डॉ. विक्टर फ़्रैंकेन्स्टायन ने अपने दानव को त्याग दिया: दूसरा न्यूज़लेटर (2025)
घुप्प अँधेरे के बीच नयी दुनिया के लिए हमारा संघर्ष ही हमारे आगे की राह को रौशन करेगा।
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
बहुत कम लोगों को दुनिया के महासागरों की गहराई में उतरने का मौक़ा मिलता है। ऐसी ही बहुत गहरी जगहों में से एक है मैरीआना ट्रेंच – इसका सबसे गहरा क्षेत्र समुद्र की सतह से 11 किलोमीटर नीचे है (ग़ौरतलब है कि एवरेस्ट की चोटी समुद्र की सतह से लगभग नौ किलोमीटर ऊपर है)। यह प्रशांत महासागर में स्थित संघीकृत राज्य माइक्रोनेशिया के 607 द्वीपों के उत्तर में है। वहाँ नीचे छह किलोमीटर की गहराई में हडल ज़ोन है जहाँ बिलकुल रौशनी नहीं है। इसका नाम ग्रीक़ मिथकों में पाताललोक के देवता हेडीज़ के नाम पर रखा गया है। एस्किलस के द पर्शियन्स में एक गीत में कहा गया है ‘हेडीज़, सब हर लेने वाला देवता, एक बार जो उसकी मुट्ठी में आए, फिर वो कभी न निकल पाए’। गहराई से लोग डरते हैं, यहाँ का अंधेरा हेडीज़ के दहकते नरक की याद दिलाता है।
जो गोताख़ोर पनडुब्बियों में महासागरों की तल तक गए हैं, वो बताते हैं कि छह किलोमीटर नीचे सच में घुप्प अंधेरा है। लेकिन बेहद गहरे पानी में भी उन्हें कुछ रौशनी दिखी और तब उन्होंने जाना की गहरे समंदर में रहने वाले जीव अपने अंदर से रौशनी पैदा करते हैं (इसे जीवदीप्ति या बायोलुमिनसेंस कहा जाता है)। ल्यूसिफ़ेरिन (रौशनी पैदा करने वाला मालक्यूल) और ल्यूसिफ़ेरेज़ (एक एनज़ाइम), आपस में मिलकर फ़ोटॉन पैदा करते हैं और इसके ज़रिए वो या तो अपने साथी को आकर्षित करते हैं या खाने के लिए शिकार को। इन दोनों के नाम लैटिन भाषा से आए हैं जिसका मतलब होता है ‘रौशनी लाने वाला’। एक नए शोध से पता चला है कि गहरे समंदर में रहने वाले सतहत्तर प्रतिशत जीव ख़ुद रौशनी पैदा करने की क्षमता रखते हैं। इनमें एककोशिकीय शैवाल जैसे जीव भी शामिल हैं, जिन्हें हम बिना किसी उपकरण की मदद के देख भी नहीं सकते और विशाल स्क्विड भी, जिनकी लम्बाई तेरह मीटर तक हो सकती है। इन गहराइयों में बहुत ख़ास जीव रहते हैं जो न सिर्फ़ अंधेरे में रहने के आदी हो चुके हैं, बल्कि पानी के भारी दबाव के भी (समुद्र की सतह के 14.7 पाउंड प्रति वर्ग इंच या पीएसआई के मुक़ाबले 16,000 पीएसआई)। इंसान इन जीवों को बहुत अजीब समझता है और उनके नाम भी ऐसे ही दिए हैं: गोब्लिन शार्क, डंबो ऑक्टपस,वैम्पायर स्क्विड, ज़ोम्बी वर्मस, हाफ़-नेकेड हैचेट मछली। ये जीव सिर्फ़ अपनी अद्भुत आँखों और मुँह के सहारे ही ज़िंदा नहीं रहते, बल्कि वो रौशनी भी इनके ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी है जो ये ख़ुद अंधेरे से लड़ने के लिए पैदा करते हैं।
धरती पर प्राकृतिक और मनुष्य का इतिहास अस्तित्व के संघर्ष से परिभाषित होता है। कोई भी जीव या पेड़-पौधे अपने सामने आने वाली बड़ी चुनौतियों के सामने हार नहीं मान लेते। संघीकृत राज्य माइक्रोनेशिया के पोह्नपेइ के तटों पर कुछ फूल उगते हैं – जैसे खूबसूरत नारंगी, गुलाबी और लाल तटीय जवाकुसुम या हिबिस्कस – ये रेतीली ज़मीन में पैदा होते हैं और जब समंदर का खारा पानी इन पर पड़ता है तो खिल उठते हैं। 2013 में पोह्नपेइ के कवि एमिली किह्लेंग की कविता ‘टाइड’ इस प्रतिरोध को पेश करती है::
