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प्रतिरोध करो, मेरे लोगो, उनका प्रतिरोध करो: बावनवाँ न्यूज़लेटर (2024)

उम्मीद है कि आने वाले साल में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ हमारे संघर्ष मज़बूत होंगे।

एलिस इन फ़िलिस्तीन #1, मायसा यूसुफ़ (गज़ा, अधिकृत फ़िलिस्तीनी क्षेत्र), 2001

प्यारे दोस्तो,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

विश्व समाज की धमनियों में आज दर्द की सिहरन है। फ़िलिस्तीनी जनता का जनसंहार जारी है और अफ्रीका तथा सूडान के ग्रेट लेक्स क्षेत्र में तनाव बढ़ता जा रहा है। हथियार बेचने वाली कंपनियाँ मुनाफ़े में खेल रही हैं और ग़रीब होती आम जनता की संख्या बढ़ती जा रही है। इस यथार्थ ने समाज को पत्थर बना दिया है, लोग अपनी आँखें बंद कर दुनिया भर की इस भयानक सच्चाई को अनदेखा कर रहे हैं। दूसरों के दुख-दर्द को पूरी तरह नज़रंदाज़ करना ख़ुद को हर दिन बढ़ती जा रही पीड़ा से बचा लेने का एक तरीक़ा बन गया है। इस धरती पर जिस मनहूसियत को ही अब ज़िंदगी माना जाने लगा है, उसका सामना कैसे किया जाए? मैं क्या कर सकता हूँ? आप क्या कर सकते हैं?

2015 में फ़िलिस्तीनी कवि दारीन ततौर ने ‘प्रतिरोध करो, मेरे लोगो, प्रतिरोध करो’ शीर्षक से कविता लिखी। इस कविता के लिए उन्हें इज़राइल ने गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया। एक कविता जो आपको जेल भेज सकती है वो ज़ाहिर है बहुत दमदार होगी। और एक कविता से डर जाने वाला देश भारी अनैतिक होगा।

प्रतिरोध करो, मेरे लोगो, उनका प्रतिरोध करो।
जेरूसलम में मैंने अपने घाव पर मरहम लगाया और दर्द भरी साँस ली
और अपनी रूह को हथेली पर लेकर चली
एक अरब फ़िलिस्तीन के लिए।
मैं ‘शांतिपूर्ण समझौते’ के आगे घुटने नहीं टेकूँगी,
मेरा झण्डा नहीं झुकेगा
जब तक मैं उन्हें अपनी ज़मीन से खदेड़ न दूँ।
मैं इन्हें कुछ देर के लिए किनारे रख रही हूँ।
प्रतिरोध करो, मेरे लोगो, उनका प्रतिरोध करो।
क़ब्ज़ा करने वालों की लूट का प्रतिरोध करो
और शहीदों के कारवाँ में हो जाओ शामिल।
इस शर्मनाक संविधान को फाड़ दो
जिसने हमें अपमानित किया
और हमें इंसाफ़ लागू करने से रोका।
उन्होंने बेक़सूर बच्चों को जला दिया;
हदील को दिनदहाड़े मौत के घाट उतार दिया।
प्रतिरोध करो, मेरे लोगो, उनका प्रतिरोध करो।
साम्राज्यवादियों के हमलों का प्रतिकार करो।
हमारे बीच छिपे उसके एजेंटों के बारे में न सोचो
जो हमें अमन का छलावा दिखाकर जकड़े हुए हैं।
संदिग्ध ज़बानों से न डरो;
तुम्हारे भीतर का सच ज़्यादा मज़बूत है, तब तक कि
जब तक तुम इस मिट्टी पर प्रतिरोध कर रहे हो,
जिसने चढ़ाई और विजय सब देखे हैं।
इसलिए अली ने अपनी क़ब्र से पुकारा है:
प्रतिरोध करो, मेरे लोगो, प्रतिरोध करो।
मेरी कहानी औध के पेड़ पर लिखना;
मेरा अवशेष अब तुम्हारे हवाले है।
प्रतिरोध करो, मेरे लोगो, उनका प्रतिरोध करो।
प्रतिरोध करो, मेरे लोगो, उनका प्रतिरोध करो।

स्लीपिंग ब्यूटी, चोई यू-जुन (कोरिया लोकतांत्रिक जनवादी गणराज्य), 2020.

