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वक़्त की पुकार है- अफ्रीका से बाहर निकले फ्रांस: उनचासवाँ न्यूज़लेटर (2024)

बुर्किना फासो, माली और नाइजर के बाद, चाड और सेनेगल अपने देश से फ्रांसीसी सेना की वापसी की मांग कर रहे हैं।

महिला आंदोलनकारियों और अफ्रीकी नेताओं के परिसंघ के सम्मेलन में हाजरा अली सौमिया, फोटोः पेड्रो स्ट्रोपासोलास, पीपल्स डिस्पैच.

प्यारे दोस्तो,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

अफ्रीका के सहेल क्षेत्र में फ्रांस विरोधी भावना की एक लहर चल पड़ी है। इस लहर में बुर्किना फासो, माली और नाइज़र के साथ चाड और सेनेगल भी जुड़ गए हैं, जिन्होंने नवंबर में फ्रांसीसी सरकार से माँग की थी कि वह इनकी ज़मीन से अपनी सेना वापस बुला ले। सूडान की पश्चिमी सीमा से लेकर अटलांटिक सागर तक फ्रांस की सेनाओं के कोई ठिकाने अब नहीं होंगे जो 1659 से यहाँ मौजूद थे। चाड के विदेश मंत्री अब्दुर रहमान कौलमल्ला ने बेहतरीन बयान दिया: ‘फ्रांस … को अब मान लेना चाहिए कि चाड बड़ा और परिपक्व हो चुका है, और चाड एक संप्रभु राष्ट्र है जो अपनी संप्रभुता के मामले में बहुत संजीदा है’। यहाँ ‘संप्रभुता’ शब्द ग़ौर करने वाला है। कौलमल्ला इशारा कर रहे हैं कि सहेल देशों को अब सिर्फ प्रतीकात्मक आज़ादी या – सिर्फ़ एक आज़ाद झण्डा (फ़्रांट्ज़ फैनन ने जैसा कि 1961 की अपनी किताब द रेचिड ऑफ़ द अर्थ  में इस तरह की आज़ादी के लिए कहा था) नहीं सच्ची संप्रभुता चाहिए।

फैनन की किताब सहेल देशों के 1960 में फ्रांस से औपचारिक स्वतंत्रता हासिल कर लेने के एक साल बाद प्रकाशित हुई। लेकिन यह ‘आज़ादी’ खोखली थी। इसका मतलब सिर्फ़ यह था कि सेनेगल से चाड तक ये तमाम देश फ्रांसीसी-अफ्रीकन समुदाय या सीएफ़ए का हिस्सा बने रहेंगे और सीएफ़ए फ़्रांक को अपनी मुद्रा मानेंगे जिसकी जड़ें फ्रांस में ही हैं। ऐसा करने से फ्रांसीसी कंपनियों को इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर अपना नियंत्रण बनाए रखने का मौका मिला। इसके साथ ही यह भी कहा गया कि ये देश अपने क्षेत्रों में फ्रांस के सैनिकों को तैनात रखने की इजाज़त देंगे। सितंबर 1958 में सहेल में फ्रांसीसी उपनिवेशों में एक जनमत संग्रह हुआ। जिसमें गिनी के अलावा सब देशों ने फ्रांस के नवउपनिवेशवादी सीएफ़ए के तहत सीधे तौर से फ्रांसीसी उपनिवेशवादी शासन से ‘स्वतंत्रता’ के प्रस्ताव के समर्थन में मत दिया। जिन ताक़तों ने सीएफ़ए के खिलाफ़ अभियान चलाया और अंतत: आज़ादी हासिल की उन्हें चार्ल्स डी गॉल के राजनीतिक और सैन्य शासन के दमन का सामना करना पड़ा।

सहेल की जनता के साथ एकजुटता के लिए सम्मेलन, नियामे, नाइज़र। फोटोः पेड्रो स्ट्रोपासोलास, पीपल्स डिस्पैच.

