अवसाद’ (the long depression) के नाम से जाना गया – उन्नीसवीं सदी के अंत में आया। इसकी अवधि 1873 से 1896 तक मानी जाती है। दूसरा आर्थिक अवसाद 1929 में वॉल स्ट्रीट के धराशायी होने के बाद शुरू हुआ और 1930 के दशक तक मौजूद रहा। बहुत सारे देशों, ख़ासकर यूरोपीय देशों, में यह 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत तक मौजूद रहा। कई मार्क्सवादी अर्थशास्त्रियों, जिसमें इस नोटबुक के लेखक भी शामिल हैं, का मत है कि वर्तमान में हम जिस दीर्घकालिक और गहन संकट का सामना कर रहे हैं वह भी एक आर्थिक अवसाद है।
वर्तमान संकट के आयाम
पूरी दुनिया डेढ़ दशक से आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही है। लेकिन मौजूदा संकट की रूपरेखा और गहराई विश्व अर्थव्यवस्था में विविध सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं और अलग-अलग स्थिति वाले देशों और क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न है। साम्राज्यवादी देश इस संकट का उद्गम स्त्रोत थे। संकट की पूरी अवधि के दौरान उनकी आबादी को आर्थिक संवृद्धि, निवेश, बेरोज़गारी और श्रम उत्पादकता के मामले में बहुत नुकसान उठाना पड़ा। संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक दीगर रास्ता अख़्तियार किया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने 2013 से 2019 के दौरान उबरना शुरू किया तथा अन्य साम्राज्यवादी देशों, विशेष रूप से यूरोपीय क्षेत्र के देशों और जापान, पर बढ़त बनाई। हालाँकि 2019 के बाद इसे फिर से आर्थिक सुस्ती का सामना करना पड़ा। 2020 में कोविड-19 महामारी के तीव्र प्रसार ने आर्थिक सुस्ती को और विकराल रूप दिया। महामारी से निपटने के लिए किए गए उपायों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के आर्थिक प्रदर्शन पर नकारात्मक प्रभाव डाला।
अर्जेंटीना, ब्राज़ील, भारत, मैक्सिको, रूस, दक्षिण अफ़्रीका और तुर्की जैसे तथाकथित उभरते देशों (वे देश जो कई दशकों से तीव्र गति से औद्योगीकरण कर रहे हैं या केंद्रीकृत नियोजित अर्थव्यवस्था की पृष्ठभूमि से आते हैं) ने संयुक्त राज्य अमेरिका से बिल्कुल उल्टा रास्ता अख़्तियार किया। 2008 के संकट से उत्पन्न वित्तीय उथल-पुथल के शुरुआती झटकों से प्रभावित होने के पश्चात ये देश पूंजीवादी वित्त के विकृत हथकंडों की मदद से उबरने में सफल रहे। यहाँ तक कि इनमें से कुछ देशों ने अभूतपूर्व आर्थिक प्रदर्शन भी किया। ऐसा ही एक उदाहरण तुर्की की अर्थव्यवस्था है। तुर्की की अर्थव्यवस्था वित्तीय संकट के एक साल बाद तक सिकुड़ती रही। इसके बाद वो तेज गति से उबरी और अगले दो सालों तक उसने अपने इतिहास का सबसे ऊँची संवृद्धि दर हासिल की। इन देशों के आर्थिक प्रदर्शन में ज़बरदस्त उछाल के पीछे सिर्फ़ उनकी अपनी आर्थिक नीतियाँ नहीं थीं। साम्राज्यवादी देशों के पास संकट से निपटने का सबसे प्रभावी साधन अपने केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दरों में भारी कटौती करके सस्ता और प्रचुर धन प्रदान करने की नीति थी। इससे साम्राज्यवादी देशों में ऋण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो गया। ज़्यादा कमाई की संभावना में साम्राज्यवादी देशों में मौजूद वित्त उभरते देशों की ओर चल पड़ा। विदेशी वित्त ने उभरते देशों की अर्थव्यवस्था को संबल प्रदान किया और उनके आर्थिक प्रदर्शन को सुधारने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस तरह जो संकट एक दुनिया के लिए अभिशाप बना वही संकट दूसरी दुनिया के लिए एक वरदान साबित हुआ। लेकिन उभरते देश बहुत लंबे समय तक इस वरदान का फ़ायदा नहीं उठा पाए। जैसे ही 2013 से अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार आना शुरू हुआ, फ़ेडरल रिज़र्व बैंक ने सस्ता धन प्रदान करने की अपनी नीति को बदल दिया। अमेरिकी फ़ेडरल रिज़र्व बैंक की नीति बदलते ही उभरते देशों के लिए मुश्किल दौर का आग़ाज़ हो गया।
हालाँकि कम और अल्प विकसित देशों को इससे अलग हालात का सामना करना पड़ा। उन्हें अंतरराष्ट्रीय व्यापार में गिरावट से गंभीर नुकसान हुआ। इस वजह से उनके प्रमुख निर्यात उत्पादों की माँग में कमी आई और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भारी गिरावट का सामना करना पड़ा। प्राथमिक वस्तुओं की कीमत में भी गिरावट आई। हालाँकि इन घटनाओं का अलग-अलग देशों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ा। उदाहरण के लिए, इस संकट के प्रभाव का स्वरूप ऊर्जा के आयातक तथा निर्यातक देशों पर अलग-अलग था। संकट के परिणास्वरूप इनमें से ज़्यादातर देशों के ऊपर विदेशी ऋण का पहाड़ लद गया।
इस दौरान एक देश अपवाद बना रहा। वो देश था चीन। यद्यपि यह खुद को एक विकासशील देश मानता है, लेकिन चीन का आर्थिक प्रदर्शन शेष वैश्विक दक्षिण से अलग रहा है। इसने अपने आंतरिक आयामों की ताक़त के साथ-साथ वैश्विक अर्थव्यवस्था के प्रति खुला नज़रिया अपनाकर दशकों तक अत्यधिक उच्च संवृद्धि दर बनाए रखी है। यहाँ तक कि 2013 के बाद से, चीन एकमात्र ऐसा देश रहा है, जिसने साम्राज्यवादी देशों के प्रभावक्षेत्र से उभरते देशों के बाहर निकलने की प्रवृत्ति को हक़ीक़त में तब्दील किया है।4 विभिन्न समूहों के देशों के विविध अनुभवों के बावजूद, कुछ रुझानों ने दीर्घकाल में हर समूह के देशों को प्रभावित किया है।
2008 के बाद से अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और सबसे अमीर साम्राज्यवादी पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक धीमापन का सामना करना पड़ा है (चित्र 1 देखें)।
चित्र 1: पहले की औसत संवृद्धि दर की तुलना में खोया गया सकल घरेलू उत्पाद, 2008-2013
एक लंबे समय से ही गिरावट की मार झेल रहा निवेश 2008 के बाद की अवधि में और भी तेज रफ़्तार से गिरा। जी7 देशों में औसत वार्षिक श्रम उत्पादकता संवृद्धि दर 1971-2006 की तुलना में 2007 के बाद की अवधि के दौरान 1% के बेहद निराशाजनक स्तर के आसपास रही है (चित्र 2 देखें)।
चित्र 2: जी7 समूह की वार्षिक श्रम उत्पादकता संवृद्धि दर, 1971-2020 (सकल घरेलू उत्पाद/श्रम के घंटे)
इस परिप्रेक्ष्य में, विश्व अर्थव्यवस्था में त्वरित सुधार काफ़ी हद तक साम्राज्यवादी देशों की सरकारों और केंद्रीय बैंकों की नीतियों पर निर्भर था। सरकारी तथा केंद्रीय बैंक की नीतियों के दो रूप थे: मौद्रिक और राजकोषीय।
फ़ेडरल रिज़र्व बैंक ने अर्थव्यवस्था में सस्ता और प्रचुर धन डालने की नीति अपनाई। उन्होंने इसे दो तरीक़ों से अंजाम दिया। पहला – संदर्भ ब्याज दर (reference interest rate) को घटाकर शून्य तक लाया गया और कई मामलों में नकारात्मक भी बना दिया गया (चित्र 3 देखें)।
चित्र 3: साम्राज्यवादी देशों के केंद्रीय बैंकों की ब्याज दर नीतियाँ
दूसरा – केंद्रीय बैंकों ने मात्रात्मक सहजता (quantitative easing) नामक एक नीति अपनाई। इस नीति के तहत खुले बाज़ार में सरकारी बांड की खरीददारी की गई – यानी, पैसे छापकर इसकी आपूर्ति बढ़ाई गई। मात्रात्मक सहजता की नीति असल में वास्तविक अर्थव्यवस्था में सुसंगत बदलावों को नज़रअंदाज़ करके पैसे छापने का बहाना मात्र थी। केंद्रीय बैंकों की बैलेंस शीट में गगन चूमती संवृद्धि दरें इसकी पुष्टि करती हैं।
राजकोषीय नीति के मोर्चे पर, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय क्षेत्र ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने हेतु सरकारी व्यय कार्यक्रमों में भारी मात्रा में धन डाला (चित्र 4 देखें)।
चित्र 4: संयुक्त राज्य अमेरिका तथा यूरोपीय क्षेत्र के देशों का कुल सरकारी व्यय, 2006 की पहली तिमाही से 2014 की तीसरी तिमाही तक
राजस्व प्राप्तियों से ज़्यादा ख़र्च तथा सस्ते पैसे की नीति का आगे चलकर देनदारियाँ पैदा करना स्वाभाविक है। प्रमुख साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्थाओं का बढ़ता क़र्ज़ इसकी तस्दीक करता है (चित्र 5 देखें)।ऋणग्रस्तता का स्तर 2012 में 120% के आँकड़े को पार कर गया। यह पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के पूरे इतिहास में सार्वजनिक ऋणग्रस्तता का उच्चतम स्तर था। इसने युद्धकालीन ऋणग्रस्तता के कीर्तिमान को भी ध्वस्त कर दिया (चित्र 5 देखें)।5 अप्रैल 2023 तक संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रीय ऋण 31 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की राशि तक पहुँच गया था। यह अमेरिकी सकल घरेलू उत्पाद का 124% था।
चित्र 5: जी7 समूह का ऋण और सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात, 1950-2012
लगभग उसी समय, यूरोपीय क्षेत्र के 18 देशों में ऋण और सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात 97.7% था। हालाँकि, भूमध्यसागरीय देशों (उदाहरण के लिए ग्रीस और इटली) और उत्तरी यूरोप के देशों के बीच इस अनुपात में काफ़ी फ़र्क़ मौजूद था।6 यहाँ इस तथ्य को रेखांकित करना आवश्यक है कि सार्वजनिक ऋण साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ने वाला एकमात्र बोझ नहीं है: वैश्विक वित्तीय संकट से पहले और बाद में निजी कॉर्पोरेट ऋण में भी भारी संवृद्धि हुई है (चित्र 6 देखें)।
पंप-प्राइमिंग (यानी, मंदी में अर्थव्यवस्था को उद्दीप्त करना) की इस नीति के परिणामस्वरूप स्टॉक एक्सचेंजों और आवास जैसे विभिन्न बाज़ारों में नए बुलबुले बन रहे हैं। इनके बढ़ने की रफ़्तार वास्तविक अर्थव्यवस्था के विकास से मेल नहीं खाती है। नोबेल पुरस्कार विजेता रॉबर्ट जे. शिलर जैसे शेयर बाजारों के कुछ विश्वसनीय विशेषज्ञों ने इक्कीसवीं सदी के ‘दूसरे गरजते दशक’ के बारे में बहुत अधिक आशावादी होने के ख़िलाफ़ चेताया है। यह चेतावनी इसलिए गंभीर है क्योंकि बीसवीं शताब्दी के दूसरे गरजते दशक की परिणति 1929 के काले मंगलवार (Black Tuesday) में हुई थी। 1929 के काले मंगलवार ने 1930 के दशक की महामंदी का आग़ाज़ किया था।7
अप्रत्याशित घटनाएँ भी आर्थिक चक्र पर असर डाल सकती हैं। उदाहरण के लिए, कोविड-19 महामारी ने निश्चित रूप से आर्थिक चक्र को प्रभावित किया है और भविष्य का अनुमान लगाना अधिक कठिन बना दिया है। अप्रत्याशित घटनाओं का एक और उदाहरण यूक्रेन में चल रहा युद्ध है। यह युद्ध विश्व अर्थव्यवस्था पर भी असर डाल रहा है। ऊर्जा, धातु और खाद्य पदार्थों के बाज़ारों में रूस और यूक्रेन प्रमुख स्थान रखते हैं। इस युद्ध के कारण इन बाज़ारों में उथल-पुथल जारी है। युद्ध के इन प्रत्यक्ष प्रभावों के अलावा पश्चिमी देशों द्वारा रूस पर लगाए गए असाधारण स्तर के प्रतिबंध और रूसी घरेलू बाज़ार के बहिष्कार ने वैश्विक अर्थव्यवस्था की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि 2008 के लेहमैन ब्रदर्स के धराशायी होने के डेढ़ दशक बाद भी वैश्विक अर्थव्यवस्था अभी भी लचर हालत में है।
संकट का विश्लेषण: मुख्यधारा के अर्थशास्त्र की समझ
आइए, देखते हैं कि मुख्यधारा का अर्थशास्त्र पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के संकटों का विश्लेषण किस प्रकार करता है। जब हम मुख्यधारा के बुर्ज़ुआ अर्थशास्त्र की संकटों की पहचान करने के तरीक़ों पर नज़र डालते हैं, तब इसका लज्जास्पद तथा ढीठ विचारधारात्मक चरित्र प्रकट होता है। मुख्यधारा के अर्थशास्त्र का एक बड़ा हिस्सा इस धारणा की आधारशिला पर बना है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को चलाने वाले बुनियादी नियमों के कारण आर्थिक संकट आ ही नहीं सकते। इस मत के ख़िलाफ़ असहमति दर्ज कराने वाली आवाज़ें भी मौजूद हैं, जिनकी चर्चा हम बाद में करेंगे। उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में ‘से का नियम’ (Say’s Law) प्रतिपादित होने के बाद पूरी दो शताब्दियों तक बुर्ज़ुआ अर्थशास्त्र के पेशे द्वारा पूंजीवाद के भीतर प्रणालीगत संकटों के होने की संभावना का खंडन करना अपने आप में उल्लेखनीय है। हालाँकि खंडन करने के पीछे का तर्क समय के साथ तकनीकी शब्दों में हेर-फेर करके बदला है, लेकिन खंडन करने की प्रवृत्ति जस-की-तस बनी रही है। चलिए, हम इसे खंडनवादी शाखा के नाम से संबोधित करते हैं।
खंडनवादी शाखा
फ़्रांसीसी अर्थशास्त्री जीन-बैप्टिस्ट से (1767-1832) द्वारा प्रतिपादित ‘से का नियम’ बेहद सरल है। इस नियम के अनुसार श्रम के पूंजीवादी विभाजन के तहत हर व्यक्ति विनिमय करने के लिए वस्तुओं का उत्पादन करता है। इसलिए उत्पादन के पश्चात कुल उत्पादित मूल्य के ठीक बराबर मूल्य की माँग अन्य वस्तुओं के लिए भी पैदा होती है। इस तरह से हर उत्पादन अपनी खपत खुद ही तैयार करता है। इस नियम के अनुसार, कुल आपूर्ति अनिवार्य रूप से कुल माँग के बराबर होती है। अत: ‘से के नियम’ के अनुसार आर्थिक चक्र का बाधित होना असंभव होता है।
क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की परंपरा की महान शख़्सियतों की फ़ेहरिस्त में एडम स्मिथ (1723-1790) के साथ खड़े डेविड रिकार्डो (1772-1823) ने ‘से के नियम’ को अपनाया। गौरतलब है कि हल्की समीक्षा का सामना करते ही से के नियम में मौजूद कमियाँ सामने आने लगती हैं। हम से के नियम की कमियों की चर्चा बाद में करेंगे। यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि रिकार्डो के समर्थन ने इस नियम को तक़रीबन आधी शताब्दी तक संबल प्रदान किया। रिकार्डो स्वयं पूंजीवाद की ऐतिहासिक संभावनाओं को लेकर बहुत आशावादी नहीं थे। भूमि लगान के उनके सिद्धांत से पता चलता है कि पूंजीवाद के विकास के कारण कम उपजाऊ भूमि या महानगरीय क्षेत्रों से दूर मौजूद भूमि पर भी खेती करनी पड़ती है। इस प्रक्रिया से खाद्य पदार्थों की कीमतों में अनिवार्य रूप से बढ़ोत्तरी होती है। इससे पूंजीवादी लाभ दर में गिरावट आती है तथा संवृद्धि दर में गिरावट के साथ-साथ बेरोज़गारी एवं मुद्रास्फीति बढ़ती है। लेकिन रिकार्डो का यह सिद्धांत पूंजीवाद के आवधिक संकटों पर प्रकाश नहीं डालता है।
नवक्लासिकीय (Neoclassical) सिद्धांत वर्तमान में मुख्यधारा के अर्थशास्त्र का ही रूढ़िवादी रूप है। यह खंडनवादी शाखा का ही एक सदस्य है। अपने उद्भव के समय, 1870 के दशक में, यह सीमांतवादी अर्थशास्त्र (marginalist economics) के नाम से जाना जाता था। आगे चलकर नवक्लासिकीय सिद्धांत की परम्परा में द्वितीय विश्व युद्ध के मद्देनजर सामान्य संतुलन सिद्धांत (general equilibrium theory) का और बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के तर्कसंगत अपेक्षा सिद्धांत (rational expectations theory) का प्रतिपादन हुआ। अपने उद्भव से लेकर वर्तमान तक आर्थिक संकटों की संभावना का खंडन करना नवक्लासिकीय सिद्धांत की विशेषता रही है।