इस कविता में जिस ‘हदील’ का ज़िक्र है वह है हदील अल-हशलमोन (उम्र 18) जिसकी 22 सितंबर 2015 को इज़राइली सैनिक ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। यह हत्या इकलौती घटना नहीं थी। उस समय वेस्ट बैंक के नाकों पर कई घटनाएँ सामने आ रही थीं, जिनमें इज़राइली सैनिक फ़िलिस्तीनियों पर गोलियाँ चला रहे थे, इनमें से कइयों की मौत भी हुई। उस दिन हदील हेब्रोन में अल-शुहदा स्ट्रीट के नाका संख्या 56 पर गई (जो कब्ज़ाया हुआ फ़िलिस्तीनी क्षेत्र है)। मेटल डिटेक्टर बज उठा, सैनिकों ने उसे बैग खोलकर दिखाने को कहा और उसने दिखाया भी। बैग में एक फोन, एक नीला पायलट पेन, एक भूरा पेंसिल बॉक्स और कुछ निजी समान था। एक सैनिक ने हिब्रू में उस पर चिल्लाना शुरू कर दिया जो उसे समझ नहीं आया। उनके पास ही चौंतीस साल के फवाज़ अबु आइशह खड़े थे, उन्होंने बीचबचाव की कोशिश की और हदील को बताया कि सैनिक क्या बोल रहा है। इस बीच और बंदूक ताने सैनिकों ने आकर हदील और फवाज़ को घेर लिया। एक सैनिक ने चेतावनी देते हुए एक बार गोली चलाई और फिर हदील के बाएँ पैर में गोली मार दी।

उसी समय एक दूसरे सैनिक ने दावा किया कि उसने एक चाकू देखा है और हदील के सीने में कई गोलियाँ दाग़ दीं। इससे कुछ पहले तक की तस्वीरों में देखा जा सकता है कि हदील खामोशी से खड़ी थी। गोलियाँ लगने के बाद कुछ देर तक उसे यूँ ही ज़मीन पर पड़े रहने दिया गया और फिर अस्पताल पहुँचाया गया जहाँ बेहद ख़ून बह जाने और गोलियाँ लगने की वजह से कई अंग ख़राब हो जाने के कारण उसकी मौत हो गई। (अगर चाकू के मामले में लिए गए बयानों की असंगतियों को छोड़ भी दिया जाए) ऐम्निस्टी इंटरनेशनल और बी’त्सेलेम एमनेस्टी जैसे मानवाधिकार संगठनों ने कहा कि चाकू था या नहीं इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि हदील की ‘न्यायेतर हत्या’ हुई थी। ततौर ने हदील की दिनदहाड़े हुई हत्या को जैसे बयां किया है वह उस हिंसा को बड़ी मज़बूती से हमारे सामने रखता है जो फ़िलिस्तीनी जनता की रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है।

मेरी मस्तांग, [गाड़ी का एक ब्रांड], मकसूदजों मिरमुखामेदोव (ताजिकिस्तान), 2020.

हदील की हत्या के एक महीने बाद मैं रमाल्ला के पास एक शरणार्थी कैम्प में कुछ किशोरों से मिला। उन्होंने मुझे बताया कि अपनी हताशा और ग़ुस्सा ज़ाहिर करने का उनके पास कोई ज़रिया नहीं है। वे हर रोज़ अपने परिवारों और दोस्तों को इस क़ब्ज़े पर आधारित शासन के हाथों बेइज़्ज़त होते देखते हैं और ये सब उन्हें और भी निराश करता है। नबील ने कहा ‘हमें कुछ तो करना होगा’। उसकी आँखों में थकान थी। वो अपनी उम्र से बड़ा लग रहा था। इज़राइल की हिंसा में उसने अपने दोस्त खोए थे। नबील ने मुझे बताया ‘पिछले साल हमने कलंदिया तक मार्च निकालते हुए एक शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन किया था’। ‘उन्होंने हम पर गोलियाँ चलाईं। मेरा दोस्त मारा गया’। औपनिवेशिक हिंसा ने उसे अंदर से झकझोर दिया है। उसके आस-पास इज़राइली सेना छोटे बच्चों को मार देती है और इसकी किसी को कोई सज़ा नहीं मिलती। नबील का बदन घबराहट और डर से काँपने लगा था।

