Skip to main content
newsletter

कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में युद्ध होगा खत्म: सत्ताइसवाँ न्यूज़लेटर

कांगो में चल रहे मौजूदा टकराव को समझने के लिए पढ़ें यह न्यूज़लेटर, जिसमें पिछली सदी से अफ्रीका के इस भाग में जारीसंपदाओं की चोरी, और साम्राज्यवाद व उपनिवेशवाद की प्रक्रियाओं, तथा आज के इलेक्ट्रॉनिक युग के लिए बेहद अहम हो चुके कच्चे माल को हड़पने की होड़ का विश्लेषण किया गया है।

जार्दी एम्डोंबासी (डीआरसी), Soulèvement populaire et souveraineté (‘लोकप्रिय विद्रोह और संप्रभुता’), 2004

प्यारे दोस्तो,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन

20 जून को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) ने कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (डीआरसी) में नागरिकों पर हुए हमलों की ‘घोर’ निंदा की। अपनी प्रेस विज्ञप्ति में यूएनएससी ने लिखा कि डीआरसी की सेना और पड़ोसी देश रवांडा और यूगांडा की मदद पाने वाले बागी गुटों की तरफ हो रहे ये हमले ‘कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य और पूरे क्षेत्र में सुरक्षा व स्थिरता की पहले से चली आ रही अनिश्चित स्थिति को और बिगाड़ रहे हैं, तथा मानवीय संकट को गहरा कर रहे हैं’। इसके पाँच दिन बाद यानी 25 जून को यूएनएससी के दिसंबर 2023 के प्रस्ताव का पालन करते हुए संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना के दस्तों ने पूर्वी डीआरसी छोड़ दिया। यूएनएससी के 2023 प्रस्ताव में वादा किया गया था कि 20 दिसंबर को हुए डीआरसी के आम चुनावों के दौरान सुरक्षा मुहैया कारवाई जाएगी और शांति स्थापना दस्ते धीरे-धीरे देश छोड़ते जाएंगे। 

इसी बीच रवांडा की शय पाने वाले एम23 बागी लगातार डीआरसी के पूर्वी प्रांतों में घुसपैठ करते जा रहे हैं। इस इलाके में 1994 के रवांडा नरसंहार के बाद से ही एक टकराव जारी है। तीन दशकों से यहाँ कभी लंबे समय तक शांति नहीं बन पाई हालांकि इसके लिए कई बार कोशिशें हुईं (इन प्रयासों में से सबसे महत्वपूर्ण रहे 1999 का लुसाका समझौता, 2002 का प्रिटोरिया समझौता, 2002 का लुआंडा समझौता और 2003 का सन सिटी समझौता)।  इस टकराव में मरने वालों की संख्या कभी ठीक से दर्ज नहीं की गई लेकिन सभी अंदाज़े इसी ओर इशारा करते हैं कि 60 लाख से ज़्यादा लोगों की हत्या हो चुकी है। पूर्वी डीआरसी में चलती आ रही हिंसा पर काबू कर पाने में हो रही मुश्किलात ने यह भ्रम खड़ा कर दिया है कि कत्लेआम को हमेशा के लिए रोक पाना नामुमकिन है। परिस्थिति बद्दतर इसलिए हो गई है क्योंकि इस टकराव के पीछे की राजनीति के बारे में लोग ज़्यादा नहीं जानते और चूँकि इसकी जड़ें मुख्यत: ग्रेट लेकस् क्षेत्र के औपनिवेशिक इतिहास और मौजूदा इलेक्ट्रॉनिक युग में बेहद अहम हो चुके कच्चे माल को लेकर चल रही होड़ में नीहित हैं। 

मोंसेमबुला न्ज़ाबा रिचर्ड या ‘मोनज़ारी’ (डीआरसी), L’Aube de la résistance Congolaise (कांगो प्रतिरोध की सुबह), 2024