आजकल संकटों के विश्लेषण के लिए मुख्यधारा के अर्थशास्त्री से के नियम को तर्क के तौर पर प्रस्तुत नहीं करते हैं। वो इसकी जगह बाज़ार के सुचारू संचालन का दावा करने वाले तर्क का प्रयोग करते हैं। यह तर्क बाज़ार की कीमतों को समायोजित करने (धारणा यह है कि मांग तथा आपूर्ति एक संतुलन कीमत (equilibrium price) हासिल कर लेते हैं) की क्षमता की बुनियाद पर टिका है। यह धारणा, जो मानती है कि बाज़ार कीमतों को समायोजित करने में सक्षम होता है, यह भी मानती है कि माँग अपर्याप्त या ज़्यादा हो ही नहीं सकती। हाल ही में प्रतिपादित किया गया कुशल बाज़ार परिकल्पना (efficient market hypothesis) का सिद्धांत पर्याप्त चर्चा के बिना ही इन पुराने तर्कों को नए लबादे में पेश करता है। अगर इसके ऊपर से तकनीकी शब्दजाल का लबादा हटा दें, तो यह सिद्धांत कहता है कि पूंजीवादी बाज़ारों की कार्यप्रणाली इतनी तर्कसंगत और कुशल है कि प्रचुरता, घाटे अथवा संकट की स्थिति पैदा ही नहीं हो सकती।
पाठक अचंभित हो रहे होंगे कि आख़िर संकटों से भरे पूंजीवादी इतिहास की हक़ीक़त और इनका खंडन करने वाली धारा का सह-अस्तित्व अर्थशास्त्र के पेशे में संभव कैसे हुआ है। जैसा कि हमने पहले इंगित किया है, इस विरोधाभास को व्यावसायिक चक्रों (business cycles) पर एक विशेष साहित्य का विकास करके ज़िंदा रखा गया है। यह साहित्य पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के भीतर नियमित अंतराल पर होने वाले संवृद्धि तथा संकुचन का अध्ययन करता है। यहाँ पर इस बात को रेखांकित किया जाना आवश्यक है कि जटिल तकनीकी उपकरणों का प्रयोग करने वाला यह परिष्कृत साहित्य मुख्यधारा की मोटे विचारधारात्मक कवच को भेदकर कुशल बाज़ार परिकल्पना को सवालों के कठघरे में खड़ा नहीं कर पाया है।
वास्तविक दुनिया में पैदा होने वाले संकटों के लिए अर्थशास्त्र का पेशा बेतुके वैकल्पिक सिद्धांत पेश करता है। वो या तो वास्तविक दुनिया में पैदा होने वाले संकटों के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान खड़ा करता है या फिर इन संकटों को नामकरण के लायक नहीं समझता है। वो इन संकटों को ‘बाहरी झटकों’ (युद्ध, क्रांति, माल की कीमतों में अप्रत्याशित उछाल, असाधारण मौसमी बदलाव इत्यादि) अथवा गलत आर्थिक नीतियों का परिणाम मानता है। जैसा कि कार्ल मार्क्स (1818-1883) ने लिखा, ‘इस पक्ष के समर्थक हमेशा संकटों को नकारते रहते हैं। संकटों की नियमित और आवधिक पुनरावृत्ति के बारे में वो कहते हैं कि यदि सही ढंग से उत्पादन किया जाए तो ऐसे संकट कभी पैदा ही नहीं होंगे।’8
मुख्यधारा के बुर्जुआ अर्थशास्त्र में सिद्धांत और वास्तविकता के बीच मौजूद अलगाव पर प्रकाश डालता एक दिलचस्प किस्सा है। 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद यूके की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने प्रतिष्ठित लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स ऐंड पॉलिटिकल साइंस (LSE) का दौरा किया। वहाँ पर उपस्थित प्रख्यात अर्थशास्त्रियों में प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर, सरकारी सलाहकार और द इकोनॉमिस्ट तथा फाइनैंशियल टाइम्स जैसे बेहद सम्मानित वित्तीय अख़बारों से जुड़े विशेषज्ञ मौजूद थे। महारानी ने बालसुलभ उत्सुकता से उनसे पूछा: ‘इसके बारे में किसी को पता क्यों नहीं चल पाया?’9 कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं दे पाया। 15 सितंबर 2008 को लेहमैन ब्रदर्स का पतन होने तक इन प्रख्यात अर्थशास्त्रियों का काम बाज़ारों की तर्कसंगत कार्यप्रणाली की रक्षा करना था। वो अपने से कम रूढ़िवादी विचारों की आलोचनाओं का जोरदार खंडन करते थे तथा मार्क्सवादी आलोचना का जवाब नहीं देते थे ताकि उसे वैधता ना मिल जाए।
कींस तथा यथार्थवादी शाखा
खंडनवादी शाखा कभी भी मुख्यधारा के अर्थशास्त्र की एकमात्र धारा नहीं रही है। कुछ अर्थशास्त्रियों ने शुरू से ही से के नियम के प्रति संदेहपूर्ण रवैया रखा। संदेहपूर्ण दृष्टिकोण का नेतृत्व दो बहुत अलग हस्तियों ने किया। जीन चार्ल्स लियोनार्ड डी सिस्मोंडी (1773-1842), से के हमवतन एक सामाजिक समीक्षक थे और थॉमस माल्थस (1766) -1834), ब्रिटेन के एक अत्यंत रूढ़िवादी पादरी तथा उदारवादी डेविड रिकार्डो के मित्र थे। डेविड रिकार्डो के साथ आर्थिक मामलों पर लगातार पत्राचार करते रहने के बावजूद माल्थस रिकार्डो को से नियम की निरर्थकता के बारे में समझा पाने में अक्षम रहे थे। सीमांतवादी विचारधारा के एक प्रमुख प्रतिनिधि विलियम स्टेनली जेवन्स (1835-1882) और यथार्थवादी शाखा के प्रतिनिधि जॉन मेनार्ड कीन्स (1883-1946), एक ब्रिटिश जन-बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री, जैसी असाधारण शख्सियतों को छोड़ दें तो 1930 के दशक के आर्थिक महाअवसाद तक संकट के सवाल पर रिकार्डो के विचार का ही प्रभुत्व छाया रहा।
रोज़गार, ब्याज और धन का सामान्य सिद्धांत (1936) में कीन्स ने से के नियम पर सीधा हमला किया और इस विचार को आगे बढ़ाया कि अर्थव्यवस्था वास्तव में विभिन्न स्थितियों में समग्र संतुलन (overall equilibrium) की अवस्था प्राप्त कर सकती है। जैसे कि जब एक ओर अल्परोज़गार या मुद्रास्फीति की अधिकता और दूसरी ओर पूर्ण रोज़गार की स्थिति (जिसे रूढ़िवादी सिद्धांत संतुलन का अपरिहार्य बिंदु मानता है)10 बनती है, तब भी अर्थव्यवस्था समग्र संतुलन की अवस्था में हो सकती है। उनके विचार के अनुसार संभावित परिणामों की यह विविधता ही उनके सिद्धांत को एक ‘सामान्य सिद्धांत’ बनाती थी।
कींस के अनुसार संकट एक ऐसी स्थिति है, जिसमें कुल प्रभावी मांग (aggregate effective demand) (यानी धन द्वारा समर्थित सामाजिक माँग) पूर्ण रोज़गार पैदा करने के लिए अपर्याप्त होती है। इसलिए यह अल्परोज़गार और उत्पादक क्षमता के अल्पोपयोग की स्थिति होती है। पहली नज़र में यह प्रतीत हो सकता है कि कींस मेहनतकश जनता की ग़रीबी और ग़रीबी के कारण समाज में उपभोग शक्ति की कमी के बारे में बात कर रहे थे। वास्तव में मुख्यधारा के कींसवादियों (Keynesians) से लेकर मार्क्सवादी अर्थशास्त्रियों के भीतर यह निष्कर्ष निकालते रहने की आदत रही है कि वेतन और लाभ बढ़ाकर संकट को दूर किया जा सकता है। इसी विचार को परंपरागत रूप से अल्पउपभोगवाद (underconsumptionism) कहा जाता है। विविध मार्क्सवादी विचारधाराओं पर चर्चा करते समय हम शीघ्र ही इस पर वापस आएंगे। लेकिन, फिलहाल हम अपनी चर्चा को मुख्यधारा की अर्थव्यवस्था की सीमाओं के भीतर ही रखेंगे।
यह सच है कि अल्पउपभोगवादियों ने सबसे पहले से के नियम की आलोचना की थी। माल्थस ने यहाँ तक दावा किया कि आर्थिक संकट पर्याप्त माँग की संरचनात्मक कमी के कारण उत्पन्न होता है। उनके अनुसार इस कमी को भरने के लिए ऐसे लोगों का एक वर्ग होना चाहिए जो उत्पादन नहीं करते, परंतु उन्हें उपभोग के लिए राजस्व प्राप्त होता है। यह राजस्व उन्हें काम के बदले नहीं अपितु समाज को अन्य ‘सेवाएं’ प्रदान करने के लिए मिलता है। हालाँकि, कींस को माल्थस का अनुयायी समझना अर्थशास्त्रीय इतिहास की सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ग़लतफ़हमी होगी। कींस अल्पउपभोगवादी नहीं थे। उनकी समग्र मीमांसा पूंजीपति वर्ग की निर्णय प्रक्रिया को समझने पर केंद्रित थी। उनकी मीमांसा का केंद्र उपभोग नहीं, बल्कि निवेश था। अल्पउपभोगवादी कींस का झूठा हवाला देते हैं। वो अपनी मासूमियत की वजह से कींस के साथ चिपके नहीं रहते हैं, बल्कि इसलिए, क्योंकि कींस का शक्तिशाली प्रभाव खास तरह की नीतियों को आगे बढ़ाने में कारगर साबित हो सकता है। कींस इस बात को लेकर बेहद स्पष्ट थे कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की कार्यप्रणाली का मुख्य आधार उपभोग नहीं, बल्कि निवेश था।
मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों के हुज़ूम में कींस एक अलग स्थान रखते हैं, क्योंकि वो इस बात को स्वीकार करने में अग्रणी हैं कि ऐसे दौर भी होते हैं, जब निवेश में गिरावट से किसी देश (या पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था) की उत्पादक क्षमता और श्रम शक्ति का कम उपयोग होता है। वो मानते हैं कि संकट अर्थव्यवस्था की कार्यप्रणाली का ही एक हिस्सा है। इसके बाद वह उन आर्थिक नीतियों की चर्चा करते हैं जिनको लागू करके सरकारें ऐसे संकटों से उबर सकती हैं। कींस सिर्फ उन मौद्रिक नीतियों को सुझाने के लिए ही प्रसिद्ध नहीं हैं, जो कई सरकारों ने वर्तमान संकट के दौरान अपनाई हैं। कींस तत्कालीन दौर के लिए अपरंपरागत समझी जाने वाली आर्थिक गतिविधि को प्रोत्साहित करने वाली सरकारी व्यय की राजकोषीय नीति की हिमायत करने के लिए भी प्रसिद्ध हैं।
लगभग तीन दशकों (1945-1975) तक बने रहने वाले युद्धोत्तर उछाल (boom) के दौरान कींसवादी नीतियों के तहत उन्नत पूंजीवाद में मुख्य रूप से शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, परिवहन और अन्य सामाजिक सेवाओं के राज्य व्यय में वृद्धि हुई। इसे सामाजिक वेतन या शुद्ध सामाजिक वेतन (यानी, कामकाजी आबादी द्वारा भुगतान किया गया शुद्ध कर) भी कहा गया। इससे यह भ्रम पैदा हुआ कि कींसवादी मज़दूर वर्ग के लाभ के लिए प्रचारित एक प्रकार का सामाजिक लोकतंत्र था। हालाँकि यह विचार सच्चाई से कोसों दूर है। कींस एक उदार बुर्ज़ुआ विचारक थे। उन्होंने वास्तविक वेतन (real wages) को कम करने के लिए मुद्रास्फीति के एक निश्चित स्तर की भी वकालत की थी। उनके अनुसार निम्न वास्तविक वेतन पूंजीपतियों के लिए अतिरिक्त श्रम की भर्ती को आकर्षक बनाएगा, जिससे बेरोजगारी कम होगी। अत: यह विचार कि कींसवाद श्रम के नाम पर संकटों से लड़ने का सही तरीक़ा है, एक भ्रम है। यह निश्चित रूप से सच है कि संकट की स्थिति में राजकीय व्यय में वृद्धि तभी तक आगे बढ़ने का रास्ता है जब तक यह सेना के बजाय शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे सही क्षेत्रों में हो। लेकिन इस लड़ाई को कींसवादी मोर्चे से छेड़ने की जरूरत नहीं है।
संकटों के बारे में कींस की व्याख्या में सबसे बड़ी कमी यह है कि समय के साथ निवेश की मात्रा में आने वाले उतार-चढ़ाव की उनकी व्याख्या अधूरी है। कींस ने मौद्रिक सिद्धांत का क्रांतिकारी विश्लेषण किया, जिस वजह से धन और वित्त का विकास उनके विश्लेषण का एक महत्त्वपूर्ण घटक बना। कींस ने भविष्य के बारे में पूंजीपतियों की गणना के विभिन्न पहलुओं को अपने विश्लेषण का हिस्सा बनाया। उन्होंने विशेष रूप से पूंजीपतियों द्वारा पूंजी निवेश से अपेक्षित रिटर्न (यानी, पूंजी की दक्षता की सीमांत दर) और ब्याज की दर (पूंजी की लागत) के बीच उनकी तुलना का विश्लेषण किया। अंततः, उन्होंने पाया कि ‘अपेक्षाएं’ (expectations) नीति निर्धारक होती हैं, क्योंकि भविष्य के ‘अपेक्षित रिटर्न’ और ‘ब्याज की दर’ को भी संज्ञान में लेना आवश्यक होता है। इससे यह सवाल खड़ा होता है कि अपेक्षाओं का निर्धारण कौन करता है? कींस के अनुसार इसका जवाब ‘एनिमल स्पिरिट्स’ (animal spirits) में निहित था।11
मार्क्स ने उन्नीसवीं सदी के महानतम बुर्ज़ुआ अर्थशास्त्री रिकार्डो के भूमि लगान के सिद्धांत की आलोचना की थी, क्योंकि पूंजीवादी उत्पादन की विशिष्टताओं पर आधारित आर्थिक नियम के अभाव में वो कृषि विज्ञान के क्षेत्र में गमन कर गए थे। इसी तरह, बीसवीं सदी के सबसे महान बुर्ज़ुआ अर्थशास्त्री कींस ने ख़ुद को परिचलन (circulation) के क्षेत्र तक सीमित रखा और पूंजीवादी उत्पादन के संबंधों (और विशेष रूप से इसकी विशिष्ट वर्ग संरचना) की उपेक्षा की। उत्पादन के सिद्धांत के अभाव में कींस लाभ की दर और ब्याज की अपेक्षित दर से स्वतंत्र संचय की गति (pace of accumulation) निर्धारित करने में विफल रहे। इसके बजाय, उन्होंने पूंजीवाद की गति के नियमों को समझाने के लिए मनोविज्ञान (‘एनिमल स्पिरिट्स’) की शरण ली।
शुम्पीटर और रचनात्मक विनाश
धुरंधर हर दौर में मौजूद होते हैं। ऑस्ट्रिया में जन्मे जोसफ अलोइस शुम्पीटर (1883-1950) निश्चित रूप से बीसवीं सदी में धारा के विरुद्ध जाने वाले धुरंधर अर्थशास्त्रियों में से एक थे। पूंजीवादी व्यवस्था के कट्टर समर्थक होने के बावजूद उनपर मार्क्स की सोच का गहरा प्रभाव था। उनकी दूसरी ख़ास बात यह थी कि मुख्यधारा के अधिकतर अर्थशास्त्रियों के विपरीत, खासकर कींस की तुलना में, वो खुद को अर्थशास्त्र के पेशे की तकनीकियों तक बाँधे रखने वाले एक संकीर्ण दृष्टि वाले विशेषज्ञ नहीं थे। शुम्पीटर ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों (उन्होंने साम्राज्यवाद का एक विफल, किंतु मौलिक सिद्धांत तैयार किया), राजनीतिक दर्शन (पूंजीवाद, समाजवाद और लोकतंत्र पर दृष्टिपात किया), समाजशास्त्र (सामाजिक वर्गों के निर्माण में परिवार की भूमिका की पड़ताल करना) और अन्य क्षेत्रों में अपना हाथ आजमाया। वह सदी के उत्तरार्ध में वियना के संपूर्ण बुद्धिजीवी का एक आदर्श उदाहरण थे, जहाँ उन्होंने अपनी जवानी गुज़ारी थी।
शुम्पीटर का संकट का सिद्धांत (व्यावसायिक चक्रों का सिद्धांत) आज तक प्रभावशाली बना हुआ है। इसका एक विशेष कारण ‘रचनात्मक विनाश’ का उनका मौलिक विचार है। यह वर्तमान संकट का सबसे लोकप्रिय और चर्चित व्याख्या बना हुआ है। व्यावसायिक चक्रों पर शुम्पीटर की पुस्तक के शुरुआती खंड संकटों पर उनके विचार की मौलिकता की बानगी पेश करते हैं:
व्यावसायिक चक्रों का विश्लेषण करने की सार्थकता पूंजीवादी युग की आर्थिक प्रक्रिया का विश्लेषण करने में निहित है। … व्यावसायिक चक्र टॉन्सिल की तरह अलग नहीं होते हैं जिनका उपचार किया जा सकता है, बल्कि, ये दिल की धड़कन की तरह उस जीव के भीतर जीवन के सार की तरह मौजूद होते हैं।12
उपरोक्त उद्धरण 1939 में आई उनकी पुस्तक व्यावसायिक चक्र: पूंजीवादी प्रक्रिया का एक सैद्धांतिक, ऐतिहासिक, तथा सांख्यिकीय विश्लेषण (Business Cycles: A Theoretical, Historical, and Statistical Analysis of the Capitalist Process) से लिया गया है। इस पुस्तक का शीर्षक यह स्पष्ट करता है कि व्यावसायिक चक्रों का अध्ययन वास्तव में पूंजीवादी प्रक्रिया का ही अध्ययन है। यह शुम्पीटर को मुख्यधारा के सभी महान अर्थशास्त्रियों से अलग करता है। इस मामले में वो कींस से भी दीगर सूची में शुमार हैं क्योंकि कींस ने संकटों को पूंजीवादी व्यवस्था की मूल कार्यप्रणाली का अभिन्न अंग नहीं माना। दूसरी तरफ, शुम्पीटर के लिए ‘व्यावसायिक चक्र’ या ‘संकट’ इस विशेष सामाजिक गठन की विशेषता को परिलक्षित करने वाला मूल भाग है जो उत्पादक शक्तियों को लगातार विकसित होने के लिए प्रेरित करता है।
