प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉनटिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
याद करना मुश्किल है कि अभी कुछ हफ्ते पहले पूरा ग्रह गतिवान था। दिल्ली (भारत) और क्विटो (इक्वाडोर) में विरोध-प्रदर्शन चल रहे थे; मितव्ययिता और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की पुरानी व्यवस्था पर ग़ुस्साए लोग और जातिवादी व महिला-विरोधी सांस्कृतिक नीतियों के खिलाफ लोग प्रदर्शन कर रहे थे। सैंटियागो (चिली) में एक के बाद एक विरोध-प्रदर्शनों की लहर चल रही थी; इन्हीं प्रदर्शनों के दौरान किसी ने एक इमारत की दीवार पर एक दमदार नारा लिखा: ‘हम सामान्य परिस्थिति में वापस नहीं जाएँगे, क्योंकि सामान्य परिस्थिति ही असल समस्या थी’। अब, कोरोनोवायरस के समय में, पुरानी दुनिया में वापसी की कल्पना करना असंभव लगता है, वो दुनिया जिसने इन घातक किटाणुओं के आने से पहले भी हमें लाचार बना रखा था। चिंता बढ़ ही रही है, मौत लगातार पीछे पड़ी है। ऐसे में यदि कोई भविष्य होगा, तो हमारा मानना है कि वो, अतीत के जैसा नहीं होना चाहिए।
कोरोनावायरस निश्चित रूप से एक गंभीर समस्या है और मानव शरीर में इसके संक्रमण के अपने खतरे हैं; लेकिन इसमें ऐसे सामाजिक मुद्दे भी हैं जिन पर गंभीर विचार करने की ज़रूरत है। विशेष रूप से हमें ध्यान देना चाहिए कि अधिकांश पूंजीवादी देशों में —जहाँ सामाजिक संस्थानों का निजीकरण किया गया था और जहां निजी संस्थान लागत कम करने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़े कमाने का काम कर रहे थे— सामाजिक संस्थाएँ ध्वस्त हो गयी हैं।
यह पतन स्वास्थ्य क्षेत्र में सबसे ज़्यादा स्पष्ट है। सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों को मिलने वाली वित्त-सहायता में भारी कटौतियाँ की जाती रही हैं, चिकित्सा देखभाल कार्य निजी कम्पनियों को हस्तांतरित कर दिए गए हैं, और निजी अस्पताल व क्लीनिक वृद्धि की क्षमता (ज़रूरत पड़ने पर अपनी सेवाएँ बढ़ा पाने की क्षमता) के बिना ही काम करते हैं। इसका मतलब केवल यही है कि अस्पतालों में पर्याप्त बेड और चिकित्सा-उपकरण (मास्क, वेंटिलेटर, आदि) नहीं हैं; और नर्सें, डॉक्टर, पैरामेडिकल स्टाफ़, चौकीदार व स्वास्थ्य सेवाएँ देने में अग्रणी भूमिका निभाने वाले अन्य कर्मी बुनियादी सुरक्षा इंतज़ामों के बिना, भारी कमी की स्थितियों में काम करने को मजबूर हैं। सबसे कम कमाने वाले लोग ही अपनी ज़िंदगी दाँव पर लगा कर तेजी से फैल रही इस महामारी से जीवन बचाने के काम में लगे हैं। इस वैश्विक महामारी में निजी क्षेत्र का सामाजिक संस्थाओं की वित्त-सहायता में कटौती करने का मितव्ययिता-मॉडल फ़ेल हो गया है।
इसके अलावा हमारा आर्थिक तंत्र, वित्तीय क्षेत्र और धनाढ़्य वर्ग के पक्ष में इस क़दर झुका हुआ है कि वो लंबे समय से बढ़ती बेरोजगारी, अल्प रोज़गार और रोज़गार में लगातार बढ़ती अनिश्चितताओं को नजरअंदाज करता रहा है। यह कोरोनावायरस या तेल की कीमतों में आई गिरावट से पैदा हुई समस्या नहीं है; यह ‘असुरक्षित सर्वहारा वर्ग’ के रूप में पहचानी जाने वाली एक संरचनात्मक समस्या है। तालाबंदी और क्वारनटाइन के साथ छोटे व्यवसाय बंद हो गए हैं; ऐसे में अनिश्चितता ही असुरक्षित श्रमिकों की एकमात्र परिभाषा बन गई है। सबसे कट्टर बुर्जुआ नेता भी अब दो वास्तविकताओं का सामना करने को मजबूर हैं:
- कि मज़दूर होते हैं। इस वायरस के प्रसार और इसके परिणामों को रोकने के लिए राज्य द्वारा जारी हड़ताल ने यह साबित कर दिया है कि वे मज़दूर ही हैं जो समाज में मूल्य पैदा करते हैं ना कि ‘उद्यमी’ जिनका दावा है कि उनके विचारों और नई खोजों से धन उत्पन्न होता है। मज़दूरों के बिना कोई भी दुनिया रुकी हुई दुनिया ही होगी।
- कि वैश्विक धन और आय में मज़दूरों का हिस्सा इतना कम है कि उनके द्वारा मेहनत से कमाए हुए पैसे ख़त्म होने के बाद उनके पास कोई और विकल्प नहीं है। दुनिया के सबसे धनी देशों में से एक, संयुक्त राज्य अमेरिका में फेडरल रिजर्व द्वारा 2018 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार US के 40% परिवारों के पास 400 डॉलर के बराबर अप्रत्याशित खर्चों से निपटने के लिए पर्याप्त साधन नहीं है। यूरोपीय संघ में भी स्थिति ऐसी ही है; यूरोस्टेट के आंकड़ों से पता चलता है कि 32% घर अप्रत्याशित खर्च वहन नहीं कर सकते। इसीलिए पूंजीवादी देशों में अनिश्चित आजीविका होने की परिस्थिति में जीवन वहन कर पाने और उपभोक्ता मांग को प्रोत्साहित करने के लिए लोग अब खुले तौर पर व व्यापक रूप से ‘सभी के लिए न्यूनतम आय’ और ‘आय में समर्थन’ की माँग उठा रहे हैं।
पिछले हफ्ते, इंटरनेशनल असेंबली ऑफ पीपल्स और ट्राईकॉनटिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने इस विकट समय के लिए 16 उपायों की एक योजना तैयार की थी। संकटों की भरमार है: पूंजीवाद के दीर्घकालिक संरचनात्मक संकट हैं जैसे मुनाफ़े की दर में गिरावट, उत्पादक क्षेत्र में निवेश की कम दर, बेरोजगारी व अनिश्चित रोजगार, और अल्पकालिक सामयिक संकट भी हैं जैसे तेल की कीमतों में गिरावट और कोरोनावायरस।
अब निवेश घराने भी व्यापक रूप से मान रहे हैं, कि 2008-09 के वित्तीय संकट से उबरने की रणनीति अब काम नहीं कर रही है; कि बैंकिंग क्षेत्र में अधिक से अधिक पैसा डालने से कोई मदद नहीं मिलेगी। मितव्ययिता शासन ने जिन क्षेत्रों में भारी कटौतियाँ की अब उनमें प्रत्यक्ष निवेश करने की ज़रूरत है, जैसे कि स्वास्थ्य देखभाल क्षेत्र, सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र और आय समर्थन। फ्रेंते पैट्रिया ग्रांडे (अर्जेंटीना) के मैनुअल बर्टोल्डी और मैंने मिलकर इन मुद्दों पर गंभीर चर्चा की ज़रूरत को चिन्हित किया है। हर नीति पर अलग से चर्चा करने से भी ज़्यादा हमें इस बात पर चर्चा करने की ज़रूरत है कि राज्य और उसके संस्थानों को कैसे समझा जाए।
राज्य द्वारा संचालित संस्थानों (ख़ासतौर पर जन-स्वास्थ्य में सुधार लाने वाले संस्थान) के विचार को अतार्किक बना कर अवमान्य कर देना ही पूँजीवाद व मितव्ययिता नीतियों की प्रमुख उपलब्धि है। सरकारी प्रणाली को उन्नति के विरुद्ध देखना पश्चिम का विशिष्ट रवैया बन गया है; इसलिए सेना को छोड़कर सभी सरकारी संस्थानों को रद्द कर देना ही एकमात्र लक्ष्य रहा है। एक मजबूत सरकार और राज्य संरचना वाले किसी भी देश को ‘सत्तावादी’ के रूप में चित्रित किया जाता है।