इस संघर्ष को समझने के लिए ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने सेंटर कल्चरल आंद्रे ब्लूअं, सेंटर फॉर रिसर्च ऑन द कांगो-किंशासा (सीईआरईसीके) और लिकाम्बो या एम्बेले (भूमि स्वायत्ता आंदोलन) के साथ मिलकर एक नया डोसियर तैयार किया है, जिसका शीर्षक है ‘कांगो की जनता का उनकी संपदा के लिए संघर्ष‘। आठ साल पहले मौजूदा जंग को समझने के लिए हमने एक टीम बनाई। इस टीम की खास तवज्जो रही पिछली सदी में अफ्रीका के इस हिस्से में फैले साम्राज्यवाद और संपदाओं की लूट के अध्ययन पर। 19वीं सदी में बेल्जियम के शासक लियोपोल्ड द्वितीय ने कांगो को उपनिवेश बनाया और इसके साथ ही इस क्षेत्र में श्रम, रबड़, हाथीदाँत, और खनिजों की लूट शुरू हो गई। बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों ने आज भी इस आपराधिक परंपरा को जारी रखा है और बढ़ती हुई डिजिटल तथा ‘ग्रीन’ अर्थव्यवस्था के लिए ज़रूरी खनिज और धातुओं की चोरी कर रहे हैं। यही संपदा इस देश में जंग का कारण है। जैसा कि हमने डोसियर में समझाया है डीआरसी दुनिया के सबसे अमीर देशों में से एक है, यहाँ मौजूद खनिज भंडार ही लगभग 24 लाख करोड़ डॉलर के हैं। फिर भी आज इस देश की 74.6% आबादी प्रतिदिन $2.5 से भी कम पर ज़िंदा रहने को मजबूर है और छह में से एक कांगो निवासी अत्यंत गरीबी में जी रहा है। इतनी ज़्यादा संपदा से लैस देश में इतनी गरीबी की वजह क्या है?

पहले के अध्ययनों और खदान मज़दूरों के पुराने इंटरव्यू के आधार पर डोसियर में दिखाया गया है कि समस्या का मूल कारण है कांगो के लोगों का अपनी संपदा पर नियंत्रण न होना। कांगो की जनता इस अनियंत्रित लूट के खिलाफ लड़ती आई है। 1958 में कांगो राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत हुई जिसके तहत बेल्जियम से आज़ादी और कांगो की अपार प्राकृतिक संपदा पर नियंत्रण वापस लेने की माँग उठी। इस लूट के खिलाफ यह संघर्ष 1930 और 1950 के दशक में मज़दूर-वर्ग के प्रतिरोध में भी स्पष्ट दिखाई देता है। यह लड़ाई न आसान रही और न ही इसमें जीत हासिल हुई: डीआरसी अब भी कांगो के ताकतवर कुलीनतंत्र और बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों के हाथों शोषण और उत्पीड़न झेल रहा है, इन बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों को कांगो के कुलीनतंत्र का पूरा साथ मिल हुआ है। इसके साथ ही कांगो के पड़ोसी देश, रवांडा और युगांडा, छद्म मिलिशिया समूहों के समर्थन से यहाँ लगातार जंग जैसे हालात बनाए रखते हैं। दूसरी तरफ विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे बहुपक्षीय संस्थान कर्ज़ देने के लिए नवउदारवादी नीतियों को लागू करने जैसी शर्तें लगाकर दख़ल देते हैं। 

दिसंबर 2023 में डीआरसी के चुनावों से कुछ दिन पहले ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने 20.2 करोड़ डॉलर का कर्ज़ दिया क्योंकि उसे विश्वास था कि जो कोई भी चुनाव जीतेगा वो इसके ‘समष्टि अर्थव्यवस्था यानी मार्कोइकनॉमिकस् स्पिलेज और आर्थिक सुधार के एजेंडा को जारी रखने जैसे लक्ष्यों’ को जारी रखेगा। दूसरे शब्दों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का भरोसा है कि चुनावी नतीजे कुछ भी हों वो बिजली का निजीकरण जारी रख सकता है और साथ ही खनिजों तथा धातुओं की खुदाई के नियम खुद तय कर सकता है। खुदाई के नियम अब तक बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों के प्रति बहुत ‘उदार’ रहे हैं (यहाँ ‘उदार’ शब्द डीआरसी में मुद्रा कोष के मिशन प्रमुख नोरबर्ट टो ने खुद इस्तेमाल किया था)। मुद्रा कोष की तरफ से दी गई छोटी सी रकम डीआरसी के बड़ी संपदा पर देश के अपने अधिकार को दबा सकती है।    

