पॉलो फ़्रेरे और दक्षिण अफ़्रीका में जन-संघर्ष

पॉलो फ़्रेरे ब्राज़ील के एक विलक्षण और परिवर्तनवादी शिक्षक थे, जिनका लेखन मानव मुक्ति और गरिमा के संघर्ष से जुड़ा था। वे निरंतर इस बात को लेकर प्रयोग और चिंतन करते रहे कि वंचित और शोषित जनता के बीच किए जाने वाले अधिगम व शिक्षण कार्यों को समाज के मूलभूत परिवर्तन के कार्यों से कैसे जोड़ा जा सकता है। फ़्रेरे के लिए इसका मतलब था एक ऐसी दुनिया के लिए संघर्ष करना, जहाँ हर कोई समान हो और सब के साथ गरिमापूर्ण व्यवहार किया जाए, एक ऐसी दुनिया जिसमें आर्थिक और राजनीतिक शक्तियाँ पूर्णत: लोकतांत्रिक बन जाएँ।

यह डोज़ियर, जिसमें दक्षिण अफ़्रीका के कई जन-संघर्षों के प्रतिभागियों के साक्षात्कार शामिल हैं, दर्शाता है कि फ़्रेरे के विचारों का अश्वेत चेतना आंदोलन, ट्रेड यूनियन आंदोलन और यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट (यूडीएफ़) से जुड़े संगठनों पर काफ़ी अधिक प्रभाव रहा है। ट्रेड यूनियनों से लेकर ज़मीनी स्तर पर लड़े जा रहे संघर्षों के लिए उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं।

 

Mural of Paulo Freire at the entrance to the Florestan Fernandes National School of the Landless Rural Workers’ Movement (MST) in Guararema, Brazil, 2018.

गुआरारेमा में भूमिहीन ग्रामीण श्रमिक आंदोलन (एमएसटी) के फ़्लोरेस्टन फर्नांडिस नेशनल स्कूल के प्रवेश द्वार पर पॉलो फ़्रेरे का चित्र, ब्राज़ील, 2018।  
रिचर्ड पिटहाउस

 

ब्राज़ील से अफ़्रीका तक

फ़्रेरे का जन्म 1921 में उत्तर पूर्वी ब्राज़ील के शहर रेसिफ़ में हुआ था। अपनी उच्च शिक्षा पूरी करने के बाद, वे एक स्कूल शिक्षक बन गए और शिक्षा में मूलभूत परिवर्तनकारी परियोजनाओं सहित प्रौढ़ साक्षरता के कार्यों में रुचि लेने लगे। फ़्रेरे उत्पीड़नकारी निर्भरता के जाल से उत्पीड़ितों को बाहर लाने के लिए ज़रूरी आलोचनात्मक चेतना के विकास में समुदाय और श्रमिक संगठनों की अहम भूमिका देखते थे। 

फ़्रेरे ने अपने शुरुआती लेखों में लिखा था कि मूलभूत-परिवर्तनवादी शिक्षाशास्त्र का मूल लक्ष्य लोगों में आलोचनात्मक चेतना विकसित करना है। 1950 के दशक से उन्होंने संवादात्मक शिक्षा पद्धति विकसित करनी शुरू की; यह शिक्षा पद्धति अमेरिकी सरकार द्वारा यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फ़ॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएआईडी) -एक ऐसा संगठन जो लैटिन अमेरिका और अन्य जगहों में निर्वाचित सरकारों के ख़िलाफ़ तख़्तापलट का समर्थन करने के लिए कुख्यात है- जैसे संगठनों के तत्वाधान में प्रायोजित शिक्षा कार्यक्रमों के विपरीत मुक्तिकामी व प्रगतिशील शिक्षा परियोजनाएँ स्थापित करने का ठोस आधार प्रदान करती हैं।

1964 में, ब्राज़ील की सेना ने अमेरिका के समर्थन के साथ देश पर क़ब्ज़ा कर लिया और दमनकारी दक्षिणपंथी तानाशाही लागू कर दी। तानाशाह सरकार ने बहुत से लोगों को गिरफ़्तार किया, उनमें फ़्रेरे भी थे। सत्तर दिनों की जेल के बाद उन्हें छोड़ दिया गया, लेकिन देश छोड़ने के लिए मजबूर किया गया।

