जलवायु परिवर्तन की मार झेलता शहरी ग़रीब
जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न संकटों से बुरी तरह प्रभावित शहरी ग़रीब वर्ग होता है, जो कि वर्ग न्यूनतम जल निकासी और सीवरेज सुविधाओं वाले निचले इलाक़ों में झुग्गी झोपड़ियों में रहता है। जबकि यह वह आबादी है जो सबसे कम प्रदूषण बढ़ाती है। यह वास्तव में शहर की रीढ़ है, जो शहर को सस्ता और सुलभ श्रम प्रदान करती है।
संजय कुंदन
पिछले महीने हुई मूसलाधार बारिश के बाद जब गुड़गांव में भारी जलभराव हो गया, तो एक न्यूज चैनल कुछ–कुछ सिर पीटने के अंदाज़ में कहने लगा कि सोचिए, उन लोगों को कैसा लग रहा होगा, जो करोड़ों रुपये टैक्स देते हैं। फिर स्क्रीन पर कई बड़ी–बड़ी महंगी गाड़ियां दिखाई गईं, जो पानी में डूब गई थीं। उस चैनल की चिंता अपनी जगह सही थी, लेकिन उसने उसी शहर में रहने वाले ग़रीब तबक़े के बारे में कुछ नहीं कहा कि इस बाढ़ जैसी हालत में उस पर क्या बीत रही होगी। यह विडंबना है कि हर बार बरसात के मौसम में जलवायु परिवर्तन जैसे संकट की याद आती है, शहरों की बदहाली का रोना रोया जाता है पर उसका शहरी निर्धन वर्ग पर क्या असर होता है, इस पर बात नहीं होती।
सचाई यह है कि जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न संकटों से बुरी तरह प्रभावित शहरी ग़रीब वर्ग ही होता है। यह वर्ग न्यूनतम जल निकासी और सीवरेज सुविधाओं वाले निचले इलाक़ों में झुग्गी झोपड़ियों में रहता है। पक्के घरों में रहने वाले लोग पानी को तेज़ी से बाहर निकाल सकते हैं, झुग्गीवासियों को इसे तब तक सहना पड़ता है, जब तक कि पानी कम न हो जाए या सरकार हस्तक्षेप न कर दे। इस कारण पूरे वर्ष झुग्गी–झोपड़ियों में कोई न कोई व्यक्ति मलेरिया या डेंगू से पीड़ित रहता है। नियमित बुखार, खांसी और सर्दी हर घर में आम बात है। बरसात के मौसम में, गंदे पानी के लंबे समय तक संपर्क में रहने से कई लोगों में त्वचा रोग हो जाते हैं।
हर साल की तरह इस साल भी मॉनसून की शुरुआत के साथ अनेक शहर भारी बारिश के बाद पानी में डूब गए। कुछ ही दिन पहले वही शहर तीव्र लू की चपेट में आ गए थे, जिसने 100 से अधिक लोगों की जान ले ली थी। एक अनुमान के मुताबिक देश में 40,000 संदिग्ध हीटस्ट्रोक के मामले सामने आए, जिसका असर मुख्य रूप से शहरी असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों पर पड़ा था। ओवरसीज डिवेलपमेंट इंस्टीट्यूट (ओडीआई) की कुछ साल पहले की रिपोर्ट में कहा गया था कि प्रमुख भारतीय शहरों में धातु या एस्बेस्टस–छत वाली झोपड़ियों में रहने वाले शहरी ग़रीब 48 डिग्री सेल्सियस से अधिक का तापमान झेलने को मजबूर रहते हैं। लगातार बढ़ती गर्मी से उनके जीवन और उत्पादकता के लिए ख़तरा बढ़ रहा है।
अकसर कई शहरों पर तूफ़ान का भी असर पड़ता है और वहां भी निर्धन वर्ग ही सबसे बड़ा भुक्तभोगी होता है। जैसे चक्रवात ‘फानी’ के दौरान पूरा भुवनेश्वर शहर ठप हो गया था। झुग्गी–झोपड़ियां टूट गईं और इसके लिए बाद में कोई मुआवजा भी नहीं मिला। प्राकृतिक संकट इन शहरी ग़रीबों को बदहाल बनाता है। लगातार आवास की क्षति, काम छूटने, बीमार पड़ने से उनकी आर्थिक स्थिति पर गहरा असर पड़ता है। उनके लिए ग़रीबी के चक्र से निकलना मुश्किल हो जाता है।
यह अनियमित और असंतुलित मौसम एक नियमित घटना बन गया है और वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि यह भविष्य में और भी बढ़ेगा। भारत के कई शहरों पर तो बाढ़ का ख़तरा हमेशा ही मंडराता रहता है। ओडीआई की रिपोर्ट के अनुसार बाढ़ के जोख़िम वाले दुनिया के शहरों में मुंबई पांचवे स्थान पर है। शहर को सालाना 28.4 करोड़ डॉलर का नुक़सान होता है, जबकि भारत को पिछले दशक में बाढ़ से 3 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। निश्चय ही यह एक गंभीर समस्या है, जिसे अनेदखा नहीं किया जा सकता। शहरों को इन सबसे बचाना है, तो इसके लिए शहरी नियोजन में तत्काल बदलाव की आवश्यकता है जिससे असमानता और जलवायु परिवर्तन दोनों से निपटा जा सके।
दरअसल शहर के बारे में जो भी योजना बनती है, उसमें भी इस वर्ग का ध्यान नहीं रखा जाता। उन्हें अवांछित की तरह देखा जाता है, जबकि गांवों–क़स्बों से शहरों–महानगरों की ओर पलायन एक सचाई है और इस वर्ग के बग़ैर शहरों का काम भी नहीं चल सकता। ग़ौरतलब है कि विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के विकास के साथ शहरों की ओर पलायन बढ़ा है। भारत ही नहीं पूरी दुनिया में। वर्तमान में विश्व की आधी से अधिक आबादी शहरों में निवास करती है और शहरीकरण का विस्तार जारी है। अनुमान है कि वर्ष 2030 तक भारत की 40.76 प्रतिशत आबादी शहरी क्षेत्रों में निवास कर रही होगी। भारत में गांवों–क़स्बों से भारी संख्या में रोज़ी–रोज़गार के लिए महानगरों में आने वाले लोग शहरों में बेहतर आवास पाने में सक्षम नहीं है। वे झुग्गी झोपड़ियों में रहते हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की झुग्गी–झोपड़ियों की आबादी 6.5 करोड़ है। यह संख्या अब काफ़ी बढ़ गई होगी।