ज्वारभाटा मुझे खींचता है
ये याद है खोयी हुई चीज़ों की
और उनकी जो लौट आईं।
मैं किनारे खड़ी,
रेत में पैर धँसाए,
सोचती हूँ कि समंदर को क्या याद हूँ मैं।
दूसरे महायुद्ध में पोह्नपेइ पर बमबारी नहीं हुई थी और यह उन परमाणु परीक्षणों से भी बचा रहा जिनका प्रभाव बिकिनी ऐटॉल (1946 और 1958 के बीच अमेरिका द्वारा 23 परमाणु परीक्षण किए गए) और एनेवेटक एटोल (1948 और 1956 के बीच 43 परमाणु परीक्षण) पर पड़ा, ये दोनों क्रमश: लगभग 900 से 600 किलोमीटर दूर हैं।
1943 में जाँ कोक्टो ने ‘शैतानी मशीन’ शीर्षक से नाटक लिखा। इसमें हेडीज़ की कहानी से वाक़िफ़ डेल्फ़ी की भविष्यवक्ता महिला संत बुद्धिमान एडिपस से कहती है, ‘पाताललोक अब धरती की दुनिया का प्रतिबिम्ब नहीं रहा, जहाँ हमें सिर्फ़ एक ही चेहरा, एक ही नियति और एक ही साया मिलता है’। लेकिन असल में डेल्फ़ी की भविष्यवाणी ग़लत निकली। गहराई में हेडीज़ के दरवाज़े के पास रहने वाले जीव अपने हालात के सामने बिखर नहीं जाते बल्कि थोमस हॉब्ज़ के मंत्र Bellum omnium contra omnes (सबकी लड़ाई सबके ख़िलाफ़ या अस्तित्व का संघर्ष) की सचाई के बावजूद अपनी रौशनी ख़ुद पैदा करते हैं, प्रजनन के लिए और बचे रहने के लिए। जब मैंने समुद्र की गहराई में रहने वाले इन बायोलुमिनसेंट जीवों के बारे में पढ़ा तो मुझे इनके अस्तित्व की प्रतीकात्मकता ने ज़्यादा प्रभावित किया बजाय विकासवादी पहलू के: क्या इनकी यह अंदरूनी रौशनी पैदा करने की क्षमता महज़ एक बायोकेमिकल प्रतिक्रिया है या इसे प्रतिरोध के रूप में देखा जा सकता है?
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने अपना 83 वां डोसियर (दिसंबर 2024) लोकलुभावनवाद की ग़लत अवधारणा और वामपंथ के समक्ष चुनौतियाँ: उत्तरी अटलांटिक की राजनीति का एक समग्र विश्लेषण विषय पर प्रकाशित किया है। यह अमेरिका में डॉनल्ड ट्रम्प की चुनावी जीत से प्रेरित है लेकिन काफ़ी हद तक पुराने उदारवाद और सामाजिक लोकतंत्रवाद के कुछ हलकों की इस समझ पर भी टिका है कि एक ख़ास क़िस्म के चरम दक्षिणपंथ के आगमन से ही मानवता के सामने समस्याएँ खड़ी हो गयी हैं। अमेरिका और उसके साथी देश ग्लोबल दक्षिण को जिस तरह डराते और दबाते हैं वह सिर्फ़ ट्रम्प की देन तो नहीं है। ट्रम्प का जन्म 1946 में हुआ था जिसके एक साल पहले यूएस हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरा चुका था और कोरियाई प्रायद्वीप पर अतिक्रमण (1945) कर चुका था। जब ट्रम्प सिर्फ़ एक बच्चे थे, तब यूएस कोस्टा रिका (1948), सीरिया (1949), ईरान (1953) और ग्वाटेमाला (1954) के चुनावों में हस्तक्षेप कर चुका था। ट्रम्प ने अब्राहम समझौतों (2020) के ज़रिए इज़राइल के क्षेत्रीय आक्रमण के लिए ज़रूर ज़मीन तैयार की लेकिन उन्होंने इज़राइल को जनसंहारक युद्ध के लिए ख़तरनाक हथियार देने के फ़ैसले पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। फिर अमेरिका ही उत्तरी अटलांटिक में इकलौती शक्ति नहीं है जो इज़राइल को पैसे देने वालों को संरक्षण देती है।
