प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
13 जुलाई 2021 को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) ने नस्लवाद तथा समाज में अंतर्निहित नस्लवाद और असहिष्णुता के मूल कारणों की पड़ताल के लिए तीन विशेषज्ञों की स्वतंत्र कमेटी के गठन के बारे में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया। अफ़्रीकी देशों के समूह ने इस प्रस्ताव को पास करने के लिए दबाव बनाया था। यह समूह 25 मई 2020 को मिनियापोलिस पुलिस द्वारा जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या के बाद दुनिया भर में उभरे ग़ुस्से के परिणामस्वरूप बना था। यूएनएचआरसी में पुलिस की बर्बरता की समस्याओं से लेकर दासता और उपनिवेशवाद के समय में स्थापित हुई इस आधुनिक व्यवस्था के गठन के बारे चर्चा की गई। कई पश्चिमी देश -जैसे कि संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम- नहीं चाहते थे कि अतीत का आकलन हो या अतीत में की गई ग़लतियों के सुधार पर चर्चा हो; ये सरकारें अमेरिकी क़ानूनों में अंतर्निहित व्यवस्थित नस्लवाद की जाँच की आवश्यकता से बचने में कामयाब रहीं।
दासता और उपनिवेशवाद के कारण चुकाई गईं क़ीमतों को मान्यता दिलवाना ही दुनिया की अधिकांश आबादी की एक बुनियादी माँग है। अटलांटिक क्षेत्र में दास व्यापार 777 ट्रिलियन डॉलर का व्यापार था और भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की क़ीमत थी लगभग 45 ट्रिलियन डॉलर; ये आंशिक आँकड़े हैं, लेकिन फिर भी ज़रूरी हैं। 46.5 मिलियन डॉलर प्रति टन की वर्तमान लागत पर अब तक खनन किए गए कुल 1,91,900 टन सोने की कुल क़ीमत केवल 9 ट्रिलियन डॉलर है -जो कि दासता और उपनिवेशवाद के व्यापार से बहुत कम है। इसीलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कुछ सरकारें दासता और उपनिवेशवाद से छूटे लोगों को मुआवज़े दिए जाने के सवाल पर विचार करने को तैयार नहीं हैं। और, मुआवज़े पर किसी भी सार्थक चर्चा से अक्सर यह तथ्य छुपाया जाता है कि औपनिवेशिक शासकों को उनकी आय के स्रोत के नुक़सान की भरपाई के लिए भारी मुआवज़े चुकाए गए थे। हैती के ग़ुलाम लोगों के फ़्रांसीसी मालिकों ने क्रांतिकारी हैती सरकार से 1947 तक लगभग 28 बिलियन डॉलर मुआवज़े के रूप में लिए थे, उनकी संपत्ति -यानी मानव व्यापार- की क्षतिपूर्ति करने के लिए। इसी तरह, ब्रिटेन ने 1833 के ग़ुलामी उन्मूलन अधिनियम के बाद इंसानों के अंग्रेज़ी मालिकों को भारी मुआवज़ा दिया; ट्रेजरी के अनुसार, ब्रिटिश करदाता 2015 में जाकर यह भुगतान पूरा कर पाए।
दुनिया की आधी से अधिक आबादी को मानवता से वंचित रखना हमारी विश्व व्यवस्था के व्यापक ढाँचे का हिस्सा है। आज, 2021 में भी किसी अफ़ग़ानी नागरिक की जान की क़ीमत एक अमरीकी सैनिक की जान से भी कम करके बताई जाती है। जब 1984 में भोपाल में अमेरिकी फ़ैक्ट्री में विस्फोट के कारण 20,000 से अधिक लोग मारे गए, तो अमेरिकन साइनामाइड के चिकित्सा निदेशक एच. माइकल यूटिड्जियन ने दुख व्यक्त किया लेकिन कहा कि इस घटना को संदर्भ में देखा जाना चाहिए। संदर्भ? यूटिड्जियन ने कहा कि ‘भारतीयों’ के पास ‘मानव जीवन के महत्व का उत्तर अमेरिकी दर्शन’ नहीं है। यूटिड्जियन और कई अन्य लोगों के लिए, उनके जीवन त्याज्य हैं, उन 16 लाख अफ़्रीकियों के जीवन की तरह त्याज्य, जो हर साल श्वसन तंत्र की बीमारियों या दस्त लगने से मर जाते हैं।
