प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
इसका आग़ाज़ एक सर्वेक्षण से हुआ। अप्रैल 2022 में, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) या माकपा के सदस्य तेलंगाना राज्य के वारंगल शहर में घर-घर गए। पार्टी पहले से ही समुदाय के सामने खड़ी चुनौतियों से अवगत थी, लेकिन ठोस कार्य-योजना बनाने के लिए उन्हें आँकड़े चाहिए थे। माकपा ने अपने सदस्यों व समर्थकों की 35 टीमें बनाईं; हर टीम में तीन-चार लोग थे। ये टीमें 45,000 घरों तक गईं और पेंशन तथा राशन जैसे कई मुद्दों पर जानकारी इकट्ठी की। कई लोगों ने स्थायी आवास न होने के बारे में चिंता व्यक्त की। एक तिहाई लोगों ने कहा कि उनके पास अपना मकान नहीं है और वे किराया देने में असमर्थ हैं। सरकार ने ग़रीबों के लिए दो बेडरूम के अपार्टमेंट बनाने का वादा किया था, लेकिन ये वादे हवा हो चुके थे। स्थानीय बीड़ी उद्योग नष्ट हो जाने के कारण एक तरफ़ बेरोज़गारी बढ़ी है और दूसरी ओर महंगाई लगातार बढ़ रही है। जिन लोगों से माकपा की टीम मिली उनमें काफ़ी निराशा थी।
समुदाय के कई लोगों ने बेहतर आवास के लिए और विशेष रूप से और झोपड़ियाँ बनवाने के लिए लड़ने की इच्छा व्यक्त की। एक निवासी ने कहा कि ‘परिणाम कुछ भी हो, भले ही हमें पीटा जाए या मार दिया जाए, हम यह संघर्ष करेंगे’। माकपा ने वारंगल के एक हिस्से जक्कालोद्दी के तीस वार्डों में समितियाँ बनाईं और आने वाले संघर्ष के लिए लोगों को तैयार करना शुरू कर दिया। संघर्ष के केंद्र में वो ज़मीन थी जिसे सरकार ने 1970 के दशक के अंत में एक पुराने रईस, मोइनुद्दीन खदरी से, लैंड सीलिंग एक्ट, 1975 के तहत लिया था। यह अधिकृत ज़मीन भूमिहीनों में बाँटने के बजाय, सरकार ने किसानों को वहाँ से बेदख़ल कर 1989 में उसे सत्तारूढ़ तेलुगु देशम पार्टी के नेताओं को दे दिया।
25 मई 2022 को 8000 लोग मार्च करके वारंगल नगर निगम पहुँचे और वहाँ 10,000 राज्य आवास आवेदन सौंपे गए। जब वे ख़ाली ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने के लिए बढ़े, तो पुलिस ने उन्हें दूर रहने के लिए कहा और उन्हें घुसने नहीं दिया। इसके बावजूद, जक्कालोद्दी संघर्ष समिति के लोग उस ज़मीन पर 3000 झोपड़ियाँ बनाने में कामयाब रहे। 20 जून को तड़के 3 बजे पुलिस वहाँ पहुँची। लोग झोपड़ियों में सो रहे थे। पुलिस ने झोपड़ियों में आग लगानी शुरू कर दी। जब लोग अपने अस्थायी घरों से बाहर निकले तो पुलिस ने उन्हें पीटना शुरू किया। चार सौ लोगों को गिरफ़्तार किया गया। अगले दिन, स्थानीय अधिकारियों ने ज़मीन के बाहर एक बोर्ड लगा दिया, जिस पर लिखा था: ‘यह ज़मीन एक कोर्ट कॉम्प्लेक्स के निर्माण के लिए है’।
माकपा के राज्य सचिवमंडल के सदस्य जी. नागैया ने ट्राईकॉन्टिनेंटल रिसर्च सर्विसेज (इंडिया) के शोधकर्ता पी. अंबेडकर को बताया कि लोग न तो वो बोर्ड देख कर पीछे हटे और न ही पुलिस की हिंसा से डरे। वे वापस आए और अब साठ दिनों से वहाँ डेरा डालकर रह रहे हैं। 26 जून को, उन्होंने 2000 नयी झोपड़ियाँ बनानी शुरू कर दीं। पुलिस ने उन्हें पहले से भी बर्बर हिंसा से रोकने की कोशिश की, लेकिन लोगों ने उनका मुक़ाबला किया और उन्हें पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया। अब वहाँ कुल 4600 झोपड़ियाँ हैं।