यह वह आबादी है जो सबसे कम प्रदूषण बढ़ाती है। यह वास्तव में शहर की रीढ़ है, जो शहर को सस्ता और सुलभ श्रम प्रदान करती है। प्रायः कहा जाता है कि बाहर से आने वाले प्रवासी ऐसी जगहों पर अतिक्रमण करते हैं, जिससे नदियों का एक हिस्सा अतिक्रमण का शिकार होता है। इस वजह से नालियों में गाद भर जाता है, जल निकास प्रणाली बाधित होती है जिससे बारिश के पानी के निकास की गुंजाइश कम हो जाती है। यह तस्वीर का एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि कई शहरों में जब से अपार्टमेंट और दूसरी इमारतों का निर्माण बढ़ा है, शहरों में जल भराव ज़्यादा होने लगा है। और उन्हीं की वजह से झुग्गी झोपड़ियों में पानी भरने की समस्या बढ़ी है।
झुग्गीवासियों ने समय–समय पर विभिन्न मुद्दों को लेकर आवाज़ उठाई है, जिनमें शामिल हैः उचित वेतन, सुरक्षा नियम, सामाजिक सुरक्षा लाभ, कौशल विकास कार्यक्रम, औपचारिक रोजगार के अवसर तथा श्रम कानून। कई जगहों पर स्थिति में धीरे–धीरे सुधार दिख रहा है, लेकिन तेज़ी से हो रहे जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए अभी भी बहुत कुछ करने की ज़रूरत है।
इसके लिए स्थानीय नेतृत्व को शामिल करना और शहरी नियोजन के लिए एक सहभागी दृष्टिकोण विकसित करना ज़रूरी है। वे समुदाय जो हमारे शहरों का निर्माण करते हैं और शहरवासियों को अच्छी गुणवत्ता वाला जीवन प्रदान करते हैं, सम्मान और भागीदारी के पात्र हैं। प्रत्येक शहर में स्लम समुदायों की भागीदारी के बिना कोई भी सफल शहर नियोजन नीति विकसित नहीं की जा सकती। उनकी भागीदारी के बिना भविष्य में शहरी जलवायु आपदाओं के और भी बदतर होने की आशंका है।
जल निकासी और सीवरेज जैसे बुनियादी ढांचे में सुधार झुग्गीवासियों के परामर्श से किया जा सकता है। कुछ बुनियादी ढांचे, जैसे बाढ़/चक्रवात आश्रय या बेघर आश्रय की योजना सरकारी स्कूलों के मैदानों या अन्य बहु–उपयोग वाले खुले स्थानों के लिए बनाई जा सकती है।
झुग्गी–झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को बेहतर सेवा देने के लिए सरकारी स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे को भी दुरुस्त करने की जरूरत है, जिन्हें अक्सर अस्वच्छ परिस्थितियों में रहने के कारण इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। बच्चों को अच्छे, किफ़ायती सरकारी स्कूलों तक पहुंच मिलनी चाहिए। उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करने और रोज़गार खोजने के लिए भी सहायता की आवश्यकता है। नए कौशल–निर्माण पाठ्यक्रम उन्हें ग़रीबी के चक्र से मुक्त होने के लिए सशक्त बना सकते हैं। भवन और अन्य निर्माण श्रमिक कल्याण बोर्ड के माध्यम से श्रमिक कार्ड वाले लोगों के बच्चों के लिए सरकारी छात्रवृत्ति एक बड़ा सहारा हो सकती है, लेकिन इसे पूरी झुग्गी आबादी तक विस्तारित करने की आवश्यकता है। यह भी सुझाव दिया जाता है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा की तर्ज़ पर निर्धनों के लिए एक प्रधानमंत्री गृह बीमा योजना शुरू की जाए। कई शहरों में इस तबक़े के लिए सब्सिडी वाला भोजन उपलब्ध कराने के लिए आहार कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इन्हें और विस्तारित करने की जरूरत है क्योंकि ये शहरी ग़रीबों को कड़ी मेहनत करते हुए अपना पोषण बनाए रखने में मदद करते हैं। इसी तरह शहरी रोज़गार गारंटी योजना को फिर से शुरू किया जाना चाहिए। इस अवधि के दौरान नालों की सफ़ाई और स्थानीय अधिकारियों की सहायता के लिए इस योजना का रचनात्मक उपयोग किया जा सकता है।
इन सबके साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के विरुद्ध चल रही लड़ाई में हमें अपनी सक्रियता बढ़ानी चाहिए और विकासशील देशों की आवाज़ को मज़बूती से उठाना चाहिए क्योंकि अगर ग्लोबल वार्मिंग 3 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, तो कृषि गतिविधियों में गिरावट, समुद्र के बढ़ते स्तर और अन्य कारकों के कारण 2100 तक भारत की जीडीपी 10 से 90 फीसदी के बीच घट सकती है।