मुझे अक्सर उन किशोरों का ख़्याल आता रहा है, ख़ासतौर से पिछले साल भर में जो यूएस-इज़राइल द्वारा फ़िलिस्तीनियों के बढ़ते जनसंहार का साल रहा है। मुझे उनका ख़्याल इसलिए आता है क्योंकि इज़राइली सेना के हाथों हदील और नबील के दोस्त जैसे किशोरों/युवकों के मारे जाने की बेशुमार ख़बरें न सिर्फ ग़ज़ा बल्कि वेस्ट बैंक से भी आ रही हैं।

3 नवंबर 2024 को हेब्रोन के उत्तर में स्थित हलहूल का चौदह साल का नजी अल-बाबा अपने पिता निदाल अब्दुल मोती अल-बाबा के साथ स्कूल से लौटा। उन्होंने दोपहर के खाने में उसका पसंदीदा मोलोखिया  खाया और फिर नजी अपने पिता को बताकर फुटबॉल खेलने चला गया। नजी और उसके दोस्त उसके दादा की दुकान की बग़ल में खेलते थे। इज़राइली सैनिक आए और इन बच्चों पर गोलियाँ चला दीं, नजी को पेड़ू, पैर, दिल और कंधे पर गोलियाँ लगीं। नजी हालहूल स्पोर्ट्स क्लब में प्रैक्टिस किया करता था। उसके जनाज़े के बाद वहाँ के मैनेजर नसीर मेरिब ने कहा उसका दायाँ पाँव [खेल में] ग़जब चलता था। ‘वो बहुत महत्वाकांक्षी था और रॉनाल्डो की तरह अंतर्राष्ट्रीय [खिलाड़ी] बनने का सपना देखता था।’ यह सपना इज़राइल के कब्ज़े वाले शासन की बलि चढ़ गया।

जब अमिली और खिन इंकलाब से मिले, छू वे (म्यांमार), 2021.

किसी जवान इंसान की मौत नाक़ाबिले माफ़ी होती है। किसी बच्चे की मौत के बारे में तो सोचना भी मुश्किल काम है। नजी शायद फ़िलिस्तीन की फुटबॉल टीम का कप्तान बन सकता था। हदील एक बेहतरीन वैज्ञानिक बन सकती थी। अब उनके परिवार बस उनकी तस्वीरें देखकर रो सकते हैं। ग़ज़ा में और भी परिवार हैं जो टेंटों में रह रहे हैं, जिनके बच्चों को याद करने वाला कोई नहीं, उनकी लाशों के या तो चिथड़े उड़ गए या वो कभी मिली ही नहीं और उनकी तस्वीरें राख़ हो चुकी हैं। इतनी मौत। इतनी हैवानियत।

अगर वक़्त अनुकूल हुआ और संघर्ष में हम कामयाब रहे तो इंसानियत के ख़्वाब साकार कर पाएंगे। लेकिन उस सुबह से पहले की यह रात बहुत लंबी और काली होने वाली है। हम इंसानियत के लिए तरस सकते हैं लेकिन वह इतनी आसानी से नहीं आएगी। एक नई दुनिया के लिए हल्की-हल्की आवाज़ें उठ रही हैं और कई क़दम इसे साकार करने के लिए बढ़ रहे हैं। वहाँ तक पहुँचने के लिए ज़रूरी है कि जंग और कब्ज़े का अंत हो, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की बदसूरती का अंत हो। हम जानते हैं कि हम पूर्व ऐतिहासिक काल में जी रहे हैं, एक ऐसा दौर जिसके बाद सच्चा मानव इतिहास शुरू होगा। हमें एक ऐसी समाजवादी दुनिया की ख़्वाहिश है जहाँ नजी और हदील का अपना एक भविष्य होगा, न कि बस वो कुछ देर हमारी दुनिया से होकर गुज़र जाएंगे।

नया साल मुबारक हो। उम्मीद है यह हमें इंसानियत के क़रीब लेकर जाएगा।

सस्नेह,

विजय