ट्रम्प नवउदारवादी समझौते की उपज हैं। वो फ़्रैंकेन्स्टायन के बनाए दानव हैं। उनका अपने बलबूते पर अरबपति बनने का दावा उतना ही झूठा है, जितना कि अपने दम पर राजनेता बनने का दावा: दोनों ही क्षेत्रों में उन्हें उससे बड़ी ताक़तों ने बनाया है। जब पुराने उदारवादियों और कई सामाजिक लोकतंत्रवादियों ने कल्याणकारी नीतियों और सबकी भलाई के कामों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को किनारे कर दिया और लार टपकाते हुए नवउडरवाद की ओर बढ़ गए तो उत्तरी अटलांटिक के वोटरों के बड़े हिस्से में उन्होंने अपनी लोकप्रियता खो दी। इन पुराने उदारवादियों और कुछ सामाजिक लोकतंत्रवादियों ने राज्य का इस्तेमाल कर अतिरिक्त मुनाफ़े का बड़ा हिस्सा अरबपतियों की जमात तैयार करने में लगा दिया और फिर उन्हीं की नौकरियाँ करने लगे। चूँकि सत्ताधारी वर्ग अपना जनाधार खोने लगा तो वह अपना चुनावी वर्चस्व बरकरार रखने के लिए उपाय खोजने में लग गया। जिसका मतलब था पहले तो सेंटर लेफ़्ट के ज़रिए कल्याणकारी नीतियों के दोबारा उभर पाने की सभी संभावनाओं को ख़त्म करना (बर्नी सैंडर्ज़ के चुनावी अभियान को बर्बाद करना और जेरमी कॉर्बिन के ख़िलाफ़ षड्यंत्र इसके उदाहरण हैं) और उसके बाद ऐसे उम्मीदवारों की तलाश करना जो एक नए जनाधार को तैयार करने और उसे नियमित करने के लिए कुछ भी कहने के लिए राज़ी हों (बस ट्रम्प जैसे इन नए उम्मीदवारों को सबके सामाजिक श्रम से पैदा हुए अतिरिक्त मुनाफ़े को चंद अमीरों के बैंक खातों तक पहुँचाने के लिए बने तंत्र के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्धता दिखाना ज़रूरी था)। समय के साथ-साथ ट्रम्प और उसके जैसे ख़ास क़िस्म के चरम दक्षिणपंथ के दूसरे नुमाइंदे अपने वादे पूरे नहीं कर पाएँगे और जनता के बीच अपनी लोकप्रियता खो देंगे। जब ऐसा होगा तो सत्ताधारी वर्ग यानी पूँजीवादी फ़्रैंकेन्स्टायन किसी और जादूगर को खोज निकालेंगे जो एक गुमराह जनाधार को जादू दिखाएगा और दुनिया के मज़दूरों तथा किसानों पर क्रूरता जारी रखेगा।
उदारवादी टिप्पणीकार पूछते हैं कि ट्रम्प के राष्ट्रपति के तौर पर इस पारी के दुनिया के लिए क्या मायने हैं? नवउदारवादी समझौते के दुनिया के लिए क्या मायने रहे हैं? जब ‘अपेक्षाकृत कम ख़तरनाक’ नवउदारवादी समझौते के तहत – यूएस के बायडन, यूके के स्टार्मर, फ्रांस के मैक्रों, जर्मनी के शोल्ट्स (अपनी बेहूदा राजनीतिक पारी के अंत होने तक कनाडा के ट्रूडो) – सभी इस चल रहे जनसंहार में शामिल रहे हैं तो ट्रम्प और कितना ही बुरा कर सकते हैं। उन्होंने और उनके यारों ने ग़ज़ा में ‘काम ख़त्म करने’ की जो क़सम खाई है उसके अलावा शायद अब इतना ही बचा कि वो सही में डॉ. स्ट्रेंजलव की तरह मानव जाति का ख़ात्मा और दुनिया को तबाह कर दे। लेकिन जब धरती के विनाश की बात होती है तो नवउदारवादी समझौते से बंधे विशाल कॉर्परेशनों ने पर्यावरण के विनाश और जलवायु परिवर्तन के भयानक प्रभावों को नज़रंदाज़ करने के अलावा किया ही क्या है? ये तमाम नवउदारवादी ताक़तें बोलने की आज़ादी जैसे कुछ उदारवादी पहलुओं का समर्थन करने का दावा करती हैं लेकिन अटलांटिक की इन्हीं पुरानी उदारवादी और भूतपूर्व सामाजिक लोकतंत्रवादी ताक़तों ने ही आतंकवाद-विरोध के नाम पर ऐसी शक्तियाँ तैयार कीं जो बिना किसी रोक-टोक के शोषण करती हैं और अंतत: इन