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पाखंड बर्दाश्त नहीं करेंगे छात्र: अठारहवाँ न्यूज़लेटर (2024)

फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ इज़रायली नरसंहार को उत्तरी गोलार्ध की सरकारों का पूर्ण समर्थन मिल रहा है लेकिन वहाँ के नागरिक लगातार प्रतिरोध कर रहे हैं। इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि ये प्रतिरोध अमेरिका में शुरू हुए हैं, जहां लोग अमेरिकी सरकार द्वारा इज़रायली सरकार को ब्लैंक चेक देने का विरोध कर रहे हैं। फ़िलिस्तीनियों के साथ एकजुटता से प्रेरित होकर, और दमन का सामना करते हुए, छात्र सड़कों पर कैम्प लगा कर बैठे हैं।

अस्खातअखमेद्यारोव (कजाकिस्तान), ऑटम पर्ज, 2012

प्यारे दोस्तो,

ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

इजरायल द्वारा फ़िलिस्तीनियों के नरसंहार का, जिस तरह उत्तरी गोलार्ध की सरकारें समर्थन कर रही थीं, उसका उनके नागरिकों की ओर से विरोध तो होना ही था। संयुक्त राज्य अमेरिका में जो प्रतिरोध शुरू हुआ, उस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि यह अक्टूबर 2023 से चल रहे विरोध प्रदर्शनों की कड़ी का एक हिस्सा है, जो अमेरिकी सरकार द्वारा इज़रायली सरकार को खुली छूट देने के विरुद्ध किए जा रहे हैं। फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ इजरायल के विनाश अभियान में सहायता के लिए अमेरिका ने 7 अक्टूबर से लगातार इजरायल की मदद की है जिसमें सौ से अधिक हथियारों की खेप और अरबों डॉलर की आर्थिक सहायता शामिल है।

पिछले काफ़ी समय से, संयुक्त राज्य अमेरिका में उत्तरी गोलार्ध के अन्य देशों की तरह युवा अनुभव कर रहे हैं कि उनके समाज में विश्वास में कमी आ रही है। स्थायी काम के अवसर समाप्त होते जा रहे हैं, उच्च डिग्री वालों की भी यही स्थिति है, मगर अपनी पहलकदमियों से उनके भीतर एक गहरी नैतिक दृष्टि पैदा हुई है कि वे बेहतर इंसान बनें। कटौती आधारित नवउदारवादी नीति और पितृसत्तात्मक मानदंडों की क्रूरताओं ने उन्हें अपने शासक वर्गों के ख़िलाफ़ खड़े होने के लिए मजबूर कर दिया है। वे कुछ बेहतर चाहते हैं। फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ हमले ने इस अलगाव को बढ़ावा दिया है। ये युवा कितनी दूर तक जाएँगे ये तो अभी देखना बाक़ी है।

 

Eng Hwee Chu (Malaysia), Lost in Mind, 2008.

इंग्ह्वी चू (मलेशिया), लॉस्ट इन माइंड, 2008

पूरे संयुक्त राज्य में, छात्रों ने दर्जनों विश्वविद्यालय परिसरों में शिविर बनाए हैं, जिनमें देश के सबसे प्रतिष्ठित संस्थान जैसे कोलंबिया, मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, स्टैनफ़ोर्ड, एमोरी, सेंट लुइस स्थित वाशिंगटन विश्वविद्यालय, वेंडरबिल्ट और येल शामिल हैं। ये छात्र कई स्थानीय कैम्पस समूहों के साथसाथ राष्ट्रीय संगठनों का हिस्सा हैं, जिनमें फ़िलिस्तीन में न्याय के लिए छात्र, फ़िलिस्तीनी युवा आंदोलन, शांति के लिए यहूदी आवाज़, कोडपिंक, अमेरिका के डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट और सोशलिज़्म एंड लिबरेशन पार्टी शामिल हैं। इन शिविरों में छात्र गाते हैं, अध्ययन करते हैं, प्रार्थना करते हैं और चर्चा करते हैं। इन विश्वविद्यालयों ने उन्हें मिलने वाले अनुदान की राशि को हथियार उद्योग तथा इज़रायली कंपनियों से जुड़े फ़ंडों में निवेश किया है। उच्च शिक्षा के अमेरिकी संस्थानों की कुल जमा पूंजी लगभग 840 बिलियन डॉलर तक पहुँच गई है। इन छात्रों के भीतर इस बात को लेकर बहुत ग़ुस्सा है कि उनकी लगातार बढ़ती ट्यूशन फ़ीस उन संस्थानों की ओर जा रही है जो इस नरसंहार में शामिल हैं और वे इससे मुनाफ़ा कमा रहे हैं। इसलिए उन्होंने जीजान से इसका विरोध करने का दृढ़ संकल्प लिया है।