शुम्पीटर के लिए तकनीकी, सामाजिक-आर्थिक, शैक्षिक या अन्य तरह का नवोन्मेष (innovation), सारी मानव प्रगति के लिए प्रेरक शक्ति की तरह काम करता है। पूंजीवाद पिछली सभी संरचनाओं से अलग है क्योंकि यह नवोन्मेष को अपने कामकाज का एक अनिवार्य हिस्सा बनाता है। पूंजीवाद में संकट नवोन्मेष के लिए रास्ता तैयार करता है। संकट समय-समय पर पहले से संचित उत्पादक शक्तियों के विनाश का कारण बनते हैं। इस विनाश के बाद पैदा हुए खाली स्थान को संकट ही नई उत्पादक शक्तियों से भरने की आवश्यकता और संभावना दोनों पैदा करते हैं। नए वैज्ञानिक अनुसंधान, तकनीकी अनुप्रयोग तथा नवोन्मेष के फलस्वरूप नई उत्पादक शक्तियाँ बेहतर गुणवत्ता और उत्पादकता लेकर आती हैं। यही रचनात्मक विनाश का मशहूर सिद्धांत है जो पूंजीवाद को इतिहास की निरंतर आगे बढ़ते रहने वाली तथा नए शिखरों को छूने वाली ताक़त बनाता है।
पूंजीवाद के बारे में शुम्पीटर का दृष्टिकोण कई मायनों में मार्क्स से मिलता-जुलता है और संभवत: वह मार्क्स से काफ़ी प्रभावित भी थे। यही कारण है कि उन्हें ‘बुर्ज़ुआ मार्क्सवादी’ कहा गया है।13 एंगेल्स के साथ मिलकर लिखे गए कम्युनिस्ट घोषणापत्र (1848) और पूंजी (1867) के पहले खंड में मार्क्स ने पहले ही स्पष्ट और लगभग प्रशंसात्मक लहजे में लिखा था कि उत्पादन के साधनों में लगातार क्रांति किए बिना पूंजीवाद अपना अस्तित्व नहीं बचा सकता है। इसने शुम्पीटर की सोच को प्रभावित किया। हमें यह नहीं पता है कि क्या शुम्पीटर को यह भी पता था कि मार्क्स ने संकट की कल्पना उस क्षण के रूप में की थी जब पूंजीवाद उत्पादन के स्थापित साधनों के विनाश के माध्यम से उत्पादन के नए और अधिक उत्पादक साधनों के लिए रास्ता तैयार करता है, क्योंकि संकट पर मार्क्स की टिप्पणियाँ बिखरी हुई हैं। मार्क्स ने विभिन्न स्थानों पर तथा अलग-अलग लेखों में संकट के बारे में लिखा था। जब शुम्पीटर 1939 में व्यावसायिक चक्र लिख रहे थे तब उनमें से बहुत सारी रचनाएँ प्रकाशित भी नहीं हुई थीं।
मार्क्स के अनुसार, पूंजीवाद के भीतर उत्पादक शक्तियों में निरंतर क्रांति समाजवाद के लिए ज़मीन तैयार करती है। हालाँकि, शुम्पीटर ने उत्पादक शक्तियों की निरंतर क्रांति को पूंजीवाद द्वारा मानवता को प्रदान किए जाने वाले एक शाश्वत लाभ के रूप में देखा। पूंजीवाद के वैचारिक रक्षक होने के उनके दो पहलू हैं। पहला: संकट को मानवता की प्रगति का सहायक का दर्जा देकर शुम्पीटर ने पूंजीवाद के कारण होने वाली तबाही और दुख से पूंजीवाद को दोषमुक्त कर दिया। दूसरा: उनके सिद्धांत ने संकटों की एकतरफा समझ पैदा की। उन्होंने पूंजीवादी संकटों की विनाशकारी शक्ति को उत्पादन के साधनों तक सीमित कर दिया, जबकि यह पूरी तरह से संभव है कि ये गंभीर संकट समाज को उत्पादन के सामाजिक संबंधों के विनाश की ओर ले जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो, संकटों की ज्वाला एक नए वर्गहीन समाज के जन्म की आधारशिला रख सकती है। रचनात्मक विनाश का विचार इस प्रकार तैयार किया गया है जिससे संकटों की ज्वाला में तपकर, सिर्फ उत्पादन के नए साधनों ही नहीं, अपितु एक नए समाज के निर्माण में सक्षम, ज़्यादा विनाशकारी समझनेवाली क्रांति के आग़ाज़ की संभावना को रोका जा सके। अत: पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की कार्यप्रणाली में शुम्पीटर की अंतर्दृष्टि न केवल मार्क्स के संकट के सिद्धांत में समाहित है, बल्कि मार्क्स के संकट के सिद्धांत का दायरा ज़्यादा विस्तृत भी है।
संकट क्या होते हैं?: मार्क्स तथा मार्क्सवादी
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का मार्क्सवादी सिद्धांत इस उत्पादन पद्धति की ऐतिहासिक गति में संकटों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को स्वीकारता है। पूंजीवाद के मुख्यधारा के आर्थिक सिद्धांत के विश्लेषण से मार्क्सवादी विश्लेषण के बेहतर होने के पीछे यह एक प्रमुख कारण है। हम आगे चलकर देखेंगे कि मार्क्स ने पूंजीवादी विकास की सबसे सामान्य परिघटनाओं, संकटों, को न केवल स्वीकारा, अपितु उनकी प्रणालीगत प्रकृति को नकारने की बजाय उन्हें पूंजीवादी अर्थव्यवस्था तथा समाज की नियति निर्धारित करने वाली धुरी के रूप में विश्लेषित किया।
मार्क्स का संकट का सिद्धांत: एक परिचय
सबसे पहले यह रेखांकित करना आवश्यक है कि मार्क्स ने से के नियम को रत्ती भर भी वैधता देने से इनकार कर दिया था। मार्क्स का यह रवैया रिकार्डो, रिकार्डो के बाद आने वाले अर्थशास्त्रियों, 1870 के दशक की ‘सीमांतवादी क्रांति’ के सिद्धांतकारों (स्टेनली जेवन्स, कार्ल मेन्जर तथा विशेष रूप से लियोन वाल्रास) और धीरे-धीरे सीमांतवादी शाखा के नक़्शेक़दम को अख़्तियार करने वाली अर्थशास्त्र की नियोक्लासिकीय शाखा से बिल्कुल अलग था। प्रभावी माँग की संभावित कमी को संकट का कारण बताने के लिए कींस ने माल्थस की ख़ूब प्रशंसा की, लेकिन उन्होंने मार्क्स को वह श्रेय नहीं दिया, जिसके वो हकदार थे। संभवत: कींस ने अपने बुर्ज़ुआ पूर्वाग्रह की वजह से मार्क्स को कमतर आंका। अपने सामान्य सिद्धांत (अध्याय 23, खंड VI) में कींस मौद्रिक सिद्धांत के इतिहास में एक विलक्षण व्यक्ति तथा 1919 में अल्पकालिक बवेरियन सोवियत गणराज्य के वित्त मंत्री सिल्वियो गेसेल (1862-1930) के बारे में बात करते हैं। पर कींस सिर्फ़ यहीं पर गेसेल के साथ तुलना के संदर्भ में मार्क्स का मूल्यांकन पेश करते हैं। कींस गेसेल की प्रमुख रचना द नेचुरल इकोनॉमिक ऑर्डर (1916) के संदर्भ में लिखते हैं:
पुस्तक का समग्र उद्देश्य एक मार्क्स-विरोधी समाजवाद की स्थापना के रूप में वर्णित किया जा सकता है। मार्क्स से दीगर सैद्धांतिक आधारशिला पर रची गई यह किताब क्लासिकीय परिकल्पनाओं को दुत्कार कर तथा प्रतियोगिता को समाप्त करने के बजाय इसको आज़ाद करने की हिमायत करती मुक्त बाज़ार (laissez-faire) के खिलाफ़ प्रतिक्रिया है। मेरा विश्वास है कि भविष्य में मार्क्स की तुलना में गेसेल के दृष्टिकोण से ज़्यादा सीख मिलेगी।14
क्या इक्कीसवीं सदी में गेसेल के नाम की सुगबुगाहट भी है?
से के नियम द्वारा वस्तुओं के विक्रेता द्वारा अन्य वस्तुओं की ख़रीद में देरी करने की संभावना की अनदेखी करने की वजह से मार्क्स ने उसकी आलोचना की। से ने अपना तर्क इस तथ्य पर आधारित किया कि सभी वस्तु उत्पादक अन्य वस्तुओं को ख़रीदने के लिए अपने द्वारा उत्पादित वस्तुओं को बेचने के उद्देश्य से उत्पादन गतिविधियों में संलग्न होते हैं। इसलिए हर विक्रेता ख़रीदारी भी करता है। कुल मिलाकर, इसका मतलब यह है कि आपूर्ति माँग तैयार करती है। मार्क्स ने यहाँ पर मौजूद एक साधारण ग़लती की ओर इशारा किया: हालाँकि यह सच है कि आपूर्ति वस्तुओं और सेवाओं को ख़रीदने की क्षमता पैदा करती है, लेकिन खरीद और बिक्री लेन-देन के दो अलग कार्य होते हैं। इन दोनों कार्यों के बीच में मूल्य का माल-अवस्था (commodity-form) से मुद्रा-अवस्था (money-form), तथा मुद्रा-अवस्था से दोबारा माल-अवस्था में रूपांतरण होता है। ऐसा भी संभव है कि विक्रेता बिक्री के पश्चात अर्जित धन को अपने पास रखकर ख़रीदारी न करें। अगर विक्रेताओं की एक ठीक-ठाक संख्या यह फैसला ले कि उनके लिए अपने पैसे को भविष्य में ख़र्च करने के उद्देश्य से अपने पास रोककर रखना ज़्यादा लाभप्रद है, तब उत्पादित वस्तुओं की माँग में गिरावट आएगी। इससे संकट की संभावना पैदा होती है। दूसरे शब्दों में, पैसे की मध्यस्तता में होने वाली खरीद एवं बिक्री की एकात्मकता को से ने आपूर्ति और माँग के बीच मध्यस्तता रहित या सीधे संबंध में तब्दील कर दिया।
जैसा कि हमने पहले बताया, मार्क्स संकट को पूंजी संचय की समस्या के साथ-साथ समाधान भी मानते हैं। सभी बड़े संकट अत्यधिक लाभ के समय छिपे पूंजी संचय की प्रक्रिया के भीतर मौजूद अन्तर्विरोधों को प्रकट करते हैं। संचय की प्रक्रिया के धीमा होते ही विभिन्न स्तरों की गंभीरता की सभी कमियाँ और अपर्याप्तताएँ सतह पर आ जाती हैं। इस दौरान यह तथ्य भी उजागर होता है कि उत्पादन के साधनों का नैतिक मूल्यह्रास हो रहा है और वो घरेलू और/या अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में प्रतिस्पर्धी प्रयासों के आधार के रूप में पूंजीपतियों की सेवा करना जारी नहीं रख सकते। इस विषय में मार्क्स और शुम्पीटर के बीच सहमति मौजूद थी।
एक अन्य पहलू को लेकर भी मार्क्स और शुम्पीटर आपस में सहमत थे। दोनों का मानना था कि संकट के विनाशकारी पहलू में ही उस संकट का समाधान निहित होता है। मार्क्स के अनुसार किसी भी बड़े संकट के लिए दो समस्याओं के समाधान की आवश्यकता होती है। पहला यह कि लाभ की सामान्य दर बढ़ाने के उपाय किये जाने चाहिए। दूसरा यह है कि नैतिक मूल्यह्रास के अधीन उत्पादन के साधन, जो अब प्रतिस्पर्धी नहीं हैं, और जो नई और अधिक उत्पादक क्षमता के मामले में पिछड़ रहे हैं, उन्हें समाप्त करके नई मशीनरी और उपकरणों और उत्पादन के नए तरीक़ों को लाया जाना चाहिए। पुरानी उत्पादक क्षमता को ख़त्म करने को मार्क्स ने अवमूल्यन (जर्मन मूल शब्द एंटवर्टुंग था) कहा था। इस शब्द को संक्षेप में समझाने के लिए मार्क्स ने मूल्यवर्धन (वेरवर्टुंग) शब्द का उपयोग उस प्रक्रिया को संदर्भित करने के लिए किया, जिसके तहत उत्पादन के दौरान जीवित श्रम के व्यय के माध्यम से श्रम की वस्तु में नया अतिरिक्त मूल्य जुड़ता है। मूल्यवर्धन का तात्पर्य मूल्य बढ़ाने की प्रक्रिया से है और अवमूल्यन का तात्पर्य मूल्य में हानि से है जिसके परिणामस्वरूप संपूर्ण मूल्य में नुकसान भी हो सकता है। इस प्रक्रिया के माध्यम से किसी संयंत्र, मशीनरी या उपकरण में निहित पूंजी अपने मूल्य की गुणवत्ता खो देती है या बेकार हो जाती है और इस प्रकार उत्पादक उपकरण के रूप में काम नहीं कर सकती है। यह संकटों की विनाशकारी प्रक्रिया का शुम्पीटर का विश्लेषण है। संकट के परिणामस्वरूप पुरानी, अप्रचलित या अपर्याप्त उत्पादक मशीनरी और उपकरणों का उन्मूलन भी मार्क्स के विश्लेषण में मौलिक स्थान रखता है।
मार्क्स, और उनके विश्लेषण को मानने वाले मार्क्सवादी अर्थव्यवस्था में अस्थिरता पैदा करने वाले तथा एक छोटी अस्थिरता को संकट में बदलने की क्षमता रखने वाले कारकों और संकट को बुनियादी तौर पर अलग मानते हैं। उनके अनुसार संकट इन कारकों से हमेशा भिन्न होता है। 1973-74 में तेल की कीमतों के बढ़ने के कारण पैदा हुआ भीषण संकट इसका एक अच्छा उदाहरण है। इस संकट की वजह से धीमे संचय और आर्थिक अवसाद का एक लम्बा दौर शुरू हुआ था। संचय के इस संकट का असली कारण मशीनरी तथा स्वचालन (automation) द्वारा जीवित श्रम की जगह लेने के कारण मुनाफ़े की दर में गिरावट था। अमेरिका में 2007 में शुरू हुआ और 2008-09 में बाकी दुनिया में फैला सबप्राइम ऋृण संकट (subprime mortgage crisis) भी ऐसा ही एक हालिया उदाहरण है। वास्तविक वैश्विक अर्थव्यवस्था के उत्पादक आधार से शुरू होकर वित्तीय क्षेत्र तक फैल चुके भीषण संकट के लिए सबप्राइम ऋृण ने सिर्फ चिंगारी का काम किया था। हम आगे इसकी क्रियाविधि पर विस्तार से चर्चा करेंगे। अभी हमें यह रेखांकित करना जरूरी है कि बुर्ज़ुआ अर्थशास्त्र द्वारा संकट के लिए चिंगारी का काम करने वाले कारकों को संकट की मूल वजह मानने के कारण संकट के स्वरूप के बारे में लोगों के बीच भ्रांति फैलती है।
पूंजी संचय के भीतर संकट पैदा करने वाली वास्तविक प्रक्रियाओं और इन संकटों की बाहरी अभिव्यक्ति के बीच मौजूद द्वंद्वात्मकता के कई पहलू हैं। ऐसा ही एक पहलू अतिउत्पादन है। चाहे कींसवादी हों या मार्क्सवादी, बड़े संकटों के कारक के रूप में पूंजी निर्माण (या निवेश) को महत्त्वपूर्ण मानने वाले संकट के सभी सिद्धांत स्वीकार करते हैं कि संकट बिना बिकी वस्तुओं की अधिकता के रूप में शुरू होता है। हालाँकि, इस तथ्य के कुछ पर्यवेक्षक बिना बिके सामानों की प्रचुरता के अस्तित्व से यह निष्कर्ष निकालते हैं कि संकट असल में अतिउत्पादन का संकट होता है। संकट को जन्म देने वाली आवश्यक प्रक्रियाओं और संकट के स्रोत के बाहरी स्वरूप के बीच इस तरह के भ्रम से संकट के बारे में गंभीर गलतफ़हमी पैदा हो सकती है।
वित्त की विरोधाभासी भूमिका
मार्क्स पूंजीवाद के संकटों की वास्तविक गतिशीलता को अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्र, पूंजी के उत्पादन और संचय के भीतर स्थित करते हैं। हालाँकि संकट का जन्मस्थान वित्तीय क्षेत्र नहीं होता है, लेकिन यह संकट को उसका स्वरूप प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
बेशी मूल्य (यानी, वह अतिरिक्त मूल्य जो मज़दूर अपनी मज़दूरी के मूल्य के पुनरुत्पादन के अलावा पैदा करते हैं) के उत्पादन के माध्यम से अर्जित लाभ के पुनर्निवेश के अलावा उत्पादक पूंजीपति दो अलग-अलग तरीक़ों का सहारा लेकर अतिरिक्त पूंजी जमा कर सकते हैं: बैंक ऋण और शेयर बाज़ार में एकत्रित हुआ धन। इन दोनों ही तरीक़ों से जमा हुई पूंजी अपने मूल रूप से अलग प्रकार के वित्त को जन्म देती है। बैंक में ग्राहक द्वारा जमा किया गया धन कुल जमा धन से कहीं ज़्यादा मात्रा में ऋण की किश्तें बना सकता है। दूसरी तरफ, शेयर बाज़ार में उत्पादन के साधनों में मूल रूप से सन्निहित मूल्य में गुणन होता है। गुणन की यह प्रक्रिया उत्पादन के क्षेत्र को तितांजलि देकर स्वतंत्र रास्ता अपना लेती है। पूंजी के इस स्वरूप को मार्क्स काल्पनिक पूंजी कहकर संबोधित करते हैं क्योंकि यह उस मूल पूंजी से भिन्न होती है जिसका यह प्रतिनिधित्व करती है। काल्पनिक पूंजी का मूल्य बढ़कर उस मूल उत्पादक पूंजी के मूल्य से बेतहाशा ज़्यादा हो सकता है जिसका वह प्रतिनिधित्व करती है।
वित्त की स्व-प्रसारित होने की क्षमता संकट आने पर बेहद उपयोगी साबित होती है। संकट का कारण चाहे जो भी हो, इसकी वजह से माँग में कमी, खपत और बिक्री में गिरावट आती है और यह भुगतान के साधनों की कमी का संकेत देता है। अतिरिक्त वित्त संकट में फँसी विभिन्न आर्थिक इकाइयों में जान फूँकता है जिससे आर्थिक गतिविधि को बनाए रखने में मदद मिलती है। अतिरिक्त वित्त दिवालियापन की घटनाओं को रोकने में मददगार होता है। मार्क्स इसे अति-ऋण की संज्ञा देते हैं। अति-ऋण की संज्ञा मुफ़ीद है क्योंकि ऋण और वित्त उस खास काल में मौजूद उत्पादन प्रणाली की क्षमता के तहत संभव आर्थिक गतिविधियों की सीमाओं को तोड़कर उससे परे ले जाते हैं। ये ‘सीमाएँ’ निश्चित या स्थिर नहीं होती हैं: जैसे-जैसे अतिरिक्त ऋण का मरहम और शेयर बाजार के माध्यम से अतिरिक्त ऋण पूंजी का प्रावधान कुछ हद तक अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करता है, वैसे-वैसे ये सीमाएँ आनुपातिक रूप से आगे बढ़ती हैं और अधिकाधिक संख्या में आर्थिक इकाइयाँ संकट से बाहर निकलने का रास्ता तलाश करती हैं। लेकिन इस नई जीवन शक्ति के बदले बढ़ते क़र्ज़ की क़ीमत चुकानी पड़ती है।
