प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों के आरंभिक दौर में संघर्ष के योद्धा अपनी मुट्ठी में अपना संदेश थामे, कंधे से बंदूक लटकाए, झोले में अख़बार और पर्चे लिए ग्रामीण इलाक़ों और छोटे शहरों में पहुँचते थे। चूंकि उपनिवेशों के अधिकतर लोग पढ़ नहीं सकते थे, इसलिए वे लोगों को इकट्ठा कर तेज आवाज़ में अपने साथ लाई सामग्री पढ़ते थे। उन्हें सुनने के लिए लोग अक्सर आग जलाते और उसके चारों ओर घेरा बनाकर बैठ जाते। (शायद यही वजह है कि लैटिन में ‘फायर’ को फोकस कहा जाता है)। इस तरह राष्ट्रीय मुक्ति का यह साहित्य लोगों तक पहुँचता था और उनके साथ होने वाले शोषण और उत्पीड़न को उजागर करते हुए उन्हें संघर्ष में शामिल होने के लिए प्रेरित करता था।
इन अख़बारों और पर्चों में ख़बरों के साथ–साथ संघर्ष का आलोचनात्मक विश्लेषण पेश करने वाले लेख भी शामिल होते थे। इसके अलावा संघर्ष से जुड़ी कविताएँ, नाटक, कहानियाँ और चित्र भी शामिल होते थे। कला और विश्लेषण का संगम पेश करने वाले कई अख़बार थे, जैसे अल्जीरिया के नेशनल लिबरेशन फ्रंट का अख़बार एल मौदजाहिद और वियतनाम के नैशनल लिबरेशन फ़्रंट का अख़बार क़ू गाई फ़ांग। इस तरह के कई अख़बारों व पत्रिकाओं के संपादक स्वयं संस्कृतिकर्मी और कलाकार थे। ग़सान कनाफ़नी (1936-1972), 1969 में पॉपुलर फ्रंट फ़ॉर द लिबरेशन ऑफ़ फ़िलिस्तीन की पत्रिका अल हदाफ़ के संपादक बने थे। उसी साल उनका उपन्यास ‘उम्म साद‘ प्रकाशित हुआ, जिसमें एक फ़िलिस्तीनी महिला अपने बेटे को फ़िदायिन (गुरिल्ला युद्ध) में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करती है।
ग़सान ने अल हदाफ़ और अपने उपन्यास के माध्यम से बताया कि मानवीय भावनाओं के बिना किसी भी तरह का तार्किक काम नहीं हो सकता। कल्पनाओं की उड़ान ही क्रांतिकारी भविष्य का रास्ता बना सकती है। कला न केवल लोगों तक संघर्ष का संदेश पहुँचाने का अचूक ज़रिया होती है बल्कि भविष्य की कल्पना का बेहतरीन औज़ार भी होती है।
कला संघर्ष की अहम धुरी है। यह वह खिड़की है जिससे लोग यह देख पाते हैं कि वे कौन हैं, क्या कर सकते हैं और दुनिया को कैसा बनाना चाहते हैं। कला ख़ुद दुनिया को नहीं बदलती लेकिन अगर हम कला के ज़रिए जीवन में कल्पनाशीलता को जगह न दें, तो वर्तमान में ही अटके रहेंगे। क्रांतिकारी कलाकार अपनी कला में वास्तविकता को दर्शाते हैं और लोगों को अन्य लोगों में अपनापन देखने के क़ाबिल बनाते हुए उनकी चेतना को उन्नत बनाने का प्रयास करते हैं। कला दुनिया के अधिकतर लोगों पर हावी मौजूदा दुख और निराशा से लड़ने का विश्वास पैदा करती है। फिर जन–संगठनों का यह काम होता है कि वे इस नई चेतना वाले लोगों को बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए लामबंद करें।
