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खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ पर दस विचार: तैंतीसवाँ न्यूज़लेटर (2024) 

फ़ासीवाद एक नाकाफ़ी शब्द है क्योंकि यह उदार और दक्षिणपंथी ताकतों की अंतरंगता या नज़दीकियों को नकारता है। इस हफ्ते के न्यूज़लेटर में हम इस ‘अंतरंगता’ को समझने और खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ के उभार को समझने के लिए दस विचार बिंदु सामने रख रहे हैं।

प्यारे दोस्तो,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन

डॉनल्ड ट्रम्प कैसे यूएस राष्ट्रपति पद के एक अहम दावेदार के तौर पर उभरा इस बात को समझने के लिए 2016 से ही व्यापक स्तर पर व्याकुलता रही है। ट्रम्प का यूँ उभरना कोई एकलौती घटना नहीं है, उसके साथ ही दूसरे दबंग शासक भी आगे आए जैसे विक्टर ऑरबन (2010 से हंगरी के प्रधानमंत्री), रेसेप तईप एर्दोगन (2014 से तुर्की के राष्ट्रपति) और नरेंद्र मोदी (2014 से भारत के प्रधानमंत्री)। इस तरह के लोग जब सत्ता में आते हैं और उदार संस्थानों के ज़रिए अपने शासन को मज़बूत करते हैं, इन्हें चुनावी दौड़ से हमेशा के लिए बाहर करना नामुमकिन सा लगता है। यह अब साफ दिख रहा है कि ऐसे उदार लोकतांत्रिक देश जिनके संविधान बहुदलीय चुनावों पर ज़ोर देते हुए भी धीरे-धीरे एकदलीय शासन स्थापित होने की संभावना बनाए रखते हैं, उनकी राजनीति में एक दक्षिणपंथी मोड़ दिखाई दे रहा है। 

उदार लोकतंत्र की अवधारणा 18वीं और 19वीं शताब्दी में यूरोप और यूएस की उपनिवेशवादी ताकतों से निकला है जिसे पहले भी चुनौतियाँ दी गईं हैं और आज भी दी जा रही हैं। आंतरिक बहुलवाद और सहिष्णुता, कानून की सत्ता और राजनीतिक ताकतों में आपसी अलगाव जैसे इसके दावों के साथ ही चलते रहे इसके उपनिवेशवादी क़ब्ज़े और अपने ही समाजों में वर्गीय सत्ता को बनाए रखने के लिए राज्य का इस्तेमाल। उदारवाद आज यह बात हज़म नहीं कर पा रहा कि उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) देश दुनियाभर में 74.3% सैन्य ख़र्च के लिए ज़िम्मेदार हैं। 

जिन देशों के संविधान बहुदलीय चुनावों पर ज़ोर देते हैं वहाँ यह रूझान बहुत देखा जा रहा कि धीरे-धीरे एक दल की सत्ता स्थापित होने लगी है। यह एकदलीय सत्ता कुछ दफ़ा दो या शायद तीन दलों का मुखौटा भी ओढ़े रहती है और इसके नीचे यह सच दबा रहा जाता है कि इन दलों के आपसी अंतर बहुत हद तक मिट चुके हैं। 

हेलिओस गोमेज़ (स्पेन), विवा ऑक्टुब्रे (अक्टूबर अमर रहे), 1934

यह बात साफ है कि एक नई किस्म का दक्षिणपंथ तैयार हो चुका है जो न सिर्फ चुनावों के ज़रिए आया है बल्कि संस्कृति, समाज, विचारधारा और अर्थव्यवस्था में वर्चस्व के आधार पर भी उभरा है, और उदार लोकतंत्र के नियमों को तबाह कर देने में इस नए दक्षिणपंथ को कोई झिझक नहीं है। इसे ही हमने हमारे स्वर्गस्थ वरिष्ठ फ़ेलो ऐजाज़ अहमद के लेखों के आधार पर ‘उदारवाद और चरम दक्षिणपंथ का अंतरंगता’ कहा है। 

यह ‘अंतरंगता’ का विचार हमें यह समझने में मदद करता है कि उदारवाद और चरम दक्षिणपंथ में कोई अनिवार्य आपसी बैर नहीं हैं। साथ ही यह भी सच है कि उदारवाद दक्षिणपंथ के खिलाफ ढ़ाल नहीं बन सकता और यह दक्षिणपंथ का खात्मा तो कभी भी नहीं कर सकता। इस ‘अंतरंगता’ और इस खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ के उभार को समझने के लिए चार सैद्धांतिक तत्व हैं:

1. उदार चुनावी संस्थानों वाले देशों की नवउदारवादी मितव्ययिता (कल्याणकारी योजनाओं में सरकारी खर्च में कटौती) की नीतियों ने उन सामाजिक कल्याण की योजनाओं को परास्त कर दिया है जो उदार संवेदनशीलताओं को पनपने देती थीं। गरीबों की देखभाल करने में राज्य की विफलता उनके प्रति कठोरता में बदल जाती है। 

2. सामाजिक कल्याण और पुनर्वितरणवादी योजनाओं के लिए गंभीर प्रतिबद्धता के अभाव में उदारवाद खुद चरम दक्षिणपंथी नीतियों की दुनिया की ओर बह गया। इन नीतियों में शामिल है ऐसे आंतरिक दमनकारी तंत्र पर खर्च बढ़ाना जो मज़दूर-वर्ग के इलाकों और अंतर्राष्ट्रीय सरहदों की चौकसी करता है। इसके साथ ही सामाजिक सुविधाओं के वितरण में ज़्यादा से ज़्यादा कंजूसी करना, और इनका वितरण तभी होगा जब लेने वाले अपने मूलभूत मानवाधिकारों के छीन लिए जाने की मंज़ूरी दे दें (जैसे निरोध का अनिवार्य प्रयोग ‘स्वीकार’ करना)। 

3. इस सिलसिले में इस खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ को समझ आ गया कि वह एक राजनीतिक ताकत के तौर पर काफी हद तक स्वीकार किया जा रहा है क्योंकि उदारवादी दल उन नीतियों की ओर मुड़ रहे हैं जिनका समर्थन चरम दक्षिणपंथ करता है। दूसरे शब्दों में चरम दक्षिणपंथ की नीतियों को अपनाने से ही वह मुख्यधारा का हिस्सा बन गया। 

4. आखिर में, तमाम तरह के संस्थानों पर वामपंथ की पकड़ को खत्म करने के लिए उदारवादी राजनीतिक ताकतें और चरम दक्षिणपंथ ने हाथ मिलाया। वर्ग को लेकर चरम दक्षिणपंथ और उदारवादियों में कोई बुनियादी आर्थिक अंतर नहीं। साम्राज्यवादी देशों में तमाम तरह के दृष्टिकोण इन मुद्दों पर एकसाथ आ जाते हैं कि यूएस का दबदबा बरकरार रहना चाहिए, ग्लोबल साउथ से बैर और अवमानना का संबंध होना चाहिए और अंधराष्ट्रीयता बढ़नी चाहिए, जैसा कि इज़राइल द्वारा फिलिस्तिनियों के नरसंहार को मिल रहे भरपूर सैन्य समर्थन से दिख रहा है। 

1945 में इतालवी, जर्मन और जापानी फ़ासीवाद की हार के बाद पश्चिम के विचारकों को अपने समाजों में पनप रहे चरम दक्षिणपंथ की चिंता सताने लगी। इस बीच ज़्यादातर मार्क्सवादियों को यह समझ आ गया कि चरम दक्षिणपंथ आसमान से नहीं टपका था बल्कि वह पूँजीवाद के आंतरिक विरोधाभासों की उपज थी। तीसरे राइख की बर्बादी चरम दक्षिणपंथ और पूँजीवाद के विकास के इतिहास का एक दौर भर था: वह फिर उभरेगा, इस बार शायद नए लिबास में। 

1946 में पोलिश मार्क्सवादी मिशल कालेस्की ने एक विचारोत्तेजक लेख लिखा ‘हमारे समय का फ़ासीवाद’ (‘Faszyzm naszych czasów’)। उस लेख में कालेस्की ने कहा कि उस समय उभर रहे नए तरह के फ़ासीवादी गुट ‘आबादी के बड़े हिस्से के प्रतिक्रियावादी तत्वों को’ आकर्षित करते हैं और ‘इन्हें बड़े कारोबारों के ज़्यादातर प्रतिक्रियावादी गुट इमदाद’ देते थे। कालेस्की ने लिखा, ‘पूरा शासक वर्ग तो इस ख्याल से खुश नहीं था कि फ़ासीवादी गुट सत्ता हथिया लें, लेकिन इसने इन्हें दबाने की कोई कोशिश भी नहीं की और इन गुटों को इनके अतिउत्साह के लिए फटकार लगाने तक ही सीमित रहे’। यही रवैया आज भी जारी है: पूरा शासक वर्ग फ़ासीवादी समूहों के उत्थान से नहीं डरता, सिर्फ उनके बर्ताव के ‘हद से ज़्यादा’ बढ़ जाने से डरता है, जबकि बड़े कारोबारों के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से इन समूहों को आर्थिक मदद देते हैं। 

मारिओ शिफ़ानो (इटली), No, 1960.

