प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
यूरोप में ऊर्जा आपूर्ति की नाज़ुक हालत पिछले कुछ महीनों में एक बार फिर से सामने आ गई है। रूस से जर्मनी तक जाने वाले नॉर्ड स्ट्रीम 1 पाइपलाइन से आने वाले गैस शिपमेंट की क्षमता जून में घटकर 40% पर आ गई थी। मास्को ने इसका कारण बताया था कि जर्मन कंपनी सीमेंस टर्बाइन की सर्विसिंग में देरी कर रही है। इसके तुरंत बाद, 11 जुलाई को, नियमित सालाना रखरखाव के लिए पाइपलाइन को दस दिनों के लिए बंद कर दिया गया। मास्को ने कहा कि आपूर्ति निर्धारित समय अनुसार फिर से शुरू हो जाएगी। लेकिन इस आश्वासन के बावजूद, यूरोप के नेताओं ने आशंका व्यक्त की कि यूक्रेन युद्ध के कारण रूस पर लगे प्रतिबंधों के जवाब में पाइपलाइन का शट-डाउन अनिश्चित काल तक जारी रह सकता है। लेकिन 21 जुलाई को पाइपलाइन चालू कर दी गई, और यूरोप में रूसी गैस पहुँचने लगी। जर्मनी के ऊर्जा नियामक प्रमुख क्लॉस मुलर ने कहा कि नॉर्ड स्ट्रीम 1 से गैस प्रवाह जब फिर शुरू हुआ तब उसकी क्षमता रखरखाव से पहले के स्तर से नीचे थी, हालाँकि अब पाइपलाइन 40% क्षमता पर वापस आ गई है।
ऊर्जा आपूर्ति से संबंधित यूरोप की चिंताओं का कारण यह है कि इस क्षेत्र की सरकारों को लगता है कि यूरोज़ोन में ऊर्जा की अस्थिरता आगे भी बनी रह सकती है। जिस दिन नॉर्ड स्ट्रीम 1 का काम फिर से शुरू हुआ, ठीक उसी दिन इटली के मारियो ड्रैगी ने प्रधान मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया। उनसे पहले बुल्गारिया, एस्टोनिया और यूनाइटेड किंगडम में सरकारों के प्रमुख इस्तीफ़े दे चुके थे। एक तरफ़ यूरोप रूस के साथ शांति समझौते करने का विरोध करता है, लेकिन दूसरी ओर उसके लिए रूस के साथ व्यापार करना अपरिहार्य है।
अंतर्राष्ट्रीय मंच नो कोल्ड वॉर के माध्यम से हमारी कोशिश है अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को बेहतर बनाना। हम यूक्रेन युद्ध के बदलते आशय और चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका के नेतृत्व में चल रहे दबाव अभियान को क़रीब से देख रहे हैं। हमने अपने पिछले न्यूज़लेटरों में इस मंच से जारी तीन ब्रीफ़िंग आपके साथ साझा की है। आज आप ब्रीफ़िंग संख्या नं. 4 ‘द वर्ल्ड डज़ नॉट वॉन्ट अ ग्लोबल नाटो’ पढ़िए। इस ब्रीफ़िंग में दुनिया भर में युद्ध का एजेंडा चलाने के यूएस-यूरोपीय प्रयास के संबंध में दक्षिणी गोलार्ध के देशों में उभरती स्पष्टता का विवरण पेश किया गया है। यह नयी स्पष्टता केवल पृथ्वी के बढ़ते सैन्यीकरण से संबंधित नहीं है, बल्कि व्यापार और विकास में गहराते टकरावों से भी संबंधित है। इस टकराव का एक रूप हमें हाल ही में जी 7 की नयी पहल, ग्लोबल इंफ़्रास्ट्रक्चर एंड डेवलपमेंट के लिए साझेदारी (पीजीआईडी), के रूप में दिखा, जो कि स्पष्ट रूप से चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के ख़िलाफ़ एक मुहिम को दर्शाता है।
जून में, उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के सदस्य देश अपने वार्षिक शिखर सम्मेलन के लिए मैड्रिड, स्पेन में मिले। इस सम्मेलन में, नाटो ने एक नयी रणनीतिक अवधारणा अपनाई, जिसे आख़िरी बार 2010 में अपडेट किया गया था। इस रणनीति में, नाटो ने रूस को अपने लिए ‘सबसे बड़ा और प्रत्यक्ष ख़तरा’ और चीन को ‘हमारे [नाटो के] हितों के लिए चुनौती’ कहा है। नाटो के महासचिव जेन्स स्टोल्टेनबर्ग के शब्दों में, यह मार्गदर्शक दस्तावेज़ सैन्य गठबंधन में ‘मौलिक बदलाव’ को दर्शाता है; और यह शीत युद्ध के बाद से इस संगठन का ‘सबसे बड़ा बदलाव’ है।
21वीं सदी में मुनरो सिद्धांत?
