Skip to main content
newsletter

अश्वेत देशों की विराट आकांक्षाएँ: चौथा न्यूज़लेटर (2025)

अमेरिका एशियाई देशों के उदय को ‘तीखा मुक़ाबका’ मानता है, पर ग्लोबल दक्षिण के लिए ये घटनाक्रम संप्रभु विकास को आगे बढ़ाने के नए अवसर लेकर आए हैं।

बादलों के बीच पैसे का स्वाद, बासंजव चोईजिलजाविन (मंगोलिया), 2009.

प्यारे दोस्तो,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

काफ़ी दशकों से एक बात तो साफ़ हो चुकी है कि क़र्ज़, ख़र्चों में कटौती और संरचनात्मक समायोजन पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और वाशिंगटन कॉन्शेंसस का विकास का मॉडल सफल नहीं है। साम्राज्यवादी देशों के उपनिवेश रहे राष्ट्रों ने विपत्तियों का जो लंबा इतिहास झेला है, वो ख़त्म नहीं हुआ। मैडिसन प्रोजेक्ट डेटाबेस 2023 के आँकड़ों पर सरसरी नज़र डालने से ही पता चल जाता है कि 1980 से 2022 के बीच क्रय शक्ति के लिहाज़ से विश्व का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 689.9% बढ़ा है (18.8 खरब डॉलर से 148.5 खरब डॉलर)। लेकिन इसी दौर में विश्व में ग़रीबी की दर इसके अनुरूप नहीं घटी जिससे पता चलता है कि वैश्विक आर्थिक विकास के लाभों का वितरण तार्किक रूप से नहीं हुआ। इस रुझान का इकलौता अपवाद चीन है। संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (अंकटाड) की सबसे हालिया रिपोर्टए वर्ल्ड ऑफ़ डेट (क़र्ज़ की दुनिया) में बताया गया है कि वैश्विक सार्वजनिक क़र्ज़ 97 खरब डॉलर (2023) के आँकड़े के साथ अपने चरम पर था और 2010 से विकासशील देशों का सार्वजनिक क़र्ज़ विकसित देशों के मुक़ाबले दोगुनी रफ़्तार से बढ़ा है। इसमें कोई अचम्भे की बात नहीं कि विश्व बैंक और आईएमएफ जैसे संस्थानों ने दशकों से ग्लोबल दक्षिण के देशों को यही समझाया है कि क़र्ज़ से निकलने का एक ही रास्ता है- और क़र्ज़। 1998 में द वॉल स्ट्रीट जर्नल  ने साफ़-साफ़ लिखा कि आईएमएफ ‘आर्थिक समस्याओं की आग़ बुझा नहीं रहा बल्कि उसमें घी डाल रहा है’।

ब्रह्माण्ड के परे, पौला नीचो कुमेज़ (ग्वाटेमाला), 2005

1980 में राष्ट्रपति जूलियस न्येरेरे के नेतृत्व में तंज़ानिया की सरकार ने South-North Conference on the International Monetary System and the New International Order (अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था और नवीन अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था पर दक्षिण-उत्तर का सम्मेलन) का आयोजन किया। इस सम्मेलन से ‘अरुशा इनिशिएटिव’ सामने आया, जिसके तहत एक नए अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक प्राधिकरण के निर्माण का आह्वान किया गया जो लोकतांत्रिक प्रबंधन और नियंत्रण में हो, एक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा इकाई के साथ, जो विनिमय के अंतरराष्ट्रीय साधन और प्राथमिक आरक्षित संपत्ति दोनों के रूप में काम करे। ‘अरुशा इनिशिएटिव’ का मत था कि ‘दुनिया अब और ऐसी स्थिति में नहीं रह सकती, जहाँ एक देश अपनी मुद्रा दूसरों पर थोपकर यह भूमिका निभाएऔर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर धन का अनियंत्रित सृजन और अंतर्राष्ट्रीय सट्टा लगाए जाने की इजाज़त दी जाए। यह सम्मेलन उस दौर में हुए इसी तरह के कई सम्मेलनों में से एक था, जब तीसरी दुनिया के देशों के क़र्ज़ का संकट सामने खड़ा था और साफ़ दिखाई दे रहा था कि मुद्राकोष की नीतियाँ अगर लागू हुईं तो उनसे सिर्फ़ बर्बादी आएगी विकास नहीं। न्येरेरे ने सम्मेलन में अपने भाषण में सवाल उठाया कि आईएमएफ कब अंतर्राष्ट्रीय वित्त मंत्रालय बन गया?’ ‘दुनिया के देशों ने कब अपने निर्णय लेने की शक्ति इसके सुपुर्द कर दी?…आईएमएफ अधिकारियों के राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना भी मेरे देश और तीसरी दुनिया के अन्य देशों के सामने बहुत सी समस्याएँ खड़ी हैं। अगर वे हमारी मदद नहीं कर सकते तो कम-से-कम दखलंदजी भी बंद कर दें

अगल-बगल, डिन थी थाम पूंग (वियतनाम), 2020.