एक मरणासन्न अर्थव्यवस्था को वित्त से जितना अधिक संबल मिलता है, उतनी ही ज़्यादा मात्रा में ऋण जमा होता जाता है। आख़िरकार वित्तीय प्रवाह के परिमाण का स्तर सभी ऋण और बाजार पूंजीकरण को जन्म देने वाले उत्पादक आधार की तुलना में असंगत हो जाता है। इस कारण पतन जितनी देर के बाद होता है उतना ही ज़्यादा भयावह होता है। 2008 में यही हुआ था। 2008 के बाद के आर्थिक आँकड़ों की जाँच करने पर पूरी संभावना दिखती है कि लघु या मध्यम अवधि में फिर से वही कहानी ख़ुद को दोहराएगी।
संकट के मार्क्सवादी सिद्धांतों का एक परिचय: लाभ-उगाही, अल्पउपभोग, तथा मुनाफ़े की गिरती दर
मार्क्सवादी परम्परा के भीतर संकट के कारणों को समझाने के लिए कई दृष्टिकोण मौजूद हैं। उनमें से मार्क्स के संकट के सिद्धांत पर व्यापक सहमति है, लेकिन जब संकट के मूल कारण की बात आती है तो असहमतियाँ उभरकर आती हैं। हम सभी दृष्टिकोणों की चर्चा नहीं करेंगे। हम सिर्फ़ उन सिद्धांतों की चर्चा करेंगे जो वर्तमान संकट और 1974-1975 की आर्थिक अवसाद की लहर की व्याख्या करने में सक्षम हैं। इस आलोक में तीन सिद्धांत सामने आते हैं: लाभ-उगाही सिद्धांत (profit-squeeze theory), अल्पउपभोग सिद्धांत, और लाभ की दर में गिरावट की प्रवृत्ति के नियम पर आधारित सिद्धांत।
लाभ-उगाही सिद्धांत
लाभ-उगाही सिद्धांत बहुत सरल है: इसके अनुसार संकट श्रम की बढ़ती शक्ति और इसके परिणामस्वरूप मज़दूरी में वृद्धि के कारण उत्पन्न होता है, जिससे लाभ के दर में कमी आती है। यद्यपि 1945-1973 के दौरान मौजूद युद्धोत्तर उछाल के अंत में यह सिद्धांत बहुत लोकप्रिय था, लेकिन अब यह चलन से बाहर हो गया है।
लाभ-उगाही सिद्धांत तथा लाभ की दर में गिरावट की प्रवृत्ति के नियम पर आधारित सिद्धांत, दोनों ही संकटों के लिए लाभ में गिरावट को जिम्मेदार ठहराते हैं। इससे दोनों सिद्धांतों के बीच तुलना संभव हो पाती है। लाभ-उगाही सिद्धांत लाभ की दर में गिरावट का कारण पूंजीवादी समाज के दो बुनियादी वर्गों, पूंजीपतियों और मज़दूरों के बीच उत्पाद के विभाजन को मानता है। लाभ की दर में गिरावट की प्रवृत्ति का नियम कहता है कि इसके लिए पूंजी की बदलती संरचना जिम्मेदार होती है (हम जल्द ही इसकी चर्चा करेंगे)।
जब 1970 के दशक के मध्य में लाभ-उगाही सिद्धांत सामने आया, तब उस दौर की परिस्थितियों में यह बेहद सटीक प्रतीत हुआ। विकास के उस चरण में, साम्राज्यवादी देशों में श्रम की घटती रिज़र्व सेना (यानी गिरती बेरोज़गारी) ने मज़दूर वर्ग को मज़बूत किया, श्रमिक संघों को सशक्त बनाया और मज़दूरी में वृद्धि की प्रवृत्ति पैदा की। संकट के आगमन से पहले उपरोक्त कारकों के संयोजन का मौजूद होना असामान्य नहीं है, क्योंकि एक अतितप्त अर्थव्यवस्था ठीक इसी तरह के कारकों को जन्म देती है जिससे मज़दूरी बढ़ती है और अर्थव्यवस्था में सशक्त संवृद्धि के दौर का अवसान होता है। अत: सैद्धांतिक तथा अनुभवजन्य, दोनों ही दृष्टियों से यह सिद्धांत दोषरहित प्रतीत हो सकता है, लेकिन सावधानी से तहक़ीक़ात करने पर उसमें मौजूद कमियाँ धरातल पर आने लगती हैं।
सैद्धांतिक रूप से देखें तो इस सिद्धांत के साथ समस्या यह नहीं है कि यह लाभ की दर में गिरावट को उजागर करती है। समस्या उन कारणों में निहित है जिनको यह सिद्धांत लाभ की दर में गिरावट की व्याख्या करने के लिए प्रस्तुत करता है। इसके पीछे वजह निम्नलिखित है: पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की कार्यप्रणाली द्वारा दो मुख्य वर्गों के बीच आय के वितरण (या उत्पाद के विभाजन) को काफ़ी कम समय में ठीक किया जा सकता है। परंतु लाभ की दर में गिरावट की प्रवृत्ति के नियम में इस तरह का बदलाव संभव नहीं है। बढ़ती मज़दूरी के कारण लाभ की गिरती दर की समस्या को कौन सी प्रणाली दूर कर सकती है? मशीनरी-गहन (machinery-intensive) तकनीकों की मदद से पूंजी श्रम के प्रयोग को कम करके बेरोज़गारी को बढ़ा सकती है और मज़दूरों तथा बेरोज़गारों के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ाकर मज़दूरी के स्तर को गिरा सकती है। मार्क्स ने इस स्थिति को खूबसूरती से समझाते हुए बताया कि पूंजी श्रम शक्ति की माँग और आपूर्ति दोनों को नियंत्रित करती है, जिससे लंबी अवधि के लिए मज़दूरी को श्रम शक्ति के मूल्य से अधिक रखना असंभव हो जाता है।15
अगर यह सत्य है तो लाभ-उगाही सिद्धांत भले ही किसी संकट के प्रारम्भिक चरण में अनुभवजन्य रूप से सत्य पाया गया हो, लेकिन यह वर्षों तक चलने वाले विकराल संकटों की व्याख्या नहीं कर सकता है। बाद के घटनाक्रमों ने यह सिद्ध कर दिया। संकट के परिणामस्वरूप मज़दूरों की एक बड़ी रिज़र्व सेना का निर्माण हुआ था, जिसके कारण मज़दूर वर्ग कमज़ोर हुआ और मज़दूरी में कमी आई। इसीलिए जब 2008 में वैश्विक वित्तीय संकट आया तो लाभ-उगाही सिद्धांत को व्याख्या के लिए पेश नहीं किया गया: उस समय वेतन इतने अधिक नहीं थे कि उनसे मुनाफ़ा उगाहा जा सके।
लाभ-उगाही सिद्धांत कुछ हद तक प्रभावशाली था, लेकिन इसका प्रभाव लंबे समय तक कायम नहीं रह पाया।
अल्पउपभोग सिद्धांत
अल्पउपभोग के सिद्धांत ने ऐतिहासिक रूप से तथा वर्तमान में भी संकट के सिद्धांत के साथ-साथ पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था की समग्र कार्यप्रणाली को समझने में प्रयासरत मार्क्सवादी सोच पर गहरा असर डाला है। अल्पउपभोग का सिद्धांत पूंजीवाद की गति के नियमों के लिए एक समग्र दृष्टिकोण माना जा सकता है, जिसमें उपभोग और माँग पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली के मुख्य चालक बन जाते हैं। यह पूंजीवाद की उस समझ से काफ़ी अलग है, जिसकी रूपरेखा मार्क्स ने पूंजी में खींची थी, जिसके अनुसार बेशी मूल्य का उत्पादन, और लाभ, वो प्रेरक शक्तियाँ है जो पूंजीवादी संचय के वेग को बनाए रखती हैं। अल्पउपभोग का सिद्धांत इतना प्रभावशाली है कि जब भी किसी संकट पर बहस होती है तो लोग उत्पादन के गिरते स्तर के लिए माँग की कमी को जिम्मेदार बताने लगते हैं।
अल्पउपभोगवाद सैद्धांतिक तथा राजनीतिक रूप से भिन्न मार्क्सवाद की कई शाखाओं (साथ ही मार्क्सवाद के बाहर भी) में मौजूद है। अल्पउपभोगवाद की सबसे प्रतिष्ठित प्रतिनिधियों में से एक रोजा लक्ज़म्बर्ग (1871-1919) थीं, जिन्होंने साम्राज्यवाद के सिद्धांत को विकसित करने की कोशिश करते हुए मार्क्सकृत पूंजी की आलोचना की थी। उन्होंने ख़ासकर खंड दो में विश्लेषित पुनरुत्पादन योजनाओं की आलोचना की और आरोप लगाया कि इसमें पूंजीवादी संचय की कार्यप्रणाली की समझ में खामी है। अल्पउपभोगवाद के अन्य प्रमुख प्रतिनिधियों में मंथली रिव्यू शाखा (पॉल स्वीज़ी और पॉल बरान इसके मुख्य लेखक हैं); फ्रांसीसी विनियमन शाखा (मिशेल एग्लिएटा, रॉबर्ट बॉयर और एलेन लिपिट्ज़ इसकी प्रमुख शख़्सियतें हैं); संचय की सामाजिक संरचना शाखा (डेविड गॉर्डन, माइकल रीच, रिचर्ड एडवर्ड्स, थॉमस वीस्कॉफ़ और सैम बाउल्स इसके प्रतिनिधि हैं); तथा मार्क्सवादी आर्थिक सिद्धांत की अन्य प्रभावशाली हस्तियाँ (इनमें सबसे मशहूर डेविड हार्वे हैं) हैं।
हम अल्पउपभोगवाद के सभी प्रकारों और प्रभावों का अध्ययन नहीं करेंगे। हम सिर्फ़ संकटों के बारे में अल्पउपभोगवाद की एक समग्र तस्वीर प्रस्तुत करेंगे। लक्ज़म्बर्ग से हार्वे तक, सभी अल्पउपभोगवादी एक बहुत ही सरल प्रश्न उठाते हैं: बेशी मूल्य के समानुरूप वस्तुओं की माँग कहाँ से आती है? बेशी मूल्य के अस्तित्व का मतलब है उत्पादन प्रक्रिया में उपयोग की जाने वाली पूंजी तथा मज़दूरों एवं उनके परिवारों को ज़िंदा रखने के लिए आवश्यक उपभोग व्यय के मूल्य से उत्पादित मूल्य ज़्यादा है। पूंजीपति वर्ग से संपूर्ण बेशी उत्पाद का उपभोग करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है, क्योंकि वे बेशी मूल्य का उत्पादन उपभोग के लिए नहीं करते। आख़िरकार उन वस्तुओं (और सेवाओं) को कौन ख़रीदता है जिनमें बेशी मूल्य अंतर्निहित है? अल्पउपभोगवादी माँग का स्रोत समझने में असमर्थ हैं। कुछ (उदाहरण के लिए, रोज़ा लक्ज़म्बर्ग) तर्क थॉमस माल्थस की याद दिलाते हैं। उनकी दलील है कि कोई मध्यम वर्ग, उपभोक्ताओं का एक अलग समूह होना चाहिए जो इन वस्तुओं के लिए माँग पैदा करेगा। बरान और स्वीज़ी जैसे अन्य लोग इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि राजकीय व्यय और अनुत्पादक व्यय (विज्ञापन, आदि) से इस अंतर को पाटना होगा। बरान और स्वीज़ी के नक़्शेक़दम पर चलने वाले कुछ लोग 1960 और 1970 के दशक में लोकप्रिय स्थाई हथियार अर्थव्यवस्था (permanent arms economy) के विचार को समाधान के रूप में पेश करते हैं। विनियमन शाखा तथा संचय की सामाजिक संरचना शाखा के लोग फोर्डिस्ट शासन प्रणाली वाले कल्याणकारी राज्य की अवधारणा में समाधान तलाश करते हैं। हार्वे जैसे कुछ विचारक विभिन्न प्रकार के सहायक कारकों में हल ढूढते हैं। विनियमन शाखा तथा संचय की सामाजिक संरचना शाखा अतिरिक्त माँग प्रदान करने, पूंजी संचय की विभिन्न अवधियों के दौरान संस्थानों के प्रभाव और आर्थिक नीति में बदलाव की भूमिका पर भी जोर देते हैं। उनकी नज़र में अतिरिक्त माँग प्रदान करने की संरचनात्मक विफलता ही संकट की वजह है।
अल्पउपभोगवाद की सभी विचारधाराएँ इस बात को नज़रअंदाज़ कर देती हैं कि पूंजीवादी संचय स्वयं ही इस प्रश्न का उत्तर प्रदान करता है कि ‘बेशी मूल्य के अनुरूप वस्तुओं की माँग कहाँ से आती है?’ पूंजी संचय के अपने विश्लेषण में मार्क्स साधारण पुनरुत्पादन और विस्तारित पुनरुत्पादन के बीच अंतर को स्पष्ट करते हैं। साधारण पुनरुत्पादन उस स्थिति को बताता है जिसमें पूंजीपति वर्ग संपूर्ण बेशी मूल्य का उपभोग राजस्व के रूप में करता है। हालाँकि ऐसा होता नहीं है। साधारण पुनरुत्पादन का उदाहरण विस्तारित पुनरुत्पादन की विशेषताओं को दिखाने के लिए किया गया है। विस्तारित पुनरुत्पादन पूंजीवाद की वास्तविक दुनिया से मेल खाता है। विस्तारित पुनरुत्पादन वास्तव में पूंजी संचय ही है: इसका मतलब है कि पूंजी अपने उत्पादन के पैमाने का विस्तार करने हेतु उत्पादन के नए साधनों को ख़रीदने और नए मज़दूरों को काम पर रखने के लिए बेशी मूल्य का उपयोग करती है। इन नए मज़दूरों को मज़दूरी का भुगतान किया जाता है जिसका उपयोग करके ये मज़दूर अतिरिक्त वस्तुओं का उपभोग करते हैं। इससे पहले से नियोजित मज़दूरों के उपभोग के अलावा अलग से नई वस्तुओं का उपभोग होता है। इससे एक सरल निष्कर्ष निकलता है कि यदि पूंजी का संचय (या विस्तारित पुनरुत्पादन) होता है तो यह सामान्य परिस्थितियों में उत्पादित बेशी मूल्य का उपभोग करने के लिए पर्याप्त माँग पैदा करेगा। लेकिन अल्पउपभोग सिद्धांत विस्तारित उत्पादन को नकारता है। बोल्शेविक पार्टी के एक प्रमुख सिद्धांतकार निकोलाई बुखारिन ने रोजा लक्ज़म्बर्ग की गलतफ़हमी की आलोचना करते हुए कहा कि यदि कोई शुरुआत में ही विस्तारित पुनरुत्पादन को नकार देता है तो बहस के दरम्यान विस्तारित पुनरुत्पादन को समझाना असंभव साबित होगा।16
भले ही अल्पउपभोगवादी माँग की कमी को मूल समस्या के तौर पर पहचानने में सही थे, लेकिन यह सिद्धांत संकटों के बारंबार आने की वजहों की व्याख्या नहीं कर सकता है। हमें इसके लिए हर एक शाखा के सिद्धांतों का विश्लेषण करने की ज़रूरत नहीं है। हम मंथली रिव्यू शाखा का उदाहरण लेकर इसे समझ सकते हैं। मंथली रिव्यू शाखा का सिद्धांत समझाने में विफल है कि सरकारी व्यय बढ़ाने तथा टैक्स एवं ब्याज दर घटाने की सचेत रणनीति आख़िर काम क्यों नहीं करती है। अल्पउपभोगवादी सिद्धांत के अनुसार, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था जिस स्थिति में होती है – चाहे माँग की स्थाई कमी के कारण ठहराव हो या अतिरिक्त माँग के (अतिरिक्त माँग कहीं से आए) परिणामस्वरूप संचय की प्रक्रिया ज़ोर पर हो – वही स्थिति हमेशा के लिए बनी रहती है। परिस्थितियों में विशेष परिवर्तन आने पर ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था बदलाव से गुजरती है। परिस्थितियों में आवधिक परिवर्तन की वजहों का पड़ताल करना अल्पउपभोग सिद्धांत की जिम्मेदारी है। जिन शाखाओं की हमने चर्चा की है उनमें से किसी ने भी इस समस्या को पहचाना तक नहीं है, उत्तर देना तो दूर की बात है।
शायद इसका सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक परिणाम यह है कि अधिकांश अल्पउपभोगवादी पूंजीवादी संकट के समाधान के रूप में मज़दूरी में वृद्धि का प्रस्ताव पेश करते हैं। यह राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण कदम है क्योंकि यह पूंजीपतियों को समझाने का प्रयास करने की सुधारवादी नीति की ओर ले जाता है। पूंजीपतियों को समझाने का प्रयास किया जाता है कि मज़दूरी में वृद्धि अर्थव्यवस्था को ठहराव से बाहर निकालकर उनके हितों की पूर्ति करने के साथ-साथ कामगार वर्ग के लोगों के परिवारों को अधिक मानवीय जीवन स्तर देने में मददगार होगी। ऐसा प्रस्ताव प्रमुख वर्गों के बीच साझे हित की मौजूदगी का भ्रम पैदा करेगा। जबकि, वास्तव में, एक गंभीर आर्थिक संकट हमेशा पूंजीपतियों और कामगार लोगों के बीच अन्तर्विरोधों को गहरा करता है। अत: यह नज़रिया मज़दूर वर्ग की लड़ने की इच्छा को कुंद कर देता है।
मार्क्स पूंजी में लिखते हुए इस तरह के विचार पर प्रहार करते हैं:
किंतु यदि कोई यह कहकर कि मज़दूर वर्ग अपने ही उत्पाद का बहुत ही कम हिस्सा पाता है और इसलिए जैसे ही उसे उसका अधिक भाग मिलने लगेगा और इसके परिणामस्वरूप उसकी मज़दूरी बढ़ जाएगी, वैसे ही यह दोष दूर हो जाएगा, इस पुनरावृत्ति को अधिक गहन औचित्य की सादृश्यता प्रदान करना चाहे, तो यही कहा जा सकता है संकटों की तैयारी सदा ठीक उन्हीं दिनों में होती है, जब मज़दूरी में आम तौर से इज़ाफ़ा होता है और मज़दूर वर्ग वास्तव में वार्षिक उत्पाद के उस भाग का ज़्यादा हिस्सा पाता है, जो उपभोग के लिए उद्दिष्ट होता है। गंभीर और “सरल” (!) सहज बोध के इन समर्थकों के दृष्टिकोण से तो ऐसे दिनों को संकट दूर करना चाहिए।17
पड़ताल करने पर उपरोक्त तथा अन्य गौण कारणों की वजह से अल्पउपभोग सिद्धांत में मौजूद खामियाँ उजागर होने लगती हैं।
लाभ की दर में गिरावट की प्रवृत्ति का नियम