हालाँकि नाटो एक ‘रक्षात्मक’ गठबंधन होने का दावा करता है, लेकिन यह दावा इसकी विनाशकारी विरासत – जैसे कि सर्बिया (1999), अफ़ग़ानिस्तान (2001) और लीबिया (2011) – और इसके लगातार बढ़ते वैश्विक पदचिह्न द्वारा ख़ारिज हो जाता है। शिखर सम्मेलन में, नाटो ने स्पष्ट कर दिया कि वह रूस और चीन का मुक़ाबला करने के लिए अपने वैश्विक विस्तार को जारी रखेगा। यूक्रेन युद्ध से उत्पन्न भारी मानवीय पीड़ा से बेख़बर, नाटो ने घोषणा की कि इसका ‘विस्तार एक ऐतिहासिक सफलता रही है … और [इसने] यूरो-अटलांटिक क्षेत्र में शांति और स्थिरता में योगदान दिया है’, और फ़िनलैंड तथा स्वीडन को आधिकारिक सदस्यता का निमंत्रण भी दिया।
लेकिन, ‘यूरो-अटलांटिक’ से भी आगे दक्षिणी गोलार्ध के देशों तक नाटो की नज़र है। एशिया में पैर जमाने की कोशिश कर रहे नाटो ने जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड का पहली बार शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले देश के रूप में स्वागत किया और कहा कि ‘इंडो-पैसिफ़िक नाटो के लिए महत्वपूर्ण है’। इसके बाद, दो सौ साल पुराने मुनरो सिद्धांत (1823) की तर्ज़ पर, रणनीतिक अवधारणा में ‘अफ़्रीका और मध्य पूर्व’ को ‘नाटो के दक्षिणी पड़ोसी’ कहा गया, और स्टोल्टेनबर्ग ने ‘[गठबंधन के] दक्षिणी पड़ोसी पर रूस और चीन के बढ़ते प्रभाव’ को ‘चुनौती’ कहा।
85% दुनिया शांति चाहती है
भले ही नाटो के सदस्य देश ये मानते हों कि उनके पास दुनिया को चलाने का अधिकार है, लेकिन दुनिया के अधिकांश लोग ऐसा नहीं मानते। यूक्रेन युद्ध के प्रति अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया ने यह दिखा दिया कि संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके निकटतम सहयोगी तथा दूसरी ओर दक्षिणी गोलार्ध के देश जो चाहते हैं उसके बीच बहुत फ़र्क़ है।
670 करोड़ लोगों – यानी दुनिया की 85% आबादी – का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकारों ने अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा रूस के ख़िलाफ़ लगाए गए प्रतिबंधों का पालन करने से इनकार कर दिया है, जबकि दुनिया की केवल 15% आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले देशों ने ही इन उपायों का समर्थन किया है। रॉयटर्स के अनुसार, रूस पर प्रतिबंध लगाने वाली ग़ैर-पश्चिमी सरकारों में केवल जापान, दक्षिण कोरिया, बहामास और ताइवान ही शामिल है। ये सभी वे देश हैं जहाँ अमेरिका के सैन्य ठिकाने हैं या जो अमेरिकी सैनिकों की मेज़बानी करते हैं।
अमेरिका और यूरोपीय संघ चाह रहे हैं कि रूसी विमानों के लिए हवाई क्षेत्र बंद कर दिया जाए। लेकिन इस अभियान के लिए उन्हें दुनिया से और भी कम समर्थन मिला है। दुनिया की केवल 12% आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकारों ने इस नीति का साथ दिया है, जबकि 88% आबादी ने इसे अपनाने से इनकार कर दिया है।