न्येरेरे जैसे तीसरी दुनिया के नेताओं के विरोध के बावजूद आईएमएफ का ‘दख़ल’ जारी रहा। न्येरेरे ने अपने भाषण का अंत हवा में हाथ हिलाकर यह कहते हुए किया: ‘मुझे लगता है कि वर्तमान परिस्थितियों में वे हर तरह के त्याग के लिए तैयार रहेंगे और मौजूदा हालात ने जो बोझ हम पर थोपे हैं, उन्हें वे तब तक सहेंगे जब तक उन्हें भरोसा है कि हम भी समान रूप से बोझ उठाते रहेंगे और अपनी नीतियाँ लागू करते रहेंगे’। लेकिन ये ‘अपनी’ नीतियाँ कौन सी हैं? यह न तो इस सम्मेलन में तय हुआ और न ही न्येरेरे के आगे के पाँच साल के कार्यकाल में। 1986 में जब न्येरेरे ने अपना पद छोड़ा तो तंज़ानिया की सरकार आईएमएफ के पास गई और इकनॉमिक रिकवरी प्रोग्राम को स्वीकार कर लिया जिसके तहत सार्वजनिक क्षेत्र के ख़र्च में कटौती की गई और विदेशी मुद्रा विनिमय को नियंत्रण मुक्त कर दिया गया। तंज़ानिया के सामने इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था इसलिए उसे आईएमएफ के सामने घुटने टेकने पड़े और न्येरेरे ने उजामा  की सहकारी विकास की जो नीतियाँ लागू की थीं, उनसे पीछे हटना पड़ा।

हर कुछ सालों में ग्लोबल दक्षिण ऐसी ही प्रक्रिया से गुज़रता है। आईएमएफ और इसकी क़र्ज़-मितव्ययिता के राज के आगे घुटने टेकने के बाद एक न टाले जा सकने वाला संकट आ जाता है जो राजनीतिक उथल-पुथल को जन्म देता है। इसके बाद नई ताक़तें उभरती हैं जो इस संकट से उबारने की नई राह का वादा करती हैं, नई सरकारें बनती हैं और कई प्रयोगों के बाद ये देश लौटकर आईएमएफ के पास ही जाते हैं, और फिर से वही सब शुरू होता है। न्येरेरे ने जैसा कहा था कि ‘अपनी नीतियों’ के तैयार किए जाने के बावजूद शक्तियों का संतुलन इतना ख़िलाफ़ है कि कोई भी स्वतंत्र अजेंडा बन नहीं पाया। एक नई अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था की हर उम्मीद को दबा दिया जाता है। आईएमएफ से अलग ढंग की नीतियों के लिए किसी तरह की रियायती वित्तीय सहायता नहीं है।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने अंतिम भाषण में कहा था, ‘एक बहुत ही तीखा मुक़ाबला चल रहा है – वैश्विक अर्थव्यवस्था, तकनीक, मानवीय मूल्यों और भी न जाने कितने कुछ को लेकर’। उन्होंने कहा कि इस ‘वैश्विक प्रतियोगिता’ में एक तरफ़ अमेरिका और उसके सहयोगी हैं और दूसरी तरफ़ ‘ईरान, रूस, चीन, उत्तर कोरिया’ है, और यूएस इसमें ‘जीत’ रहा है। यह भाषण बहुत बचकाना है। किसी भी और देश ने इस तरह की ‘प्रतियोगिता’ की बात नहीं की है। जब अजेंसे फ़्रांस-प्रेस के रिपोर्टर ने चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता कुओ चियाखुन से इस बयान पर सवाल किया तो उन्होंने शांति से जवाब देते हुए कहा, ‘पिछले चार साल में चीन-यूएस के रिश्ते में कई उतार-चढ़ाव आए हैं लेकिन इस सबके बावजूद पूरे समय इसमें स्थिरता रही है’। उनके जवाब में किसी तरह का आवेश नहीं था। इसके बाद की उनकी बातों में ख़ास शब्द रहे ‘मशविरा’, ‘बातचीत’ और ‘सहयोग’। लेकिन बाइडन की एक बात में तो दम है। चीन और अन्य एशियाई देशों में सामान और ग्लोबल दक्षिण के औद्योगिकरण के लिए वित्तीय आवश्यकता की माँग बढ़ने से दुनिया में शक्ति का संतुलन विकासशील देशों की ओर झुक गया है। अब उन्हें आईएमएफ पर निर्भर नहीं रहना पड़ रहा। दुनिया में व्यापार और तकनीक का केंद्र बदल रहा है।