डेढ़ दशक बाद जब लगा कि रॉनल्ड रेगन यूनाइटेड स्टेट्स के राष्ट्रपति बनने की कगार पर हैं, तो बर्टरम ग्रॉस ने फ़्रेंडली फ़ासिज़्म: द न्यू फेस ऑफ पॉवर इन अमेरिका (1980) छापी, इस किताब का स्रोत काफी हद तक सी. राइट मिल्स की द पॉवर ऐलीट (1956) और पॉल बैरन तथा पॉल एम. स्वीज़ी की मोनोपॉली कैपिटल: एन एस्से ऑन द अमेरिकन इकनॉमिक एण्ड सोशल ऑर्डर  रहीं। ग्रॉस का मत था कि चूंकि बड़ी इजारेदारी कंपनियों ने यूनाइटेड स्टेट्स में लोकतांत्रिक संस्थानों का गला घोंट दिया है इसलिए चरम दक्षिणपंथ को मिलिटरी जूतों और स्वास्तिकों की ज़रूरत नहीं थी: यह रूझान तो उदार लोकतंत्र के अपने संस्थानों के ज़रिए ही आएगा। जब बैंक आपका गोरख धंधा संभाल लें तो टैंक की ज़रूरत किसे होगी?
       
कालेस्की और ग्रॉस की चेतावनियाँ हमें याद दिलाती हैं कि उदारवाद और चरम दक्षिणपंथ की नज़दीकियाँ कोई नई बात नहीं है, बल्कि यह उदारवाद की पूँजीवादी उत्पत्ति से ही निकलती हैं: उदारवाद पूँजीवाद की सामान्य बर्बरता के एक खुशगवार मुखौटे के अलावा और कुछ बन ही नहीं सकता था।

उदारवादी ‘फ़ासीवाद’ शब्द का इस्तेमाल खुद को चरम दक्षिणपंथ से दूर करने के लिए कर रहे हैं। इस शब्द का यह प्रयोग नैतिकतावादी ज़्यादा और सटीक कम है क्योंकि यह उदारवादियों और चरम दक्षिणपंथ की आपसी नज़दीकी को नज़रंदाज़ करता है। इसलिए हमने इस खास किस्म के दक्षिणपंथ के लिए दस विचार/थीसिस तैयार किए हैं और हम उम्मीद करते हैं कि ये बहस मुबाहसा शुरू करेंगे। यह एक अनंतिम वक्तव्य है, बातचीत के लिए एक न्यौता। 

पहली थीसिस। खास किस्म का चरम दक्षिणपंथ जितना हो सके लोकतांत्रिक उपकरणों का इस्तेमाल करता है। यह ‘संस्थानों से होते हुए लंबी कवायत’ की प्रक्रिया में विश्वास रखता है, जिसके ज़रिए यह तसल्ली से राजनीतिक ताकत तैयार करता है और उदार लोकतंत्र के सतत संस्थानों में अपने काडर की जगह बनाता है जो मुख्यधारा के विचार में इसके दृष्टिकोण आगे बढ़ाते हैं। शैक्षणिक संस्थान भी खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ के लिए बेहद अहम हैं क्योंकि इनसे वे अपने देशों में छात्रों के पाठ्यक्रम तैयार कर सकते हैं। इस खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ के लिए इन लोकतांत्रिक संस्थानों को दरकिनार करने की ज़रूरत तब तक नहीं जब तक कि ये इन्हें सत्ता तक पहुँचाती हैं। सत्ता न सिर्फ राज्य पर बल्कि पूरे समाज पर।

दूसरी थीसिस। खास किस्म का चरम दक्षिणपंथ राज्य को धीरे-धीरे खत्म कर इसके कार्यों को निजी क्षेत्र को सौंपने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है। उदाहरण के लिए यूनाइटेड स्टेट्स में मितव्ययिता के प्रति झुकाव ने राज्य के अहम कार्यों, जैसे यूएस डिपार्ट्मन्ट ऑफ स्टेट, के काडर की गुणवत्ता और संख्या को कम करने में मदद की है। इन संस्थानों के कई कार्यों का अब निजीकरण हो चुका है और ये नए उभरते हुए पूँजीपतियों जैसे चार्ल्स कोच, जॉर्ज सोरॉस, पियर ओमिडयार और बिल गेट्स के नेतृत्व वाली गैर-सरकारी संस्थाओं के तहत होते हैं। 

