प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
सैंटियागो, चिली की दीवारों पर लाल रंग से लिखा हुआ है: ‘तुम्हारे विशेषाधिकार सार्वभौमिक नहीं हैं’। यह एक तथ्यात्मक घोषणा है, क्योंकि सत्ता और संपत्ति के विशेषाधिकार वर्गों के बीच बराबरी से विभाजित नहीं हैं। ज़रा इस तथ्य पर ध्यान दें कि पिछले साल महामारी शुरू होने से पहले, स्वास्थ्य देखभाल दुनिया के 300 करोड़ से भी अधिक लोगों –यानी दुनिया की आधी आबादी– की पहुँच से बाहर थी। यह आँकड़ा 2017 की विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट का है, जिसमें बुनियादी घरेलू स्वच्छता और अनियंत्रित उच्च रक्तचाप के लिए चिकित्सकीय देखभाल की उपलब्धता जैसे महत्वपूर्ण बिंदुओं पर आँकड़े लिए जाते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार, बुनियादी घरेलू स्वच्छता दुनिया के 230 करोड़ लोगों की पहुँच में नहीं है, जबकि अनियंत्रित उच्च रक्तचाप से पीड़ित 100 करोड़ लोगों के पास चिकित्सकीय देखभाल उपलब्ध नहीं है।
द इनइक्वलिटी वायरस के नाम से 25 जनवरी 2021 को प्रकाशित हुई ऑक्सफ़ैम की एक रिपोर्ट की मानें तो, ‘महामारी अब तक के उपलब्ध सभी आँकड़ों में से असमानता की सबसे बड़ी वृद्धि का कारण बन सकती है, क्योंकि इसका कई देशों में एक साथ और ठोस असर हुआ है’। महामारी से पहले की गई विश्व बैंक की एक गणना के अनुसार 200 करोड़ लोग ‘ग़रीबी में रहते हैं, अर्थात्, अपने स्वयं के समाजों द्वारा एक सम्मानजनक जीवन के लिए निर्धारित मानकों से नीचे रहते हैं’। संयुक्त राष्ट्र संघ का अनुमान है कि महामारी से शुरू हुई नौकरियों के संकट के कारण इस दशक के अंत तक 50 करोड़ और लोग ग़रीब हो जाएँगे; विश्व बैंक का भी यही अनुमान है।
विश्व बैंक के विश्लेषकों ने लिखा है कि ‘महामारी के बाद नये ग़रीबों के लिए भीड़भाड़ वाले शहरी इलाक़ों में रहने और लॉकडाउन तथा आवागमन प्रतिबंधों से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए क्षेत्रों में काम करने की संभावना अधिक है; कई [नये ग़रीब] अनौपचारिक सेवा क्षेत्रों में काम कर रहे हैं और मौजूदा सामाजिक सुरक्षा सुविधाओं की पहुँच से बाहर हैं‘। ये वो करोड़ों लोग हैं जो लगातार क़र्ज़ और निराशा की ओर धकेले जाएँगे, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा जिनकी पहुँच से बाहर होती जाएगी, जबकि भुखमरी के आँकड़े बढ़ेंगे।
ऊपर जो कुछ भी लिखा गया है वह अतिशयोक्ति नहीं है। यह सभी आँकड़े विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व बैंक जैसे मुख्यधारा के संगठनों के शोधकर्ताओं और विश्लेषकों ने दिए हैं। ये संगठन पूँजीवादी नीति के दुष्प्रभावों को बढ़ाकर नहीं पेश करते; निजीकरण और कॉर्पोरेट–आधारित नीतियों के ख़तरों को कम करके दिखाने और सार्वजनिक सुविधाओं में अधिक कटौती करने का आग्रह करने की इनकी प्रवृत्ति ज़रूर रही है। डब्ल्यूएचओ (1998-2003) के संचालन में ग्रो हार्लेम ब्रुन्डलैंड के कार्यकाल के दौरान, इस संगठन ने निजी–सार्वजनिक भागीदारी (पीपीपी) और उत्पाद विकास साझेदारी (पीडीपी) के निर्माण को बढ़ावा दिया। डब्ल्यूएचओ की ओर से निजी क्षेत्र को बढ़ावा देने पर ज़ोर –और सार्वजनिक ख़र्च में कटौती करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव– ने कई ग़रीब देशों की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों को बर्बाद कर दिया।
