रेखाचित्रों में छिपा लिंग भेद
यौन हिंसा की रिपोर्टिंग से संबंधित रेखाचित्र बनी बनाई दकियानूसी और रूढ़िवादी सोच को बनाए रखने का काम कर रहे हैं।
नरेश प्रेरणा*
बलात्कार और महिलाओं पर यौन हिंसा की रिपोर्टिंग में आर्टवर्क/रेखाचित्रों की उपस्थिति काफी दिखाई देती है और मीडिया में इसका महत्व काफी बढ़ गया है। आर्टवर्क/रेखाचित्र शब्दों से ज्यादा आसानी से संवेदनाओं को प्रकट कर सकते हैं। सिर्फ देखने भर से सारा सार समझ आ सकता है। इसके अलावा भी वजहें हो सकती हैं आर्टवर्क को शामिल करने की। इन रेखाचित्रों पर विचार करने की जरूरत है। इन पर अक्सर बात नहीं होती है इसलिए यह एक मुश्किल काम भी है।
एक-एक चित्र को लेंगे तो बहुत बड़ा मामला हो जाएगा। इसलिए मुख्य-मुख्य बातों को एक साथ ही ले सकते हैं। इन रेखाचित्रों में लड़की या बच्ची के डरे हुए, रोते हुए, घबराए हुए भाव दिखाई देते हैं। उसके कपड़े फटे हुए होंगे और खौफ के साये में अकेले बैठी सिसकियां लेती हुई महसूस होगी। मर्द या मर्दों की छाया दिखाई देगी, कभी कभी एक हाथ या अनेक हाथों से दबाने, डराने या हमले करने के संकेत मिलेंगे। कभी कभी ऐसे रेखाचित्रों में एक हाथ उभर कर आता है तो रोकने या विरोध का संकेत देता है।
अखबारों और खबरिया चैनलों की इन्टरनेट पर उपलब्ध खबरों और लेखों के रेखाचित्रों में आमतौर पर इसी तरह के भाव देखने को मिलते हैं। इस कोलाज को देखिए।
सरसरी तौर पर देखने से अंदाजा हो जाता है कि खबर किस बारे में होगी। रेखाचित्र पर निगाह डालने से लगेगा कि किसी लड़की के साथ क्रूरता हुई है। किसी लड़की या बच्ची के चेहरे पर कभी आंसू या कभी घाव भी मिल सकते हैं, देखने वाले में मन में कुछ करुणा पैदा हो सकती है, उसको शायद तरस भी आ सकता है। मर्द या मर्दों की छाया को देखकर डर और खौफ़ का अहसास हो सकता है।
अब सवाल तो बहुत से उठते हैं कि लगभग हर रेखाचित्र में लड़की का चेहरा कुछ ना कुछ क्यों बनाया जाता है? लेकिन बलात्कारी या हमलावरों को छायाओं के पीछे छिपाया क्यों जा रहा है? लड़की को एक बेचारी बनाकर ही क्यों बिठाया गया है? बलात्कारी के कुकृत्य को उद्घाटित क्यों नहीं किया जा रहा? मर्दों की ताकत दिखाई देती है लेकिन अपराध क्यों नहीं?
इन पांच सवालों पर सिलसिलेवार कुछ विचार करने की जरूरत है। रेखाचित्रों की लड़की को आप आसानी से देख सकते हैं कि वो जवान होगी और अच्छे कपड़े पहनने वाली होगी। लगभग कॉलेज जाने वाली या दफ्तर जाने वाली, या अगर छोटी बच्ची है तो उम्र 5-7 साल की दिखाई देगी। तथ्य हमारे सामने हैं कि कुछ महीने की बच्ची से लेकर 70 साल तक की महिला को भी नहीं बख्शा गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने बताया है कि ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग में क्या सावधानियां बरतनी चाहिए। बेशक उस विशेष लड़की का चेहरा नहीं बनाया जाता पर जो बनाया जाता है वो किसी जवान लड़की का ही होता है। क्या हमारे मीडिया वाले इतनी सी संवेदनशीलता का परिचय नहीं दे सकते? इन रेखाचित्रों में इतना ज्यादा सरलीकरण और सामान्यीकरण हो गया है कि पूरी तरह यथार्थ से कटे हुए लगते हैं।
दूसरे सवाल की तरफ से देखें तो इस समय हम इतने सारे सज़ा याफ्ता बलात्कारियों से घिरे हुए हैं, फिर भी बलात्कारी या हमलावर बनाते हुए सिर्फ छायाएं ही क्यों मिलती हैं? क्या हमारा मीडिया इन बलात्कारियों से कोई हमदर्दी रखता है? अगर वे किसी से मिलते जुलते चेहरे को नहीं दिखाना चाहते, तो छाया में बना कर उसे छिपाया क्यों जा रहा है? क्या हमें अपना चेहरा उसमें दिख जाने का डर है या हमने बलात्कारियों के चित्रण से बचने की कसम खाई है? इसके पीछे मीडिया की लापरवाही है, या निकम्मापन है, या रचनात्मकता की कमी?