19वीं सदी में दिया गया नारा ‘कला के लिए कला‘ हमारे समाज में कला की वास्तविक भूमिका की मुख़ालिफ़त करता है। कला की असली भूमिका है हस्तक्षेप, कि कलाकार अपने आस–पास की कुरूपता से ऐसी सुंदरता गढ़े, जिससे लोग इस कुरूप दुनिया को बदलने के लिए प्रेरित हों।
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने इसी दृष्टिकोण से अपना नया डोसियर “कल्चर ऐज़ अ वेपन ऑफ़ स्ट्रगल: मेडु आर्ट एन्सेम्बल एंड सदर्न अफ्रीकन लिबरेशन“ (डोसियर नं. 71, दिसंबर 2023) तैयार किया है। मेडु, सेसोथो भाषा का एक शब्द है, जिसका मतलब है जड़ें। 1979 से 1985 तक दक्षिण अफ्रीकी मुक्ति संघर्षों में शामिल कलाकारों ने मेडु नाम से एक समूह बनाया था। मेडु समूह से जुड़े लगभग साठ कलाकारों में दक्षिण अफ्रीका के केओरापेट्से विलियम क्गोसिट्सिले (दक्षिण अफ़्रीका के पहले पोएट लॉरेट) और मोंगने वैली सेरोटे (दक्षिण अफ्रीका के वर्तमान पोएट लॉरेट) जैसे कवि, मंडला लंगा जैसे लेखक, जोनास ग्वांगवा और डेनिस मपाले जैसे संगीतकार तथा थमसांका म्नेले और जूडी सीडमैन जैसे दृश्य कलाओं से जुड़े कलाकार शामिल थे।
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने मेडु समूह के जीवित कलाकारों के साक्षात्कार और रंगभेदी क्रूरता में मारे गए कलाकारों पर किए गए शोध के आधार पर उक्त डोसियर तैयार किया है। ये कलाकार अश्वेत चेतना आंदोलन, अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी आदि जैसी विभिन्न राजनीतिक धाराओं से जुड़े थे। गैबोरोन (बोत्सवाना) में स्थित इस समूह के कलाकार वियतनाम से चिली तक जारी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन की व्यापक परंपरा से प्रेरित थे। इसके साथ ही वे फ्रांत्ज़ फ़ैनन से भी प्रभावित थे, जिन्होंने कहा था कि ‘राष्ट्रीय चेतना से ही अंतर्राष्ट्रीय चेतना पैदा होकर फलती–फूलती है। और यह दोहरा उभार ही वास्तव में, हर तरह के सांस्कृतिक काम का केंद्रबिंदु है।‘
मेडु समूह राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों की परंपरा में शामिल अन्य कलाकार समूहों की तरह महत्त्वपूर्ण जन–संघर्षों से प्रेरित था। जैसे ज़मीन पर अधिकार लेने का संघर्ष, अंतरराष्ट्रीय उपनिवेश–विरोधी मुहिम (पैन–अफ्रीकी आंदोलन) और राष्ट्रीय स्वतंत्रता का आंदोलन (जो कि दक्षिण अफ्रीका के 1955 के स्वतंत्रता चार्टर में व्यक्त किया गया है)। ये वो अभियान थे जिनसे, मेडु समूह के कलाकारों में 1973 की डरबन हड़तालों और 1976 के सोवतो विद्रोह में भाग लेने वाले लोगों के बीच जाकर गाने और चित्र बनाने का आत्मविश्वास आया।
