समग्र विश्लेषण कैसे किया जाए: बयालीसवाँ न्यूज़लेटर (2024)
मुख्यधारा का मीडिया फिलिस्तीन, जहाँ अब तक 114,000 लोग मारे जा चुके हैं, पर खबर करते हुए सच को या तो तोड़-मरोड़ रहा है या उसे छिपाते हुए झूठ पेश कर रहा है। इससे उलट समग्र विश्लेषण हमें यह समझने में मदद करता है कि इस सबके पीछे कौन सी शक्तियाँ हैं और साथ ही यह राजनीतिक व सामाजिक आंदोलनों को वह सामग्री प्रदान करता है जिससे वे भविष्य को आकार दे सकते हैं।
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
ख़बर और सूचनाओं की दुनिया में पारंपरिक पश्चिमी मीडिया का ही दबदबा है और इससे गुज़रना कष्टकारक है। उदाहरण के तौर पर ये मीडिया संस्थान (जैसे सीएनएन, द न्यूयॉर्क टाइम्स , द गार्डियन, ले मोंड और बिल्ड) फिलिस्तीनियों के नरसंहार के मामले में फिलिस्तीनियों पर इज़राइल के हमलों को ठीक-ठीक बयान करने से परहेज़ करते रहे। अपनी सहूलियत के हिसाब से या दबे शब्दों में इतना भर बताया कि ‘फिलिस्तीनी मारे गए’ या आम जनता के इलाक़ों को सैन्य अड्डे (‘हिज़बुल्ला का गाँव’ या ‘हमास का नियंत्रण केंद्र’) बताकर एक बेहद ख़तरनाक चाल चली।
ग़ज़ा में चल रहे नरसंहार के शुरू के पहले छह हफ़्तों के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) के मुख्यधारा के समाचार पत्रों में छपी ख़बरों के एक विश्लेषण में पाया गया कि ‘हर दो फिलिस्तीनी नागरिकों की मौत पर एक बार फिलिस्तीनी शब्द का प्रयोग हुआ। हर इज़राइली की मौत पर आठ बार इज़राइली शब्द का प्रयोग हुआ’। यानी मुख्यधारा के मीडिया में एक मृत फिलिस्तीनी के मुक़ाबले में एक मृत इज़राइली का ज़िक्र सोलह गुना ज़्यादा होगा। मारे गए फिलिस्तीनियों की तेज़ी से बढ़ती संख्या के साथ-साथ उन्हें इस तरह ग़ायब करने और उन्हें उनकी मनुष्यता से वंचित करने का यह रुझान भी बढ़ता चला गया। एक अनुमान के मुताबिक मारे गए फिलिस्तीनियों की संख्या 114,000 है। ग़ज़ा के भीतर अपनी जान का ख़तरा उठाते हुए फिलिस्तीनी पत्रकार और सोशल मीडिया से जुड़े लोग, जो लाइव रिपोर्टिंग कर रहे थे, उन्हें मुख्यधारा के पश्चिम मीडिया ने अनदेखा किया। इसके साथ उन तमाम विश्लेषणों को भी नज़रंदाज़ किया गया जो यूएस-इज़राइली क़ब्ज़े, नस्लभेद और नरसंहार करने के लिए छेड़ी गई लड़ाई का व्यापक परिप्रेक्ष्य सामने रख रहे थे। पश्चिमी मीडिया ने इस मसले की बेहद ख़राब रिपोर्टिंग की है जिसकी कोई माफ़ी नहीं हो सकती।
टेलिविज़न कार्यक्रम तो बदतर हैं ही, वहाँ अगर कोई भी इस नरसंहार की आलोचना करना चाहे तो बातचीत शुरू होने से पहले ही उसे कुछ चीज़ें स्वीकार करने पर मजबूर किया जाता है (‘मैं 7 अक्टूबर के हमास के हमले की निंदा करता हूँ’ या ‘मैं यूक्रेन में रूस की घुसपैठ की निंदा करता हूँ)। चूँकि कई लोग इस निंदा के इर्द-गिर्द अपनी बातचीत को सीमित नहीं करना चाहते इसलिए चर्चा आगे ही नहीं बढ़ती। निंदा का यह कर्मकाण्ड न सिर्फ़ चर्चा में शामिल होने की शर्त है, बल्कि इससे यह छूट भी मिल जाती है कि आप इसकी गहराई में न जाएं। इससे इन टकरावों और संकट की शुरुआत से जुड़े तथ्यों, टकराव के मूल स्वरूप और दीर्घकालिक