जब डब्ल्यूएचओ को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों को विकसित करने और क्षेत्रीय और राष्ट्रीय फ़ार्मास्युटिकल उत्पादन प्रणालियों के निर्माण के संघर्ष का नेतृत्व करना चाहिए था, तब इस संगठन ने वैक्सीन और टीकाकरण के लिए ग्लोबल अलायंस (जीएवीआई) जैसे पीपीपी प्लेटफ़ार्मों को बढ़ावा दिया; अन्य एजेंसियों के साथ बेहद कम कोष के साथ काम करने वाला जीएवीआई अब कम आय वाले देशों को कोविड-19 टीके उपलब्ध कराने की बात कर रहा है। जिन लोगों ने वैश्विक स्तर पर कटौतियाँ करने की अगुवाई की और दुनिया की संभावनाओं को बंजर बना दिया, वही लोग अब असमानता के वायरस के ख़तरों पर बात कर रहे हैं।
असमानता के बारे में चिंतित होना काफ़ी नहीं है। दुनिया भर के जन–संगठन जिन संभावित सुधारों की माँग कर रहे हैं, ज़रूरत है उन्हें लागू करने की। इनमें से दो माँगें हैं:
- नि:शुल्क सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल:- कोस्टा रिका और थाईलैंड जैसे ग़रीब देशों के साथ–साथ सभी समाजवादी देशों में यह प्रणाली पहले ही स्थापित की जा चुकी है। दुनिया के हर देश का यही उद्देश्य होना चाहिए।
- जनता के लिए वैक्सीन:- जनता के लिए वैक्सीन की उपलब्धता की माँग बढ़ रही है। इसे सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि कोविड-19 वैक्सीन के लिए सभी पेटेंटों तक खुली पहुँच देने के साथ–साथ कम आय वाले देशों और सार्वजनिक क्षेत्र में दवा उत्पादन सुविधाओं का निर्माण किया जाए।
बाहरी ऋण चुकाने के लिए दिए जाने वाले धन से ये दोनों बुनियादी क़दम उठाए जा सकते हैं। लेकिन लोगों को तत्काल राहत प्रदान करने वाले ऐसे तार्किक समाधानों को नज़रंदाज़ किया जाता है। कटौतियों से उत्पन्न हुई समस्याओं के बारे में कड़े शब्द लिखने के बावजूद और अधिक कटौतियों की माँग की जाएगी, जिससे और अधिक सामाजिक अशांति पैदा होगी।
दुनिया के लोगों के सामने खड़ी वास्तविक समस्याओं पर ध्यान देने और जन–संगठनों की लोकतांत्रिक माँगों को मानने की बजाय एक–के–बाद एक आने वाली सरकारों ने अलोकतांत्रिक तौर–तरीक़े अपनाए हैं। उदाहरण के लिए, दक्षिणपंथी सरकार द्वारा पारित किए गए तीन कृषि–विरोधी क़ानूनों के ख़िलाफ़ भारत के किसान और खेत–मज़दूर महीनों से संघर्ष कर रहे हैं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार जानती है कि बड़ी पूँजी –अडानी और अंबानी परिवारों– के प्रति उसकी प्रतिबद्धता ही उसे किसानों और खेत–मज़दूरों के साथ किसी भी प्रकार की गंभीर बातचीत से रोक रही है। इसके बावजूद, सरकार ने किसानों और खेत–मज़दूरों को आतंकवादी और राष्ट्र–विरोधी दिखाने का प्रयास किया।
जब यह चाल काम नहीं आई तो सरकार किसानों के संघर्ष के बारे में लिखने और उसे दिखाने वाले मीडियाकर्मियों, संवाददाताओं और मीडिया संस्थानों के पीछे पड़ गई। जिन लोगों ने किसानों के संघर्ष के बारे में रिपोर्ट दिखाया या प्रदर्शनकारियों के साथ एकजुटता में उनके आंदोलन में भाग लिया उन्हें गिरफ़्तार किया गया। पत्रकार मनदीप पुनिया, श्रमिक अधिकार कार्यकर्ता नवदीप कौर और किसानों का समर्थन करने के लिए एक टूलकिट बनाकर जनता के साथ शेयर करने वाली कार्यकर्ता दिशा रवि को गिरफ़्तार किया गया है। और, क़ानून को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए, सरकार ने न्यूज़क्लिक के ख़िलाफ़ छापेमारी की जो 113 घंटे तक चली। न्यूज़क्लिक विरोध प्रदर्शनों को कवर करने वाले प्रमुख मीडिया संस्थानों में से एक है। मनी–लॉन्ड्रिंग जैसे आरोप लगाकर न्यूज़क्लिक की छवि ख़राब करने की कोशिश की गई, जिसने अपनी अग्रिम पंक्ति की रिपोर्टिंग के माध्यम से लाखों पाठकों और दर्शकों का भरोसा हासिल किया है और किसानों की भावनाओं को मज़बूत किया है तथा उनकी माँगों को उठाया है।
