चीन का शिऑन्ग’आन न्यू एरिया: चालीसवाँ न्यूज़लेटर (2024)
1 अक्टूबर 1949 को पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना हुई। अपनी क्रांतिकारी प्रक्रिया के पचहत्तर वर्षों में, चीन ने कई चुनौतियों का सामना करते हुए भी उल्लेखनीय प्रगति की है।
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
पचहत्तर साल पहले, 1 अक्टूबर 1949, को माओ त्सेतुंग (1893-1976) ने चीन के जनवादी गणराज्य (पीआरसी) की स्थापना की घोषणा की थी। यह ध्यान देना ज़रूरी है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) ने इस नए राष्ट्र को समाजवादी गणराज्य नहीं बल्कि जनवादी गणराज्य का नाम दिया। ऐसा इसलिए था क्योंकि माओ और सीपीसी जानते थे कि चीन में तुरंत समाजवाद नहीं आ जाएगा। हालांकी वे इस बात पर ज़ोर देना चाहते थे कि उनके देश ने समाजवाद की ओर ले जाने वाले रास्ते पर चलना शुरू किया है, और यह एक ऐसा सफ़र होगा जिसे तय करने में एक सदी नहीं भी तो कम से कम कई दशक लगेंगे। यह बात उन लोगों को स्पष्ट थी जो इस नए राष्ट्र और समाज को आकार देने के काम में लगे थे। एक लंबे युद्ध की तबाही के बीच से इस जनवादी गणराज्य का निर्माण होना था। जापान द्वारा उत्तरी चीन में घुसपैठ के साथ यह युद्ध 1931 में शुरू हुआ था, जिसके बाद 14 साल लंबी लड़ाई चली जिसमें 3.5 करोड़ लोग मारे गए थे। 21 सितंबर 1949 को चीन में हुए जन राजनीतिक सलाहकार सम्मेलन के पहले पूर्ण अधिवेशन में माओ ने कहा था कि ‘आज से हमारा देश दुनिया के अमन और आज़ादी पसंद देशों में शामिल होगा’। उन्होंने आगे कहा कि नया चीन ‘बहादुरी और मेहनत से अपनी संस्कृति और अपने हितों की रक्षा करेगा तथा साथ ही विश्व में अमन और आज़ादी को बढ़ावा देगा। अब हमारे देश का अपमान और अवमानना नहीं होगी। हम अब अपने बूते पर खड़े हो चुके हैं।’
माओ के शब्दों में दुनिया भर के उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों के भाव गूंज रहे थे। उनके शब्दों में उन आंदोलनों के नेताओं के भाव भी शामिल थे जो समाजवादी न थे, जैसे कि जवाहर लाल नेहरू और मिस्र के जमाल अब्देल नासिर। इन सब का मानना था कि उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंकने की प्रक्रिया में विश्व शांति और समानता की स्थापना ज़रूरी थी ताकि उपनिवेशवाद को झेल चुकी जनता अपने पैरों पर खड़ी हो सके और गरिमापूर्ण जीवन का निर्माण कर सके। आज 2024 में माओ के उस भाषण पर विचार किया जाए, तो हम न केवल दुनिया के तमाम लोगों द्वारा 1949 से अब तक किए गए विकास की सराहना कर सकेंगे बल्कि इस नई दुनिया के निर्माण को रोकने की पुरानी उपनिवेशवादी ताकतों की तमाम कोशिशों को भी समझ सकेंगे। यूएसए-इज़राइल द्वारा जारी फिलिस्तीनियों के नरसंहार और लेबनान में बमबारी से साफ है कि हम अपने जिस अतीत से बाहर आना चाहते हैं हमें उसमें कैद रखने के लिए उपनिवेशवादी ताकतें बर्बरता की किस हद तक जा सकती हैं। पुरानी उपनिवेशवादी ताकतों के रवैये और उनके द्वारा थोपे गए युद्धों की वजह से हम ‘अपनी संस्कृति और अपने हितों’ के निर्माण और ‘विश्व शांति और आज़ादी’ के रास्ते से भटक जाते हैं। माओ के शब्द उपनिवेशवाद की गर्त से निकल रही दुनिया के सभी लोगों के भाव व्यक्त करते हैं और हमारे सामने दो विकल्प पेश करते हैं: या तो हम दुश्मनों की तरह जीते रहें और अपने संसाधनों को बेमानी और बेकार के युद्धों में बर्बाद कर दें और या फिर हम ‘दुनिया के अमन और आज़ादी पसंद राष्ट्रों का एक समूह’ तैयार करें।