जब इस तरह की बुनियादी नागरिक कार्रवाइयों को राज्य के दमनकारी तंत्र द्वारा पूरी ताक़त से दबाया जाता है तो लोकतंत्र नष्ट हो जाता है। कॉलेज प्रशासकों और स्थानीय शहरी अधिकारियों ने शिविरों को हटाने के लिए भारी सशस्त्र पुलिस बलों को भेजा है और उन्हें किसी भी आवश्यक साधन का उपयोग करने के लिए अधिकृत किया गया है, कई विश्वविद्यालयों के कैम्पस की छतों पर स्नाइपर्स की तैनाती करके इस घेराबंदी को और मज़बूत किया गया है। संवेदनशील छात्रों और संकाय सदस्यों को उनके परिसरों से बाहर निकालने, उनके साथ मारपीट किए जाने, उनके साथ क्रूरता करने और राइट गियर (दंगे के दौरान पहने जाने वाली पोशाक) पहने पुलिस द्वारा गिरफ़्तार किए जाने के दृश्य सोशल मीडिया पर बिखरे हुए हैं। लेकिन इन हिंसक कार्रवाइयों से ये युवा हतोत्साहित नहीं हुए हैं बल्कि इन हिंसक तरीक़ों ने न केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में, बल्कि ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, फ़्रांस, इटली और यूनाइटेड किंगडम जैसे सुदूर देशों में कॉलेजों में नये शिविरों के निर्माण को बढ़ावा दिया है। टेंटों में आग लगने का ख़तरा होने जैसे बहाने प्रशासकों के संकल्प को मज़बूत कर सकते हैं, लेकिन छात्रों, उनका बचाव करने आए संकाय सदस्यों या दुनिया भर के इनके समर्थक लोगों के लिए उनका कोई मतलब नहीं है। इस हिंसा की तस्वीरें वियतनाम युद्ध का विरोध कर रहे अमेरिकी छात्रों के ख़िलाफ़ नरसंहार की तस्वीरों और अमेरिकी नागरिक अधिकार आंदोलन के दौरान युवा अश्वेत बच्चों पर पुलिस के कुत्तों द्वारा किए गए हमले की याद दिलाती हैं।

 

लिआंग यूलोंग (चीन), मई फ़ोर्थ आंदोलन, 1976

यह पहली बार नहीं है कि युवाओं, विशेष रूप से कॉलेज के छात्रों ने, समझौतों से ग्रस्त दुनिया में पक्षधरता स्थापित करने की कोशिश की है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, पहले की पीढ़ियों ने अपने कॉलेजों को रंगभेदी दक्षिण अफ़्रीका से और दक्षिण पूर्व एशिया तथा मध्य अमेरिका में अमेरिका द्वारा संचालित ख़तरनाक युद्धों से अलग करने के लिए संघर्ष किया था। 1968 में, फ़्रांस से लेकर भारत तक, संयुक्त राज्य अमेरिका से लेकर जापान तक के युवा अल्जीरिया, फ़िलिस्तीन और वियतनाम पर थोपे गए साम्राज्यवादी युद्ध के कारण ग़ुस्से से भड़क उठे, उनकी नज़रें पेरिस, तेल अवीव और वाशिंगटन की हत्यारी संस्कृति पर टिक गईं। उनके इसी रवैये को पाकिस्तानी शायर हबीब जालिब ने इन शब्दों में बयान किया, जिन्होंने लाहौर के मोची गेट पर इसे गाया थाः ‘क्यूँ डराते हो ज़िंदाँ की दीवार से, ज़ुल्म की बात को जहल की रात को, मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता।’ 

चूँकि हम मई की शुरुआत में हैं, ऐसे में चीन के उन बहादुर युवाओं को याद करना महत्त्वपूर्ण हो सकता है, जो पेरिस शांति सम्मेलन (जिसके परिणामस्वरूप वर्साय की संधि हुई) के दौरान चीनी लोगों के साथ हुए अपमान की निंदा करने के लिए 4 मई 1919 को सड़कों पर उतरे थे। सम्मेलन के दौरान, साम्राज्यवादी शक्तियों ने जापान को शेडोंग प्रांत का एक बड़ा हिस्सा देने का फ़ैसला किया, जिसे जर्मनी ने 1898 में चीन से छीन लिया था। सत्ता के इस हस्तांतरण में, चीनी युवाओं को चीन के गणतंत्र की कमज़ोरी दिखाई पड़ी, जिस गणतंत्र को 1911 में स्थापित किया गया था। बीजिंग में तेरह विश्वविद्यालयों के चार हज़ार से अधिक छात्र एक बैनर के तले सड़कों पर उतरे, जिस पर लिखा था, ‘बाहर से संप्रभुता के लिए प्रयास करें, भीतर से राष्ट्रीय गद्दारों को ख़त्म करें।’ वे साम्राज्यवादी शक्तियों से नाराज़ तो थे ही, वे अपने उन साठ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल से भी नाराज़ थे, जो विदेश मंत्री लू झेंगज़ियांग के नेतृत्व में पेरिस सम्मेलन में भाग लेने गया था। प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य लियांग किचाओ इस संधि से इतने निराश थे कि उन्होंने 2 मई को चीन को एक बुलेटिन भेजा, जिसे प्रकाशित किया गया और चीनी छात्रों को एकजुट किया गया। छात्रों के विरोध प्रदर्शन की वजह से चीनी सरकार पर काओ रुलिन, झांग ज़ोंगज़ियांग और लू ज़ोंगयु जैसे जापानी समर्थक अधिकारियों को बर्ख़ास्त करने का दबाव पड़ा। 28 जून को पेरिस में चीनी प्रतिनिधिमंडल ने संधि पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया।