एम कदीमा (डीआरसी), कांगो इज़ नॉट फॉर सेल (कांगो बिकाऊ नहीं), 2024, रेफ्रन्स चित्र जॉन बेहेटस के सौजन्य से

अफ्रीका के ग्रेट लेक्स इलाके में कई समस्याएँ हैं और कई तरीकों से इन्हें बरकरार रखा जा रहा है: यहाँ पर थोपा हुआ नव उपनिवेशवादी तंत्र कोई भी ऐसी सामाजिक आधारभूत संरचना को पनपने नहीं देता जो आर्थिक रूप से सक्षम हो; खनन कंपनियों की अपार ताकत ने संपदाओं की संप्रभुता हासिल करने की तमाम कोशिशें नाकाम की हैं, हाल तक ये सब कंपनियाँ मुख्यत: ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका की हुआ करती थीं; साम्राज्यवादी ताकतों ने अपने धन और बल का इस्तेमाल कर स्थानीय सत्ताधारी वर्ग को विदेशी हितों के सामने झुका कर रखा है; इन सत्तारूढ़ वर्गों की कमज़ोरी रही कि ये देशभक्ति की भावना मज़बूती से स्थापित नहीं कर पाए जिससे इस इलाके का विकास रुक गया, ऐसी भावना तैयार करने की कोशिश बुरुंडी के लुइस रवागासोर और डीआरसी के पैट्रिस लुमुम्बा ने की थी (लेकिन दोनों को 1961 में साम्राज्यवादी ताकतों ने कत्ल कर दिया था); ऐसी एक भावना पैदा करने की बेहद अहम ज़रूरत है जिससे यहाँ के लोग साथ मिलकर ज़्यादा-से-ज़्यादा आबादी की भलाई के लिए काम करें, जबकि फिलहाल यहाँ लोग जातीय और जनजातीय भेदभावों के शिकार हो रहे हैं (सिर्फ डीआरसी में ही चार सौ से अधिक जातीय समूह हैं), इनकी वजह से लोग एकजुट होकर अपनी नियति के लिए लड़ने के बजाय आपस में बंटे हुए हैं।

1960 में डीआरसी की आज़ादी के बाद इसी भावना के विकास के लिए एक कार्यक्रम चला। 1966 में सरकार ने एक कानून पास किया जिससे उसे, बिना कब्ज़े वाली सारी भूमि और उसके खनिजों का नियंत्रण मिल गया। फिर 1973 में डीआरसी के जनरल प्रॉपर्टी कानून ने सरकारी अधिकारियों को अपनी मर्ज़ी से भूमि ज़ब्त करने का अधिकार दे दिया। यह एक ऐसा प्रोजेक्ट था जिससे जातिय अलगाव को हवा देने के बजाय भौतिक संसाधनों का इस्तेमाल व्यापक जनता की भलाई के लिए करने की सोच पर बल मिला। इसके बावजूद इस इलाके में नागरिकता का विचार अब भी जातिय पहचान के साथ घुलामिला हुआ है जिसके आधार पर बहुत सारे आपसी टकराव खड़े हो चुके हैं। यही विचार थे जिनकी वजह से 1994 में रवांडा का नरसंहार हुआ। एक सामूहिक प्रोजेक्ट या सोच की गैरमौजूदगी की वजह से जनता के दुश्मनों को आगे बढ़ने का मौका मिला और लोगों की कमज़ोरियों का फ़ायदा उठाने का भी।  

मोंसेमबुला नज़ाबा रिचर्ड या ‘मोनज़ारी’ (डीआरसी), Aurore Africaine (अफ्रीकी औरोरा), 2024

राजनीतिक और सैन्य गुटों — ADFL, FDLR, RCD और MLC — की खिचड़ी ने इस पूरे क्षेत्र को संपदा हथियाने की जंग में झोंक दिया है। कोल्टन, तांबे और सोने के भंडार तथा डीआरसी व युगांडा के बीच सरहद पर बनी सड़कों पर नियंत्रण ने इन सैन्य गुटों और चंद ताकतवर लोगों को बहुत अमीर बना दिया। डीआरसी और युगांडा के बीच की सरहद पर बनी सड़कें पूर्वी डीआरसी को केन्या के मोम्बासा बंदरगाह से जोड़ती हैं। यहाँ जंग अब केवल उपनिवेशवाद के बाद एक आम राय कायम करने की नहीं रही थी, बल्कि उस संपदा की थी जिसे चुराकर एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय पूँजीवादी वर्ग को मुनाफा पहुँचाया जा सकता था जो अफ्रीका के ग्रेट लेक्स से कोसों दूर बसा हुआ है।