इसी मामले में एक पहलू यह है कि हमारे देश के आंकड़े बताते हैं कि करीब 40 फीसदी बलात्कार घरों में होते हैं और करीबी नाते-रिश्तेदार द्वारा किये जाते हैं। फिर भी इन रेखाचित्रों को इतना एबस्ट्रेक्ट क्यों बनाया जाता है? पिता, दादा, नाना, भाई, चाचा, मामा, फूफा कोई भी तो नाता ऐसा नहीं जिसमें किसी ने यौन हिंसा ना की हो। फिर भी मीडिया इतने मामूली से आकारों में कैसे हकीकत को छिपा सकते हैं?
तीसरा सवाल लड़की को लाचार बना कर बैठा दिखाये जाने से सम्बन्धित है। इस मामले में लगभग सभी रेखाचित्र, लाचारी को तो दिखाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उनमें उसके आत्मरक्षा के संघर्ष का अपमान है। कितनी सच्ची घटनाएं सामने हैं जिनमें आत्मरक्षा की कोशिशों को बताया गया है, फिर इस संघर्ष को रेखाचित्रों में जगह क्यों नहीं मिल पा रही है। थोड़ा सा भी सोच कर देखिए, क्या किसी पीड़िता ने आसानी से आत्मसमर्पण कर दिया होगा? क्या कोई कल्पना नहीं कर सकता कि उसने अपनी रक्षा के लिए कितना जतन किया होगा?
दूसरे कोई ऐसी जगह नहीं है जहां बलात्कारी ना हो, चाहे बस हो, मंदिर हो, रेल हो या स्कूल हो, फिर भी रेखाचित्रों में एक अंधेरा कोना बनाया जाता है। अलग-अलग घटनाओं में मीडिया अलग-अलग रेखाचित्र बनाने की जरूरत को ही नकार देता हैं।
चौथा सवाल सबसे ज्यादा चिंताजनक सवाल है। सबसे बड़ा सवाल ही यही है कि बलात्कार के ‘कुकृत्य’ को रेखाचित्रों में लाने से क्यों बचा जा रहा है? रेखाचित्रों में किसी मर्द को नंगा नहीं बनाया जाता, किसी को अधनंगा या उनके वहशीपन को नहीं बनाया जाता। बलात्कारी कोई भी राक्षस जैसा नहीं दिखता। बहुत से बहुत ‘सम्मानित’ हैं या हम-आप जैसे ही हैं। फिर किसी रेखाचित्र में उसको भूत-प्रेत की तरह का बनाने से क्या समाज में कोई जागरूकता आ सकती है। उसकी भाव भंगिमाओं को उजागर करने से, उसकी नज़र और हरकतों में शामिल उसकी वासना को उजागर करने से ही कुछ आलोचना विकसित हो सकती है। अगर समाज की समस्याओं से मीडिया का कुछ वास्ता बचा है तो ही इस बात का कोई मतलब है। वरना मीडिया कह दे कि उसे तो बलात्कारी के साथ ही खड़े होना है और खड़े होते हुए दिखना भी है तो बात कुछ और ही होगी। अब देखने वाली बात यह है कि अगर बलात्कारियों के लिए कोई हमदर्दी नहीं भी है तो भी यह उनकी बहुत बड़ी सेवा तो है ही।
अंतिम सवाल में यही चिंता है कि बलात्कारी को ताकतवर तो बना कर दिखाया गया पर उसका अपराध छिपा रह गया। यह बात तो है कि घटना के उस क्षण में वो ताकत आजमाने में सफल हो गया। पर बड़ी सच्चाई यही है कि उसने एक भयानक अपराध किया है। ताकत और अपराध एक नहीं हैं। एक अपराध के पूरे चित्रण की बात नहीं हो रही है बल्कि यह मांग है कि अपराध को छिपाया क्यों जा रहा है? जब उसकी ताकत को दिखाया जाता है तो अपराध को भी दिखाइए। बिना अपराध के ताकत को दिखाना, तो ताकतवर के लिए आकर्षण ही पैदा करेगा। यह ताकत की सराहना या पूजा करने जैसा लगता है।
इन रेखाचित्रों में सनसनी और रहस्य पेश करने की इच्छा दिखती है और ये कुछ हद तक हमारी करुणा को जगाती है। लेकिन साधारण जन के गुस्से और न्याय की इच्छा को कोई जगह नहीं देती। हमारे मीडिया में लिखने के तौर तरीकों पर तो विमर्श मौजूद है पर रेखाचित्रों पर चर्चा कम होती है। ये रेखाचित्र बनी बनाई दकियानूसी और रूढ़िवादी सोच को बनाए रखने का काम कर रहे हैं। यथार्थ से रिश्ते और रचनात्मकता की कमी को उजागर कर रहे हैं। दुनिया में जेंडर के विमर्श में जितना बदलाव आ चुका है उसका प्रभाव भी नहीं दिखाई देता तो शायद समझ के नवीनीकरण की भी जरूरत है। बहुत से मामलों में पुलिस तक को भी जेंडर सेंसटाइजेशन की जरूरत होती है इसी तरह हमारे मीडिया को भी इसकी जरूरत है। बलात्कार या गैंगरेप के खिलाफ आंदोलनों में साधारण लोग बहुत से नये रेखाचित्र बना रहे हैं और उनके गुस्से और रचनात्मकता से काफी कुछ सीखा जा सकता है।
*लेखक कवि और नाटककार हैं।