मार्क्स के विश्लेषण से पता चलता है कि पूंजीवादी व्यवस्था उपयोग-मूल्य के बजाय मूल्य, उपभोग के बजाय उत्पादन और आवश्यकता के बजाय लाभ के इर्द-गिर्द घूमती है। इसलिए, इस तथ्य में कोई उल्लेखनीय बात नहीं है कि पूंजी संचय की संपूर्ण गति लाभ दर के उतार-चढ़ाव से निर्धारित होती है। दरअसल, लाभ की गिरती दर की पूरी चर्चा इतनी महत्त्वपूर्ण है कि मार्क्स इसे ‘आधुनिक राजनीतिक अर्थव्यवस्था का सबसे महत्त्वपूर्ण नियम’ कहते हैं।18
सभी वैज्ञानिक कानूनों की तरह ही लाभ की दर में गिरावट की प्रवृत्ति का नियम एक प्रवृत्ति संबंधी नियम है। दूसरे शब्दों में, प्रतिकारी प्रवृत्तियों के प्रभाव में यह नियम स्वयं लगातार संशोधन, कमज़ोरी और यहां तक कि ठहराव का सामना करता है। किसी निश्चित समय पर लाभ की दर में गिरावट की प्रबल प्रवृत्ति तथा प्रतिकारी प्रवृत्तियों का पारस्परिक प्रभाव यह निर्धारित करता है कि इस नियम की प्रबल प्रवृत्ति फलित होगी या नहीं। हालाँकि, प्रबल प्रवृत्ति इतनी शक्तिशाली होती है कि वह देर-सबेर खुद को स्थापित किए बिना नहीं रुकती है।
इस नियम को दो स्तरों पर समझाया जा सकता है। पहला स्पष्टीकरण जटिल कारकों को हटाकर पूंजी तथा उजरती श्रम (wage labour), अथवा पूंजीपति तथा उजरती मज़दूर (wage workers) के बीच के संबंध के अध्ययन पर आधारित है तथा पूंजी के खंड एक में मिलता है। दूसरा स्पष्टीकरण पूंजियों के बीच प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र में पाया जाता है तथा पूंजी के तीसरे खंड (पहले खंड में संक्षिप्त विवरण मौजूद है) में मिलता है।
पूंजी और उजरती श्रम के बीच उत्पादन के संबंध को समझने के लिए सापेक्ष बेशी मूल्य के उत्पादन की विधि महत्त्वपूर्ण है। मार्क्स बेशी मूल्य के उत्पादन के दो भिन्न तरीक़ों की पहचान करते हैं: पूर्ण और सापेक्ष। पूर्ण बेशी मूल्य के उत्पादन के लिए उत्पादन की तकनीकों या तरीक़ों में किसी बदलाव की आवश्यकता नहीं होती है; यह केवल कार्यदिवस की लम्बाई पर आधारित होता है। कार्यदिवस जितना लम्बा होगा, मज़दूरी की तय दर पर मज़दूर को उतना अधिक श्रम ख़र्च करना होगा और इसके परिणामस्वरूप ज़्यादा बेशी मूल्य का उत्पादन होगा। दूसरी ओर, सापेक्ष बेशी मूल्य तकनीकी आधार और उत्पादन के तरीक़ों में बदलाव पर निर्भर करता है। यह वैज्ञानिक अनुसंधान में विकास, नई सामग्रियों की खोज, प्रौद्योगिकी के लिए वैज्ञानिक खोजों के अनुप्रयोग और उत्पादन के नए तरीक़ों के निर्माण जैसे कारकों के परिणामस्वरूप श्रम की उत्पादक शक्ति में वृद्धि का परिणाम होता है। जैसे-जैसे श्रम की उत्पादक शक्ति में वृद्धि पूरी अर्थव्यवस्था में व्यापक रूप से फैलती है, प्रत्येक वस्तु का उत्पादन करने के लिए श्रम की कम मात्रा की आवश्यकता होती है। इनमें मज़दूर और उसके परिवार द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली उपभोग वस्तुएँ भी शामिल हैं। जैसे-जैसे उपभोग की वस्तुएँ सस्ती होंगी, मज़दूर को अपने वेतन के बराबर मूल्य की मात्रा को पुनरुत्पादित करने के लिए अपना कम समय ख़र्च करना होगा और इस प्रकार (अपरिवर्तित) कार्यदिवस का एक लम्बा हिस्सा बेशी मूल्य के उत्पादन में ख़र्च करना होगा। चूँकि मज़दूरों के पोषण करने वाली वस्तुएँ सस्ती हो गई हैं, इसलिए पूंजीपति बेशी मूल्य की अधिक मात्रा हड़प लेता है। यही सापेक्ष बेशी मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया है।
कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स दावा करते हैं कि पूंजी के मालिक ‘उत्पादन के उपकरणों में लगातार क्रांति किए बिना अस्तित्व में नहीं रह सकते’। सापेक्ष बेशी मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया मार्क्स के दावे का वैज्ञानिक आधार है। उच्च बेशी मूल्य (यानी लाभ) की खोज में पूंजी श्रम की उत्पादकता में वृद्धि करने वाली नई तकनीकों, सामग्रियों और तरीक़ों का विकास करती है।19
हालाँकि, इससे पूंजी के लिए अन्तर्विरोध पैदा होता है। अधिकांशत: उत्पादन प्रक्रिया में नई मशीनों और अधिक महंगी सामग्रियों को शामिल करके तकनीकों में प्रगति हासिल की जाती है। इसके परिणामस्वरूप, स्थिर पूंजी – यानी, संयंत्र, मशीनरी, अन्य उपकरण, ऊर्जा जैसे सहायक तत्व – जीवित श्रम की तुलना में बढ़ती है। मार्क्स इसे पूंजी की तकनीकी संरचना और जैविक संरचना कहते हैं (हमें यहाँ इन दोनों के बीच अंतर पर चर्चा करने की जरूरत नहीं है)। यानी, स्थिर पूंजी और जीवित श्रम का अनुपात बढ़ता है। मूल्य का मूल मार्क्सवादी प्रस्ताव यह मानता है कि हर मूल्य, और बेशी मूल्य का स्रोत जीवित श्रम है। बेशी मूल्य की मात्रा बढ़ाने का प्रयास करती हुई पूंजी मूल्य के स्रोत, यानी श्रम को ही उत्पादन प्रक्रिया से बाहर निकालती है।
लाभ की दर बेशी मूल्य और कुल पूंजी का अनुपात होती है। चूँकि स्थिर पूंजी (मशीनरी आदि) जीवित श्रम की तुलना में तेज़ी से बढ़ती है और जीवित श्रम की कोई भी मात्रा केवल एक निश्चित मात्रा में बेशी मूल्य का निर्माण कर सकती है, इसलिए स्थिर पूंजी बेशी मूल्य की तुलना में तेज़ी से बढ़ती है। फलत: लाभ की दर कम हो जाती है। चूँकि पूरी प्रक्रिया को सापेक्ष बेशी मूल्य को बढ़ाने के लिए शुरू किया गया था, इसलिए बेशी मूल्य में भी बढ़ोत्तरी होगी। बेशी मूल्य में बढ़ोत्तरी लाभ की गिरती दर का प्रतिकार करने वाली प्रवृत्तियों में से एक है। परिणाम इस बात से तय होता है कि श्रम की उत्पादकता और पूंजी की जैविक संरचना में से ज़्यादा तेज़ी से कौन बढ़ता है। लेकिन जैसे-जैसे अतिरिक्त बेशी मूल्य तैयार करने के लिए किया जाने वाला निवेश बढ़ता है और अधिकाधिक उन्नत तकनीक का प्रयोग होता है, एक निश्चित स्तर पर पूंजी की जैविक संरचना प्रतिकारक प्रवृत्ति पर काबू पा लेगी और लाभ की दर में गिरावट शुरू हो जाएगी।
लाभ की दर में गिरावट की प्रवृत्ति के नियम की दूसरी व्याख्या उसी प्रक्रिया को पूंजी के बीच प्रतिस्पर्धा के नज़रिए से विश्लेषित करके आती है। प्रतिस्पर्धा के विजेता का निर्धारण करने में कई कारक शामिल होते हैं। हमारी रुचि तकनीकी परिवर्तन पर आधारित कीमतों की प्रतिस्पर्धा में है। यह वास्तविक जीवन में भी दीर्घावधि में सबसे महत्त्वपूर्ण कारक होता है। एक फ़र्म अपने प्रतिस्पर्धियों को पीछे छोड़ने के लिए श्रम बल की उत्पादकता को बढ़ाने वाली एक नई तकनीक या उत्पादन की विधि का आविष्कार करेगी। इसके परिणामस्वरूप फ़र्म द्वारा उत्पादित वस्तुओं (या सेवाओं) में उसके प्रतिद्वंद्वियों द्वारा उत्पादित वस्तुओं (या सेवाओं) की तुलना में कम मानव श्रम की आवश्यकता होगी। इससे फ़र्म वस्तुओं (या सेवाओं) की कीमतों को कम कर पाएगी। इससे फ़र्म के प्रतिस्पर्धी असमंजस में पड़ जाएँगे। अगर वो कीमतों को पहले के स्तर पर रखते हैं तो उनके सारे ग्राहक समान या संभवत: बेहतर गुणवत्ता का सामान कम कीमत पर बेचने वाली फ़र्म के पास चले जाएँगे। अगर वो कीमतों को कम करते हैं तो उनको प्रतिद्वंदी फ़र्म की तुलना में नुकसान उठाना पड़ेगा। अत: दीर्घावधि में उनको अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए उन तकनीकों (अथवा बेहतर तकनीकों) को अपनाना पड़ेगा। जब ऐसा हो जाएगा तब सारी फ़र्में अपनी कीमतों को एक समान स्तर पर ला पाएँगी।
उत्पादक शक्तियों की इस उन्नति के परिणाम क्या हैं? यह प्रक्रिया सभी फर्मों के लिए पूंजीगत वस्तुओं (मशीनरी, उपकरण, नई सामग्री आदि) पर परिव्यय को बढ़ाती है, जबकि आधुनिकीकरण के लिए आवश्यक वृद्धिशील लागत लाभ को पीछे छोड़ देती है। इस कारण दीर्घावधि में लाभ की दर में गिरावट आती है। इसलिए हम पाते हैं कि कुछ परिस्थितियों में, जब प्रबल प्रवृत्ति प्रतिकूल प्रवृत्ति पर हावी हो जाती है, तब लाभ की दरें गिर जाती हैं।
पूंजीपति के लिए उत्पादन का उद्देश्य पूंजी के उपलब्ध परिमाण से अधिकतम बेशी मूल्य (लाभ) प्राप्त करना है। नतीजतन, लाभ की दर में गिरावट आने से पूंजीपति पूंजी निवेश करने, यानी पूंजी संचित करने के प्रति पहले की तुलना में कम इच्छुक होंगे। इसकी वजह से विस्तारित पुनरुत्पादन को जारी रखने के लिए आवश्यक बेशी मूल्य में कमी आएगी। अत: संकट का मार्क्सवादी सिद्धांत न तो अतिउत्पादन और न ही अल्पउपभोग का सिद्धांत है। यह अतिसंचय (overaccumulation) का सिद्धांत है।
आधी सदी पहले तक लाभ की दर में गिरावट की प्रवृत्ति का नियम केवल एक सिद्धांत था। हालाँकि यह एक बहुत प्रभावशाली, और, हमारी राय में, पूंजीवादी संकटों को समझाने के लिए सबसे अच्छा सिद्धांत था। इसका अनुभवजन्य परीक्षण कभी नहीं किया गया था और विभिन्न चर, जैसे कि पूंजी की जैविक संरचना, श्रम की उत्पादकता के संकेतक के रूप में बेशी मूल्य की दर और विशेष कर लाभ की दर आदि को मापकर ज़मीनी स्तर पर वास्तविक स्थिति से कभी तुलना नहीं की गई थी। इसका कारण यह है कि मूल्यों का परिमाण उत्पादन के वास्तविक संबंधों की बाह्य अभिव्यक्तियों की अनेक परतों के भीतर छिपे उत्पादन के संबंधों का मूर्त रूप मात्र होता है। यह उन परमाणुओं की तरह होता है जिनसे मिलकर सभी पदार्थ बनते हैं लेकिन नग्न आंखों से दिखाई नहीं देते हैं जिस कारण उन्हें देखकर उपयोगी और सही आँकड़ों में संकलित किया जाना संभव नहीं होता है। इसलिए, इन मूल्य श्रेणियों का अनुमान लगाने और गणना करने के लिए गैर मार्क्सवादी श्रेणियों पर उत्क्रम परिवर्तनकारी प्रक्रियाओं का प्रयोग करना पड़ता है। राष्ट्रीय आय खातों की श्रेणियों पर इसी युक्ति का प्रयोग किया गया। हालाँकि ऐसा कर पाना बेहद कठिन था। इस तरह की गणना करने के लिए आवश्यक तकनीक भी मौजूद नहीं थी।
इन चुनौतियों के बावजूद, मापने और अनुमान लगाने की दिशा में कुछ प्रारम्भिक प्रयास किए गए थे। जोसेफ़ एम. गिलमैन (1957) और शेन मैज (1963) ने इस क्षेत्र में शुरुआती कार्य किए। हालाँकि, वास्तव में ज़मीनी स्तर पर काम 1970 के दशक से ही शुरू हो पाया। अनवर शेख, ई. अहमत टोनाक (इस नोटबुक के लेखकों में से एक), फ़्रेड मोसले, माइकल रॉबर्ट्स और गुग्लिल्मो कारचेदी जैसे मार्क्सवादियों ने इन चर राशियों की गणना करने का काम किया। इनके कार्यों के परिणामस्वरूप अब हमारे पास सुबूत है जिसके आधार पर हम कह सकते हैं कि लाभ की दर का व्यवहार मार्क्स की भविष्यवाणी के अनुरूप है (चित्र संख्या 7 देखें)।
चित्र संख्या 7: G20 के लाभ की दर, 1950-2019।
अल्पउपभोग सिद्धांत के विपरीत यह सिद्धांत संकटों की आवधिक पुनरावृत्ति को बहुत अच्छी तरह से विश्लेषित कर सकता है। जब पूंजी संचय धीमा हो जाता है या रुक जाता है, तब पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार लाभ की दर को एक बार फिर से उस स्तर तक बढ़ाने के लिए उपाय करेगी जो पूंजीपतियों को नई उत्पादक क्षमता में निवेश शुरू करने के लिए प्रेरित करे। ये उपाय कभी-कभार समग्र आर्थिक नीति में भारी बदलाव ला सकते हैं। यही हाल नवउदारवाद का है। नवउदारवाद बेशी मूल्य की दर और लाभ की दर को बढ़ाने के लिए दुनिया के मज़दूर वर्ग में बिखराव डालने की रणनीति है। पूंजीपतियों को राज्य के मौजूदा स्वरूप को बदलकर ऐसा स्वरूप थोपने में कोई परेशानी नहीं है जो लाभ की दर को बहाल करने वाले उपाय लागू करे। मज़दूर और पूँजीपति वर्गों के बीच अन्तर्विरोध जितना अधिक शक्तिशाली होता है, शासन व्यवस्थाएँ उतनी ही अधिक दमनकारी होती हैं। पूरी दुनिया (सोवियत संघ को छोड़कर) को पूर्ण पतन के कगार पर लाने वाले 1929 के स्टॉक एक्सचेंज की दुर्घटना के बाद ऐसी ही परिस्थिति में नाज़ी हिटलर सत्ता में आया था।
अंत में, हम पाठक को याद दिलाना चाहेंगे कि वित्त अर्थव्यवस्था में भारी मात्रा में ऋण और अन्य प्रकार के वित्त डालकर मुश्किल हालात को टालने में अहम भूमिका निभाता है। इससे कई आर्थिक इकाइयों को अस्थाई राहत मिलती है। लेकिन इससे विनाश की घड़ी सिर्फ आगे टलती है और अंत में कहर बरपाती ही है। 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट ऐसा ही एक उदाहरण है।
इसलिए, किसी संकट की बाहरी अभिव्यक्ति शायद ही कभी सीधे तौर पर उस संकट के वास्तविक कारणों का संकेत देती है। एक सतही व्याख्या मेहनतकश जनता, उत्पीड़ित राष्ट्रों और दुनिया के दरिद्रों के हक में काम करने वालों को गुमराह करती है और संकट से बाहर निकालने में अक्षम नीतियों के निर्माण में सहभागी होती है।
हम संकटों को पैदा करने वाली कार्यप्रणाली को, और वर्तमान संकट को समझने की लम्बी यात्रा को समाप्त करने वाले हैं। लेकिन कुछ गंभीर सवाल अभी भी मौजूद हैं: आर्थिक अवसाद क्यों आते हैं? पिछले 150 वर्षों के दौरान पूंजीवादी संकटों का सबसे प्रमुख और विनाशकारी रूप आर्थिक अवसाद के रूप में क्यों सामने आता है? इन सवालों के जवाब जानने के लिए हम मार्क्स के ऐतिहासिक बदलाव के भव्य दृष्टिकोण से रू-ब-रू होंगे और देखेंगे कि कैसे मानवता उत्पादन की एक प्रणाली, एक सामाजिक-आर्थिक गठन, से दूसरे की तरफ प्रस्थान करती है।
आर्थिक महाअवसाद : एक नए समाज के जन्म की प्रसव पीड़ा
पूंजीवाद के जन्मस्थान तथा जन्मकाल को लेकर बहस अब भी जारी है। कुछ विचारधाराओं का तर्क है कि इसका जन्म पाँच शताब्दी पहले हुआ था, जबकि दूसरों के अनुसार यह लगभग ढाई शताब्दी पुराना है। हालाँकि एक चीज साफ़ है: आर्थिक महाअवसाद पिछले 150 वर्षों से ही प्रकट हो रहे हैं। दीर्घ आर्थिक अवसाद (1873-1896), आर्थिक महाअवसाद (1929-1948), और तीसरा आर्थिक महाअवसाद (2008-वर्तमान) पिछले 150 वर्षों के दौरान ही देखे गए हैं।
हम जानते हैं कि व्यावसायिक चक्र सिर्फ पूंजीवाद में ही आते हैं। इनके बाद थोड़े समय तक रहने वाली मंदी आती है जिसके पश्चात बाज़ार की शक्तियाँ राजकीय आर्थिक नीतियों की मदद से अर्थव्यवस्था के विस्तार की शुरूआत करती हैं। आर्थिक महाअवसाद के मामले में ऐसा नहीं होता है। आर्थिक महाअवसाद बहुत लंबे समय तक (कम से कम एक दशक, और बहुत बार कई दशकों तक) बने रहते हैं। इनका स्वरूप अंतरराष्ट्रीय होता है। इनको हल करने के लिए आर्थिक, राजनीतिक और यहां तक कि वैचारिक और सैन्य क्षेत्रों के गहन पुनर्गठन की आवश्यकता होती है। पूंजीवादी इतिहास के हर दौर को महाअवसाद का सामना नहीं करना पड़ा है। ये पूंजीवादी उत्पादन पद्धति के विकास के एक ख़ास ऐतिहासिक चरण के परिणाम हैं। जैसे-जैसे पूंजीवाद आगे बढ़ता है, आर्थिक संकटों की गंभीरता और अवधि बढ़ती जाती है।
आख़िर क्या कारण है कि ‘आर्थिक संकट’ पूंजीवाद के सारे इसिहास में चिर-परिचित शब्द बना रहा लेकिन ‘आर्थिक अवसाद’ को पूंजीवाद के हालिया दौर के लिए ही इस्तेमाल किया गया है? इस सवाल का जवाब देने के लिए हमें मार्क्स और एंगेल्स की ओर रुख़ करना पड़ेगा। हालाँकि उनके जीवनकाल में कभी आर्थिक अवसाद नहीं आया, लेकिन उन्होंने पूंजीवादी जीवनक्रम के प्रवाह में संकटों की बढ़ती गंभीरता के कारणों पर प्रकाश डाला। इस बाबत मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र (1848) में लिखा था:
अपने उत्पादन, विनिमय और सम्पत्ति के संबंधों वाले आधुनिक बुर्ज़ुआ समाज ने उत्पादन और विनिमय के विशाल साधन तैयार कर लिए हैं। यह उस जादूगर के समान है जिसने पाताल की शक्तियों को जगा तो लिया है, लेकिन उनको काबू करने में अक्षम है। पिछले कई दशकों से उद्योग और वाणिज्य का इतिहास बुर्ज़ुआ वर्ग के अस्तित्व एवं उनके शासन के आधार उत्पादन के आधुनिक हालात तथा सम्पत्ति संबंधों के ख़िलाफ़ आधुनिक उत्पादक शक्तियों की बगावत का इतिहास रहा है।
ये समय-समय पर आने वाले वाणिज्यिक संकट हैं। उनका हर आगमन पहले से ज़्यादा भयावह होता है और पूरे बुर्ज़ुआ समाज के अस्तित्व पर खतरा बनकर मंडराता है।… समाज के पास मौजूद उत्पादक शक्तियाँ अब बुर्ज़ुआ सम्पत्ति की परिस्थितियों को आगे बढ़ाने में सक्षम नहीं हैं; इसके विपरीत, वे इन परिस्थितियों की तुलना में बहुत शक्तिशाली हो गई हैं। बुर्ज़ुआ सम्पत्ति की परिस्थितियाँ समाज की उत्पादक शक्तियाँ को बेड़ियों में जकड़े हुए हैं। इन बेड़ियों के टूटते ही पूरे बुर्ज़ुआ समाज में अव्यवस्था आ जाती है। बुर्ज़ुआ सम्पत्ति का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। बुर्ज़ुआ समाज की परिस्थितियों इतनी संकीर्ण हैं कि वो खुद के द्वारा सृजित किए गए धन को समाहित नहीं कर सकतीं।20
उपरोक्त लेखांश के बाद मार्क्स पूंजीवादी कार्यप्रणाली की पड़ताल करने निकलते हैं। उपरोक्त कथन का तिरछे ढंग से लिखा हुआ वाक्यांश – उनका हर आगमन पहले से ज़्यादा भयावह होता है – दर्शाता है कि मार्क्स अपने काम के प्रारम्भिक चरण में सचेत थे कि पूंजीवादी प्रणाली के परिपक्व होने के साथ आर्थिक संकट और अधिक गंभीर और विघटनकारी होते जाते हैं। कम्युनिस्ट घोषणापत्र का निम्नलिखित अनुच्छेद इस पर प्रकाश डालता है: पूंजीवाद द्वारा विकसित उत्पादक शक्तियों और उनकी जनक उत्पादन प्रणाली के बीच अन्तर्विरोध पैदा होता है। वो जितनी ज़्यादा विकसित होंगी, अन्तर्विरोध उतना ही अधिक होगा और संकट भी उतना ही ज़्यादा गंभीर होगा।
आर्थिक संकट की श्रेणी मार्क्स के पूंजीवाद के विश्लेषण में एक अद्वितीय स्थान रखती है। यह संकट के अन्य सैद्धांतिक विश्लेषणों से मार्क्स के विश्लेषण को अलग बनाती है। यहाँ तक कि शुम्पीटर का ‘रचनात्मक विनाश’ भी मार्क्स की बराबरी नहीं कर सकता। शुम्पीटर के अनुसार ‘रचनात्मक’ का तात्पर्य विनाश के कारण पैदा हुए खालीपन में नई उत्पादक शक्तियों की रचना से है। संकट के संदर्भ में मार्क्स के अनुसार ‘रचना’ का मतलब एक नए समाज के निर्माण से है। ‘आर्थिक महाअवसाद’ का रूप धारण कर चुका संकट पूंजीवादी निजी सम्पत्ति तथा बाज़ार पर आधारित प्रणाली से उत्पादन के साधनों के सार्वजनिक (अथवा सामूहिक) स्वामित्व तथा केंद्रीय नियोजन की प्रणाली में बदलाव का मार्ग तैयार करता है। हालाँकि, यह बदलाव बेहद कष्टदायक होता है। संकट द्वारा निर्मित बंजर भूमि से एक गतिशील, रचनात्मक और निष्पक्ष सभ्यता के जन्म लेने की उम्मीद की जाती है।
यह विश्लेषण मार्क्स के इतिहास के सामान्य नज़रिए से पूरी तरह मेल खाती है, जिसे उन्होंने 1859 में राजनीतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान (A Contribution to the Critique of Political Economy) की प्रस्तावना में प्रस्तुत किया था:
अपने अस्तित्व का सामाजिक उत्पादन करने के दौरान मनुष्य अनिवार्य रूप से निश्चित सम्बंध कायम करते हैं। ये उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास के एक निश्चित चरण के लिए सुसंगत उत्पादन के संबंध होते हैं जो मनुष्यों की इच्छा से आज़ाद होते हैं। उत्पादन के इन संबंधों की समग्रता समाज की आर्थिक संरचना का निर्माण करती है। आर्थिक संरचना समाज का वास्तविक आधार होती है जिस पर एक कानूनी और राजनीतिक अधिरचना उत्पन्न होती है, और जिसके अनुरूप सामाजिक चेतना के निश्चित स्वरूप बनते हैं। … विकास के एक निश्चित चरण में, समाज की भौतिक उत्पादक शक्तियों और उत्पादन के तत्कालीन संबंधों के बीच टकराव पैदा होता है – कानूनी भाषा में – समाज की भौतिक उत्पादक शक्तियाँ उन सम्पत्ति संबंधों के साथ टकराव में आती हैं जिनके ढाँचे के भीतर वो काम करती आ रही होती हैं। ये सम्बंध उत्पादक शक्तियों के विकास के स्वरूपों से उनकी बेड़ियों में तब्दील हो जाते हैं। यहीं से सामाजिक क्रांति के दौर का आग़ाज़ होता है।21
पश्चिमी यूरोप में सामंतवाद से पूंजीवाद में बदलाव ठीक इसी तरह से हुआ। ग्रामीण इलाक़ों में स्वामी तथा दास के बीच संबंध और मध्ययुगीन निगम के सख़्त नियमों के चंगुल में बँधे उस्ताद तथा प्रशिक्षु के बीच संबंध उत्पादक शक्तियों की क्षमता के लिए बाधक बन गए। एक ओर उभरते पूंजीपति वर्ग और स्वतंत्र शहरों के बीच, और दूसरी ओर निहित स्वार्थों वाले सामंती समाज के वर्गों के बीच अन्तर्विरोध पैदा हुए। इन अन्तर्विरोधों ने एक संघर्ष को जन्म दिया जिसने अंततः अपना वजूद गढ़ने के लिए बेताब नए समाज की शक्तियों और पुराने सामंती समाज की स्थापित शक्तियों के बीच आमने-सामने की टक्कर पैदा कर दी। इस प्रकार सामाजिक क्रांति के युग का जन्म हुआ जिसकी चर्चा मार्क्स ने राजनीतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान की प्रस्तावना में की है। 1640 की अंग्रेजी क्रांति से शुरू होने वाली अटलांटिक क्षेत्र की लोकतांत्रिक क्रांतियाँ, जो अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रांतियों के रूप में अठारहवीं शताब्दी के अंत तक जारी रहीं, और उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में लैटिन अमेरिकी क्रांतियों जैसी लोकतांत्रिक क्रांतियों ने इस सामाजिक क्रांति को मूर्त रूप प्रदान करने में योगदान दिया। इसके परिणामस्वरूप, नए पूंजीवादी-बुर्ज़ुआ समाज ने धीरे-धीरे पुरानी सामंती सामाजिक-आर्थिक संरचना की जगह ले ली। 1848 की क्रांतियों के बाद यूरोप के बाक़ी हिस्सों में पूंजीवाद का विस्तार हुआ जो आगे चलकर दुनिया के बाकी हिस्सों में भी फैला। पूंजीवाद के विस्तार तथा इसके विकास की चर्चा इस नोटबुक के दायरे से बाहर है तथा इसके लिए अलग अध्ययन की ज़रूरत होगी।
पूंजीवादी समाज की उत्पादक शक्तियों और सामाजिक सम्बंधों, विशेष रूप से पूंजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच उत्पादन के सम्बंधों के बीच ऐसा ही अन्तर्विरोध ‘हर बार पहले से ज़्यादा भयावह ढंग से’ पूंजीवाद को ख़तरे में डाल रहा है। जैसा कि सामंतवाद से पूंजीवाद में बदलाव के दौरान हुआ, और आगामी पूंजीवाद से समाजवाद में तथा समाजवाद से साम्यवाद में बदलाव के दौरान होगा, उत्पादक शक्तियों तथा उत्पादन के संबंधों के दरम्यान अन्तर्विरोध पुरातन के विनाश एवं नवीन के सृजन की आधारशिला होगा। यहाँ संकट एक समाज के जन्म की प्रसव पीड़ा के समान होता है।
विगत चर्चा के आलोक में सवाल खड़ा होता है कि: प्रौढ़ पूंजीवाद (late capitalism) में उत्पादक शक्तियों और उत्पादन के सम्बंधों के बीच इस अन्तर्विरोध का आधार क्या है? द्वंद्वात्मक एकता के वो दो आयाम क्या हैं जिनसे मिलकर उत्पादन पद्धति बनती है? मार्क्स पूंजी के खंड एक के अध्याय 32 (‘पूंजीवादी संचय की ऐतिहासिक प्रवृत्ति’) में इसकी चर्चा करते हैं। वो बताते हैं कि किस तरह पूंजीवाद ने अपनी शैशवावस्था में प्रत्यक्ष उत्पादक तथा उत्पादन के साधनों के बीच की ऐतिहासिक एकता को नष्ट किया। इसके पश्चात किस तरह उत्पादन की एक नई पद्धति किस तरह वजूद में आई तथा परस्पर सहयोग एवं कार्यस्थल तथा कारख़ाने में श्रम के तकनीकी विभाजन ने उत्पादन को एक सामूहिक प्रक्रिया में बदल दिया। इस प्रक्रिया के माध्यम से वृहद स्तर के उत्पादन से ज़्यादा दक्ष, उत्पादक तथा लाभकारी नतीजे संभव हो पाए। प्रत्यक्ष उत्पादकों के स्वतंत्र वजूद को ख़त्म करने के बाद बड़े पूंजीपतियों ने कमजोर पूंजीपतियों को निगला। इसके बाद पूंजीपति दूसरे पूंजीपतियों को निगलने की ओर बढ़ते हैं। मार्क्स लिखते हैं:
यह सम्पत्ति-अपहरण स्वयं पूंजीवादी उत्पादन के अन्तर्भूत नियमों के अमल में आने के फलस्वरूप पूंजी के केन्द्रीयकरण के द्वारा सम्पन्न होता है। एक पूंजीपति हमेशा बहुत से पूंजीपतियों का खात्मा करता है। इस केन्द्रीयकरण के साथ-साथ, या यूँ कहिए कि कुछ पूंजीपतियों द्वारा बहुत से पूंजीपतियों के इस सम्पत्ति-अपहरण के साथ-साथ, अधिकाधिक बढ़ते हुए पैमाने पर श्रम-क्रिया का सहकारी रूप विकसित होता जाता है, सचेतन ढंग से विज्ञान का अधिकाधिक प्रयोग किया जाता है, भूमि को उत्तरोत्तर अधिक सुनियोजित ढंग से जोता-बोया जाता है, श्रम के औजार ऐसे औजारों में बदलते जाते हैं जिनका केवल सामूहिक ढंग से ही उपयोग किया जा सकता है, उत्पादन के साधनों का संयुक्त, समाजीकृत श्रम के साधनों के रूप में उपयोग करके हर प्रकार के उत्पादन के साधनों का मितव्ययिता के साथ इस्तेमाल किया जाता है, सभी क़ौमें विश्वव्यापी मण्डी के जाल में फँस जाती हैं और इसलिए पूंजीवादी शासन का स्वरूप अधिकाधिक अंतरराष्ट्रीय होता जाता है… लेकिन इसके साथ-साथ मज़दूर वर्ग का विद्रोह भी अधिकाधिक तीव्र होता जाता है। यह वर्ग संख्या में बराबर बढ़ता जाता है और स्वयं पूंजीवादी उत्पादन-क्रिया का यंत्र ही उसे अधिकाधिक अनुशासन-बद्ध, एकजुट और संगठित करता जाता है। पूंजी का एकाधिकार उत्पादन की उस प्रणाली के लिए बन्धन बन जाता है, जो इस एकाधिकार के साथ-साथ और उसके अन्तर्गत जन्मी है और फली-फूली है। उत्पादन के साधनों का केन्द्रीयकरण और धन का समाजीकरण अन्त में एक ऐसे बिंदु पर पहुँच जाते हैं, जहाँ वे अपने पूंजीवादी खोल के भीतर नहीं रहा सकते। खोल फाड़ दिया जाता है। पूंजीवादी निजी सम्पत्ति की घंटी बज उठती है। सम्पत्ति-अपहरण करने वालों की सम्पत्ति का अपहरण हो जाता है।22
मार्क्स यहाँ बता रहे हैं कि किस प्रकार पूंजी पर आधारित उत्पादन प्रणाली अपने विकास के दौरान अपने ही आधारों को नष्ट करती है। उत्पादन का सामूहिक, सामाजिक, वृहद और अंतर्राष्ट्रीयकृत स्वरूप उत्पादन का केन्द्रीयकरण करता है। इस केन्द्रीयकरण को अनवरत चलने वाले छोटे पूंजीपतियों के उन्मूलन और श्रम के समाजीकरण के माध्यम से इस हद तक पूरा किया जाता है कि छोटे पैमाने की इकाइयों में अलग-थलग काम करने वाला मज़दूर ‘सामूहिक मज़दूर’ बन जाता है। उत्पादन संबंधी निर्णय अब विशाल इकाइयों (अर्थात, निगमों) के पैमाने पर किए जाते हैं। परिणामस्वरूप, उत्पादन की योजना असाधारण रूप से बड़े पैमाने पर और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बनाई जाती है। इसे ही मार्क्स उत्पादन के साधनों का केन्द्रीयकरण और श्रम का समाजीकरण कहते हैं। केन्द्रीयकरण और समाजीकरण की इन प्रक्रियाओं और पूंजी के व्यवहार के बीच अन्तर्विरोध पैदा होता है, क्योंकि पूंजी के काम करने का आधार निजी क़ब्ज़ा और बाज़ार होता है। सामाजिक उत्पादन के लिए नियोजन की जरूरत होती है; किंतु पूंजीवादी सम्पत्ति वृहद नियोजन की राह में बाधा होती है। यह सच है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बड़े पैमाने पर योजनाएँ बनाती हैं, लेकिन बाज़ार सम्बंधों के दरिया में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी का नियोजन एक बूँद के समान होता है। कंपनियों के भीतर नियोजन होता है लेकिन पूंजीपतियों के तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था के सम्बंधों में अराजकता व्याप्त होती है।
इस अन्तर्विरोध से पार कैसे पाया जाए? पूंजीवाद केवल बड़े स्तर पर वस्तुओं और उत्पादन की तकनीकों का ही उत्पादन नहीं करता है। निरंतर बढ़ते हुए क़ब्ज़े पर आधारित पूंजीवाद लगातार बढ़ते वंचितों का एक वर्ग तैयार करता है। छोटी जोत वाले किसान, छोटे व्यापारी और शहरों के कारीगर सर्वहारा बनते जाते हैं। इसके अतिरिक्त, जैसा कि मार्क्स ने बताया, पूंजीपतियों के बीच प्रतिस्पर्धा धीरे-धीरे छोटे या कमजोर पूंजीपतियों को उत्पादन के साधनों से बेदख़ल कर देती है। सर्वहारा वर्ग पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का एक विशिष्ट परिणाम होता है। इतिहास के प्रत्यक्ष उत्पादकों के सभी पूर्ववर्ती वर्गों से यह वर्ग इस मामले में अलग होता है कि उत्पादन के साधनों में इसकी लेशमात्र भी हिस्सेदारी नहीं होती।
सर्वहारा उत्पादन के साधनों के स्वामित्व से पूरी तरह वंचित होता है। अत: इसका हित सम्पत्ति की रक्षा में नहीं, बल्कि श्रम शक्ति के मालिकों की रक्षा में निहित है। इसीलिए, मार्क्स ने इस सर्वहारा वर्ग को ‘सार्वभौमिक वर्ग’ की संज्ञा दी। यही कारण है कि निजी सम्पत्ति को खत्म करने के लिए सबसे क़ाबिल वर्ग सर्वहारा ही है। निजी सम्पत्ति के द्वारा पैदा किए गए बिखराव तथा बाज़ार की बेड़ियों को तोड़ने के लिए निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा ज़रूरी है।
पूंजी से उद्धृत उपरोक्त अंश की शुरुआत में मार्क्स ने इस तथ्य पर जोर दिया कि पूंजी संचय की पूरी प्रक्रिया ‘पूंजीवादी उत्पादन के अन्तर्भूत नियमों’ के तहत आगे बढ़ती है। पूंजी में, मार्क्स ने पूंजीवाद के ऐतिहासिक विकास की पड़ताल की और पूंजी पर आधारित समाज की कार्यप्रणाली की रूप-रेखा बयान करने वाले नियमों को प्रतिपादित किया। इसीलिए मार्क्स बारंबार ‘आवश्यकता’ की चर्चा करते हैं: एक बार स्थापित होने के बाद, पूंजीवाद के नियम ही अनिवार्यत: पूंजीवाद को उसके विनाश की तरफ़ ले जाते हैं।
दूसरे शब्दों में, अपने इन्हीं नियमों के माध्यम से पूंजीवाद अपने गर्भ में उन शक्तियों को पालता है जो उसके विनाश का कारण बनती हैं। इन नियमों के प्रभाव को कम किया जा सकता है, अस्थाई रूप से रोका जा सकता है, या एक निश्चित अवधि के लिए उल्टा भी किया जा सकता है। हालाँकि, जब तक पूंजीवाद मौजूद है, जब तक यह अपने अन्तर्भूत नियमों के अनुसार बढ़ता है, अपने विकास के एक निश्चित चरण में यह अपने वजूद के लिए ख़तरा पैदा करेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो पूंजीवाद अपनी ही समाप्ति की ऐतिहासिक परिस्थितियाँ तैयार करता है।
पूंजीवाद अनिवार्य रूप से स्वयं से श्रेष्ठ सभ्यता के उद्भव के लिए परिस्थितियाँ तैयार करता है। यह नई सभ्यता मानवता द्वारा निर्मित सभी उत्पादक शक्तियों को नियोजन के लिए पेश करेगी। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वो उत्पादन के साधनों में निजी सम्पत्ति को ख़त्म कर देगी। इसके परिणामस्वरूप निजी सम्पत्ति की वजह से बने वर्ग और राज्य, दोनों ही इतिहास के परिदृश्य से खत्म हो जाएँगे। इस सभ्यता को साम्यवाद कहा जाता है। साम्यवाद मानव समाज को प्रागैतिहासिक काल से बाहर निकालकर मानवता के असली इतिहास की शुरूआत का वादा करता है।