इस बीच, भारत के शिक्षा मंत्रालय ने 15 जनवरी को एक आदेश जारी किया है, जिसके तहत ऐसे किसी ऑनलाइन सम्मेलन या वेबिनार, जिसमें भारत के ‘आंतरिक मामलों‘ पर चर्चा होगी या जिसे विदेशी आर्थिक मदद हासिल होगी, के लिए सरकार की मंज़ूरी लेने की आवश्यकता होगी। इसी तरह, फ़्रांस की सरकार ने ‘इस्लाम–वामपंथी’ विचारों को बढ़ावा देने वाले उन अकादमिक अनुसंधान की जाँच की प्रक्रिया शुरू कर दी है जो उनके उच्च शिक्षा मंत्रालय के अनुसार ‘समाज को भ्रष्ट‘ करने वाला है। व्यवस्था के नाम पर बोलने की आज़ादी आसानी से छीन ली जा सकती है। लोकतंत्र की औपचारिक प्रकृति की कमज़ोरियाँ उजागर हो चुकी हैं। न्यूज़क्लिक पर हुई छापेमारी और फ़्रांस में अकादमिक अनुसंधान की जाँच से लोकतांत्रिक आदर्शों और सरकारों द्वारा अपनाए जाने वाले तरीक़ों के बीच की खाई स्पष्ट हो गई है।
फ़्रांस की जनता को राहत प्रदान करने के लिए 364 बिलियन डॉलर के पीजीई कार्यक्रम के बावजूद, वहाँ असमानता और बेरोज़गारी बड़ी समस्या है। इन पर ध्यान देने की बजाय, फ़्रांस की सरकार ने एक मनगढ़ंत विरोधी –इस्लाम–वामपंथी– से लड़ने की ठानी है। ठीक इसी तरह, महामारी के कारण बड़े पैमाने पर विस्थापित हुई जनता की समस्याओं और बढ़ती सामाजिक निराशा का समाधान करने के बजाय भारत की सरकार ने किसानों और उनकी माँगों के प्रति संवेदनशील मीडिया संस्थानों के ख़िलाफ़ जंग छेड़ रखा है। ये दोनों औपचारिक रूप से लोकतांत्रिक देश अपने संविधान और क़ानूनों का पालन करते हैं, और चुनाव व अन्य सार्वजनिक सुनवाई की प्रक्रियाओं को पूरा करते हैं। लेकिन आधुनिक लोकतंत्र के आड़ में वास्तव में ये देश अपनी जनता की माँगों और उसकी पीड़ा को सुन पाने में असफल रहे हैं; ये देश अपने समाजों के लिए अधिक जीवंत भविष्य बनाने की संभावना के प्रति असंवेदनशील बने हुए हैं।
पाकिस्तान में सेना की तानाशाही के दौर में, कम्युनिस्ट कवि हबीब जालिब ने लिखा था :
कहीं गैस का धुआँ है, कहीं गोलियों की बारिश
शब–ए–अहद–ए–कमनिगाही तुझे किस तरह सुनाएँ।
तुम्हारे विशेषाधिकार सार्वभौमिक नहीं हैं, क्योंकि तुम मुट्ठी भर लोगों को जनता के व्यापक सामाजिक धन के माध्यम से विशेषाधिकार मिलता है; और जनता जब अपना पक्ष सामने रखती है, तो तुम आँसूगैस और गोलियों की बारिश करते हो। तुम्हें लगता होगा कि तुम्हारी अदूरदर्शिता तुम्हारे इस सपने को बरक़रार रखेगी। हमें लोगों की आशाओं और उनके संघर्षों पर विश्वास है, इतिहास को आगे बढ़ाने की जिनकी चाहत तुम्हारे दमन के दिनों को ख़त्म कर देगी।
स्नेह–सहित,
विजय।
मैं हूं ट्राईकॉन्टिनेंटल:
एड्रियान पुलेरो, शोधकर्ता, अर्जेंटीना कार्यालय।
मैं संचार, मीडिया और सूचना प्रौद्योगिकी पर बने शोध समूह का कार्यभार देखता हूँ। हम मीडिया प्रणालियों के विकास और सामाजिक प्रथाओं व राजनीतिक प्रक्रियाओं के साथ उनके संबंधों का अध्ययन करते हैं। मैंने कई लेखों के प्रकाशन में भी भाग लिया है, जैसे “प्राइवेट प्रॉपर्टी, मेरिटोक्रेसी एंड एंटी–इगैलिटेरीयनिज़्म: द डिस्कॉर्स ओफ़ द डॉमिनेंट सेक्टर्स इन द आर्जेंटीन क्राइसिस” और “द इंटर्नेट, सोशल मीडिया, एंड बिग डेटा: कल्चर एंड कम्यूनिकेशन अंडर डिजिटल कैपिटलिज़म“। साल 2021 में भी हम इन्हीं मुद्दों पर अध्ययन जारी रखेंगे।