अपने निर्वासन के वर्षों के दौरान उन्होंने लैटिन अमेरिका के अन्य देशों, जैसे चिली में अपना प्रायोगिक कार्य जारी रखा। इसी समय के दौरान उन्होंने अपनी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक ‘पेडागोजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड’ लिखी और प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रम चलाए। अफ़्रीकी स्वतंत्रता संग्राम के साथ भी उनका संपर्क रहा। वे ज़ाम्बिया, तंज़ानिया, गिनी-बिसाऊ, साओ टोम और प्रिंसिपे, अंगोला और केप वर्डे में रहे भी। उन्होंने द पीपुल्स मूवमेंट फ़ॉर द लिबरेशन ऑफ़ अंगोला (एमपीएलए), मोज़ाम्बिक लिबरेशन फ़्रंट (फ़्रीलीमो) और अफ़्रीकी पार्टी फ़ॉर द इंडेपेंडेन्स ऑफ़ गिनी एंड केप वर्डे (पीएआईजीसी) के नेतृत्वकारियों से मुलाक़ात की और गिनी-बिसाऊ, तंज़ानिया और अंगोला में प्रौढ़ साक्षरता कार्यक्रम शुरू किया। फ़्रेरे ने फ्रांत्ज़ फ़ैनन और अमिलकार कैब्रल जैसे अफ़्रीकी क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों को पढ़ा और उपनिवेशीकरण व लोगों पर इसके प्रभावों के बारे में लिखने वाले अन्य लेखकों का भी विस्तृत रूप से अध्ययन किया। वे अफ़्रीका के साथ ख़ास लगाव महसूस करते थे; उन्होंने लिखा है कि ‘उत्तर-पूर्वी ब्राज़ील का निवासी होने के नाते, मैं अफ़्रीका से कुछ हद तक सांस्कृतिक रूप से बँधा हुआ हूँ, ख़ास तौर पर अफ़्रीका के उन देशों से जो इतने बदक़िस्मत थे कि वहाँ पुर्तगाली उपनिवेश स्थापित हुआ।’

फ़्रेरे पूँजीवादी व्यवस्था के भी घोर आलोचक थे। उनका मानना था कि यह व्यवस्था उत्पीड़ितों के जिस्म और दिमाग़ का शोषण कर उनपर प्रभुत्व जमाती है, और चेतना पर वर्चस्व क़ायम रखने की भौतिक तथा वैचारिक परिस्थितियाँ उपलब्ध कराने वाली सबसे बड़ी शक्ति है। यह प्रभुत्व -जो निश्चित रूप से, नस्लवाद और लिंगवाद के साथ जुड़ा हुआ है- हमारे स्वत्व, हमारे कर्मों, और दुनिया के बारे में हमारे बोध को अनुकूलित कर सकता है। फ़्रेरे का मानना था कि प्रभुत्व को ख़त्म करना एक मुश्किल मगर एक आवश्यक राजनीतिक कार्य है जिसके लिए निरंतर अधिगम ज़रूरी है।

फ़्रेरे की यह अवधारणा कि आलोचनात्मक चेतना के विकास में संवादात्मकता तथा जन-संघर्षों और संगठनों की अहम भूमिका होती है, 1970 और 1980 के दशकों में ब्राज़ील के जन समुदायों के संघर्षों के लिए महत्वपूर्ण उपकरण साबित हुई। इन दशकों में, लैटिन अमेरिका में, और विशेष रूप से ब्राज़ील में, लोकनिष्ठ शिक्षा (पॉप्युलर एजुकेशन) जन-आंदोलनों का पर्याय बन गई थी, जो राजनीतिक कार्य और अधिगम की प्रक्रियाओं को जोड़ते हुए लोकनिष्ठ संवादात्मक शिक्षा को अपनी मुख्य शैक्षिक रणनीति के रूप में इस्तेमाल कर रहे थे।

1980 में, फ़्रेरे ब्राज़ील लौट आए और वर्कर्स पार्टी (पार्टिडो डॉस ट्रबलहादोर्स) में सक्रिय हो गए। जब 1988 में उनकी पार्टी साओ पाउलो (दुनिया के सबसे बड़े शहरों में से एक) में जीती, तो उन्हें शहर का शिक्षा सचिव नियुक्त किया गया। वे 1991 तक इस पद पर रहे। 1997 में उनका निधन हो गया।

 

उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र

1968 में, जब वे चिली में निर्वासन में रह रहे थे, फ़्रेरे ने ‘पेडागोजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड’ (उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र) लिखी। उस वर्ष, दुनिया भर में युवा विद्रोह कर रहे थे। फ़्रांस में, जहाँ युवाओं का विद्रोह सबसे शक्तिशाली था, कई युवा अल्जीरियाई क्रांति के बारे में फ़ैनन के लेखन के साथ-साथ वियतनाम और अल्जीरिया में फ़्रांसीसी उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ लड़े गए सशस्त्र संघर्ष से उत्पन्न हुई बौद्धिक कृतियों को पढ़ रहे थे। फ़ैनन में युवाओं की बढ़ती रुचि से फ़्रेरे भी प्रभावित हुए। 1987 में, फ़्रेरे ने कहा कि ‘सैंटियागो में किसी राजनीतिक कार्य के लिए आए एक युवक ने मुझे द रैचेड ऑफ़ द अर्थ  किताब दी। मैं पेडागोजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड लिख रहा था। जब मैंने फ़ैनन को पढ़ा, तब तक [मेरी] किताब लगभग पूरी हो चुकी थी। मुझे किताब को फिर से लिखना पड़ा।’ फ़्रेरे, फ़ैनन के मूलभूत-परिवर्तनवादी मानवतावाद से बेहद प्रभावित थे; जन-संघर्षों में विश्वविद्यालय-प्रशिक्षित बुद्धिजीवियों की भूमिका के बारे में उनकी सोच और उनकी चेतावनी कि उत्पीड़ितों के बीच से निकलकर बना अभिजन कैसे नया उत्पीड़क बन सकता है, फ़ैनन के प्रभाव को दर्शाता है।

फ़्रेरे ने इसके बाद बहुत-सी किताबें लिखीं, लेकिन पेडागोजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड उनकी विश्वव्यापी कीर्ति का आधार बनी और तुरंत एक क्रांतिकारी क्लासिक रचना बन गई। यह पुस्तक दुनिया भर में जन-आंदोलनों को प्रेरित करती रही है और फ़्रेरे के विचारों का सबसे अच्छा परिचय प्रदान करती है।

1988 में डरबन में दिए गए एक भाषण में, शिक्षा सहित कई क्षेत्रों में काम करने वाले मूलभूत-परिवर्तनवादी बुद्धिजीवी, नेविल ऐलेक्ज़ेंडर ने कहा था कि ‘फ़्रेरे के लिए, मनुष्यों की अपनी गतिविधियों पर सीधे विचार करने की क्षमता ही जानवरों और मनुष्यों के बीच के अंतर को निर्णायक रूप से स्थापित करती है। उनके अनुसार, यही क्षमता मानवीय चेतना और आत्म-चेतन (सेल्फ़-कॉन्शियस) अस्तित्व की अनूठी विशेषता है और यही [क्षमता] है जो लोगों के लिए अपनी परिस्थितियों को बदलना संभव बनाती है।’ दूसरे शब्दों में कहें तो, फ़्रेरे का मानना था कि सब लोग चिंतन करने में सक्षम होते हैं, और सामूहिक रूप से किया जाने वाला आलोचनात्मक चिंतन, संगठन और संघर्ष का आधार होता है।

फ़्रेरे का मानना है कि उत्पीड़न सभी मनुष्यों -उत्पीड़ित और उत्पीड़क दोनों को- अमानुषिक बनाता है और ‘उत्पीड़ितों की स्वतंत्रता और न्याय की आकांक्षा’ से निकली राजनीति के मुक्तिकामी रूप मनुष्यों द्वारा ‘अपनी खोई हुई मनुष्यता को पुन: प्राप्त करने’ की माँग को ही दर्शाते हैं। उन्होंने लिखा है कि ‘अत: उत्पीड़ितों का महान मानवतावादी और ऐतिहासिक कार्यभार है: स्वयं को और साथ ही अपने उत्पीड़कों को भी मुक्त (लिबरेट) करना।’

फ़्रेरे कहते हैं, लेकिन इसमें एक ख़तरा यह है कि जो व्यक्ति उत्पीड़ित है और उत्पीड़न से आज़ाद होना चाहता है, वह यह मानने लग सकता है कि आज़ाद होने के लिए उसे उत्पीड़क जैसा बनना चाहिए: ‘उनको आदर्श मर्द बनना है, परंतु उनके लिए, मर्द होना होना उत्पीड़क होना है।’ फ़्रेरे का मानना था कि संघर्ष के दौरान राजनीतिक शिक्षा इसलिए ज़रूरी है ताकि उत्पीड़ितों के बीच से आने वाले अभिजनों को नये उत्पीड़क बनने से बचाया जा सके, और वे यह चेतावनी देते हैं कि ‘जब शिक्षा मुक्तिकामी नहीं होती, तब उत्पीड़ितों का सपना होता है उत्पीड़क बनना।’