यूनियन ऑफ़ पॉपुलर फोर्सेस फ़ॉर डेमोक्रेसी एण्ड प्रोग्रेस-स्वाबा (लिबरैशन) के नेता और नाइज़र की सरकारी काउन्सल के अध्यक्ष जीबो बकारी (1922-1998) ने पचास के दशक के अंत में जनता की भावनाओं को सही-सही पेश करता हुआ एक नारा दिया l’indépendance nationale d’abord, le reste ensuite (‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता पहले, बाकी सब बाद में’)। बकारी swaki (‘मुक्ति’) के विचार में विश्वास रखते थे, जिसका मतलब सिर्फ फ्रांस के उपनिवेशवाद से छुटकारा भर नहीं था बल्कि ग़रीबी और पीड़ा से भी आज़ाद होना था। मई 1958 में जनरल यूनियन ऑफ़ वर्कर्स ऑफ़ ब्लैक अफ्रीका (UGTAN) की एक बैठक बेनिन के कोटोनौ में हुई और यहाँ से फ्रांसीसी उपनिवेशवादी व्यवस्था को पूरी तरह से ख़त्म करने की माँग उठाई गई। उसी साल जुलाई में कोटोनौ में हुई एक अंतर-क्षेत्रीय सम्मेलन में बकारी ने इस माँग को नाइज़र और सारे सहेल क्षेत्र में व्यापक सार्वजनिक विमर्श के लिए दोहराया। इसके अगले ही महीने अगस्त में स्वाबा पार्टी काँग्रेस में अदामु सेकू ने फ्रांस के अन्य तरीक़ों से उपनिवेशी शासन जारी रखने की इच्छा के खिलाफ़ विचार रखते हुए कहा: ‘हमारी मानवीय गरिमा जिसे हमारे कई महानगरीय साथी मानने में संकोच करते हैं; एक ऐसी गरिमा है जिसे हम कभी त्याग नहीं सकते क्योंकि अश्वेत अफ्रीकी सबसे पहले आज़ाद होना चाहते हैं’।

लगभग इसी समय के आस-पास फैनन लिखते हैं कि अगर लोगों को अगर उनका ‘आप’ और आज़ादी नहीं दी जाए तो वे विद्रोह करेंगे। उन्होंने द रेचिड ऑफ़ द अर्थ में लिखा ‘जनता में उदासी छा गई’। ‘उन्होंने उस देश से ही मुँह मोड़ लिया जिसने उन्हें रहने की जगह दी और उनका इससे मन फट सा गया।’ फैनन लिखते हैं छद्म राष्ट्रवादी या झण्डा राष्ट्रवादी ‘आज़ादी के नारों के दम पर लोगों को लामबंद करते हैं और बाकी सब भविष्य पर छोड़ देते हैं’। आज छह दशक बाद हम सब यही ‘भविष्य’ देख रहे हैं।

सहेल की जनता के साथ एकजुटता के लिए सम्मेलन, नियामे, नाइज़र। फोटोः पेड्रो स्ट्रोपासोलास, पीपल्स डिस्पैच.

19 से 21 नवंबर तक नाइज़र के नियामे सहर में पूरे महाद्वीप और दुनिया से आए सैकड़ों लोग सहेल की जनता के साथ एकजुटता के लिए हुए सम्मेलन में इकट्ठा हुए। बुर्किना फ़ासो, माली और नाइज़र से फ्रांस समर्थक सरकारों को हटाने के लिए हुए सैन्य तख्तापलट अभियानों और सितंबर 2023 में अलायंस ऑफ़ सहेल स्टेट्स (AES) की स्थापना के बाद यह पहला ऐसा सम्मेलन था। नियामे के महात्मा गाँधी इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस सेंटर में हुआ यह सम्मेलन वेस्ट अफ्रीकन पीपल्स ऑर्गनाइज़ेशन (WAPO), पान-अफ़्रीकनिज़म टूडे और इंटरनैशनल पीपल्स असेंबली (IPA) ने करवाया। इस सम्मेलन में नैशनल काउन्सल फ़ॉर द सैफगार्ड ऑफ़ द होमलैंड (CNSP), AES सहित अन्य सहेल देशों के जन संगठनों, पश्चिमी अफ्रीका और बाकी महाद्वीप के तथा लैटिन अमेरिका और एशिया के प्रतिनिधियों ने अपनी बात रखी। तीन दिन के सम्मेलन का सार नियामे घोषणा के रूप में निकला, जिसका अंतिम भाग यहाँ पेश किया जा रहा है:

  1. हम उन सरकारों की सराहना करते हैं जो हालिया तख़्तापलट के अभियानों से निकली हैं और जिन्होंने अपनी क्षेत्रीय सीमाओं और प्राकृतिक संपदाओं पर राजनीतिक और आर्थिक संप्रभुता को फिर से हासिल करने के देशभक्ति भरे क़दम उठाए हैं। इन क़दमों में शामिल है नवउपनिवेशवादी समझौतों को निरस्त करना, फ्रांसीसी, अमेरिकी और अन्य विदेशी सेनाओं को हटाए जाने की माँग तथा संप्रभुता पर आधारित विकास के लिए कई महत्त्वाकांक्षी योजनाओं की शुरुआत करना।