तीसरी थीसिस। खास किस्म का चरम दक्षिणपंथ राज्य के उपकरणों का कानूनन जितना हो सके उतना इस्तेमाल अपने आलोचकों और आर्थिक तथा राजनीतिक विपक्ष के आंदोलनों को खामोश करने के लिए करता है। उदार संविधान इस तरह के इस्तेमाल के लिए प्रचुर अवसर देते हैं, उदार राजनीतिक ताकतों ने भी समय-समय पर इनका प्रयोग मज़दूर वर्ग, किसानों और वामपंथ के प्रतिरोध को दबाने के लिए किया है। 

मैरीन (पोलैंड), पर्सनेज (चरित्र), 1963

चौथी थीसिस। खास किस्म का चरम दक्षिणपंथ राजनीतिक गठबंधनों के अंदरूनी अधिक फ़ासीवादी तत्वों द्वारा समाज में हिंसा की होमीयोपैथिक खुराक देता है जिससे डर पैदा हो लेकिन इतना नहीं कि लोग उसके खिलाफ हो जाएँ। दुनिया के अधिकतर मध्यवर्गीय लोग सुविधाएँ चाहते हैं और उन्हें अगर असुविधा हो तो परेशान हो जाते हैं (जैसी कि दंगों आदि से होती है)। लेकिन कई अवसरों पर जब किसी मज़दूर नेता की हत्या हो जाती है या पत्रकार को धमकी दी जाती है तो इस खास किस्म के चरम दक्षिणपंथ पर आरोप नहीं आता, जो जल्दी से ऐसे हाशिये के फ़ासीवादी गुटों से किसी भी तरह के सीधे ताल्लुक से साफ इंकार कर देता है (जबकि ये नैसर्गिक तौर से चरम दक्षिणपंथ से जुड़े होते हैं)। 

पाँचवीं थीसिस। विकसित पूँजीवादी समाज के ताने-बाने में जो अकेलापन पिरोया जाता है उसका एक अधूरा सा उपाय खास किस्म का चरम दक्षिणपंथ देता है। यह अकेलापन काम करने की परिस्थितियों की अनिश्चितता और काम के लंबे घंटों से उपजी अलगाव की भावना से पैदा होता है, जो किसी भी तरह के जीवंत समुदाय और सामाजिक जीवन के निर्माण की संभावनाओं को बर्बाद कर देता है। यह चरम दक्षिणपंथ एक असली समुदाय तैयार नहीं करता सिवाय तब जब धार्मिक समुदायों के साथ इसके परजीवी संबंधों की बात आती है। इसकी बजाय यह समुदाय के विचार तैयार करता है, इंटरनेट के ज़रिए समुदाय बनाना या व्यक्तियों को बड़े स्तर पर गोलबंद कर समुदाय बनाना या साझे प्रतीकों और संकेतों के आधार पर समुदाय बनाना। ऐसा दिखता है कि चरम दक्षिणपंथ समुदाय के लिए इस भूख का उपाय करता है, जबकि अकेलेपन का एहसास गुस्से में ढल रहा होता है न कि प्यार में। 

छठी थीसिस। खास किस्म का चरम दक्षिणपंथ निजी मीडिया साम्राज्यों से अपनी नज़दीकी का फ़ायदा उठाकर अपने डिसकोर्स को सामान्य बनाता है और सोशल मीडिया के मालिकों से अपनी घनिष्ठता का फ़ायदा उठाकर अपने विचारों को सामाजिक स्वीकृति दिलवाता है। अति उत्तेजक डिसकोर्स से एक उन्माद पैदा होता है, ऑनलाइन या सड़कों पर रैलियों में भागीदारी से आबादी के बड़े हिस्सों को गोलबंद होने के बावजूद भी वे किसी कलेक्टिव का हिस्सा नहीं बन पाते बल्कि अकेले व्यक्ति ही रहते हैं। पूँजीवादी अलगाव से पैदा हुआ अकेलापन एक क्षण के लिए मद्धम ज़रूर पड़ता है लेकिन खत्म नहीं होता। 

सातवीं थीसिस। खास किस्म का चरम दक्षिणपंथ कई हाथों वाला संगठन है जिसकी जड़ें समाज के तमाम क्षेत्रों में फैली हुई हैं। यह वहाँ काम करता है जहाँ लोग इकट्ठा होते हैं, फिर चाहे स्पोर्ट्स क्लब हों या धर्मार्थ यानी चेरटबल संगठन। यह समाज में अल्पसंख्यकों को हाशिये पर डालकर और उन्हें बुरा साबित कर अपना एक विस्तृत आधार तैयार करना चाहता है, जिसकी जड़ें हों उस जगह की बहुसंख्यक पहचान में (नस्ल, धर्म, या राष्ट्रीयता का भाव)। कई देशों में यह दक्षिणपंथ समाज और परिवार के बारे में रूढ़िवादी नज़रिये को और भी पुख्ता करने के लिए धार्मिक ढाँचों और नेटवर्क पर निर्भर करता है। 