इस ऊर्जा और अपने अभ्यास से मेडु समूह ने कला पर तीन प्रमुख सिद्धांत तैयार किए: कला संघर्ष का एक आवश्यक हथियार है; कला का उत्पादन उन समूहों में किया जाना चाहिए जो लोगों के साथ मिलकर काम करते हैं; कला ऐसी होनी चाहिए जो लोगों की समझ में आए। इन तीन सिद्धांतों पर समूह में आंतरिक रूप से और कलाकारों की बड़ी बैठकों में बहस हुआ करती थी। ऐसी ही एक बैठक थी जुलाई 1982 में गेबोरोन में आयोजित ‘कल्चर एंड रेज़िस्टेन्स सिम्पोज़ीयम, फ़ेस्टिवल ऑफ़ द आर्ट्स‘ जिसमें दक्षिण अफ्रीका और उसके बाहर से लगभग हज़ार कलाकारों–संस्कृतिकर्मियों ने दक्षिण अफ़्रीकी रंगभेद के ख़िलाफ़ सांस्कृतिक लड़ाई तेज़ करने के लिए भाग लिया था। मेडु समूह समाजवादी कला पर विशिष्ट विचार और सिद्धांत पेश कर रहा था।
फिर 13 जून 1985 की रात को, दक्षिण अफ़्रीकी रंगभेदी राज्य की एक सैन्य टुकड़ी बोत्सवाना में घुस आई और निर्वासित दक्षिण अफ़्रीकी कलाकारों व कार्यकर्ताओं के घरों पर हमला कर दिया। उस रात मारे गए बारह लोगों में से दो लोग मेडु समूह के सदस्य थे, जिनमें उनके प्रमुख पोस्टर कलाकार थामी म्नेले भी शामिल थे। इस तरह मेडु समूह की काम जारी रखने की क्षमता नष्ट कर दी गई।
रंगभेदी शासक कला और कल्पना की प्रेरक शक्ति से डरते हैं। वे हिंसा से जवाब देते हैं।
आज अड़तीस साल बाद भी कला और संस्कृति के ख़िलाफ़ यह युद्ध जारी है, जिसे हम फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ रंगभेदी इज़राइल के नरसंहार के रूप में देख रहे हैं। इस बमबारी के दौरान मारे गए कई चित्रकारों और कलाकारों में चित्रकार हेबा ज़गौट (1984-2023), भित्ति–चित्रकार मोहम्मद सामी क़रीका (1999-2023), कवि और उपन्यासकार हिबा अबू नादा (1991-2023) और कवि रेफ़ात अलारेर (1979-2023) शामिल हैं। 2011 में लिखी गई अलारेर की कविता ‘इफ आई मस्ट डाई (अगर मुझे मरना ही है)‘ 7 दिसंबर को इज़राइली सुरक्षा बल द्वारा उनकी हत्या के बाद से दुनिया भर के लोगों के बीच लगातार गूंज रही है।
अगर मुझे मरना ही है
तो उससे उम्मीद पैदा होने दो
मेरी मौत को एक कहानी बनने दो।
इज़राइली शब्दों की ताक़त जानते हैं। जनरल मोशे दयान ने एक बार कहा था कि फ़दवा तुकन (1917-2003) की एक कविता पढ़ते हुए उन्हें लगा जैसे वो ‘बीस दुश्मन कमांडो का सामना कर‘ रहे थे। तुकन ने अपनी कविता ‘इंतिफ़ादा के शहीद‘ में फ़िलिस्तीनी पत्थरबाजों के बारे में लिखा। यह कविता स्वयं इज़राइल पर फेंका गया एक पत्थर है:
उन्होंने जीवन का रास्ता बनाया
बहुमूल्य पत्थरों और अपने जवाँ दिलों से उसे सजाया
अपने दिलों को अपनी हथेलियों पर पत्थरों की तरह उठाया
और पूरी चमक के साथ
फेंक दिया उन्हें सड़क के राक्षस पर,
अब समय है हिम्मत और ताक़त दिखाने का,
उनकी आवाज हर जगह जोरदार तरीक़े से पहुँची
और हर कहीं गूंज उठी
और उसमें हिम्मत और ताक़त थी
वे खड़े–खड़े मर गए
सड़क पर जलते हुए
जैसे सितारे चमकते हैं
[और] उनके होंठ जीवन के होठों को चूम रहे थे।
स्नेह–सहित,
विजय