Skip to main content
HindiTexts

विस्फोटक रूप ले चुकी है युवा बेरोज़गारी

आज जहाँ भारत विश्व की सबसे तेज़ दर से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है, वहीं युवा बेरोज़गारी दर के मामले में यह दुनिया के सबसे फिसड्डी देशों में शामिल है।  देश की युवा आबादी का आर्थिक विकास की प्रक्रिया में सहभागी न हो पाना और एक बेहतर ज़िंदगी जीने के अवसर से महरूम रहना आर्थिक नीतियों पर कई सवाल खड़े करता है।

उमेश यादव

चुनिंदा सरकारी नौकरियों की मृगमरीचिका के पीछे लाखों भारतीय युवाओं का भागना कोई नई बात नहीं है। उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा दिसंबर 2023 में शुरू की गई चयन प्रक्रिया के लिए तक़रीबन 50 लाख युवाओं ने आवेदन किया। 2018 में प्रकाशित एक ख़बर के अनुसार सरकारी संदेशवाहक की 62 रिक्तियों के लिए 3,700 पीएचडीधारकों, 50,000 पोस्ट ग्रेजुएट तथा 28,000 ग्रेजुएट युवाओं ने आवेदन दिया था। संदेशवाहक पद के लिए न्यूनतम क्वालिफिकेशन पाँचवीं कक्षा थी। वर्तमान में लगभग हर सरकारी नौकरी की चयन प्रक्रिया में कम पदों के लिए लाखों युवाओं का आवेदन आना साधारण घटना बन गई है। यह बेरोज़गारी के बढ़ते स्तर तथा रोज़गार के बेहतर अवसरों की कमी की तरफ़ इशारा करती है।

देश एवं राज्यों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की ऊँची दर को लेकर अपनी पीठ थपथपाती सरकारें बड़े आराम से बढ़ती युवा बेरोज़गारी की समस्या को नज़रंदाज़ कर देती हैं। अभी हाल में हुई ईटी वर्ल्ड लीडर्स फ़ोरम की एक बैठक में शिरकत करने पहुँचे भारत के प्रधानमंत्री ने गर्व के साथ बताया, ‘पिछले दस वर्षों के दौरान जहाँ पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था 35 प्रतिशत बढ़ी है, वहीं भारत की अर्थव्यवस्था के आकार में 90 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है’। उन्होंने आगे कहा, ‘हम अपनी नीतियाँ अपने इतिहास के आधार पर नहीं, बल्कि अपने भविष्य के लिए बना रहे हैं’। ध्यान देने की बात यह है कि आज जहाँ भारत विश्व की सबसे तेज़ दर से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है, वहीं युवा बेरोज़गारी दर के मामले में यह दुनिया के सबसे फिसड्डी देशों में शामिल है। उच्च युवा बेरोज़गारी दर एक विकासशील अर्थव्यवस्था के लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। युवा बेरोज़गारी की वजह से समाज का वह तबक़ा समाज की आर्थिक तरक़्क़ी में भागीदारी करने से वंचित रहता है, जिसकी क्षमताएँ जीवन के सबसे ऊर्जावान काल में होती हैं। यह ऐसी आर्थिक नीतियां अपनाने का नतीजा है, जिनकी वजह से देश का भविष्य युवावर्ग निराशा तथा विपन्नता का सामना कर रहा है।

युवा बेरोज़गारी की वर्तमान स्थिति

भारत सरकार का सांख्यिकी और कार्यान्वयन मंत्रालय हर वर्ष पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण) कराता है। इस सर्वेक्षण के सबसे हालिया आँकड़े जुलाई 2023 से जून 2024 (2023-24) की अवधि के लिए मौजूद हैं। ये आँकड़े बताते हैं कि युवा बेरोज़गारी की समस्या विस्फोटक होती जा रही है। साल 2023-24 में वर्तमान साप्ताहिक स्थिति में अलगअलग आयु वर्गों की बेरोज़गारी दर पर नज़र डालने से पता चलता है कि युवा आयु वर्गों की बेरोज़गारी दर बाकी आयु वर्गों की तुलना में कई गुना ज़्यादा है। जहाँ 15 वर्ष से अधिक की उम्र के व्यक्तियों के लिए बेरोज़गारी दर 5 प्रतिशत है, वहीं 15 से 24 वर्ष के पुरुषों के लिए बेरोज़गारी दर 18 प्रतिशत है तथा 25 से 35 वर्ष के पुरुषों के लिए बेरोज़गारी दर करीब 5 प्रतिशत है। महिलाओं के मामले में 15 से 24 वर्ष के समूह के लिए बेरोज़गारी दर 17 प्रतिशत है, जबकि 25 से 35 वर्ष के समूह के लिए 7 प्रतिशत है।