आठवीं थीसिस। खास किस्म का चरम दक्षिणपंथ सत्ता के उन संस्थानों पर हमला करता है जो सामाजिक-राजनीतिक आधार की नींव हैं। इससे भ्रम पैदा होता है कि यह कुलीन नहीं बल्कि सर्वसाधारण का हिस्सा है जबकि असल में यह कुलीनतंत्र के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। यह अति-राष्ट्रवाद के एक बेहद मर्दाना स्वरूप को विकसित कर सर्वसाधारण का हिस्सा होने का भ्रम पैदा करता है और जिसका पतन चरम दक्षिणपंथ के बदसूरत रेटरिक या ब्यानबाज़ी में दिखाई देता है। यह चरम दक्षिणपंथ अति-राष्ट्रवाद के टेस्टोस्टेरोन की ताकत पर सवार रहता है और साथ ही सत्ता के समक्ष खुद को पीड़ित दिखाने का प्रपंच भी चलाता रहता है। 

नौवीं थीसिस। खास किस्म का यह दक्षिणपंथ एक अंतर्राष्ट्रीय संरचना है जो तमाम तरह के प्लाटफॉर्म्स के ज़रिए संगठित किया जाता है जैसे स्टीव बैनन का द मूवमेंट (ब्रुसेल्स में स्थित), वोक्स पार्टी का मैड्रिड फ़ोरम (स्पेन स्थित) और LGBTQ+ विरोधी फ़ेलोशिप फाउंडेशन (वाशिंगटन के सिएटल में स्थति)। ये ग्रुप अटलांटिक दुनिया के राजनीतिक प्रोजेक्ट से बहुत गहराई से जुड़े हुए हैं जो ग्लोबल साउथ में दक्षिणपंथ की भूमिका को बढ़ाते हैं और उन्हें जहाँ उपजाऊ ज़मीन दिखती है वहाँ दक्षिणपंथ के विचारों की जड़ें गहरी करने के लिए धन देते हैं। ये नई ‘समस्याएँ’ तैयार करता है जो इससे पहले इस स्तर पर मौजूद नहीं थीं, जैसे कि पूर्वी अफ्रीका में यौनिकता पर झगड़ा। ये नई ‘समस्याएँ’ जन आंदोलनों को कमज़ोर करती हैं और समाज पर दक्षिणपंथ के शिकंजे को मज़बूत। 

दसवीं थीसिस। यूँ तो खास किस्म का चरम दक्षिणपंथ खुद को एक वैश्विक परिघटना के तौर पर दिखाता है लेकिन यह साम्राज्यवादी देशों और ग्लोबल साउथ में खुद को अलग-अलग ढंग से साकार करता है। ग्लोबल नॉर्थ में उदारवादी और चरम दक्षिणपंथी दोनों ही अपने उन विशेषाधिकारों को पुरज़ोर तरीके से बचाते हैं जो उन्होंने पिछले पाँच सौ सालों की लूट से हासिल किए हैं – अपनी सेना और दूसरे साधनों के ज़रिए – जबकि ग्लोबल साउथ में सभी राजनीतिक ताकतों की एक सामान्य प्रवृत्ति है संप्रभुता स्थापित करना। 

खास किस्म का चरम दक्षिणपंथ एक ऐसे दौर में उभर रहा है जो अतिसाम्राज्यवाद से परिभाषित होता है ताकि इसकी अपनी घृणित ताकत छिपी रहे और ऐसा लगे कि यह अलगाव से ग्रस्त व्यक्तियों की चिंता करता है जबकि यह उनको नुकसान पहुँचाता है। यह इंसानी कमज़ोरी को खूब पहचानता है और इसी पर ज़िंदा रहता है।

सस्नेह,
विजय

पुनश्च – इस न्यूज़लेटर में इस्तेमाल चित्र न्यू क्लोथ्स, ओल्ड थ्रेडस्: द डैन्जरस राइट-विंग अफेन्सिव इन लैटिन अमेरिका (2021) और व्हाट कैन वी इक्स्पेक्ट फ्रॉम द न्यू प्रोग्रेसिव वैव इन लैटिन अमेरिका? (2023) डोसियरों से ली गईं हैं, अन्यथा विशेष रूप में लिखा गया हो।