दस्त लगने से होने वाली लगभग सभी मौतें साफ़-सफ़ाई और शौचालयों की कमी और गंदे पानी के कारण होती हैं। ये ऐसी समस्याएँ हैं जिन्हें बेहतर बुनियादी ढाँचे का निर्माण करके ठीक किया जा सकता है। बड़ी आबादी वाले छः देश -कांगो, गाम्बिया, घाना, केन्या, सिएरा लियोन और जाम्बिया- स्वास्थ्य और शिक्षा पर कुल ख़र्च से कहीं ज़्यादा अपने क़र्ज़ उतारने में ख़र्च करते हैं। यह उन लोगों की उपेक्षा का और भी भयानक सबूत है, जिन्होंने उपनिवेशवाद को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी, लेकिन जिन्हें शक्तिशाली देश -अपने सतही उदारवाद के बावजूद- कमतर और कमज़ोर देखते हैं।
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के जोहानेसबर्ग (दक्षिण अफ़्रीका) कार्यालय ने संघर्षों के इतिहास को उजागर करने में अपनी ऊर्जा इसलिए लगाई है ताकि दक्षिणी अफ़्रीका की स्वतंत्रता के लिए लड़े गए अश्वेत-नेतृत्व के संघर्षों को रिकॉर्ड किया जा सके। उन्होंने सितंबर 2019 में जारी किए गए डोजियर संख्या 20 में दक्षिण अफ़्रीका के आधुनिक ट्रेड यूनियन आंदोलन से पहले के औद्योगिक और वाणिज्यिक श्रमिक संघ (आईसीयू) के 1919 से 1931 तक के इतिहास के बारे में बताया है। उन्होंने हमें समकालीन दक्षिण अफ़्रीकी राजनीति के विकास (डोजियर संख्या 31, अगस्त 2020) के बारे में और झोंपड़पट्टियों में रहने वालों के समकालीन आंदोलन -अबहलाली बासेमजोंडोलो- और देश के ग़रीबों के मानस पर उसके प्रभाव (डोजियर नंबर 11, दिसंबर 2018) के बारे में भी बताया है। इन सब के साथ उन्होंने अफ़्रीकी विद्रोहियों और ग़रीबों के शिक्षाशास्त्र के शक्तिशाली सामाजिक सिद्धांतकारों फ्रांत्ज़ फ़ैनन और पाउलो फ़्रेरे -जिनकी शताब्दी हम इस वर्ष मना रहे हैं- के लेखन और उनके प्रभाव के बारे में डोजियर (डोजियर संख्या 26, मार्च 2020, डोजियर संख्या 34, नवंबर 2020) तैयार किया है। ये सभी लेख अपमान के शासन के ख़िलाफ़ अश्वेत-नेतृत्व वाले संघर्षों को संग्रहित कर रहे हैं।
डोजियर संख्या 44 (सितंबर 2021) का शीर्षक है ‘ब्लैक कम्युनिटी प्रोग्राम्स: द प्रैक्टिकल मेनिफ़ेस्टेशंस ऑफ़ ब्लैक कॉन्शियसनेस फ़िलॉसफ़ी’। ये अश्वेत सामुदायिक कार्यक्रम (बीसीपी) 1972 से 1977 तक चले। इनमें से प्रत्येक कार्यक्रम की स्थापना और नेतृत्व अश्वेत दक्षिण अफ़्रीकियों ने किया, प्रत्येक ने अश्वेत समुदाय के मुद्दों को आगे बढ़ाने का काम किया, और प्रत्येक को रंगभेद शासन द्वारा कुचल दिया गया। बीसीपी के कार्यक्रमों में सामुदायिक कल्याण, अश्वेत कला, अश्वेत धर्मशास्त्र, और उपनिवेशवाद से मुक्त शिक्षा की परियोजनाएँ शामिल थीं। बीसीपी के हस्तक्षेप का एक प्रमुख क्षेत्र था अश्वेत दक्षिण अफ़्रीकियों के सचेत रूप से उपेक्षित स्वास्थ्य के सुधार का काम करना। ज़ानेम्पिलो सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (पूर्वी केप) और सोलेम्पिलो (डरबन, केजेडएन) जैसी परियोजनाओं के नामों में ही उनके उद्देश्य परिलक्षित थे: ज़ानेम्पिलो का अर्थ है ‘स्वास्थ्य लाने वाला’ और सोलम्पिलो का अर्थ है ‘स्वास्थ्य की नज़र’। रंगभेद शासन ने दोनों कार्यक्रम बंद कर दिए, जब उसने अक्टूबर 1977 में सभी अश्वेत चेतना समूहों पर प्रतिबंध लगा दिया था।