लेकिन कोरोनावायरस के संकट में यह निश्चितता चरमरा गयी है। इस महामारी को रोक पाने में सक्षम रहे मज़बूत राज्य-संस्थानों वाले देशों -जैसे कि चीन- को आसानी से सत्तावादी कह कर खारिज नहीं किया जा सकता है; एक सामान्य समझ बन रही है कि इन देशों की सरकारें और उनके राज्य संस्थान बल्कि ज़्यादा कुशल हैं। दूसरी ओर मितव्ययिता की नीतियों से खोखले हो चुके पश्चिमी देश अब इस संकट से निपटने के लिए जुगत कर रहे हैं। स्वास्थ्य-देखभाल प्रणालियों में की गयी कटौतियों की विफलता अब स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। अब इस कुतर्क का कोई साक्ष्य नहीं बचा है कि निजीकरण और मितव्ययिता से संचालित संस्थान, परिस्थितियों के इम्तहान देकर व ग़लतियों से सीखते हुए समय के साथ कुशलता बढ़ाने वाले राज्य द्वारा संचालित संस्थानों की तुलना में ज़्यादा कुशल हैं।
कोरोनावायरस अब फिलिस्तीन में भी पहुँच गया है; और चिंता की बात ये है कि दुनिया की सबसे बड़ी खुली जेलों में से एक माने जाने वाले गाज़ा में भी इसका एक मामला सामने आया है। फिलिस्तीन के कम्युनिस्ट कवि समीह अल-कासिम (1939-2014) ने अपने वतन को एक ‘महान जेल’ कहा था; जिसके अलगाव में उन्होंने ज्वलंत कविताएँ लिखीं। उनकी कविताओं में से एक, ‘दोपहर में किया इक़बाल’, मियव्यायिता और नवउदारवाद से दुनियाभर में हुए भावनात्मक नुकसान की संक्षिप्त टिप्पणी है:
मैंने एक पेड़ लगाया
मैंने उसके फल तोड़ दिए
मैंने इस्तेमाल किया उसका तना जलावन की तरह
मैंने एक वीणा बनाई
और एक धुन बजाईमैंने वीणा तोड़ दी
फल खो दिए
धुन खो दी
मैं पेड़ पर बैठ कर रोया |
कोरोनोवायरस भारत में फैलना शुरू हो चुका है। भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली लम्बे समय से नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के चलते जर्जर हो चुकी है। भारत के 35 मिलियन की जनसंख्या वाले केरल राज्य में कोरोनोवायरस के 100 से अधिक मामले हैं। वहाँ की वाम मोर्चे की सरकार ने इस महामारी से निपटने के लिए एक अभियान चलाया है। ट्राईकॉनटिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के एक शोधार्थी -सुबीन डेनिस- और मैंने केरल के इस अभियान पर एक रिपोर्ट तैयार की है। हमारा मानना है कि केरल में अपनाए जा रहे उपायों के पीछे उसकी अपनी अनुकूल परिस्थितियाँ हैं। ये उपाय समझे जाने चाहिए।
- केरल की वाम सरकारों ने पिछले कई दशकों से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली क़ायम रखने और उसे विस्तरित करने के लिए संघर्ष किया है।
- केरल की वामपंथी पार्टियों व संगठनों ने वहाँ संगठित व एकजुट रह कर सार्वजनिक कार्रवाई करने की संस्कृति विकसित करने में मदद की है।
- केरल की वाम सरकार ने इस वायरस से संक्रमित लोगों का पता लगाने के लिए संक्रमित व्यक्ति के ‘परिचितों को ढूँढने’ और परिवहन केंद्रों पर परीक्षण करने जैसे उपायों को तुरंत लागू किया।
- मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री ने रोज़ एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की ताकि केरल की जनता को दैनिक परिस्थिति के विश्लेषण की विश्वसनीय जानकारी मिले।