शक्तियों को ट्रम्प जैसे लोगों के सुपुर्द कर दिया जो बुनियादी तौर पर बोलने की और संगठित होने की आज़ादियों के ख़िलाफ़ हैं। पुराने उदारवादी और भूतपूर्व सामाजिक लोकतंत्रवादी दावा करते हैं कि कम-से-कम वे पितृसत्तात्मक या नस्लवादी तो नहीं हैं लेकिन यहाँ भी उनका रिकॉर्ड काफ़ी ख़राब है: यूएस से लोगों को बाहर निकालने की दर उदारवादी राष्ट्रपतियों के दौर में उतनी ही ऊँची रही है जितनी कि कंजरवेटिव राष्ट्रपतियों के कार्यकाल में, पुराने उदारवादियों और भूतपूर्व सामाजिक डेमोक्रैटस् ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ नहीं किया है, यह एक जुझारू संघर्ष बनने की बजाय सिर्फ़ एक शौक़िया क़वायद बनकर रह गया।
मैं गहरे समंदर के जीवों को अपने ज़हन से निकाल नहीं पा रहा। मैरी शैली के उपन्यास फ़्रैंकेन्स्टायन में एक जगह दानव कहता है कि हालाँकि उसे ‘उसका [अपने सर्जक का] आदम होना था’, लेकिन वह है ‘स्वर्ग से निष्कासित फ़रिश्ता’ (यानी लूसिफ़र, ईसाई धर्मशास्त्र में लूसिफ़र ही स्वर्ग से निकाले जाने के बाद शैतान बना)। लूसिफ़र नाम – ल्यूसिफ़ेरिन और ल्यूसिफ़ेरेज़ की तरह – लैटिन भाषा के उस शब्द से बना है जिसका मतलब है ‘रौशनी लाने वाला’। हालाँकि चौथी सदी में हीब्रू बाइबल के एक अनुवाद में पहली बार यह शब्द हीब्रू शब्द Heilel या ‘रौशन’ की जगह इस्तेमाल किया गया लेकिन जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट (1667) में इसका पहली बार स्वर्ग से निष्कासित फ़रिश्ते के लिए प्रयोग किया गया। क्या ऐसा हो सकता है कि ये दानव यानी ख़ास क़िस्म के चरम दक्षिणपंथ को अपने कंधों पर उठाए ट्रम्प जैसे लोग ही किन्हीं मायनों में ‘रौशनी लाने वाले’ हो सकते हैं जिनके विरोधाभासों में हमें नवउदारवादी समझौते के छलावों को साफ़-साफ़ देखने का मौक़ा मिलेगा? शायद ये ऐसा कर सकें लेकिन फिर भी ये और उत्तरी अटलांटिक के बाक़ी दानव इससे ज़्यादा और कुछ नहीं कर सकते। ये गहरे समंदरों के जीवों की तरह नहीं हैं। इनके अनुयायी बस कुछ देर के लिए इनके क़रिश्मे से प्रभावित हैं और जल्दी ही इनकी नाकामियों से हिल जाएँगे। तब जनता कहाँ जाएगी जब ख़ास क़िस्म के चरम दक्षिणपंथ से इनका मन ऊब जाएगा? युद्ध और भूख की बर्बर सचाई ने कई लोगों में इस अंदरूनी रौशनी के पैदा होने की संभावना को दबा दिया है, इन लोगों की आँखों से वो चिंगारी गुम हो गयी है जो आगे की राह को रौशन कर सकती है।
लेकिन यह चिंगारी बुझ नहीं सकती। हमेशा रौशनी की एकाध किरण ज़रूर रह जाती है। हैती के कवि पॉल लराक़ (1920-2007) ने अपनी कविता ‘Mourir’ (मर जाना) में गहरे पानी के फूलों और जीवों में नाचती हुई इन रौशनी की किरणों के बारे में अतियथार्थवादी ढंग से लिखा है। यह कविता 1979 में आए उनके संकलन Les armes quotidiennes: Poésie quotidienne (रोज़मर्रा के हथियार: रोज़मर्रा की कविता) में छपी थी:
सायों की लहरें उन्हें शून्य की ओर घसीट ले गईं,
समंदर के तल तक, जहाँ वे मूंगों के बीच सुस्ता रहे हैं,
जो खुलते हैं गुलाब की तरह, मछली का सुर्ख़ चमकीला नाच,
जहाज़ों की क़ब्रों में होती है हलचल, रेत मारती है ताने बहुत ज़्यादा।
मछली का सुर्ख़ चमकीला नाच, नयी दुनिया के लिए हमारा संघर्ष।
सस्नेह,
विजय