आर्थिक महाअवसाद जनित हलचल में पूंजीवाद के ऐतिहासिक विकास का यह अन्तर्विरोध छुपा होता है। अत: आज हम जिस संकट से जूझ रहे हैं वो पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली और पूंजीवादी समाज का संकट है।
इक्कीसवीं सदी के भोर में राज्य और उत्पादक शक्तियाँ
इक्कीसवीं सदी के भोर में पूंजीवादी उत्पादक शक्तियाँ किस अवस्था में हैं? पूंजीवाद के विकास का मार्ग प्रशस्त करने के लिए इन उत्पादक शक्तियों ने निजी सम्पत्ति की बेड़ियों का सामना कैसे किया है? इन सवालों का जवाब जानने के लिए हम ऊपर उद्धृत पूंजी (खंड 1) के छ: लेखांशों का विश्लेषण करेंगे। हम तीन लेखांशों से शुरूआत करेंगे और उसके पश्चात बाकी बचे लेखांशों पर चर्चा करेंगे।
1. ‘श्रम प्रक्रिया का सहकारी स्वरूप’
2. ‘श्रम के साधनों का केवल सामूहिक उपयोग-योग्य श्रम के साधनों में रूपांतरण’
3. ‘उत्पादन के साधनों का संयुक्त, समाजीकृत श्रम के साधनों के रूप में उपयोग करके हर प्रकार के उत्पादन के साधनों का मितव्ययिता के साथ इस्तेमाल’
इन तीन बिंदुओं को संभवत: कम कर के आँका गया है, लेकिन ये बेशी मूल्य, अर्थात लाभ, की उच्चतम मात्रा हासिल करने को प्रयासरत पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली द्वारा उत्पादक शक्तियों में लाए जाने वाले बदलावों के सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।
पूंजी में मार्क्स सामाजिक श्रम की उत्पादक शक्ति के विकास की पड़ताल करते हुए सहकारी श्रम और विनिर्माण के प्रारंभिक रूपों से शुरू करके कारख़ानों के दौर तक का सफ़र तय करते हैं। मार्क्स के अनुसार हरेक मामले में श्रम की सामाजिक उत्पादक शक्ति को पूंजी की शक्ति के रूप में ग़लत तरीक़े से प्रस्तुत किया जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि पूंजी मज़दूरों को काम पर लगाती है। जबकि सच्चाई यह है कि सामाजिक श्रम की शक्ति ख़ुद मज़दूरों के सहयोग से पैदा होती है और पूंजी के लिए एक मुफ़्त उपहार बन जाती है।
पूंजीवाद ने मशीन-आधारित उत्पादन की एक कारख़ाना प्रणाली बनाई है। यह प्रणाली मज़दूरों के अलग-अलग उत्पादक कार्यों को जटिल रूप से परस्पर निर्भर बनाने पर टिकी होती है। जबकि इससे पहले के सामंती समाज के निगम द्वारा निर्धारित दायरों के भीतर काम करने वाला कारीगर आसानी से कह सकता था कि ‘इस मेज़ (या जूते) को पूरी तरह से अकेले मैंने बनाया है’। आज कोई भी मज़दूर यह नहीं कह सकता है कि ‘इस हवाई जहाज (या इस चिप) को पूरी तरह से अकेले मैंने बनाया है’। मार्क्स की शब्दावली में, एक कारख़ाने में काम करने वाले मज़दूरों का कुल योग सामूहिक मज़दूर बनकर रह गया है। जब भी और जहाँ भी उत्पादन सामूहिक रूप से किया जाता है उत्पादन-पूर्व नियोजन और पूरी उत्पादन प्रक्रिया पर केन्द्रीय नियंत्रण की जरूरत होती है। भले ही पूंजीवादी दौर हो अथवा समाजवादी, केन्द्रीय नियंत्रण की ज़रूरत खेलकूद तथा कला जैसे क्षेत्रों में भी होती है। एक फुटबॉल टीम और संगीत के ऑर्केस्ट्रा का उदाहरण लेते हैं। अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए इन दोनों को ही योजना, देख-रेख और नियंत्रण की जरूरत होती है। उन्हें ये सब प्रशिक्षक अथवा निदेशक से प्राप्त होता है। इस प्रक्रिया (चाहे एक खेल टीम या ऑर्केस्ट्रा अथवा उत्पादन प्रक्रिया हो) का नियोजन तथा समन्वय करने वाले अकेले या सामूहिक निकाय को निरंकुश रूप से, जैसाकि पूंजीवाद में होता है, अथवा लोकतांत्रिक रूप से, जैसाकि समाजवाद में होता है, बनाया जा सकता है।
वर्तमान में मज़दूरों के अलग-अलग उत्पादक कार्यों को जटिल रूप से परस्पर निर्भर बनाने की प्रक्रिया काफी आगे बढ़ गई है। ख़ासकर 1970 के दशक में उत्पादन प्रक्रिया के विभिन्न चरणों के बँटने के बाद आपूर्ति श्रृंखलाओं का दौर शुरू हुआ और सामाजिक श्रम का विस्तार वैश्विक श्रमबल के रूप में हुआ। सामाजिक श्रम के वैश्विक श्रमबल में बदलने को वैश्वीकरण के नाम से जानते हैं। सूचना (डिजिटलीकरण), संचार (उपग्रह, फाइबर ऑप्टिक और सेलुलर नेटवर्क), तथा परिवहन (कंटेनराइजेशन) क्षेत्र में क्रांतियों ने वैश्वीकरण का मार्ग प्रशस्त किया। इन क्रांतियों का वर्णन मैनुअल कैस्टेल्स ने अपनी पुस्तक द राइज ऑफ़ द नेटवर्क सोसाइटी में किया है।23 पूंजी का यह बढ़ता हुआ अंतरराष्ट्रीयकरण और विश्व अर्थव्यवस्था का लगातार बढ़ता एकीकरण सदियों से अस्तित्व में रहे साधारण विश्व व्यापार से बहुत ज़्यादा है। आजकल न सिर्फ दुनिया भर में वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान हो रहा है, बल्कि उत्पादन का अंतरराष्ट्रीयकरण भी हो रहा है। इसमें परिवहन कंटेनर के मानकीकरण ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आर्थिक इतिहासकार मार्क लेविंसन कंटेनराइजेशन के महत्व पर प्रकाश डालते हैं:
माल को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने वाले स्वचालित तंत्र में कंटेनर एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। निम्नतम लागत वाली यह प्रक्रिया बेहद सरल होती है। कंटेनर ने माल परिवहन को बेहद सस्ता बनाकर विश्व अर्थव्यवस्था में आमूलचूल बदलाव लाया है।24
लगभग हर वस्तु के उत्पादन का सारा काम एक ही कारख़ाने में नहीं होता। इसके बजाय कंपनियाँ कारख़ानों को अलग-अलग देशों में स्थापित करती हैं। इस प्रक्रिया को ‘उत्पादन का विखंडीकरण‘ (disarticulation of production) कहते हैं। ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के पहले प्रकाशन इन द रुइन्स ऑफ़ प्रेसेंट में इस पर प्रकाश डाला गया है।25 इस प्रक्रिया के तहत माल के प्रत्येक हिस्से का उत्पादन अलग-अलग देशों में होता है, पुर्जों को अलग देश में जोड़कर वस्तुओं को उनका अंतिम रूप दिया जाता है, विपणन अलग देश में किया जाता है तथा पूरी दुनिया में बेचा जाता है। जब कोविड-19 महामारी के कारण वैश्विक आपूर्ति शृंखला बाधित हुई तब दुनिया को अहसास हुआ कि हम दुनिया के मज़दूरों द्वारा अलग-अलग जगहों पर एक साथ किए जाने काम पर कितने ज़्यादा निर्भर हैं।
इसी प्रक्रिया के आलोक में मार्क्स पूंजी के खंड एक के बत्तीसवें अध्याय में कहते हैं:
पूंजी का एकाधिकार उत्पादन की उस प्रणाली के लिए एक बन्धन बन जाता है, जो इस एकाधिकार के साथ-साथ और उसके अन्तर्गत जन्मी है और फली-फूली है। उत्पादन के साधनों का केन्द्रीयकरण और धन का सामाजीकरण अन्त में एक ऐसे बिंदु पर पहुँच जाते हैं, जहाँ वे अपनी पूंजीवादी खोल के भीतर नहीं रह सकते। खोल फाड़ दिया जाता है। पूंजीवादी निजी सम्पत्ति की मौत की घंटी बज उठती है। सम्पत्ति-अपहरण करने वालों की सम्पत्ति का अपहरण हो जाता है।26
4. ‘पूंजी का केन्द्रीयकरण’
मार्क्स ने देखा कि पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली की आंतरिक कार्यविधि की वजह से पूंजी का सकेन्द्रण और केन्द्रीयकरण होता है। मार्क्स ने इन शब्दों का प्रयोग मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों की तुलना में कुछ अलग प्रकार से किया। सकेन्द्रण से मार्क्स का तात्पर्य पूंजी संचय की प्रक्रिया के माध्यम से व्यक्तिगत पूंजीवादी फ़र्मों के आकार में वृद्धि से था। दूसरी ओर, केन्द्रीयकरण से उनका तात्पर्य बड़ी पूंजीवादी कंपनियाँ द्वारा छोटी कंपनियों को निगलने अथवा दो बड़ी पूंजीवादी कंपनियों के एकमय होने से था। इन दोनों प्रक्रियाओं को क्रमश: अधिग्रहण (acquisition) और विलय (merger) कहा जाता है। केन्द्रीयकरण की प्रक्रिया के लिए आवश्यक धन प्रदान करके ऋृण प्रणाली इसको बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
वर्तमान अर्थव्यवस्था में पूंजी के केन्द्रीयकरण का ठीक से अध्ययन नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, जॉन बेलामी फ़ॉस्टर और रॉबर्ट मैकचेस्नी ने दिखाया कि 2004 से 2008 के बीच शीर्ष 500 वैश्विक कॉरपोरेशनों का कुल वार्षिक राजस्व कुल वैश्विक आय का लगभग 40% था।27 इसके अलावा, कुल वैश्विक राजस्व में उनकी हिस्सेदारी 1960 में लगभग 20 प्रतिशत थी, जो अब दोगुनी हो गई है। बेलामी फ़ॉस्टर और मैकचेस्नी के अनुसार:
वित्त पूंजी का एकाधिकार कायम करने में सहायक होता है। 1999 में घोषित विश्वव्यापी विलय और अधिग्रहण सौदों की कुल रकम 3.4 ट्रिलियन डॉलर थी। यह उस समय के संयुक्त राज्य अमेरिका की औद्योगिक पूंजी (भवन, संयंत्र, मशीनरी और उपकरण) के कुल मूल्य का 34 प्ररिशत थी। वैश्विक विलयों और अधिग्रहणों का मूल्य 2006 के स्तर से 21 प्रतिशत बढ़कर 2007 में 4.38 ट्रिलियन डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुँच गया। इस प्रक्रिया का दीर्घकालिक परिणाम वैश्विक स्तर पर पूंजी के सकेंद्रण तथा केन्द्रीयकरण में वॄद्धि है।28
पूंजी के सकेंद्रण तथा केन्द्रीयकरण की वजह से फ़र्मों तथा उद्यमों के आकार में लगातार वृद्धि होती है। इस कारण समय के साथ अधिकाधिक मज़दूरों का श्रम परस्पर जुड़ता चलता जाता है।
5. ‘सचेतन ढंग से विज्ञान का प्रयोग’
सूचना, संचार तथा परिवहन की तकनीकों में आई क्रांतियों से उत्पादन प्रक्रिया में बदलाव आया है। प्रख्यात ‘चौथी औद्योगिक क्रांति’ के कुछ मुख्य तत्व निम्नलिखित हैं:
- मशीन लर्निंग/आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस
- बिग डेटा
- उन्नत रोबोटिक्स
- थ्रीडी प्रिंटिंग
- इंटरनेट ऑफ थिंग्स
- उन्नत विनिर्माण/स्मार्ट कारख़ाने
- नैनोटेक्नोलॉजी
- सस्ते पदार्थ, दुर्लभ मृदा तत्व, कोबाल्ट तथा लीथियम जैसे नए संसाधन जो नई तकनीकों की उत्पादन प्रक्रिया के लिए जरूरी हैं, दुनिया के कोने-कोने से मँगाए जा सकते हैं।
स्वचालन (automation) की पिछली लहरों से मुख्य रूप से विनिर्माण क्षेत्र के अर्ध-कुशल मज़दूर प्रभावित हुए थे। वर्तमान तकनीकों ने अत्यधिक कुशल मज़दूरों के रोज़गार को ख़तरे में डाल दिया है। संयुक्त राज्य अमेरिका में 1979 से 2015 के बीच विनिर्माण क्षेत्र में कुल सत्तर लाख रोज़गार कम हुए, इसके बावजूद कारख़ानों का उत्पादन दोगुना हो गया। बॉल स्टेट यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर बिजनेस एंड इकोनॉमिक रिसर्च के 2016 में हुए एक अध्ययन से पता चलता है कि अमेरिका में 1970 के दशक के बाद रोबोटों तथा स्वचालन के कारण 88 प्रतिशत रोज़गार खत्म हुए, जबकि व्यापार के कारण विनिर्माण क्षेत्र के 13 प्रतिशत रोज़गार खत्म हुए। ऐसा सिर्फ़ विनिर्माण क्षेत्र में ही नहीं हुआ, बल्कि जिन उद्योगों में पुनरावृत्ति वाले काम होते हैं वहाँ भी मज़दूरों की जगह मशीनों तथा सॉफ़्टवेयरों ने ली है। इंटरनेशनल फ़ेडरेशन ऑफ रोबोटिक्स के आँकड़ों के अनुसार, 2008 और 2012 के बीच औद्योगिक रोबोटों के माल में प्रतिवर्ष औसतन 9 प्रतिशत की वृद्धि हुई।29
चीन के बाज़ार में सबसे तेजी से रोबोट इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं। 2005 से 2012 के दौरान चीनी बाज़ार में नए रोबोटों की संख्या में प्रति वर्ष 25 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई।30 इससे पहले भी उन्नत प्रौद्योगिकी ने चीनी कारख़ानों के रोज़गार पर गहरा असर डाला है। 1995 और 2002 के बीच, चीन में विनिर्माण क्षेत्र के 1.6 करोड़ रोज़गार कम हुए (विनिर्माण कार्यबल का लगभग 15 प्रतिशत), जबकि इस अवधि में उत्पादन में वृद्धि हुई।31 इंटरनेशनल फ़ेडरेशन ऑफ रोबोटिक्स द्वारा औद्योगिक रोबोटों पर किए गए एक हालिया अध्ययन के अनुसार:
औद्योगिक रोबोटिक्स में स्वचालन की ओर चल रहे रुझान और निरंतर तकनीकी नवोन्मेष के कारण 2010 के बाद से औद्योगिक रोबोट की माँग काफी बढ़ गई है। 2015 से 2020 के दौरान नए रोबोटों की संख्या में प्रतिवर्ष 9 प्रतिशत (चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर) की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई। 2005 और 2008 के बीच, वैश्विक संकट तथा वित्तीय संकट के आने से पहले हर साल औसतन 115,000 रोबोट बिके। वैश्विक संकट तथा वित्तीय संकट की वजह से रोबोटों की सालाना बिक्री घटकर 2009 में 60,000 रह गई और निवेशों को भी स्थगन का सामना करना पड़ा। 2010 में निवेश में इज़ाफ़ा हुआ और रोबोटों की सालाना बिक्री बढ़कर 120,000 पहुँच गई। 2015 तक रोबोटों की सालाना बिक्री 254,000, यानी दोगुनी हो गई। 2016 में रोबोटों की सालाना बिक्री ने 300,000 के आँकड़े को छुआ और 2017 में 400,000 के पास पहुँच गया। पहली बार 2018 में 400,000 से ज़्यादा रोबोटों की सालाना बिक्री हुई।
…
2013 के बाद से चीन औद्योगिक रोबोट का दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार रहा है। 2020 में कुल रोबोटों का 44 प्रतिशत हिस्सा अकेले चीन में लगा। चीन में लगी रोबोटों की 168,377 इकाइयाँ यूरोप और अमेरिका की संयुक्त संख्या (106,436 इकाइयाँ) से 58 प्रतिशत अधिक हैं।32
6. ‘भूमि पर सुनियोजित ढंग से खेती’
मार्क्स के अनुसार पूंजीवादी कृषि के अंतर्विरोध पूंजीवाद के अंतर्विरोध का ही एक सूक्ष्म रूप हैं। कृषि रसायन (जैसे उर्वरक, कीटनाशक, और पकाने वाले कृत्रिम रसायन) और जैव प्रौद्योगिकी (जैसे आनुवंशिक रूप से तैयार बीज, स्मार्ट ट्रैक्टर, यांत्रिक हार्वेस्टर, उपग्रह प्रौद्योगिकी और बिग डेटा) जैसी उत्पादक शक्तियों के विकास ने पैदावार में काफी वृद्धि की और इनकी वजह से आधुनिक कृषि में लगने वाले मानव श्रम की मात्रा में भारी कमी आई। परिणामस्वरूप, उत्पादन की मौजूदा शक्तियाँ दुनिया के हर इंसान का पेट भरने के लिए पर्याप्त भोजन पैदा करती हैं।33 इसके बावजूद, उच्च तकनीक वाली कृषि द्वारा पैदा की गई प्रचुरता का इस्तेमाल दुनिया के लोगों का पेट भरने में नहीं किया जाता है। पूंजीवादी उत्पादन सम्बंधों की वजह से इस प्रचुरता का इस्तेमाल पूंजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए होता है।
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने अपने चौवालीसवें न्यूज़लेटर में रेखांकित किया:
खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के अनुसार कुल वैश्विक खाद्य उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा (प्रति वर्ष 1.3 बिलियन टन) बर्बाद होता है। यह आँकड़ा बताता है कि पूंजीवाद खाद्य उत्पादन का प्रबंधन करने में पूरी तरह विफल है। इस गंभीर स्थिति पर नज़र बनाए रखने के लिए FAO ने नए सूचकांक तैयार किए हैं – खाद्य हानि सूचकांक (Food Loss Index) और खाद्य अपशिष्ट सूचकांक (Food Waste Index)। FAO के महानिदेशक क्यू डोंगयु एक गंभीर सवाल खड़ा करते हैं: ‘जिस दुनिया में 82 करोड़ रोज़ाना भूखे पेट सोने जाते हैं, उस दुनिया में हम भोजन को बर्बाद कैसे होने दे रहे हैं?’
ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इस सिस्टम में पैसेवालों के पास ही भोजन पर अधिकार है। इस अमानवीय सिस्टम का नाम पूंजीवाद है। इसके भीतर सबकी खुशहाली के लिए कोई जगह नहीं है।34
निष्कर्ष
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के संकट के विविध सिद्धांतों पर चर्चा करने का मकसद कोरा बौद्धिक विमर्श करना नहीं है। इस चर्चा से हमें न केवल पूरी मानवता के लिए, अपितु सभी प्राणियों के गुजारे और ज़िंदगी-मौत से जुड़े मुद्दों पर बेहद महत्त्वपूर्ण राजनीतिक निष्कर्ष मिलते हैं। अत: चर्चा से सामने आए निष्कर्षों को सारगर्भित करना और उनमें निहित राजनीतिक सीखों की पड़ताल करना बेहद महत्त्वपूर्ण है।
खंड एक में हमने विश्व अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति का विश्लेषण किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि दुनिया 2008 के अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संकट के बाद से आर्थिक महाअवसाद के एक नए दौर से गुजर रही है। इसके बाद हमने इसकी वजहों पर प्रकाश डाला। इसके लिए आर्थिक विचारधारा की विभिन्न शाखाओं द्वारा प्रस्तुत पूंजीवादी आर्थिक संकट के प्रतिस्पर्धी वैज्ञानिक सिद्धांतों का एक छोटा सर्वेक्षण जरूरी था। हमने सबसे पहले मुख्यधारा के अर्थशास्त्र के सिद्धांतों की समीक्षा की। हमने देखा कि मुख्यधारा के अर्थशास्त्र की खंडनवादी तथा यथार्थवादी शाखाओं का विश्लेषण अनुपयोगी है। कींस का विश्लेषण मुख्यधारा के अर्थशास्त्र की अन्य शाखाओं से श्रेष्ठ होने के बावजूद संतोषजनक नहीं है। कींस का विश्लेषण निवेश की मात्रा के निर्धारण की प्रणाली पर ठीक से प्रकाश नहीं डालता। यह पूंजीवाद की धुरी – उत्पादन प्रक्रिया – को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ करता है तथा पूरा ध्यान परिचालन पर लगाता है। इसकी वजह से कींस आवधिक रूप से बार-बार आने वाले पूंजीवादी संकटों की लय को समझने में नाकाम रहते हैं।
फिर हमने आर्थिक संकट के विभिन्न मार्क्सवादी सिद्धांतों की ओर रुख किया। हमने विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में नवीनतम घटनाक्रम की चर्चा में सामने आए तीन प्रमुख सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित किया। हमने अपने विश्लेषण में लाभ-उगाही तथा अल्पउपभोगवाद सिद्धांतों को असंतोषजनक पाया। लाभ की दर में गिरावट की प्रवृत्ति का नियम पूंजीवाद के इतिहास में आर्थिक संकटों की आवधिक पुनरावृत्ति की व्याख्या करने वाला एकमात्र सटीक सिद्धांत साबित हुआ। हमने 1800 के पहले दशक के अंत में आए विश्व अर्थव्यवस्था के प्रमुख संकटों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया। इन संकटों के कारण पैदा हुए व्यवधान और अव्यवस्था गुणात्मक रूप से ज़्यादा बड़े थे। इनकी वजह से आर्थिक विज्ञान को एक नया शब्द गढ़ना पड़ा था: ‘आर्थिक महाअवसाद’। हमने रेखांकित किया कि जिस आर्थिक महाअवसाद का सामना हम आज कर रहे हैं वह इस तरह का तीसरा आर्थिक महाअवसाद है। यह अपने दो पूर्ववर्तियों के समान ही अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अन्य संकटों की तुलना में अधिक गहरा और अधिक ख़तरनाक है। हमने इसके कारणों की तहक़ीक़ात की और जवाब के रूप में इतिहास के परिवर्तन तथा विकास के नियमों पर मार्क्स के नज़रिए को पेश किया।
मार्क्स के इतिहास के नज़रिए के अनुसार किसी भी सामाजिक-आर्थिक गठन की उत्पाद्न प्रणाली के भीतर ही उस सामाजिक-आर्थिक गठन से दूसरे में बदलाव का आधार मौजूद होता है। चाहे पूर्व-पूंजीवादी (उदाहरण के लिए सामंती) समाज से पूंजीवाद में बदलाव हो या पूंजीवाद से समाजवाद और अंततः साम्यवाद में, बदलाव का कारक एक ही होता है: उत्पादक शक्तियों और उत्पादन के सम्बंधों के बीच द्वंद्वात्मक अन्तर्विरोध। विकास के एक निश्चित चरण में उत्पादन के सम्बंध उत्पादक शक्तियों के फलने-फूलने में बाधा बनने लगते हैं। आजकल पूंजीवाद के साथ दुनियाभर में यही हो रहा है।
मार्क्स की प्रमुख रचना पूंजी दर्शाती है कि पूंजीवाद की गति के नियम ही पूंजीवादी निजी सम्पत्ति की समाप्ति के हालात पैदा करते हैं। संकटों के माध्यम से ये हर बार पिछली बार से ज़्यादा ख़तरनाक रूप से खुद को परिलक्षित करते हैं। उत्पादक शक्तियों के समाजीकरण का स्तर बढ़ गया है और वो एक दूसरे पर पहले से बेहद ज़्यादा निर्भर करती हैं। एक ही कार्यस्थल अथवा अलग-अलग जगहों पर काम करने वाले मज़दूर सामूहिक रूप से उत्पादन करने वाली इकाइयों में तब्दील हो गए हैं। इन वजहों से समाज के स्तर पर नियोजन की जरूरत है तथा वैश्विक स्तर पर भी, क्योंकि उत्पादन का भी अत्यधिक अंतरराष्ट्रीयकरण हो गया है। लेकिन पूंजी केन्द्रीय नियोजन के ख़िलाफ़ होती है क्योंकि इसकी सफ़लता के लिए सामूहिक सम्पत्ति तथा विभिन्न रूपों में सामुदायिक सम्पत्तियों की जरूरत होती है। यह अन्तर्विरोध पूंजीवाद की समाप्ति का कारण बनता है।
हमने रेखांकित किया कि यह बदलाव स्वचालित, यांत्रिक या अवश्यसंभावी नहीं होता है। पूंजीवाद की जगह पर समाजवाद को वास्तविकता में तब्दील करने के लिए क्रांति की जरूरत होगी। यह काम एक ऐसी सामाजिक शक्ति ही कर सकती है जिसके हित निजी सम्पत्ति में निहित ना हों। यह सामाजिक वर्ग सर्वहारा है। पूंजी संचय की प्रक्रिया न केवल सर्वहारा वर्ग को जन्म देती है, बल्कि उत्पादन की नई शक्तियों को भी पैदा करती है जिनके लिए उत्पादन के पुराने सम्बंध बेड़ियों के समान होते हैं। जब तक सर्वहारा अपने वर्चस्ववादी प्रभाव के तले शोषितों और वंचितों को साथ लेकर पूंजीपतियों से समाज की बागडोर नहीं छीनता है तब तक मानव समाज भविष्यहीन रहेगा। मार्क्स और एंगेल्स कम्युनिस्ट घोषणापत्र की शुरुआत में इस संभावना के बारे में लिखते हैं: ‘एक निर्बाध, कभी छुपकर और कभी खुलेआम होने वाला संघर्ष जिसकी परिणति या तो बड़े पैमाने पर समाज के क्रांतिकारी पुनर्गठन अथवा प्रतिस्पर्धी वर्गों के विनाश में होती है’।35 महान क्रांतिकारी रोज़ा लक्ज़म्बर्ग ‘समाजवाद या बर्बरता’ का उद्घोष करते हुए इसी संभावना को व्यक्त करती हैं।
आर्थिक महाअवसाद विनाशकारी राजनीतिक और सैन्य घटनाओं को जन्म देते हैं। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के पहले आर्थिक महाअवसाद पर साम्राज्यवाद के उदय से ही काबू पाया जा सका। दुनिया के बहुसंख्यक लोगों के जबरन उपनिवेशीकरण और दासता के कारण प्रथम विश्व युद्ध का रक्तपात हुआ। 1930 के दशक में आर्थिक महाअवसाद के कारण फ़ासीवाद और नाज़ीवाद का उदय हुआ। इसके परिणामस्वरूप बर्बर द्वितीय विश्व युद्ध हुआ जिसमें लाखों को मौत और नरसंहार का ग्रास बनना पड़ा। बर्बरता से रोज़ा लक्ज़म्बर्ग का तात्पर्य उपनिवेशीकरण, दुनिया-व्यापी युद्धों तथा फ़ासीवाद से ही था।
हालाँकि, आर्थिक महाअवसाद के गर्भ में क्रांति और विद्रोह भी पलते हैं। दुनिया भर की अन्य क्रांतियों के तरह ही पूंजीवाद के बर्बर हालात ने 1917 की अक्टूबर क्रांति और 1949 की चीनी क्रांति को जन्म दिया था। आर्थिक संकटों के अध्ययन से हम यह राजनीतिक सबक़ ले सकते हैं कि मानवता के वजूद और प्रगति के लिए एकमात्र रास्ता एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण है जो आर्थिक महाअवसाद नामक इन पूंजीवादी संकटों से पैदा होने वाली बर्बर प्रवृत्तियों पर विजय हासिल कर पाए। यह याद रखना आवश्यक है कि दोनों ही विश्वयुद्धों का अंत शांति वार्ता या नेकदिल तथा नेक इरादे वाले लोगों द्वारा शांति पर प्रवचन देने की वजह से नहीं हुआ। क्रांतियों के बाद शक्ति हासिल करने वाले शोषितों और वंचितों ने दोनों विश्वयुद्धों का अंत किया।
हमारा अंतिम निष्कर्ष यह है: पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली का विकास समाजवादी क्रांति के लिए ज़मीन तैयार करता है। जैसे-जैसे वैश्वीकृत पूंजीवाद दुनिया के मज़दूरों को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं से जोड़कर उनका शोषण करता है, वो उत्पादन के साधनों को उत्पादकता की अधिकतम ऊँचाईयों तक ले जाने के साथ-साथ पूंजीवाद की कब्र तैयार करने वाला एक वैश्विक कामगार वर्ग भी तैयार करता है जिसका सहकारी श्रम सारे मूल्य का स्रोत होता है। दुनिया का सारा धन इनके श्रम तथा प्रकृति से मिलकर बनता है।
पूंजी ने उत्पादन का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया है। इसने बहुत सारे राष्ट्रों और नस्लों में बँटे दुनियाभर के मज़दूरों को एक साथ ला दिया है। इसने एक सामूहिक कार्यबल का निर्माण किया है तथा देशों की सीमाओं को तोड़कर सभी उत्पादक शक्तियों का सामाजीकरण किया है। इसलिए क्रांति का दायरा भी अंतरराष्ट्रीयतावादी होना चाहिए। इसकी शुरूआत राष्ट्रीय स्तर पर हो सकती है। अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग का हरेक तबका अपने राष्ट्र-राज्य पर कब्ज़ा करने के लिए अपने देश के बुर्ज़ुआ वर्ग से लड़ेगा। हालाँकि, क्रांति और प्रतिक्रांति हमेशा से ही क्षेत्रीय स्तर पर शुरू होने के बाद महाद्वीपीय रूप लेती है। इसलिए क्रांति का दौर शुरू होने पर हमें विश्व अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्सों को अंतरराष्ट्रीय बुर्ज़ुआ वर्ग से छीनने के लिए तैयार रहना चाहिए। यही एकमात्र रास्ता है जिस पर चलकर मानवता खुद को पूंजीवाद के आखिरी पड़ाव द्वारा पैदा की गई विनाशकारी प्रवृत्तियों से बचा सकती है।
ग्रन्थसूची
1 The Trussell Trust, ‘End of Year Stats’, April 2021–March 2022, https://www.trusselltrust.org/news-and-blog/latest-stats/end-year-stats/.
2 Tami Luhby, ‘As Millions Fell into Poverty during the Pandemic, Billionaires’ Wealth Soared’, CNN Business, 7 December 2021, https://edition.cnn.com/2021/12/07/business/global-wealth-income-gap/index.html.
3 Oxfam International, ‘World’s Billionaires Have More Wealth than 4.6 Billion People’, 20 January 2020, https://www.oxfam.org/en/press-releases/worlds-billionaires-have-more-wealth-46-billion-people.
4 For more on the concept of ‘decoupling’ or ‘delinking’, read Tricontinental: Institute for Social Research’s interview with Samir Amin, Globalisation and Its Alternative, notebook no. 1, 29 October 2018, https://dev.thetricontinental.org/globalisation-and-its-alternative/.
5 Murray E. G. Smith, Jonah Butovsky, and Josh J. Watterton, Twilight Capitalism: Karl Marx and the Decay of the Profit System (Halifax: Fernwood Publishing, 2021), 61.
6 Eurostat, ‘General Government Gross Debt – Annual Data’, accessed 22 April 2022, https://ec.europa.eu/eurostat/databrowser/view/teina225/default/table?lang=en.
7 Robert J. Shiller, ‘Looking Back at the First Roaring Twenties’, The New York Times, 16 April 2021, https://www.nytimes.com/2021/04/16/business/roaring-twenties-stocks.html.
8 Karl Marx, Theories of Surplus Value, part 2 (Moscow: Progress Publishers, 1968), 500.
9 Ann Pettifor, ‘I Blame the Queen for This Crisis’, The Guardian, 26 February 2009, https://www.theguardian.com/commentisfree/2009/feb/26/recession-economy-capitalism.
10 John Maynard Keynes, The General Theory of Employment, Interest, and Money (London: MacMillan, 1936).
11 Keynes, General Theory, 161.
12 Joseph A. Schumpeter, Business Cycles: A Theoretical, Historical, and Statistical Analysis of the Capitalist Process (New York: McGraw Hill, 1939), v.
13 George Catephores, ‘The Imperious Austrian: Schumpeter as Bourgeois Marxist’, New Left Review, no. 205 (May–June 1994): 3–30.
14 Keynes, General Theory, 355.
15 ‘पूंजी एक ही समय दोनों तरफ काम करती है। अगर एक तरफ़ पूंजी का संचय श्रम की माँग बढ़ाता है, तो दूसरी तरफ मज़दूरों को ‘आज़ाद’ करके उसकी पूर्ति को भी बढ़ाता है। साथ-ही-साथ बेरोज़गारों का दबाव रोज़गार में संलग्न मज़दूरों को अधिक श्रम की पूर्ति करने को बाध्य करता है, और इसलिए कुछ हद तक श्रम की पूर्ति को मज़दूरों की पूर्ति से स्वतंत्र कर देता है। इस आधार पर श्रम की पूर्ति और माँग का नियम जिस तरह काम करता है, उससे पूंजी की निरंकुशता सम्पूर्ण हो जाती है।’ ‘सापेक्ष अतिरिक्त जनसंख्या या औद्योगिक रिज़र्व सेना का उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ उत्पादन’, कार्ल मार्क्स, पूंजी: राजनीतिक अर्थशास्त्र की एक समीक्षा, खंड 1, vol. 1 (London: Penguin, 1976).
16 Rosa Luxemburg and Nikolai Bukharin, Imperialism and the Accumulation of Capital, ed. Kenneth J. Tarbuck (London: Penguin, 1972).
17 Karl Marx, Capital: A Critique of Political Economy, vol. 2 (London: Penguin, 1992), 486–487.
18 Karl Marx, Grundrisse: Foundations of the Critique of Political Economy (London: Penguin,1993), 748.
19 Karl Marx and Friedrich Engels, ‘The Communist Manifesto’, in Marx and Engels Collected Works, vol. 6 (London: Lawrence and Wishart, 2010).
20 Marx and Engels, ‘The Communist Manifesto’, 489–490.
21 Karl Marx, ‘Preface to ‘A Contribution to the Critique of Political Economy’, in Marx Engels Collected Works, vol. 29 (London: Lawrence and Wishart, 2010), 263.
22 Marx, Capital, vol. 1, 929.
23 Manuel Castells, The Rise of the Network Society (Oxford: Blackwell Publishers, 1996), 92.
24 Marc Levinson, The Box: How the Shipping Container Made the World Smaller and the World Economy Bigger (Princeton: Princeton University Press, 2016), 2.
25 Tricontinental: Institute for Social Research, In The Ruins of the Present, working document no. 1, 1 March 2018, https://dev.thetricontinental.org/working-document-1/.
26 Marx, Capital, vol. 1, 929.
27 John Bellamy Foster and Robert W. McChesney, The Endless Crisis: How Monopoly-Finance Capital Produces Stagnation and Upheaval from the USA to China (New York: Monthly Review Press, 2012), 32.
28 Foster and McChesney, The Endless Crisis, 74.
29 Paul Wiseman, ‘Why Robots, Not Trade, Are behind So Many Factory Job Losses’, AP News, 2 November 2016, https://apnews.com/article/donald-trump-global-trade-china-archive-united-states-265cd8fb02fb44a69cf0eaa2063e11d9.
30 Automation.com, ‘Automation Increases Demand for Industrial Robots’, 2 July 2013, https://www.automation.com/en-us/articles/2013-2/automation-increases-demand-for-industrial-robots.
31 Martin Ford, Rise of the Robots: Technology and the Threat of a Jobless Future (New York: Basic Books, 2015), 10.
32 International Federation of Robotics Statistical Department, ‘Executive Summary’, in World Robotics 2021 Industrial Robots, 2021, https://ifr.org/free-downloads.
33 Eric Holt-Giménez et al., ‘We Already Grow Enough Food for 10 Billion People… and Still Can’t End Hunger’, Journal of Sustainable Agriculture, no. 36 (2012): 595–598, https://doi.org/10.1080/10440046.2012.695331.
34 Tricontinental: Institute for Social Research, ‘Even a Clown Is Fascinated by Ideas: The Forty-Fifth Newsletter (2019)’, 7 November 2019, https://dev.thetricontinental.org/newsletterissue/newsletter-45-2019-clown/.
35 Marx and Engels, ‘The Communist Manifesto’.