ऐतिहासिक और संरचनात्मक मूल्यांकन पर केंद्रित बहस की संभावना भी सीमित हो जाती है। इसी तरह की चर्चा को समग्र विश्लेषण (Conjunctural Analysis) कहा जाता है, जो राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को भविष्य के निर्माण के लिए सामग्री मुहैया कराता है और यही हमारे संस्थान के कार्यों की बुनियाद है। यह न्यूज़लेटर आपके सामने चार ऐसे लेख प्रस्तुत करता है जो समग्र विश्लेषण पर आधारित हैं, लेकिन पहले मैं बताना चाहूँगा कि ऐसा विश्लेषण ज़रूरी क्यों है।
आज सूचनाओं से जुड़ी समस्या का संबंध सिर्फ़ उनकी विषयवस्तु से नहीं बल्कि रूप से भी है। सूचनाएँ हम तक बहुत तेज़ रफ़्तार में पहुँच रही हैं, जिसकी वजह से किसी भी व्यक्ति के लिए तय कर पाना लगभग असंभव हो गया है कि क्या आवश्यक और सत्य है। उचित, लोकतांत्रिक विश्लेषण के बिना और लगभग पूरी तरह एक छोटे कुलीन वर्ग द्वारा नियंत्रित अत्यधिक सूचना प्रदान करना भी सेंसरशिप का ही एक रूप है, जो पाठक और दर्शक को समर्पण के लिए मजबूर कर देता है। इससे सिर्फ सूचनाएँ ही सेंसर नहीं होतीं, हालांकि यह जितना हम स्वीकार करते हैं उससे ज़्यादा होता है, लेकिन साथ ही ज्ञान और विवेक भी सेंसर हो जाते हैं। न्यूज़ केवल यहीं तक सीमित रह जाता है कि यह घटित हुआ , लेकिन क्या हुआ उसके बारे में ज़्यादा चर्चा नहीं होती: यह नहीं बताया जाता कि ऐसा क्यों हुआ, इसके पीछे के कारण क्या हैं या इसके संभावित परिणाम क्या हो सकते हैं। इस तरह की पत्रकारिता तथ्य और विश्लेषण को छिपाकर झूठ परोसती है क्योंकि कोई भी घटना न स्थिर होती है और न ही उसका केवल एक रूप होता है, वह एक जटिल प्रक्रिया का हिस्सा होती है।
समग्र विश्लेषण इसी जटिलता को समझने का एक महत्त्वपूर्ण ज़रिया है, क्योंकि वह किसी विशेष समय में इतिहास की गतिशील प्रक्रिया को समझाने की कोशिश करता है। हर दौर की जड़ें एक ओर अतीत और दूसरी ओर भविष्य में होती हैं: अतीत वर्तमान को आकार देता है लेकिन वर्तमान भी भविष्य में क्या हो सकता है इसकि पूर्व-सूचना पेश करता है जो इस बात पर निर्भर करता है कि हम वर्तमान में किस तरह से हस्तक्षेप कर रहे हैं या क्या कर रहे हैं। इसलिए समग्र विश्लेषण मार्क्सवादी विश्लेषण के इतिहास और उन्हें संचालित करने वाले राजनीतिक तथा सामाजिक आंदोलनों के कार्यों की उपज है, जो चार नियमों पर आधारित है:
- इतिहास: कोई भी घटना अन्य चीज़ों से अलग-थलग नहीं होती। वह एक लंबी प्रक्रिया का हिस्सा होती है इसलिए आकस्मिक या कभी-कभार होनी वाली घटनाओं तथा संगठित या सुनियोजित घटनाओं के बीच में अंतर किया जाना चाहिए।
- संपूर्णता: घटनाएँ आपस में जुड़ी हुई होती हैं। वे एक जटिल संरचना का हिस्सा होती हैं जिसमें कई संभावनाएँ निहित होती हैं।
- संरचना: घटनाएँ एक ऐसे जाल में घटित होती होती हैं जिसके आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आयाम होते हैं तथा इसके अंतर्गत लोगों को वर्गों और सत्ता के क्रमों में बाँटा जाता है, और लोग एक-दूसरे पर संस्थानों तथा विचारों के ज़रिए प्रभाव डालते हैं।