वतर्मान साप्ताहिक स्थिति में विभिन्न उम्र समूहों की बेरोज़गारी दर (2023-24)

युवा बेरोज़गारी के मामले में ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में लिंग के अनुसार अलग तस्वीर उभर कर आती है। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की तुलना में 15 से 24 वर्ष के पुरुषों की बेरोज़गारी दर ज़्यादा है, जबकि शहरों में इस आयु वर्ग की महिलाओं की बेरोज़गारी दर अपेक्षाकृत अधिक है।

शहरी क्षेत्र में हर आयु वर्ग की बेरोज़गारी दर ग्रामीण क्षेत्र की तुलना में ज़्यादा है। शहरी युवा ग्रामीण युवाओं की तुलना में ज़्यादा बेरोज़गारी का सामना कर रहे हैं। हालाँकि इसका यह मतलब क़तई नहीं निकाला जाना चाहिए कि ग्रामीण भारत में शहरों की तुलना में ज़्यादा रोज़गार का सृजन हो रहा है। ग्रामीण क्षेत्र में शहरी क्षेत्र की तुलना में कम बेरोज़गारी होने का मुख्य कारण है बेहतर रोज़गार के अभाव में कृषि कार्य में शामिल होना। साल 2022-23 में भारत के कुल मूल्य संवर्धन (GVA) में 18.3 प्रतिशत का योगदान देने वाले कृषि और उससे जुड़े क्षेत्र में कुल वर्क फोर्स का 46 प्रतिशत हिस्सा कार्यरत था। साल 2017-18 में कृषि और उससे जुड़े क्षेत्र में कुल वर्क फोर्स का 44.5 प्रतिशत हिस्सा कार्यरत था। भारत जैसे छोटे किसानों वाले देश में खेती के काम में वर्क फोर्स की बढ़ती संख्या ग़ैरकृषि क्षेत्रों की बेहतर रोज़गार पैदा करने की अक्षमता बताती है।

सालदरसाल बढ़ती जा रही है युवा बेरोज़गारी की समस्या

वार्षिक पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण) के आँकड़े युवा बेरोज़गारी की गहराती समस्या की तस्दीक करते हैं। साल 2017-18 में कुल बेरोज़गार ग्रामीण पुरुषों में 15 से 24 वर्ष के पुरुषों की हिस्सेदारी 73 प्रतिशत थी, जो 2023-24 में बढ़कर 75 प्रतिशत हो गई। इस दौरान कुल बेरोज़गार ग्रामीण महिलाओं में 15 से 24 वर्ष की महिलाओं की हिस्सेदारी 59 प्रतिशत से घटकर 56 प्रतिशत हुई। युवा महिला बेरोज़गारों की हिस्सेदारी घटने का एक मुख्य कारण स्वकार्यरत कामगार (Own account worker) तथा अवैतनिक सहायक के रूप में, ख़ासकर कृषि और उससे जुड़े क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की बढ़ती संख्या है। अधिकाधिक संख्या में ग्रामीण महिलाएँ अपने परिवार के कृषि कार्य में हाथ बंटा रही हैं। 2017-18 से 2023-24 के दौरान जहाँ कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों में कार्यरत ग्रामीण पुरुषों की संख्या में नाममात्र की वृद्धि हुई है, वहीं ग्रामीण महिलाओं की संख्या में लगभग दोगुना बढ़ोत्तरी हुई है। ग्रामीण क्षेत्र में अवैतनिक महिला कामगारों की बढ़ती संख्या के कारण पैदा हुई युवा महिला बेरोज़गारी दर में कमी चिंता का विषय है। विकास के पथ पर अग्रसर एक अर्थव्यवस्था में, विशेषकर जिसमें कृषि और संबद्ध क्षेत्र का योगदान घट रहा हो, महिलाओं की अधिकाधिक संख्या का अवैतनिक कामगारों के रूप में, विशेषकर कृषि और संबद्ध क्षेत्र में, शामिल होना, उस अर्थव्यवस्था में व्याप्त लिंगभेद की गहरी जड़ों को उजागर करता है।

