प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
अपने दौर की उलझनों, वीभत्स युद्धों और तथ्यरहित सूचनाओं की बौछारों को समझ पाना एक मुश्किल काम है। टीवी, रेडियो और इंटरनेट पर इन सूचनाओं की भरमार है। लेकिन क्या वे यूक्रेन में छिड़े युद्ध और रूसी बैंकों पर लगाए गए प्रतिबंधों (यह क़रीब तीस देशों को प्रभावित करने वाली संयुक्त राज्य अमेरिका की विस्तृत प्रतिबंध नीति का एक हिस्सा है) के ईमानदार मूल्यांकन पर आधारित हैं? क्या वे इस युद्ध और प्रतिबंधों की वजह से बढ़ी भूख की भयावह सच्चाई को स्वीकार करती हैं? ऐसा प्रतीत होता है कि ज़्यादातर सूचनाएँ अभी भी शीत-युद्धकालीन मानसिकता से ग्रसित हैं, जो मानवता को दो विरोधी ख़ेमों में बाँटकर देखती है। हालाँकि, सच ये नहीं है। ज़्यादातर देश संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा थोपे गए ‘नव शीत युद्ध’ से इतर एक गुट निरपेक्ष दृष्टिकोण के निर्माण के लिए संघर्षरत हैं। रूस और यूक्रेन के बीच जारी टकराव दशकों से लड़े जा रहे वृहद भूराजनैतिक युद्धों का ही एक लक्षण है।
26 मार्च को, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने वार्सा (पोलैंड) के शाही क़िले में कुछ निश्चित परिघटनाओं को अपने नज़रिये से परिभाषित किया। उन्होंने यूक्रेन में हो रहे युद्ध को ‘लोकतंत्र और तानाशाही के बीच, स्वतंत्रता और दमन के बीच, नियम-सम्मत तंत्र और क्रूर ताक़त के बल पर चलनेवाले तंत्र के बीच’ हो रहा युद्ध कहा। ये विचार विशुद्ध रूप से अमेरिकी शासन की दिमाग़ी उपज हैं, क्योंकि उसके लिए नियम-सम्मत तंत्र संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर नहीं बल्कि अमेरिका द्वारा निर्धारित ’नियमों’ पर आधारित होता है। बाइडन के अंतर्विरोध भरे व्यक्तव्यों को और उनमें निहित नीतिगत उद्देश्यों को उनका ये कथन सारगर्भित ढंग से प्रस्तुत करता है, ’किसी भी हालत में ये इंसान सत्ता में नहीं बना रहना चाहिए।’ बाइडन का तात्पर्य रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से था। यूक्रेन में छिड़े युद्ध के प्रति बाइडन के संकुचित नज़रिये ने 14.6 करोड़ लोगों और 6,255 नाभिकीय हथियारों के मालिक देश रूस में सत्ता परिवर्तन की माँग को जन्म दिया है। अमेरिका का इतिहास कई देशों के नेतृत्व को अपने नियंत्रण में रखने का हिंसात्मक इतिहास रहा है। इस संदर्भ में, सत्ता परिवर्तन के दुस्साहसी वक्तव्यों का जवाब दिया जाना चाहिए। उनको हर जगह चुनौती मिलनी चाहिए।
रूस के युद्ध की मार खा रहा यूक्रेन इस युद्ध की मुख्य धुरी नहीं है। रस्साकशी इस सवाल को लेकर है कि क्या यूरोप अमेरिका और उसके उत्तरी अटलांटिक एजेंडे से स्वतंत्र होकर अपनी परियोजनाओं को आकार दे सकेगा या नहीं। सोवियत संघ के विघटन (1991) और वैश्विक वित्तीय संकट (2007-08) के बीच के काल में रूस, सोवियत संघ के विघटन के बाद बने नये गणतंत्रों (इसमें यूक्रेन भी शामिल है) और अन्य पूर्वी यूरोपीय राज्यों ने यूरोपीय प्रणाली, जिसमें नाटो (NATO) भी शामिल है, का हिस्सा बनना चाहा। रूस 1994 में नाटो की शांति प्रक्रिया हेतु साझेदारी से जुड़ा। 2004 में सात पूर्वी यूरोपीय देश (इसमें रूस की सीमा पर बसे एस्टोनिया और लातविया भी शामिल थे) नाटो में शामिल हुए। वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान यह साफ़ हो गया था कि यूरोप में निहित कमज़ोरियों के कारण यूरोपीय प्रणाली में एकीकरण पूरी तरह से संभव नहीं है।