- राजनीति: घटनाओं को सक्रिय तौर पर देखा जाना चाहिए, यानी निष्क्रिय होकर भविष्य को आता देखने की बजाय यह पूछा जाना चाहिए कि कोई राजनीतिक ताक़त कैसे भविष्य को प्रभावित करेगी। इस सवाल का जवाब देने के लिए ज़रूरी है कि वर्ग संरचना के स्वरूप, राजनीतिक शक्तियों के संतुलन और उन सांस्कृतिक परंपराओं का क़रीब से विश्लेषण किया जाए जो किसी ख़ास राजनीतिक अजेंडे को आगे बढ़ा सकते हैं।
एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के हमारे साथियों ने हाल ही में समग्र विश्लेषण पर आधारित चार दस्तावेज़ प्रकाशित किए हैं:
- Nepal’s Fight for Sovereignty, the Millennium Challenge Corporation, and the US’s New Cold War against China, [संप्रभुता के लिए नेपाल का संघर्ष, मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन और चीन के विरुद्ध यूएस का नया शीत युद्ध], बामपंथ पत्रिका के साथ मिलकर तैयार किया गया। इसके लेखक बामपंथ के प्रधान संपादक डॉ महेश मास्की हैं जो चीन में नेपाल के राजदूत रह चुके हैं। यह लेख केवल अंग्रेज़ी में उपलब्ध है।
- A New World Born from the Ashes of the Old, [पुरानी दुनिया की राख़ से जन्मी एक नई दुनिया], इसे लिखा है हाना एड ने और यह वेस्ट अफ्रीकन पीपल्स ऑर्गनाईज़ेशन द्वारा उपलब्ध कराई गई सामग्री से तैयार हुआ। यह लेख केवल अंग्रेज़ी में उपलब्ध है।
- La criminalización de los cultivadores como coartada imperialista: economía política de las drogas en Colombia [किसानों को अपराधी ठहराने की साम्राज्यवादी चाल: कोलंबिया में ड्रग्स का राजनीतिक अर्थशास्त्र], Centro de Pensamiento y Diálogo Político and Coordinadora Nacional de Cultivadores de Coca, Amapola y Marihuana in Colombia द्वारा संयुक्त रूप से इस पर शोध किया गया और इसे तैयार किया गया तथा इसे लिखा है केरन जेस्सेनिया गुतिएरेज़ अल्फांसो ने। यह लेख केवल स्पैनिश भाषा में उपलब्ध है।
- A Revista Estudos do Sul Global [ग्लोबल साउथ स्टडीस का जर्नल] इसमें सम्राज्यवाद, हमारे समय में वित्त के स्वरूप और वर्ग संघर्ष की गति जैसे विषयों पर लेख हैं। यह जर्नल केवल पुर्तगाली भाषा में उपलब्ध है।
अगले कुछ महीनों में मैं इन दस्तावेज़ों के बारे में विस्तार से लिखूँगा क्योंकि इनकी गहनता और गुणवत्ता हमें आज के सतही तथा सनसनीखेज़ विश्लेषण से अलग ज़रूरी समझ विकसित करने में मदद देती है। उदाहरण के लिए, नेपाली सरकार ने यूएस सरकार से जो अनुदान स्वीकार किए हैं वे यूएस द्वारा एशिया पर थोपे गए नए शीत युद्ध के बहुआयामी ढाँचे को स्पष्ट दिखाते हैं और इसे मास्की ने उजागर किया है, जबकि हाना एड ने अलाइअन्स ऑफ सहेल स्टेट्स (बुर्किना फासो, माली और नाइज़र) का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है उससे हमें पूरे पश्चिमी अफ्रीका में संप्रभुता के लिए चल रहे संघर्ष को समझने में मदद मिलती है। ड्रग्स के ख़िलाफ़ चल रही लड़ाई पर रिपोर्ट से पता चलता है कि कोलंबिया में राष्ट्रपति गुस्तावो पेट्रो की सरकार पर किस तरह के दबाव हैं और इस दबाव को समझने के लिए बेहद लाभकारी अंतर्राष्ट्रीय ड्रग माफ़िया की इस देश के राजनीतिक तंत्र में भूमिका को जानना ज़रूरी है।