पीआरसी में औसत जीवन प्रत्याशा 77 वर्ष है, जो कि दुनिया की औसत जीवन प्रत्याशा से चार वर्ष ज़्यादा है। 1949 से अब तक इस सूचक में बहुत सुधार हुआ है, उस समय यह केवल 36 वर्ष थी। यह एक ऐसे समाज के सूचकों में से एक है जो जनता की भलाई को प्राथमिकता देता है। ऐसे ही एक दूसरे सूचक के बारे में मुझे कुछ साल पहले एक चीनी अधिकारी ने बताते हुए कहा था कि कैसे उनका देश जल्द ही एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनाने वाला है जो जीवाश्म ईंधन (फॉससिल फ्यूल) पर निर्भर नहीं होगी। उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए ‘जल्द ही’ के भाव में मुझे बड़ी दिलचस्पी हुई। मैंने उनसे पूछा कि इस तरह का काम इतनी जल्दी कैसे हो सकता है। उन्होंने बताना शुरू किया कि संसाधनों को सुनियोजित और प्राथमिकता के अनुसार प्रयोग करना कितना ज़रूरी है, लेकिन फिर उन्हें समझ आया कि मैं इस नई अर्थव्यवस्था की रणनीति के बारे में नहीं बल्कि इसके पूरे होने के समय के बारे में बात कर रहा हूँ। तब उन्होंने कहा कि ऐसा ‘शायद अगली आधी सदी में, या फिर अगर हम ज़्यादा मेहनत करें तो [2049] पीआरसी के निर्माण की सौवीं वर्षगाँठ तक हो सकता है’। पूँजीवाद की तरफ से राष्ट्रों पर थोपी हुई अल्पकालिक मजबूरियों की बजाय इस तरह की दीर्घ-कालिक योजनाएँ बना पाने के पीछे का कारण है जनता का पीआरसी पर विश्वास। यह दूरदर्शिता चीन के समाज में आम तौर पर दिखाई देती है और इसी के कारण सीपीसी संसाधन जुटा पाती है और चंद महीनों या वर्षों की बजाय दशकों आगे की योजना कर पाती है।
लगभग पच्चीस साल पहले भी चीन के शहरी प्रबंधकों ने इस तरह की दूरदर्शिता का प्रमाण दिया था। बीजिंग शहर में वाहनों की बढ़ती संख्या और गर्मी पैदा करने के लिए जलाए जा रहे कोयले की वजह से वहाँ की जनता ज़हरीले स्मॉग (वायु प्रदूषण का एक प्रकार) की समस्या से जूझ रही थी। 2001-2005 और 2011-2015 की राष्ट्रीय पंच वर्षीय योजनाओं और बीजिंग के अपने पंच वर्षीय साफ वायु एक्शन प्लान (2013-2017) में यह स्वीकार किया गया कि आर्थिक विकास के लिए जलवायु की उपेक्षा नहीं की जा सकती। शहर के प्रबंधकों ने सार्वजनिक यातायात और ट्रांसिट कॉरिडोर को बढ़ावा देने हेतु योजनाओं का निर्माण शुरू किया। ट्रांसिट कॉरिडोर का उपाय पुराने चीनी शहरों के डिज़ाइन पर आधारित था जहाँ दुकानें और रिहायशी इमारतों का निर्माण यूँ होता था कि जनता वहाँ गाड़ी चलाने की बजाय बेख़ौफ़ होकर पैदल चल सके। सितंबर 2017 में शहर प्राधिकरण ने कम उत्सर्जन वाले क्षेत्र स्थापित किए, जिसके अंतर्गत बीजिंग में प्रदूषण करने वाले वाहनों के आने पर रोक लगा दी गई और साथ ही बिजली व दूसरे वैकल्पिक ऊर्जा से चलने वाले वाहनों के इस्तेमाल को प्रोत्साहन दिया गया। दुनिया की कुल 3,85,000 बिजली से चलने वाली बसों में से 99% बसें चीन के पास हैं, और इनमें से 6,584 बसें बीजिंग की सड़कों पर चलती हैं। हालांकि बीजिंग ने खुद के लिए जो मापदंड स्थापित किए हैं उन तक पहुँचने में अभी काफी समय लगेगा लेकिन फिर भी यह जानना ज़रूरी है कि बीजिंग में प्रदूषण में काफी कमी आई है।