माकपा के नेतृत्व में चल रहे इस संघर्ष का कारण है इस क्षेत्र में भूमि की भूख को कम करने में राज्य सरकार की विफलता। सबसे हालिया सरकारी आँकड़ों से पता चलता है कि 2012-2017 के बीच अकेले शहरी भारत में 1.88 करोड़ घरों की कमी थी। हालाँकि यह आँकड़ा पूरी तरह से ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें भीड़भाड़ वाले शहरी इलाक़ों में बने कम गुणवत्ता वाले घरों को पर्याप्त आवास के रूप में गिना गया है। नवंबर 2021 में, विश्व बैंक ने एक पर्याप्त आवास सूचकांक (एएचआई) के विकास की घोषणा की थी। इस सूचकांक की नज़र से देखें तो तस्वीर साफ़ हो जाती है। इस आवास सूचकांक के आँकड़े बताते हैं कि, भारत में, श्रमिक वर्ग के प्रत्येक तीन परिवारों में से दो परिवार कम गुणवत्ता के आवास में रहते हैं। एएचआई ने 64 ग़रीब देशों के आँकड़ों को देखा और इन देशों में 26.8 करोड़ आवास इकाइयों की कामी पाई, जिससे 126 करोड़ लोग प्रभावित होते हैं। इसके अलावा, ग़रीब देशों में जो आवास हैं, उनमें से एक चौथाई की हालत पर्याप्त नहीं कही जा सकती। दुनिया भर में अरबों लोग बेघर हैं या ऐसे आवास में रहते हैं जिनकी हालत ख़राब है, और इस समस्या को हल करने के लिए कोई वास्तविक योजना अभी सामने नहीं है, तो इस बात की संभावना भी नहीं है कि कोई ग़रीब देश ‘शहरों और बस्तियों को समावेशी, सुरक्षित, लचीला, और टिकाऊ बनाने’ के ग्यारहवें सतत विकास लक्ष्य को पूरा कर सकेगा।
जक्कालोद्दी में चल रहा भूमि संघर्ष दक्षिण अफ़्रीका के झोंपड़पट्टियों के वासियों के आंदोलन अबहलाली बासे मजोंडोलो और ब्राज़ील के भूमिहीन श्रमिक आंदोलन (एमएसटी) से मेल खाता है। क़ब्ज़ा की गई ज़मीनों से ग़रीबों को बेदख़ल करना और उन पर हिंसा बरपाना दुनिया भर में एक नियमित चलन बन चुका है। इसी तरह का एक हमला हुआ था अर्जेंटीना के ग्वेर्निका में, जहाँ 29 अक्टूबर 2020 को 1900 परिवारों को बेदख़ल किया गया था। और इसी तरह से ओटोडो-गबामे, नाइजीरिया में नवंबर 2016 और अप्रैल 2017 के बीच 30,000 से भी ज़्यादा लोगों को बेदख़ल किया गया था।
ऐसे संघर्षों का नेतृत्व वे लोग कर रहे हैं जो गरिमा के साथ जीने का भौतिक आधार स्थापित करना चाहते हैं। हाल ही में जारी हमारे एक डोज़ियर में, दक्षिण अफ़्रीका से हमारी एक सहयोगी यवोन फ़ीलिस ने ज़मीन का उल्लेख करते हुए अपनी isiXhosa भाषा में कहा था: उम्हलाबा वूखोखो बेथु। इसका मतलब है ‘हमारे पूर्वजों की ज़मीन’। यह वाक्य, जो कि ज़्यादातर संस्कृतियों में कहा जाता है, माँग करता है कि ज़मीन को एक साझा विरासत के रूप में देखा जाए, न कि किसी एक व्यक्ति की संपत्ति के रूप में। यह वाक्य ‘ज़मीन को पूर्वजों से औपनिवेशिक बेदख़ली और धोखे से चुरा ली गई संपत्ति’ के रूप में देखता है। और इसे ‘पूँजीवाद के विकास को आगे बढ़ाने’ वाले ‘अन्याय के अनसुलझे प्रश्न’ की तरह देखने का आह्वान भी करता है। पूरे दक्षिणी गोलार्ध की तरह वारंगल में चल रहे मौजूदा संघर्ष में माकपा के नेतृत्व में हज़ारों लोग कुल 50,000 घर अपने हक़ में करवा पाने में सफल रहे हैं।