बीसीपी दक्षिण अफ़्रीका में नस्लवादी रंगभेद शासन के ख़िलाफ़ तीव्र जन प्रतिरोध के संदर्भ में उभरा था। ये प्रतिरोध अफ़्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस और पैन-अफ़्रीकन कांग्रेस पर प्रतिबंध लगाने से हतोत्साहित नहीं हुआ था, बल्कि दक्षिण अफ़्रीका में 1968 में छात्र संगठन (एसएएसओ) के गठन का कारण बना। एसएएसओ का नेतृत्व स्टीव बीको (1946-1977) ने किया, जिन्होंने अश्वेत चेतना के दर्शन को आकार दिया और जिनकी नस्लवादी सरकार के क्रूर जेलों में हत्या कर दी गई थी। अश्वेत चेतना पर बीको के विचार व्यापक थे। उनकी गहरी मान्यता थी कि अश्वेत गरिमा की पुष्टि ज़रूरी है और भविष्य में सच्ची समानता स्थापित करने के लिए अश्वेत नेतृत्व को विकसित करना होगा। अश्वेत दक्षिण अफ़्रीकियों को स्वतंत्रता उपहार में नहीं दी जाएगी; उन्हें उसे छीनना पड़ेगा, और उसी सींचते हुए उसका आगे निर्माण करना होगा।
बीको ने अश्वेत चेतना को एक विचारधारा के रूप में परिभाषित किया है जो कि:
अश्वेत लोगों को अपनी समस्याएँ समझने में सकारात्मकता प्रदान करने का प्रयास करती है। यह इस ज्ञान पर काम करती है कि ‘श्वेत घृणा’ नकारात्मक है, हालाँकि समझ में आती है, और ग़ुस्से व जल्दीबाज़ी में अपनाए गए तरीक़ों की ओर जाती है जो अश्वेत और श्वेत [लोगों] के लिए समान रूप से विनाशकारी हो सकते हैं। यह स्थिति की वास्तविकताओं को अपने संघर्ष का आधार बनाकर आक्रोशित अश्वेत जनता की दबी हुई ताक़तों को सार्थक और दिशात्मक प्रतिरोध की ओर मोड़ने का प्रयास करती है। यह अश्वेत लोगों के मन में उद्देश्य की विलक्षणता सुनिश्चित करना चाहता है और अनिवार्य रूप से जनता के अपने संघर्ष में जनता की कुल भागीदारी को संभव बनाना चाहती है।
यह न तो अफ़्रीकी-निराशावाद है और न ही अफ़्रीकी मूल के लोगों के लिए व्यर्थ आशाहीनता है, न ही यह अश्वेत अलगाववाद की घोषणा है। बल्कि, यह मानवीय गरिमा की राजनीति और समाजवाद की राजनीति का सबसे गहरा संश्लेषण है।
2006 में, पत्रकार निरेन तोल्सी ने कवि माफ़िका पास्कल ग्वाला (1946-2014) से बात की और उनसे उनके जीवन में अश्वेत चेतना के अर्थ के बारे में पूछा। ग्वाला ने तोल्सी से कहा, ‘हमने अश्वेत चेतना को किसी तरह की बाइबल के रूप में नहीं लिया था’। ‘यह सिर्फ़ एक ट्रेंड था, जो कि ज़रूरी था क्योंकि इसका मतलब था कि संघर्ष में वो [समझ] लेकर आना जो [रंगभेद के ख़िलाफ़] श्वेत विरोध नहीं ला सका। अश्वेत चेतना के माध्यम से संघर्ष में बहुत कुछ [नया] लाया गया था’। अश्वेत चेतना आंदोलन -और दक्षिण अफ़्रीकी साम्यवाद (टॉम लॉज की नयी किताब रेड रोड टू फ़्रीडम, 2021 में जिसका उल्लेख किया गया है) और 1973 में डरबन हमलों से उभरे ट्रेड यूनियन आंदोलन- जिस प्रकार जनता को रंगभेद विरोधी संघर्ष में लेकर आए थे, निश्चित रूप से रंगभेद का श्वेत विरोध जनता को उस तरीक़े से प्रभावित नहीं कर पाया था; इससे बहुत ज़्यादा बढ़कर अश्वेत चेतना ने मनुष्य होने के मूल्य की संवेदनशीलता और मानव जीवन जीने के हक़ को स्थापित कर, स्वतंत्रता के लिए संघर्ष को एक अमूर्त सिद्धांत के बजाय अस्तित्व की गरिमा के लिए एक सटीक और सार्थक संघर्ष बना दिया था।
ग्वाला के कविताएँ गरिमा की खोजती हैं और उनकी जिनकी सोवेतो कविताएँ स्वतंत्रता की इच्छा से शराबोर हैं:
हमारा इतिहास लिखा जाएगा
कारख़ाने के फाटकों पर
बेरोज़गारी कार्यालयों में
मरते हुए मुँहों
की झुलसी क़तारों में
हमारा इतिहास हमारी ख़ुशियाँ होंगी
हमारे दुख होंगे
हमारी पीड़ाएँ होंगी
तीसरे दर्जे के गंदे शौचालयों में लिखी हुईं
विकृत आँकड़े होंगे हमारा इतिहास
और कड़वे नारे होंगे
हमारी पृथक बस्तियों की दीवारों को सजाते
जहाँ फूलों को बढ़ने के लिए पर्याप्त शांति नहीं मिलती।
स्नेह-सहित,
विजय।