1949 में माओ ने स्थापना के दौरान दिए अपने भाषण में घोषणा की कि पीआरसी का एक अहम लक्ष्य होगा जनता की खुशहाली। दुनिया की नव-उपनिवेशवादी व्यवस्था गरीब देशों को पुरानी उपनिवेशवादी ताकतों पर निर्भर रहने को मजबूर करती है, ऐसे में यह लक्ष्य पूरा कैसे हो सकता है? दुनिया की उत्पादन शृंखला में गरीब देशों की जनता की आय और उपभोक्ता शक्ति को कम से कम रखकर सबसे कम कीमत पर वस्तुओं का उत्पादन करवाया जाता है, ताकि बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ (एमएनसी) दुनिया भर में ये वस्तुएँ ऊँचे दाम पर बेचकर ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा काम सकें। ये मुनाफ़ा एमएनसी नई तकनीक और उत्पादक शक्तियों को विकसित करने में लगाती हैं जिससे गरीब देशों को निरंतर दबाए रखा जा सके। अगर कोई गरीब देश ज़्यादा मुनाफ़े के लिए किसी वस्तु का निर्यात बढ़ा देता है तो वो खुद को ऐसी खाई में धकेलता चला जाता है जहाँ उसके शोषित मज़दूरों का जीवन स्तर बद से बदतर होता जाता है और देश स्वयं कर्ज़ के जाल में फँस जाता है। योजना बना पाना एक बात है, लेकिन उस योजना को लागू करने के संसाधन कैसे जुटाए जाएँ?
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान में हमने चीन और ग्लोबल साउथ के उन दूसरे देशों के अनुभवों को करीब से समझने की कोशिश की है जिन्होंने निर्भरता के इस पिंजरे से आज़ाद होने के प्रयास किए हैं। टिंगस् चक और मैंने पीआरसी की 75वीं वर्षगाँठ पर प्रकाशित एक लेख में दिखाया है कि अपने पहले दशकों में चीन के पास सोवियत संघ की मदद सहित जो भी संसाधन उपलब्ध थे वे उसने एक नई कृषि व्यवस्था के निर्माण में लगाए जो ज़मींदारी के खिलाफ़ थी। साथ ही ऐसी शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था स्थापित की गई जिससे लोगों के जीवन में गुणात्मक अंतर आया। इसके अलावा पुरानी रूढ़िवादी ऊँच-नीच की व्यवस्था से लड़ने में भी संसाधनों का प्रयोग किया गया। 1949 से 70 के दशक के अंत तक चले इस पहले चरण में ही चीन की संस्कृति दूसरे उपनिवेश शासन से आज़ाद हुए देशों के मुकाबले अधिक समतावादी हो चुकी थी और यहाँ की जनता ज़्यादा शिक्षित व ज़्यादा स्वस्थ थी। जनता के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सीपीसी की प्रतिबद्धता के चलते ही यह संभव हो पाया। 1978 से शुरू होकर अब तक चल रहे दूसरे चरण में चीन ने अपनी बड़ी श्रम शक्ति का इस्तेमाल कर विदेशी निवेश और तकनीक को आकर्षित किया है। लेकिन चीन ने यह इस ढंग से किया कि विज्ञान और तकनीक तक उसकी अपनी पहुंच बढ़ी और विनिमय दर पर राज्य के नियंत्रण के चलते सीपीसी मज़दूरों का वेतन भी बढ़ा (जो कि 2008 के लेबर कान्ट्रैक्ट क़ानून के तहत और बेहतर हो गया)। लेकिन चीन ने मध्य-आय के जाल (मिडल इंकम ट्रैप, यानी एक निर्धारित आय प्राप्त कर लेने के बाद उससे आगे न निकल पाने की स्थिति) से भी खुद को सुरक्षित रखा। उसने अपनी तकनीकी क्षमता बढ़ाते हुए राज्य के नियंत्रण वाली कंपनियों को उच्च तकनीक वाली उत्पादक व्यवस्थाओं के निर्माण के लिए बढ़ावा दिया। यही कारण है कि दुनिया पर हावी नव-उपनिवेशवादी व्यवस्था के अंदर रहते हुए भी पिछले कुछ दशकों में चीन ने तीव्र विकास हासिल किया और अपनी जनता तथा जलवायु की बेहतरी के लिए काम करने में सक्षम रहा।