 

Nidhal Chamekh (Tunisia), Dessin 8, 2012.

निदालचामेख (ट्यूनीशिया), डेसिन 8, 2012

चीनी छात्रों के कार्य शक्तिशाली और दूरगामी थे, उनके 4 मई के आंदोलन ने न केवल वर्साय की संधि का विरोध किया, बल्कि चीन की कुलीन गणतंत्रीय संस्कृति में पैदा होने वाली सड़न की व्यापक आलोचना की। छात्र और अधिक चाहते थे। उनकी देशभक्ति अराजकतावाद जैसी वामपंथी विचारधारा की धाराओं में, मगर ख़ास तौर पर मार्क्सवाद में आश्रय पा रही थी। ठीक दो साल बाद, इस विद्रोह से उभरकर आने वाले कई महत्त्वपूर्ण युवा पुरुष बुद्धिजीवियों, जैसे ली दाज़ाओ, चेन डक्सिउ और माओ ज़ेडॉन्ग ने 1921 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। महिला नेताओं ने ऐसे संगठनों की स्थापना की जिसकी वजह से लाखों महिलाएँ राजनीतिक और बौद्धिक जीवन में शामिल हुईं, जो बाद में कम्युनिस्ट पार्टी का मुख्य अंग बन गईं। उदाहरण के लिए चेंग जुनयिंग ने बीजिंग महिला शैक्षणिक महासंघ की स्थापना की; जू ज़ोंगहान ने शंघाई महिला संघ की स्थापना की; गुओ लोंगज़ेन, लियू क्विंगयांग, देंग यिंगचाओ, और झांग तियानजिन

ने महिला देशभक्ति कामरेड एसोसिएशन; और डिंग लिंग चीन के ग्रामीण इलाक़ों की अग्रणी दास्तानगो में से एक बन गईं। 4 मई के आंदोलन के तीस साल बाद, इनमें से कई पुरुषों और महिलाओं ने सड़ीगली राजनीतिक व्यवस्था को विस्थापित करके पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की स्थापना की।

कौन जानता है कि आज उत्तरी गोलार्ध के देशों में छात्रों का प्रतिकार कहाँ जाएगा। छात्रों का अपने शासक वर्ग के बहानों और उसकी नीतियों को स्वीकार करने से इंकार करना उनके तंबू से भी ज़्यादा उनकी मिट्टी में गहराई तक धँसा हुआ है। पुलिस उन्हें गिरफ़्तार कर सकती है, उनके साथ क्रूरता कर सकती है और उनके शिविरों को विस्थापित कर सकती है, लेकिन इससे परिवर्तनकामी विचार का रास्ता रोकना और भी कठिन हो जाएगा।

 

 

4 मई के आंदोलन की चिलचिलाती गर्मी के बीच, कवि झू ज़िकिंग (1898-1948) ने ‘ब्राइटनेस’ लिखा। उनके शब्द 1919 से लेकर हमारे समय तक छात्रों की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फैलते रहे:

गहरी और तूफ़ानी रात में,

आगे बंजर जंगल है।

एक बार बंजर जंगल के पार,

वहाँ लोगों का रास्ता छुपा है।

आह! अँधेरे में अनगिनत रास्ते,

मुझे सही तरीक़े से कैसे चलना चाहिए?

ईश्वर! जल्दी से मुझे कोई रास्ता दिखाओ,

मुझे आगे दौड़ने दो!

ईश्वर तुरंत उत्तर देते हैं, रौशनी?

मेरे पास तुम्हें ढूँढ़ने के लिए कोई नहीं है।

तुम्हें रौशनी चाहिए?

तुम्हें स्वयं अपने लिए बनानी होगी!

युवा लोग यही कर रहे हैं: वे इस रौशनी का निर्माण कर रहे हैं, और, भले ही उनके कई बुज़ुर्ग इसे कम करने की कोशिश कर रहे हों, उनकी आत्माओं की चमक हमारे सिस्टम की दयनीयता को रौशन कर रही है इसके केंद्र में इजरायल के युद्ध की कुरूपता है और मानवता का विश्वास।

स्नेहसहित,

विजय