  1. इन देशों के एकजुट होकर अलायंस ऑफ़ सहेल स्टेट्स की स्थापना करने से हमें ख़ास प्रेरणा मिली है। यह पहल पूरे अफ्रीका के नेताओं की विरासत को पुनर्जीवित करेगी और यह सच्ची स्वतंत्रता और सम्पूर्ण अफ्रीका में एकता की ओर बढ़ने के एक ठोस क़दम का प्रतीक है।

  1. फिलहाल इन सरकारों को इनकी जनता का व्यापक समर्थन हासिल है। यह जनता इन क्रांतिकारी क़दमों को आगे बढ़ा रही है। यह एकता लोकतांत्रिक और देशभक्ति के आदर्शों को पाने के लिए अहम है तथा दूसरे अफ्रीकी देशों के लिए विकास का एक मॉडल पेश करेगी।

निष्कर्षत:, सहेल देशों की पूर्ण आज़ादी के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाक़ी है लेकिन हमें उम्मीद है कि ये सरकारें अपनी जनता की बात सुनती रहेंगी, जिससे वे पूर्ण राजनीतिक आज़ादी के लक्ष्य को प्राप्त करेंगी तथा एक एकजुट और स्वतंत्र अफ्रीका के व्यापक लक्ष्य के लिए काम कर पाएंगी।

सहेल की जनता के साथ एकजुटता के लिए सम्मेलन, नियामे, नाइज़र। फोटोः पेड्रो स्ट्रोपासोलास, पीपल्स डिस्पैच.

अगस्त 2022 में पंद्रह सामाजिक और राजनीतिक संगठन नाइज़र में एक साथ आए और उन्होंने M62 आंदोलन (सेक्रेड यूनियन फ़ॉर द सैफगार्ड ऑफ़ द साव्रिन्टी एण्ड डिग्निटी ऑफ़ द पीपल, M62)  की शुरुआत की। उन्होंने नाइज़र में फ्रांसीसी सेना की मौजूदगी के ख़िलाफ़ एक बयान जारी किया। बयान में कहा गया कि फ्रांसीसी सेना को ‘माली से बाहर कर दिया गया था और वह हमारे क्षेत्र में ग़ैरकानूनी रूप से [मौजूद है]’, साथ ही इसके ‘तुरंत निकल जाने’ की माँग भी उठाई गई। इस आंदोलन ने देश भर में ‘सभी नागरिकों से नागरिक समितियाँ बनाने’ को कहा। इस आंदोलन के नेताओं में से एक हैं अब्दुले सेडो, जो पैन-अफ्रीकन नेटवर्क फ़ॉर पीस, डेमोक्रेसी एण्ड डेवलपमेंट के अध्यक्ष हैं। इस संगठन के दफ़्तर का नाम बुर्किना फ़ासो के नेता थॉमस संकारा (1949-1987) के नाम पर रखा गया है। इस दफ़्तर में फैनन के शब्द लिखे हुए हैं ‘हर पीढ़ी को अपने दौर के अंधेरे से निकलकर अपनी पीढ़ी के उद्देश्य को खोजना पड़ता है, फिर या इसे पूरा करना पड़ता है या इसे धोखा देना पड़ता है’। उस समय सेडो का सामान्य राजनीतिक विचार रहा था कि नाइज़र की जनता की पीड़ा फ्रांसीसी नवउपनिवेशवादी नियंत्रण में रहते हुए ख़त्म नहीं हो सकती। इसलिए M62 ने फ्रांसीसी सेना की मौजूदगी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने शुरू कियए और नियामे में रात में होने वाला एक सांस्कृतिक उत्सव आयोजित किया, जिससे आज़ादी का संदेश और भी फैले सके। इन प्रदर्शनों ने [नाइज़र] सेना को प्रेरित किया और वह मोहम्मद बाज़ौम के नवउपनिवेशवादी शासन के खिलाफ़ गई और जनरल अब्दुर रहमान चियानी के नेतृत्व में एक सरकार का गठन किया। बुर्किना फ़ासो और माली में हुए तख़्तापलट की ही तरह इस तख़्तापलट का भी देश भर में बहुत स्वागत किया गया क्योंकि इनसे उन ‘भविष्य की घटनाओं’ का रास्ता खुल गया जिनका ज़िक्र फैनन ने किया था।

नवंबर में हुए सम्मेलन में M62 आंदोलन के नेता सुलेमाने फलमाता ताया ने कहा कि नाइज़र में संघर्ष का नेतृत्व सेना नहीं, बल्कि युवा और महिलाएँ कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि ‘हम सिर्फ़ इतना चाहते हैं कि हमें इंसान माना जाए’। कुछ महीने पहले उन्होंने कहा था कि नाइज़र के लोग प्रधानमंत्री अली लामिन ज़ीन (जो पूर्व वित्त मंत्री भी हैं) के काम को सराह रहे हैं लेकिन जनता को चौकन्ना रहना होगा और सरकार को पारदर्शी।