बीजिंग में लगातार बढ़ती आबादी दो करोड़ के पार पहुंच गई थी और लोगों को तमाम तरह की परेशानियाँ झेलनी पड़ रही थीं। इनसे राहत पाने के लिए, अप्रैल 2017 में शिऑन्गआन न्यू एरिया (जो बीजिंग से लगभग 100 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है) को औपचारिक तौर पर 50 लाख लोगों के रहने के लिए तैयार किया गया। उद्देश्य है कि वर्तमान में राजधानी में स्थित गैर-सरकारी संस्थानों (जैसे शोध, उच्च शिक्षा, चिकित्सा और वित्तीय आदि संस्थानों) को शिऑन्गआन न्यू एरिया में शिफ़्ट कर दिया जाएगा। शिऑन्गआन न्यू एरिया के निर्माण के पीछे की एक मुख्य वजह है कि इससे लोगों की परेशानियों का समाधान हो पाया और घनी आबादी वाली राजधानी के पुनर्निर्माण की ज़रूरत भी नहीं पड़ी जिससे 1045 ईसा पूर्व में पहली बार बसे इस शहर का ऐतिहासिक स्वरूप बना रहा।
इस नए शहर के निर्माण का पूर्ण लाभ उठाने के लिए, पीआरसी अधिकारियों ने शिऑन्ग’आन न्यू एरिया के लिए शून्य-कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित किया। यह एरिया धुएँ से भरा कंक्रीट का जंगल नहीं है बल्कि साफ़ पानी का हर भरा क्षेत्र है। शहर की योजना बनाते समय उत्तर चीन में स्थित सबसे बड़ी आर्द्रभूमि (वेटलैंड) बैयांगडियन को पुन:जीवित करने को पहली प्राथमिकता बनाया गया। बैयांगडियन, जिसे ‘उत्तरी चीन का गुर्दा’ कहा जाता है, के जल क्षेत्र को 170 वर्ग किलोमीटर से बढ़ाकर 290 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया; इसके पानी को साफ़ कर श्रेणी V (अनुपयोगी) से श्रेणी III (पीने योग्य) में लाया गया; और तेज़ी से विलुप्त हो रही गोताखोर बतख ‘बेयर पोचर्ड’ को इस क्षेत्र में बसाया गया जिनकी संख्या अब इस झील में बढ़ रही है। बैयांगडियन इस नए शहर का आधार है।
शिऑन्ग’आन न्यू एरिया में ‘तीन शहर’ बनाये जा रहे हैं: एक शहर ज़मीन के ऊपर; एक अंडर-ग्राउंड शहर जिसमें व्यावसायिक केंद्र, परिवहन, और (फ़ाइबर ऑप्टिक, बिजली, गैस, पानी, और सीवर) की पाइप-लाइनें आदि होंगे; और एक क्लाउड-आधारित शहर जहां स्मार्ट परिवहन, डिजिटल गवर्नन्स, स्मार्ट उपकरण निरीक्षण, बुजुर्गों की निगरानी, और आपातकालीन प्रतिक्रिया से संबंधित डेटा रखा जाएगा। हेबेई प्रांत के राष्ट्रीय विकास एवं सुधार आयोग की जनवरी रिपोर्ट के अनुसार शिऑन्ग’आन न्यू एरिया:
एक शहरी पारिस्थितिकी तंत्र है, जहाँ शहर और झील सह-अस्तित्व में हैं, जहाँ शहर और हरियाली एकीकृत हैं, और जहाँ जंगल व पानी एक-दूसरे पर निर्भर हैं। … जहाँ शहरों के भीतर पार्क और पार्कों के भीतर शहर बनाने के लिए ग्रीनवे, बाग, और खुली जगहों के एकीकरण पर जोर दिया गया है, जहाँ लोग [शहर] में रहते हुए प्रकृति का आनंद ले सकते हैं।
अपनी क्रांतिकारी प्रक्रिया के बीते पचहत्तर सालों में चीन ने वास्तव में बड़ी प्रगति हासिल की है, हालांकि इसे अपने सामने खड़ी नई समस्याओं से निपटना होगा (जिनके बारे में आप वेनहुआ ज़ोंगहेंग, या 文化纵横 पत्रिका के अंतर्राष्ट्रीय संस्करण में पढ़ सकते हैं)। निर्भरता की जंजीरें तोड़ने में चीन की उपलब्धि विस्तृत चर्चा का विषय है। शायद यह चर्चा शिऑन्ग’आन न्यू एरिया में बैयांगडियन झील के किनारे सैर करते हुए की जा सकती है।
सस्नेह,
विजय।