सालों पहले मैं ज़ाकापा बैरक की यात्रा पर गया था जो ग्वाटेमाला शहर से पूर्व कोई दो घंटे की दूरी पर है। इन बैरक का दृश्य कुल मिलाकर सुखद था, इनकी पत्थर की दीवारों के चारों तरह हरे चरागाह थे लेकिन निगरानी के लिए बनाई गईं मीनारें उस क़त्लेआम की गवाही दे रहीं थीं जो यहाँ हुआ था: यहीं नॉरा पाइज़ करकामो (1944-1967), ओटो रेने कास्टिलो (1934-1967) और रिबेल आर्म्ड फोर्सेस (एफ़एआर) के दूसरे सदस्यों तथा लगभग बारह किसानों को यातनाएँ देने के बाद बेरहमी से ज़िंदा जला दिया गया था। नॉरा और ओटो दोनों ही कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े हुए थे और ग्वाटेमाला में तानाशाही के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे; इन दोनों की ट्रेनिंग क्रमश: जर्मन जनवादी गणराज्य और सोवियत संघ में हुई। इसके बाद ये सिएरा डे ला मिनाज (इसका नाम हरिताश्म, संगमरमर और एस्बेस्टस की खानों की वजह से पड़ा) में सशस्त्र संघर्ष में शामिल हो गए जहाँ मार्च 1967 में दोनों की हत्या कर दी गई। बाद में नॉरा की माँ क्लेमेनसिया करकामो सान्दोवाल ने ट्रूथ कमीशन को बताया कि उनकी बेटी की लाश जब मिली तो खून से लथपथ, हड्डियाँ टूटी हुई थीं और उसमें डंडे घुसे थे, इससे साफ ज़ाहिर है कि उन्हें कितनी बेरहमी से मारा गया होगा। ओटो की उनके साथियों के साथ हत्या कर दिए जाने से दो साल पहले उन्होंने अल साल्वाडोर के कवि रोकूए डाल्टन (1935-1975) से प्रभावित होकर एक बेहतरीन कविता लिखी थी। यह ‘अराजनैतिक बुद्धिजीवियों’ के लिए एक मर्सिया या शोकगीत है:
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एक दिन,
मेरे देश के अराजनैतिक
बुद्धिजीवियों से
जिरह करेंगे
सबसे मामूली लोग।उनसे पूछा जाएगा
कि वे क्या कर रहे थे
जब उनकी मातृभूमि धीरे-धीरे
नष्ट हो रही थी,
छोटी, अकेली, मद्धिम,
आंच की तरह।कोई उनसे नहीं पूछेगा
उनके शानदार कपड़ों के बारे में,
या दोपहर के भोजन के बाद की
लंबी झपकी के बारे में,
या जीवन की व्यर्थता को लेकर
उनकी बकवास के बारे में
न ही
मुनाफ़ाखोरी के उनके सिद्धांत के बारे में।
उनसे सवाल नहीं होंगे
ग्रीक मिथकों पर,
उस आत्मग्लानि पर भी नहीं
जो उपजती होगी इस अहसास के साथ
कि उनके अंदर तिल-तिल करके मर रहा है
कोई एक कायर की मौत।2
एक दिन
सबसे साधारण लोग आएंगे।
वे जिन्हें
अराजनैतिक बुद्धिजीवियों की
किताबों और कविताओं में स्थान न मिला,
फिर भी, हर दिन, वे लाते रहे बुद्धिजीवियों के लिए
उनकी ब्रेड और दूध,
उनके लिए अंडे और टॉर्टिला, [एक प्रकार की रोटी]
जिन्होंने धोए उनके कपड़े,
चलाई उनकी गाड़ियाँ,
उनके कुत्तों को संभाला और बग़ीचों की देखभाल की,
जिन्होंने उनके लिए काम किया
वे पूछेंगे:
क्या किया था तुमने
जब ग़रीब लोग
तबाह हो रहे थे,
और उनकी मासूमियत,
उनकी मुस्कान
छिन रही थी उनसे?3
मेरे प्रिय देश के
अराजनैतिक बुद्धिजीवियों
तुम्हारे पास कोई जवाब न होगा।सन्नाटे का एक गिद्ध
तुम्हें अंदर-ही-अंदर नोचेगा।
तुम्हारा दुर्भाग्य
तुम्हारी आत्मा को कुतरेगा।
और तुम ख़ामोश रहोगे
ख़ुद पर शर्मिंदा होगे।
सस्नेह,
विजय