फ़रवरी 2007 में हुए म्यूनिख सुरक्षा कॉन्फ्रेंस में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक एकध्रुवीय दुनिया के निर्माण के अमेरिकी प्रयास को चुनौती दी। पुतिन ने पूछा, ‘एक एकध्रुवीय दुनिया क्या है? इस शब्द को हम चाहे कितना भी सुंदर बनाने की कोशिश कर लें, लेकिन इसका अर्थ बल का एक केंद्र, ताक़त का एक केंद्र, और एक मालिक ही है’। पुतिन ने 2002 में बैलिस्टिकरोधी प्रक्षेपास्त्र संधि से अमेरिका के अलग होने (उस वक़्त पुतिन ने अमेरिका के इस क़दम की आलोचना की थी) और 2003 के ईराक़ युद्ध का हवाला देकर कहा, ‘कोई भी सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा है क्योंकि अब अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का कवच निरर्थक हो गया है’। बाद में, 2008 में बुखारेस्ट (रोमानिया) में हुए नाटो शिखर सम्मेलन में जॉर्जिया और यूक्रेन के सैन्य गठबंधन में प्रवेश का विरोध करते हुए पुतिन ने नाटो के पूर्वी विस्तार के ख़तरों के बारे में आगाह किया। अगले ही वर्ष, पश्चिमी साम्राज्यवाद के विकल्प के तौर पर रूस ने ब्राज़ील, चीन, भारत और दक्षिण अफ़्रीका के साथ मिलकर ब्रिक्स (BRICS) बनाया।
यूरोप कई पीढ़ियों से प्राकृतिक गैस और कच्चे तेल के आयात के लिए पहले सोवियत संघ और फिर रूस पर निर्भर रहा है। यूरोपीय देशों द्वारा कोयला और नाभिकीय ऊर्जा के प्रयोग को कम करने की क़वायद के बाद से रूस पर उनकी यह निर्भरता बढ़ गई है। इसके साथ ही साथ, पोलैंड (2015) और ईटली (2019) ने चीन के नेतृत्व वाले बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) पर हस्ताक्षर किया। 2012 और 2017 के बीच चीनी सरकार ने 17+1 पहल की स्थापना करके केंद्रीय और पूर्वी यूरोप के सत्रह देशों को BRI से जोड़ा। यूरोप के यूरेशिया में एकीकरण ने इसकी विदेश नीति की आज़ादी की नींव रखी। लेकिन इसे सफल नहीं होने दिया गया। इसे विफल करने के लिए नाटो महासचिव याप डह हूप शेफ़र ने 2008 में ’वैश्विक नाटो’ का झाँसा दिया।
यूरेशिया में हो रहे महत्वपूर्ण बदलावों से डरकर अमेरिका ने वाणिज्यिक और कूटनीतिक/सैन्य मोर्चों पर काम करना शुरू किया। वाणिज्यिक स्तर पर, अमेरिका ने रूसी प्राकृतिक गैस पर यूरोपीय निर्भरता को ख़त्म करने के लिए अमेरिकी और खाड़ी के अरब देशों के पूर्तिकर्ताओं से यूरोप में तरलीकृत प्राकृतिक गैस की आपूर्ति कराने का वादा किया। चूँकि तरलीकृत प्राकृतिक गैस पाईप के माध्यम से आपूर्ति की जाने वाले गैस से महंगी होती है, इसलिए इस सौदे को ख़ास तवज्जो नहीं मिली। उच्च तकनीक समाधानों के क्षेत्र- विषेशकर दूरसंचार, रोबोटिक्स, और हरित ऊर्जा- में चीनी उन्नति का मुक़ाबला करने में सिलिकॉन वैली की कंपनियाँ अक्षम रहीं। इसके जवाब में अमेरिका ने बलप्रयोग के लिए दो माध्यमों को अपनाया: पहला, चीनी कंपनियों के ऊपर प्रतिबंध (सुरक्षा और निजता के मसलों का हवाला देकर) लगाने के लिए आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध के बहाने का प्रयोग। दूसरा, रूस की स्थिरता को चुनौती देने के लिए कूटनीतिक और सैन्य पैतरों की आज़माइश।
अमेरिका की चाल पूरी तरह सफल नहीं हुई। यूरोपीय देश यह समझ गए थे कि रूसी ऊर्जा और चीनी निवेश, दोनों का कोई बेहतर विकल्प मौजूद नहीं है। यह साफ़ हो गया था कि हुआवेई टेलिकम्युनिकेशंस के पुर्ज़ों पर प्रतिबंध लगाकर और नॉर्डस्ट्रीम 2 के प्रमाणन को रोकने से यूरोपीय लोगों का ही नुक़सान होगा। लेकिन यह समझना मुश्किल था कि किसी भी देश द्वारा नाभिकीय युद्ध को शुरू करने की संभावना को पनपने से रोकने वाली संरचना को अमेरिका क्यों तोड़ रहा था। 