सहेल की जनता के साथ एकजुटता के लिए सम्मेलन, नियामे, नाइज़र। फोटोः पेड्रो स्ट्रोपासोलास, पीपल्स डिस्पैच

1991 में पूर्व वामपंथी छात्र नेताओं ने रेवल्यूशनरी ऑर्गनाइज़ेशन फ़ॉर न्यू डेमोक्रेसी-तारमोवा (हौसा भाषा में ‘तारा’) या ORDN-Tarmouwa का गठन किया। इस राजनीतिक संगठन ने फ्रांसीसी नवउपनिवेशवादी ढाँचे और इसकी पिछलग्गू सरकारों के खिलाफ़ जन आंदोलन खड़े करने में बुनियादी भूमिका अदा की है। ORDN-Tarmouwa के संस्थापकों में से एक ममाने सानी अदामू ने हाल के दौर को नाइज़र की जनता का दूसरा पुनर्जागरण कहा है। ‘हम एक देशभक्त क्रांति के दौर से गुज़र रहे हैं, दूसरी आज़ादी के संघर्ष के दौर से।’ नाइज़र की जनता अपनी वित्तीय व्यवस्था, खाद्य उत्पादन और अपने व्यापक आर्थिक अजेंडे पर संप्रभुता चाहती है। उन्होंने कहा ‘हमें एक नई रणनीति अपनाने की ज़रूरत है’। ‘आज फ़र्क़ यह है कि हम अपने फ़ैसले खुद ले रहे हैं। हमें पेरिस से निर्देश नहीं मिल रहे। हम अपने निर्देशों पर चल रहे हैं।’

सहेल क्षेत्र में बुनियादी विचार है संप्रभुता। अगर सेनेगल या नाइज़र जैसे दूसरों पर निर्भर देश अपनी संप्रभुता के लिए लड़ते हैं और इस संप्रभुता को मज़बूत करने की कोशिश कर रहे हैं तो उन्हें नवउपनिवेशवादी ढाँचे के चंगुल से निकलना ही पड़ेगा। नवउपनिवेशवादी ढाँचे के बरकरार रहते हुए संप्रभुता की बात की ही नहीं जा सकती। इस वक़्त पर साम्राज्यवादी दखल होगा ही। संप्रभुता के लिए लड़ रही ताक़तें कैसे इस तीखे साम्राज्यवादी हमले को झेलेंगी यह देखना अभी बाकी है। जब फ्रांस ने 2023 में इन जनप्रिय सैन्य तख़्तापलटों के ख़िलाफ़ इकनॉमिक कम्यूनिटी ऑफ़ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट्स (ECOWAS) की सैनिक शक्ति के ज़रिए हस्तक्षेप करने की कोशिश की तो साम्राज्यवादी ख़तरे के बढ़ने की वजह से बुरकिनो फ़ासो, माली और नाइज़र AES के साथ जुड़ गए। पहले इम्तहान में तो जनप्रिय सरकारें पास हो गईं क्योंकि उन्होंने साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के सामने घुटने टेकने से मना कर दिया। ORDN-Tarmouwa और M62 का ज़ोर इस बात पर है कि साम्राज्यवादी व्यवस्था के खिलाफ़ संघर्ष कर संप्रभुता की माँग को आगे बढ़ाना होगा, और यही इन सरकारों को मजबूर करेगा कि ये सामाजिक समस्याओं का समाधान खोजने के लिए प्रतिबद्ध हों।

फैनन की ‘भविष्य की घटनाएँ’ अब हमारा वर्तमान हैं। और स्वाबा के अदामू सेकू की प्रत्याशा भी, जिन्होंने 1958 में कहा था, ‘टेरा से एनगुइग्मी तक आज़ादी की गूँज हर गाँव में सुनाई देनी चाहिए’। उन्होंने कहा, आज़ादी का मतलब ‘रूढ़िवादी उपनिवेशवाद का अंत है, और इसकी दास-प्रथा आधारित अर्थव्यवस्था, इसकी लोगों को बेदखल कर देने की प्रवृत्ति और इसके सामाजिक अन्यायों का भी। इसका मतलब इंसानी चमड़ी के रंग के आधार पर उनके मूल्य का निर्धारण करने की प्रथा का अंत होना है। यह पूर्वाग्रहों का अंत है। इसका अर्थ है हमारे लोगों का पुनर्जीवित होना।’

सस्नेह,

विजय