अंतर्राष्ट्रीय मंच पर रूस को राजनीतिक रूप से अलग-थलग करने के अमेरिका के प्रयास असफल रहे हैं। मार्च में, संयुक्त राष्ट्र महासभा में यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की निंदा करने के लिए एक ग़ैर-बाध्यकारी प्रस्ताव पर मतदान हुआ: 141 देशों ने इसके पक्ष में मतदान किया, 5 देशों ने इसके ख़िलाफ़ मतदान किया, 35 देशों ने मतदान में भाग ही नहीं लिया और 12 देश अनुपस्थित रहे। लेकिन पूरी कहानी इससे पता नहीं चलती। जिन देशों ने इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ मतदान किया, या जिन देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया, या जो देश अनुपस्थित रहे, वे दुनिया की 59% आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके बाद, इंडोनेशिया में हुए जी 20 शिखर सम्मेलन से रूस को बाहर करने के लिए बाइडेन प्रशासन के आह्वान को नज़रअंदाज़ कर दिया गया।
इस बीच, नाटो के तगड़े नेतृत्व के बावजूद, यूक्रेन के लिए समर्थन हासिल करने के प्रयास दक्षिणी गोलार्ध में पूरी तरह से विफल रहे हैं। 20 जून को, कई अनुरोधों के बाद, यूक्रेनी राष्ट्रपति वलोडिमिर ज़ेलेंस्की ने अफ़्रीकी संघ को संबोधित किया; बैठक में महाद्वीपीय संगठन के 55 सदस्यों में से केवल दो राष्ट्राध्यक्ष ही शामिल हुए थे। इसके तुरंत बाद, लैटिन अमेरिकी व्यापार ब्लॉक, मर्कोसुर, को संबोधित करने के लिए ज़ेलेंस्की के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया गया।
यह स्पष्ट है कि नाटो का ‘नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था का गढ़’ होने का दावा कोई ऐसा दृष्टिकोण नहीं है जिसे दुनिया के अधिकांश हिस्से मानते हों। इस सैन्य गठबंधन की नीतियों का समर्थन लगभग पूरी तरह से इसके सदस्य देशों और अन्य मुट्ठी भर सहयोगियों तक ही सीमित है, जो एक साथ दुनिया की आबादी का एक छोटा-सा ही हिस्सा हैं। दुनिया की अधिकांश आबादी नाटो की नीतियों और उसकी वैश्विक आकांक्षाओं को ख़ारिज करती है और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को पुराने शीत युद्ध के गुटों में विभाजित नहीं करना चाहती है।
1955 में, अमेरिका द्वारा हिरोशिमा (जापान) पर परमाणु बम गिराए जाने के दस साल बाद, तुर्की के कवि नाज़िम हिकमत ने एक सात साल की बच्ची – जो उस भयानक बमबारी में मर गई थी – की तरफ़ से एक कविता लिखी थी। बाद में नोबुयुकी नाकामोतो ने इस कविता का जापानी में अनुवाद किया। ‘शिंडा ओनानोको’ (‘मृत लड़की’) के नाम से यह कविता अक्सर उस अत्याचार के स्मरण दिवस पर गाई जाती है। युद्ध की कठोरता और बढ़ते टकरावों को देखते हुए, हिकमत के सुंदर गीत पर एक बार फिर विचार करना सार्थक है:
मैं आकर हर दरवाज़े पर खड़ी हो जाती हूँ
लेकिन मेरी ख़ामोश चाल को कोई सुनता ही नहीं।
मैं खटखटाती हूँ और फिर भी अनदेखी रहती हूँ
क्योंकि मैं मर चुकी हूँ, क्योंकि मैं मर चुकी हूँ।
मैं केवल सात साल की हूँ, हालाँकि मैं मर गई थी
हिरोशिमा में बहुत पहले।
मैं अब भी सात साल की हूँ जैसे मैं तब थी।
जब बच्चे मर जाते हैं, तो वे बढ़ते नहीं हैं।
आग की लपटों से मेरे बाल झुलस गए थे।
मेरी आँखें धुँधली हो गईं; मेरी आँखें अंधी हो गईं।
मौत आई और मेरी हड्डियों को धूल में बदल दिया
और उसे हवा ने बिखरा दिया था।
मुझे कोई फल नहीं चाहिए, न चाहिए चावल।
मुझे मिठाई नहीं चाहिए, न ही रोटी।
मुझे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए
क्योंकि मैं मर चुकी हूँ, क्योंकि मैं मर चुकी हूँ।
मैं एक ही चीज़ माँगती हूँ, शांति के लिए
तुम आज लड़ो, तुम आज लड़ो
ताकि दुनिया के बच्चे
जी सकें, बढ़ सकें और हँस-खेल सकें।
स्नेह-सहित,
विजय।