- ‘कड़ी तोड़ो’ नारे के अंतर्गत सरकार व समाज ने इस वायरस के प्रसार को रोकने के लिए भौतिक दूरी बानाने, क्वारनटाइन करने और बचाव के उपचार लागू करने जैसे क़दम उठाए हैं।
- ‘भौतिक दूरी लेकिन सामाजिक एकता’ का नारा इस संकट के समय में आर्थिक और मानसिक रूप से परेशान लोगों की सहायता के लिए संसाधन जुटाने के महत्व को रेखांकित करता है।
- ट्रेड यूनियनों, युवा समूहों, महिला-संगठनों और सहकारी समितियों के नेतृत्व में हो रही सार्वजनिक कार्रवाइयों (जैसे सफाई-कार्य करना और ज़रूरत के सामान तैयार करना) ने लोगों का मनोबल बढ़ाया है और उन्हें सामाजिक एकता में भरोसा करने को प्रोत्साहित किया है।
- सरकार ने 20,000 करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा भी की है। इसके द्वारा महिलाओं की सहकारी ‘कुडुंबश्री’ के माध्यम से परिवारों को लोन दिए जाएँगे, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का आवंटन बढ़ाया जाएगा, बुजुर्गों को दो महीने का पेंशन देने के साथ मुफ्त अनाज और भोजनालयों में रियायती दरों पर खाना उपलब्ध कराया गया है। पानी और बिजली के बिल माफ़ कर दिए गए हैं व कर्ज के भुगतान पर ब्याज नहीं लिया जाएगा।
यह एक तर्कसंगत और ज़रूरी योजना है। इंटरनेशनल असेंबली ऑफ पीपल्स और ट्राईकॉनटिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान द्वारा तैयार की गयी 16-सूत्रीय योजना के साथ इसका अध्ययन किया जाना चाहिए। इन योजनाओं को सब जगह अपनाया जाना चाहिए; इनकी अवमानना करना लोगों के जीवन के साथ खिलवाड़ करना होगा।
कोलंबिया ने पूरे देश में उन्नीस दिन का क्वारनटाइन लागू किया है। कोलम्बिया के कैदियों ने कोरोनवायरस के जेल में फैलने पर उससे होने वाली मौतों की आशंका में जेलों की बढ़ती भीड़ और खराब स्वास्थ्य सुविधाओं के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन किया; इन प्रदर्शनों पर राज्य द्वारा की गई कार्रवाई से तेईस लोगों की मौत हो गई। ये डर दुनिया भर के जेलों में व्याप्त है।
इसी बीच, 19 मार्च को कोलंबिया में कृषि मज़दूरों व किसानों के आंदोलन के एक महत्वपूर्ण नेता मार्को रिवाडेनेरा, प्यूर्टो असिस के नगर पालिका में किसानों के साथ एक बैठक कर रहे थे। तीन सशस्त्र लोग बैठक में घुस आए और मार्को को ज़बरन उठा ले गए। उन्होंने मार्को की हत्या कर दी। मार्को लोकप्रिय आंदोलनों के उन सौ से अधिक नेताओं में से एक हैं जिन्हें कोलंबिया में बीते एक साल में मार दिया गया; और 2016 में गृह युद्ध स्थगित होने के बाद से मारे जा चुके आठ सौ नेताओं में से एक। ट्राईकॉनटिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के द्वारा दिसंबर 2019 में प्राकशित dossier 23 से पता चलता है कि यह हिंसा इतिहास की प्रगति में कुलीनतंत्र की अनिच्छा का सीधा परिणाम है। कुलीन वर्ग उन्हें लाभ देने वाली ‘सामान्य’ परिस्थिति में लौटना चाहते हैं। लेकिन मार्को एक नई दुनिया बनाना चाहते थे। मार्को को प्रेरित करने वाली इस उम्मीद के कारण ही मार्को को मारा गया था।
स्नेह-सहित,
विजय।