2017-18 और 2023-24 के दौरान कुल बेरोज़गार शहरी पुरुषों में युवा पुरुष बेरोज़गारों की हिस्सेदारी में कोई बदलाव नहीं आया है, जबकि शहरी महिलाओं के मामले में यह संख्या थोड़ी घटी है। जैसा कि चित्र संख्या 2 से स्पष्ट तौर पर दिख रहा है, युवा बेरोज़गार कुल बेरोज़गारों का एक प्रमुख हिस्सा हैं। बढ़ते सकल घरेलू उत्पाद तथा विश्व गुरु एवं आर्थिक सुपरपॉवर बनने के सरकारी सिंहनादों के साये तले देश के युवाओं एक बड़ा हिस्सा बेहतर रोज़गार के अभाव वाले एक अंधियारे भविष्य को मात देने के रास्तों की तलाश कर रहा है।

वर्तमान साप्ताहिक स्थिति में ग्रामीण व शहरी बेरोज़गारों में विभिन्न उम्र समूहों की वार्षिक हिस्सेदारी (2017-18 से 2023-24 तक)

शिक्षा ऐसा ही एक रास्ता है। ऐसा माना जाता है कि बेहतर शिक्षा एक बेहतर मनुष्य के साथसाथ एक कुशल कामगार का भी निर्माण करती है। पारंपरिक अर्थशास्त्र की बुद्धि यही कहती है कि शिक्षा द्वारा हासिल होने वाला कौशल किसी भी इंसान के लिए अच्छा रोज़गार पाने की संभावना को पुख़्ता करता है। हालाँकि भारत के आर्थिक विकास की हालिया कहानी इस पारंपरिक बुद्धि के उलट ही चल रही है।

उच्च शिक्षा और युवा बेरोज़गारी दर का अंतर्विरोध

सर्वेक्षण के आँकड़ों के अनुसार बढ़ती युवा बेरोज़गारी का सबसे बड़ा कारण है उच्च शिक्षित युवाओं के बीच बढ़ती बेरोज़गारी। नीचे दी गई तालिका इस विरोधाभासी परिघटना को दर्शाती है। 21 से 30 वर्ष के युवाओं में कम शिक्षित अथवा अशिक्षित लोगों तथा उच्च शिक्षित लोगों के बीच व्याप्त बेरोज़गारी दर में भारी असमानता मौजूद है।

वर्तमान साप्ताहिक स्थिति में विभिन्न उम्र समूहों में शैक्षिक अवस्था के अनुसार व्याप्त बेरोज़गारी दर (2023-24)

भारत के शिक्षा मंत्रालय के अनुसार पहली कक्षा में प्रवेश के लिए 6 वर्ष की न्यूनतम उम्र होनी चाहिए। इस नियम के अनुसार एक औसत व्यक्ति स्नातक की डिग्री हासिल करने तक 21 वर्ष की आयु पूरी कर लेगा। इसलिए हमने उच्च शिक्षा तथा युवा बेरोज़गारी का विश्लेषण करने के लिए 21 वर्ष तथा 30 वर्ष के बीच के युवाओं का अध्ययन किया है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए हमने 31 से 45 वर्ष तथा 46 वर्ष अथवा उससे अधिक की दो और श्रेणियाँ बनाई हैं। उपरोक्त तालिका की अंतिम पंक्ति 15 वर्ष या उससे अधिक उम्र के सभी व्यक्तियों की बेरोज़गारी दर बताती है। डिप्लोमा/सर्टिफ़िकेट, स्नातक और परास्नातक या उससे ज्यादा तक की अहर्ता रखने वाले युवाओं की बेरोज़गारी दर समान अहर्ता रखने वाले अन्य उम्र समूहों के लोगों से कई गुनी अधिक है।