दिलचस्प है कि जब चीनी पूँजी ने ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और उत्तरी अमेरिका की कंपनियों को चुनौती देना शुरू किया तब ही ‘अंतर्राष्ट्रीय समुदाय’ को डीआरसी में मज़दूरों के अधिकारों की याद आई। मानव अधिकार संगठन जो अब तक इस शोषण की ओर देखते भी नहीं थे अचानक इसकी बात करने लगे, उन्होंने नए-नए शब्द निकाल लिए जैसे ‘ब्लड कोल्टन’ और ‘ब्लड गोल्ड’ जिनका प्रयोग कई अफ्रीकी देशों में चल रही चीनी और रूसी कंपनियों द्वारा खनन किए जाने वाले मुख्य खनिजों के लिए होने लगा है। इसके बावजूद जैसा कि हमारे डोसियर में — और वेनहुआ ज़ोंगहेंग के अंक ‘बेल्ट एंड रोड के दौर में चीन और अफ्रीका के संबंध’ में भी बताया गया है — डीआरसी के लिए चीन के नीति और हित मुद्रा कोष की तरफ से चलाए जा रहे एजेंडा से बिल्कुल अलग है, क्योंकि चीन चाहता है कि ‘खनिज और धातुओं की प्रोसेसिंग को डीआरसी में ही किया जाए और देश के लिए एक औद्योगिक आधार का निर्माण हो’। यह भी ध्यान देने योग्य है कि चीनी कंपनियाँ अधिकतर वो चीजें बनाती हैं जो ग्लोबल नॉर्थ के उपभोक्ताओं के लिए होती हैं, जबकि पश्चिमी वर्णन में इस विडंबना को बड़ी सहूलियत से नजरंदाज कर दिया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय मानव अधिकारों के हनन की बात करने का दंभ भरते हैं लेकिन अफ्रीकी जनता की आशा और आकांक्षाओं के बारे में नहीं सोचना चाहते; अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ग्लोबल नॉर्थ के हितों और यूएस के नेतृत्व में चल रहे नए शीत युद्ध की शह पर चलता है।    

 

डोसियर और इस न्यूज़लेटर में पेश किए गए चित्रों को स्टूडियो में बैठे नौजवान और प्रतिभावान कलाकारों ने हफ्तों की मेहनत से बनाया है। यह हमारे कला विभाग और सेंटर कल्चरल आन्द्रे ब्ल्यूअं के आर्टिस्ट कलेक्टिव का मिलाजुला प्रयास है। इनकी रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में और जानने के लिए हमारा चौथा ट्राईकॉन्टिनेन्टल आर्ट बुलेटिन ज़रूर पढ़ें और आर्टिस्ट फॉर कांगोलीस सोवरेनिटी के कलाकारों के काम को दर्शाती आंद्रे एंदंबी की बनाई यह वीडिओ भी देखें।  

मोंसेमबुला नज़ाबा रिचर्ड या ‘मोनज़ारी’ (डीआरसी), Le peuple a gagné (जनता जीत गई), 2024. रेफ्रन्स चित्र कांगोप्रेस वाया विकिमीडिया

हमारा डोसियर कांगो के युवाओं के शब्दों से खत्म होता है जो भूमि, देशभक्त संस्कृति और आलोचनात्मक सोच की इच्छा रखते हैं। ये युवा जंग में पैदा हुए थे, जंग में ही बड़े हुए और जंग के दौर में ही जी रहे हैं। लेकिन फिर भी इन्हें पता है कि डीआरसी के पास इतनी संपदा है कि वो जंग से आज़ाद दुनिया का सपना देख सकते हैं। एक ऐसी दुनिया जहाँ संकीर्ण बँटवारे और अंतहीन खूनखराबे नहीं शांति और सामाजिक विकास हो।

 

सस्नेह, 

विजय।