चूँकि यह बदलाव अमेरिका और यह जिस एकाधिकार वाली पूँजी का नेतृत्व करता है, दोनों के लिए नुक़सानदायक है, इसलिए यूएस ने इस परिस्थिति को ‘प्रतियोगिता’ बताना शुरू कर दिया है। जबकि ये देश बड़ी आर्थिक शक्तियाँ बनकर इसलिए उभर रहे हैं क्योंकि इन्हें विकसित होने का अधिकार है। ट्राईकॉटिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान इस परिस्थिति को ‘प्रतियोगिता’ के रूप में नहीं देखता, जैसा कि बाइडन का मानना है, बल्कि एक अवसर के तौर पर देखता है। जैसे-जैसे वित्त और निवेश के नए स्रोत सामने आ रहे हैं ग्लोबल दक्षिण के देशों को ‘अपनी नीतियाँ लागू’ करने के नए अवसर मिलेंगे जैसा कि न्येरेरे ने आधी सदी पहले कहा था। ये नई नीतियाँ क्या होंगी?

अपने नए डोसियर ग्लोबल साउथ के लिए विकास की नयी अवधारणा की ओर (ग्लोबल साउथ इन्सायट्स के साथ मिलकर) में यह विचार पेश किया गया कि जीडीपी में कुल पूँजी निर्माण के हिस्से और आर्थिक विकास के बीच बहुत गहरा अंतर्संबंध है। सरल शब्दों में, किसी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए ज़रूरी है कि नई अचल सम्पत्ति (इमारतें, इंफ़्रास्ट्रक्चर या औद्योगिक मशीनें) में निवेश किया जाए। हमने प्रति व्यक्ति जीडीपी और जीवन प्रत्याशा के बीच आँकड़ों के नज़रिए से बेहद अहम अंतर्संबंध भी दिखाया। इन निष्कर्षों से साफ़ होता है कि सिर्फ़ प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और सट्टा आधारित वित्तीय प्रवाह से ही सामाजिक विकास के मानकों में सुधार नहीं आएगा। विकास के अजेंडे के लिए वित्तीय निवेश की गुणवत्ता अहम है और इसके केंद्र में औद्योगिकरण की प्रक्रिया है। आधुनिक मशीन उद्योग के बिना कोई भी देश विकसित नहीं हुआ है, और – जहाँ तक हम अपने समय में बता सकते हैं – किसी भी देश के लिए अपनी औद्योगिक क्षमता का निर्माण किए बिना विकास करना संभव नहीं है। हमें निर्माण के लिए निवेश करना चाहिए, विकास के लिए निर्माण करना चाहिए और लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए विकास करना चाहिए।

आलिंगन, सलीमेन एल्कामेल (ट्यूनिशिया), 2022.

हमारा संस्थान अगले कुछ सालों में विकास की नई अवधारणा के तमाम पहलुओं पर शोध करेगा। बाइडन जिसे ‘प्रतियोगिता’ कहते हैं, हम उसे ऐसा अवसर मानते हैं जिसे गंवाया नहीं जा सकता। डोसियर की आख़िरी कुछ लाइनों में काव्यात्मकता है:

अफ्रीकी क्रांतिकारी एमिलकर कब्राल ने हमें सिखाया है कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता का लक्ष्य ‘राष्ट्रीय उत्पादक शक्तियों के विकास की प्रक्रिया को मुक्त करना है’। इसलिए ग्लोबल दक्षिण के लिए विकास की एक नई अवधारणा तैयार करना साम्राज्यवाद और नवउपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ हमारे संघर्षों की ज़ड़ों की ओर लौटना भी है। ऐसा करके हम अश्वेत देशों की विराट आकांक्षाओं की राह तैयार करेंगे।

सस्नेह,

विजय