इस तालिका को देखकर ऐसा लगता है, मानो शिक्षा का स्तर जितना ऊँचा होगा बेरोज़गारी की आशंका भी उतनी ज़्यादा होगी। जहाँ निरक्षर एवं प्राइमरी तक की तालीम हासिल किए हुए हर उम्र समूह के व्यक्तियों की बेरोज़गारी समान है, वहीं 21 वर्ष तथा 30 वर्ष के बीच के युवाओं की बेरोज़गारी दर शिक्षा का स्तर बढ़ने के साथ अप्रत्याशित रूप से बढ़ती है। उच्च शिक्षा और बेरोज़गारी का यह विरोधाभासी संबंध 21 से 30 वर्ष के युवाओं के मामले में साफ़ दिखता है। इस उम्र समूह के एक निरक्षर इंसान की तुलना में ग्रेजुएट के बेरोज़गारी की दर करीब तेरह गुना, जबकि एक पोस्ट ग्रेजुएट या उससे ज़्यादा शिक्षा प्राप्त इंसान की बेरोज़गारी दर करीब सोलह गुना अधिक है। 31 से 45 वर्ष के व्यक्तियों के मामले में भी उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों की बेरोज़गारी दर निम्न शिक्षा प्राप्त लोगों की बेरोज़गारी दर से ज़्यादा तो है, लेकिन उनके बीच का अंतर 21 से 30 वर्ष के युवाओं जितना नहीं है।

चित्र संख्या 3 वर्तमान साप्ताहिक स्थिति में ग्रामीण तथा शहरी महिलाओं एवं पुरुषों के विभिन्न उम्र समूहों में शैक्षिक अवस्था के अनुसार बेरोज़गारी दर को दिखाती है। शहरी तथा ग्रामीण, दोनों ही क्षेत्रों के पुरुष तथा महिला युवाओं में उच्च शिक्षित वर्ग की बेरोज़गारी दर कम शिक्षित वर्गों की बेरोज़गारी दर से बहुत ज़्यादा है। ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में उम्र तथा शैक्षिक अवस्था के साथ बेरोज़गारी दर में भले ही समान संबंध दिख रहा हो, लेकिन यहाँ एक महत्त्वपूर्ण लैंगिक रुझान मौजूद है। ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों, दोनों में ही, उच्च शिक्षित युवा महिलाओं की बेरोज़गारी दर उच्च शिक्षित पुरुषों की बेरोज़गारी दर से काफी ज़्यादा है।

वर्तमान साप्ताहिक स्थिति में ग्रामीण तथा शहरी महिलाओं एवं पुरुषों के विभिन्न उम्र समूहों में शैक्षिक अवस्था के अनुसार बेरोज़गारी दर (2023-24)

उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं को दोहरे बोझ का सामना करना पड़ता है। एक तो उनको कम शिक्षित महिलाओं की तुलना में काफ़ी ऊँची बेरोज़गारी दर का सामना करना पड़ता है, ऊपर से पुरुषों के समान शैक्षिक योग्यता रखने के बावजूद उनको रोज़गार के समान अवसरों से महरूम होना पड़ता है।

इस लेख की शुरुआत में जिन ख़बरों की चर्चा की गई, उनको अगर बहुत ज़्यादा बढ़ चुकी शिक्षित युवाओं की बेरोज़गारी की रोशनी में देखा जाए तो इस समस्या के आयामों को समझने में आसानी होगी। मोटे तौर पर देखें तो यह समस्या दोहरी है। पहली: गैरकृषि क्षेत्र में समुचित रोज़गार सृजन का अभाव। दूसरी: ग़ैर सरकारी क्षेत्रकों में निम्न वेतन मिलना तथा सामाजिक सुरक्षा का अभाव होना। क़रीब दो दशकों से बेहद ऊँची विकास दर के घोड़े पर सवार भारतीय अर्थव्यवस्था देश के कामगार वर्ग को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाले इन बेहद ज़रूरी मुद्दों को दरकिनार करके विकास के नवउदारवादी पथ पर सरपट दौड़ती जा रही है। बेरोज़गारी, निम्न वेतन तथा काम के बदतर होते हालात जैसे बेहद जरूरी मुद्दे इसकी आँखों से ओझल हैं।