वैश्विक आवास संकट से पार पाने की इच्छा लगातार बढ़ रही है। बर्लिन के लगभग 36 लाख निवासियों ने देश की राजधानी में घर पाने की बढ़ती असंभावना को लेकर 2021 में एक जनमत संग्रह कराया था। जनमत संग्रह ने सरकार से किसी रियल एस्टेट कंपनी के 3,000 से अधिक इकाइयों वाले अपर्टमेंट्स ख़रीदने का आह्वान किया। इससे 15 लाख किराये के अपार्टमेंट्स में से 243,000 पर असर पड़ता। जनमत संग्रह पर मुहर तो लगी, लेकिन वह ग़ैर-बाध्यकारी है। इस तरह के उदाहरण – और ख़ाली पड़ी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा कर वहाँ घर बनाने में लोगों का बढ़ता आत्मविश्वास – आवास के अधिकार के लिए दुनिया भर में जारी आंदोलन के एक नये स्वर को दर्शाते हैं। यह समझ लगातार बढ़ रही है कि आवास को वित्तीय संपत्ति की तरह न देखा जाए; जिसका उपयोग अरबपति वर्ग सट्टेबाज़ी या टैक्स से बचने के लिए करता है। यह संवेदनशीलता उन संगठनों में स्पष्ट है जो आवास के अधिकार के लिए लड़ते हैं, जैसे डेस्पेजो ज़ीरो (ब्राज़ील) और न्दिफुना उकवाज़ी (दक्षिण अफ्रीका), या एमएसटी और अबहलाली जैसे जन-आंदोलन, या माकपा जैसे राजनीतिक दल। ये संगठन, आंदोलन या दल आवास संकट से पार पाने के लिए जनता को ख़ाली पड़ी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करने के लिए संगठित कर रहे हैं।
ज़मीनों पर इस तरह से क़ब्ज़ा करने का संघर्ष, तनाव और आनंद दोनों से भरा है। एक तरफ़ सामूहिक जीवन का सुखद अनुभव और दूसरी ओर पुलिस द्वारा पीटे जाने के ख़तरा। इस सामूहिक जीवन का एक हिस्सा गीतों /कविताओं में झलकता है, जो अक्सर समूहों में लिखे जाते हैं और बिना किसी नाम के मशहूर हो जाते हैं। ऐसी ही एक कविता है ‘स्फूर्ति पातलु’ नामक एक बुकलेट में किसी स्फूर्ति (एक छद्म नाम) द्वारा लिखी गई। इस कविता के साथ आज के न्यूज़लेटर को ख़त्म करूँगा:
एक इंच भी नहीं हिलेंगे हम
जब तक नहीं मिलती हमें घर बनाने को ज़मीन
खाना, और एक छोटा खेत।
जो हमें रोकने आएगा, हम उसके ख़िलाफ़ लड़ेंगे।
इस ज़मीन पर, जो लाल झंडे हमने लहराए हैं
वो संघर्ष के लिए तैयार हैं।
पक्षी शाखाओं में घोंसला बनाते हैं।
पत्तों में कीड़ों का घर होता है।
हम, जो इंसान के रूप में पैदा हुए,
तरस रहे हैं अपनी छत के लिए,
घर बनाने को ज़मीन के एक टुकड़े के लिए।
एक जगह से दूसरी जगह
अस्थायी झोपड़ियों में रहते शर्म आती है,
हमारे नाम के साथ स्थायी पता नहीं।
तेज़ हवाओं में उड़ते पत्तों की तरह हम,
जीते इस दर्द के साथ कि कोई जगह ऐसी नहीं जिसे कह सकें अपना।
भरे-पूरे मालिक
करते हैं हज़ारों एकड़ की चोरी
अपने बच्चों, पक्षियों और जानवरों के नाम पर।
पर छोटे-सा टुकड़ा माँगने पर
अधमरा करने तक लाठियाँ बरसाई जा रहीं हम पर।
तुम, जो हम से वोट माँगने आए हो:
हमें खाना और घर चाहिए।
अपनी माँग पर डटे हम लड़ने को तैयार हैं।
हमें रोक कर दिखाओ!
हम इस न्यूज़लेटर में छपी तस्वीरों के लिए माकपा की राज्य समिति के सदस्य और जक्कालोद्दी संघर्ष समिति के सदस्य जगदीश कुमार के आभारी हैं।
स्नेह-सहित,
विजय।