2002 में, अमेरिका ने बैलिस्टिकरोधी प्रक्षेपास्त्र संधि से ख़ुद को अलग कर लिया और, 2018-19 में, मध्यम दूरी परमाणु शक्ति संधि (Intermediate-Range Nuclear Forces, INF) को भी छोड़ दिया। यूरोपीय देशों ने ‘परमाणु विरोधी’ आंदोलन के माध्यम से 1987 में INF संधि कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन 2018-19 में जब अमेरिका ने इस संधि को छोड़ा तब यूरोपीय देशों ने चुप्पी अख़्तियार कर ली। 2018 में, अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का केंद्र आतंकवाद के ख़िलाफ़ वैश्विक युद्ध से हटकर चीन और रूस जैसे ‘समकक्ष प्रतिद्वंदियों’ से मिलने वाले दीर्घकालिक, रणनीतिक प्रतिस्पर्धा के उभार को रोकना बन गया। इसके साथ ही साथ, यूरोपीय देशों ने नाटो के माध्यम से बाल्टिक, आर्कटिक, और दक्षिण चीन समुद्रों में ‘नौपरिवहन की आज़ादी’ अभ्यास करके चीन और रूस की तरफ़ धमकी भरे संदेश भेजे। इन क़दमों ने चीन और रूस के दरम्यान नज़दीकियाँ बढ़ा दीं।
रूस ने कई बार संकेत दिया कि वो इन रणनीतियों से वाक़िफ़ है और वो अपनी ताक़त के बल पर अपने क्षेत्रों और सीमाओं की हिफ़ाज़त करेगा। जब अमेरिका ने सीरिया में 2012 में और यूक्रेन में 2014 में हस्तक्षेप किया, तो इन क़दमों से रूस से उसके दो मुख्य गर्म पानी बंदरगाहों (लटाकिया (सीरिया) और सेबास्तोपोल (क्रीमिया)) के छीने जाने का ख़तरा पैदा हो गया। इस वजह से रूस ने 2014 में क्रीमिया पर क़ब्ज़ा किया और 2015 में सीरिया में सैन्य हस्तक्षेप किया। इन क़दमों ने संदेश दिया कि रूस अपने राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा के लिए सेना का प्रयोग करना जारी रखेगा। इस प्रायद्वीप का 85% पानी लेकर आने वाली उत्तरी क्रीमियन नहर को यूक्रेन ने बंद कर दिया। क्रीमिया को पानी पहुँचाने के लिए रूस को मजबूर होकर भारी लागत लगाकर कर्च जलडमरूमध्य पुल बनाना पड़ा।। इसका निर्माण कार्य 2016 से 2019 तक चला। रूस को यूक्रेन से, और यहाँ तक कि नाटो से भी, ‘सुरक्षा की गारंटी’ माँगने की आवश्यकता नहीं थी। लेकिन रूस ने अमेरिका से सुरक्षा की गारंटी माँगी। मॉस्को में डर था कि अमेरिका अपने मध्यम दूरी के प्रक्षेपास्त्र तैनात करके रूस को घेर सकता है।
इस हालिया इतिहास के आलोक में देखा जाए तो जर्मनी, जापान, भारत और अन्य देशों की प्रतिक्रिया विरोधाभासों से भरी रही हैं। इन सभी देशों को रूसी प्राकृतिक गैस और कच्चा तेल चाहिए। जर्मनी और जापान दोनों ने रूसी बैंकों के ऊपर प्रतिबंध लगाए हैं। लेकिन ना तो जर्मनी के चांसलर ओलॉफ़ शोल्ज और ना ही जापानी प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा ने रूसी ऊर्जा आयात में कोई कटौती की है। अमेरिकी ख़ेमे में जापान के साथ होने बाद भी भारत ने रूस की आलोचना करने और रूसी बैंकिंग सेक्टर के ऊपर प्रतिबंध लगाने से मना किया है। इन देशों को हमारे दौर के विरोधाभासों से भी पार पाना है और अनिश्चितताओं का मूल्यांकन भी करना है। किसी भी देश को शीत युद्ध के समीकरणों को पुन:स्थापित करने वाली ’निश्चितताओं’ को स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए। देशों को बाहरी प्रभावों के माध्यम से किए गए सत्ता परिवर्तनों और उथल-पुथल के ख़तरनाक परिणामों को भी नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए।
टीजी संकीची की कविताएँ जो मन मोह लेती हैं उन्हें याद करना ज़रूरी है। टीजी संकीची ने 1945 में अपने शहर हिरोशिमा को परमाणु बम का ग्रास बनते देखा, और शांति के लिए संघर्ष करने के लिए जापानी कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े। ‘कारवाई का आह्वान’ में संकीची ने लिखा:
उन विद्रूप भुजाओं को फैलाओ
अनेकों ऐसी भुजाओं की तरफ़
और, अगर ऐसा लगे कि वो चमक दोबारा गिरेगी,
तो उस अभिशप्त सूरज को थाम लो:
अभी भी बहुत देर नहीं हुई है।
स्नेह सहित,
विजय।