आर्थिक विकास को एक संतुलित नज़रिए से देखने की ज़रूरत है

सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की संवॄद्धि दर की तेज रफ़्तार, विकास के महज एक आयाम को दिखाती है। यहाँ याद रखा जाना जरूरी है कि सकल घरेलू उत्पाद का मतलब किसी देश में एक निश्चित समय अवधि में उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं का कुल मौद्रिक मूल्य होता है। यह किसी देश अथवा समाज की संभावित भौतिक सम्पन्नता का एक परिमाण मात्र है। यह संभावित सम्पन्नता वास्तविक सम्पन्नता में तभी तब्दील होती है, जब समाज को उपलब्ध भौतिक प्रचुरता के साधनों में सबको शामिल होने और अपनी ज़रूरतों को पूरा करने का मौका मिले। अगर भौतिक रूप से सम्पन्न समाज अपनी एक बड़ी आबादी को भौतिक सम्पन्नता के साधनों से महरूम रखकर अपने प्रचुर साधन केवल एक छोटे तबक़े के हवाले कर दे तो सामाजिक रूप से सम्पन्न होने के बाद भी वो अपनी बहुसंख्यक आबादी को विपन्नता में जीने के लिए विवश कर देगा।

ठीक इसी आलोक में सकल घरेलू उत्पाद की ऊँची विकास दर तथा बढ़ती युवा बेरोज़गारी को समझा जा सकता है। अर्थव्यवस्था का बड़ा आकार इसलिए वांछनीय होता है क्योंकि ज़्यादा वस्तुओं तथा सेवाओं के उत्पादन की प्रक्रिया में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का सामाजिक सहभाग शामिल होता है। सामाजिक सहभाग के फलस्वरूप उन्हें अपने जीवनयापन हेतु समुचित साधन प्राप्त होते हैं। अगर किसी समाज की उत्पादन प्रणाली ऐसी है जो अपनी आबादी के एक बड़े हिस्से को सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया से दूर रखती है अथवा उसे उसके न्यायसंगत वेतन से वंचित रखती है तब अर्थव्यवस्था का उत्तरोत्तर बढ़ता आकार अथवा ऊँची विकास दर पूरे समाज की भौतिक उन्नति में बाधा बन जाती है।

सस्ते श्रम तथा ऊँची बेरोज़गारी पर आधारित अर्थव्यवस्था अपनी ही संवृद्धि को रोकने का काम करती है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा कम वेतन तथा बेरोज़गारी के कारण कम क्रय शक्ति से त्रस्त होता है। इससे सामाजिक माँग कम रहती है जिससे उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं की खपत का स्तर नीचा रहता है। इस तरह की अर्थव्यवस्था सदा मौजूद रहने वाली माँग के संकट से ग्रसित रहती है। सामाजिक माँग की कमी उत्पादन के स्तर में वृद्धि की राह में बाधा बनती है। ऐसी अर्थव्यवस्था अपनी क्षमता के अनुरूप काम करने में अक्षम होती है तथा अपनी बहुसंख्यक आबादी के जीवनस्तर को सुधारने में विफल रहती है।

भारत की कुल जनसंख्या में करीब आधा हिस्सा तीस वर्ष से कम उम्र के लोगों का है। उच्च शिक्षा तथा उच्च कौशल से लैस युवाओं की अत्यधिक ऊँची बेरोज़गारी दर उनकी क्षमताओं के अनुरूप रोगज़ार के अवसरों एवं समुचित वेतन रोज़गार सृजन के अभाव की सूचक है। यह वो तबक़ा है, जो या तो वर्तमान में विद्यमान युवा बेरोज़गारी की समस्या से प्रत्यक्ष तौर से प्रभावित हो रहा है या फिर आने वाले समय में वर्क फोर्स में प्रवेश करने पर इससे दोचार होगा। देश की आधी आबादी का आर्थिक विकास की प्रक्रिया में सहभागी न हो पाना और एक बेहतर ज़िंदगी जीने के अवसर से महरूम रहना आर्थिक नीतियों पर कई सवाल खड़े करता है।