फ़्रेरे के लिए, स्वतंत्रता के सही मायने हैं प्रत्येक व्यक्ति को पूरी तरह से मानव बनने का अवसर देना; इसलिए स्वतंत्रता के लिए लड़े जा रहे संघर्ष में हर प्रकार के उत्पीड़नों को समाप्त करने का संघर्ष भी शामिल होना चाहिए। ये संघर्ष कुछ लोगों की स्वतंत्रता का नहीं बल्कि हर क्षेत्र के हर व्यक्ति की मुक्ति का संघर्ष होना चाहिए। उन्होंने कहा, लेकिन कई कारणों के चलते उत्पीड़ित हमेशा इस उद्देश्य को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते। कभी-कभी उत्पीड़ित ख़ुद को उत्पीड़ित के रूप में देख ही नहीं पाते; क्योंकि उन्हें यह विश्वास करना सिखाया गया होता है कि जिस तरह से चीज़ें हो रही हैं, वो परिस्थितियाँ ‘सामान्य’ हैं या उनकी अपनी ग़लतियों का परिणाम हैं। उदाहरण के लिए, उत्पीड़ितों को यह मानना सिखाया जाता है कि वे ग़रीब हैं क्योंकि उनके पास सही और पर्याप्त शिक्षा नहीं है, और दूसरे अमीर हैं क्योंकि उन्होंने अमीर बनने के लिए कड़ी मेहनत की है। इसी तरह से, उन्हें अपनी ग़रीबी के लिए किसी और परिस्थिति को (जैसे ‘अर्थव्यवस्था’) या किसी और समुदाय को (जैसे ‘विदेशी’) गुनहगार के रूप में देखना भी सिखाया जाता है।

सच्ची मुक्ति, वास्तविकता को स्पष्ट रूप से देखने-समझने के साथ शुरू होती है। यही कारण है कि फ़्रेरे मूलभूत-परिवर्तनवाद तथा सामूहिक रूप से प्रश्न करने तथा संवाद और अधिगम  को इतना अधिक महत्व देते हैं। उनका तर्क है कि गंभीर और आलोचनात्मक चिंतन के द्वारा हम हमारे वास्तविक जीवन और हमारे अनुभवों में व्याप्त उत्पीड़न को ज़्यादा सटीक रूप से देख सकेंगे, और उसके अंत के लिए अधिक प्रभावी ढंग से लड़ सकेंगे।

अपनी परिस्थितियों के बारे में आलोचनात्मक चिंतन करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने के किए जाने वाले राजनीतिक कार्यों का मतलब ये नहीं है कि उसके द्वारा लोगों को हर चीज़ की आलोचना करना सिखाया जाए; बल्कि इनका मूलतत्त्व यह है कि यथार्थ जैसा दिखता है उस पर लगातार सवाल उठाना -ख़ासकर ‘क्यों’ का सवाल, कि वास्तविकता जैसी है, वैसी ‘क्यों’ है?- ताकि हर परिस्थिति के, और विशेषकर ऐसी चीज़ों के, जिनके बारे में हम दृढ़ता से महसूस करते हैं, मूल कारणों को समझा जा सके। इस प्रकार के सवाल उठाकर लोग अपने जीवित अनुभवों और अपने विचारों के प्रति सचेत होते हैं और इस सवाल, कि उन्हें उत्पीड़न और अन्याय का सामना क्यों करना पड़ता है, के लिए अपना जवाब खोजने लगते हैं। यह पारंपरिक शिक्षा से बिलकुल अलग है, जहाँ सर्व-ज्ञानी शिक्षक सीखने वालों के [ख़ाली] दिमाग़ में वो ‘ज़रूरी’ ज्ञान भरने की कोशिश करता है जिसे शिक्षक उनके लिए आवश्यक समझता है। फ़्रेरे ने लिखा है कि ‘दूसरों को परम अज्ञानी बताना उत्पीड़न की विचारधारा की विशेषता है।’ फ़्रेरे, शिक्षा के इस मॉडल को बैंकीय शिक्षा कहते हैं, जिसमें शिक्षकों के पास ज्ञान का भंडार होता है, जिससे वे सीखने वालों के ख़ाली दिमाग़ों में ठीक उसी प्रकार ज्ञान जमा करते हैं जैसे बैंक के ख़ाली खातों में धन जमा किया जाता है। फ़्रेरे ने लिखा है कि :

जो स्त्री या पुरुष मुक्ति में आस्था रखने की बात तो करते हैं और फिर भी जनता से घनिष्ठता स्थापित करने में असमर्थ रहते हैं, क्योंकि वह जनता को बिलकुल अज्ञानी समझते हैं, वह गंभीर आत्मछलावा के शिकार हैं। मत-परिवर्तन करके जनता की तरफ़ आया हुआ व्यक्ति यदि जनता द्वारा उठाए गए प्रत्येक क़दम से, उसके द्वारा व्यक्त किए गए प्रत्येक संदेह से और उसके द्वारा दिए गए प्रत्येक सुझाव से घबरा जाता है और उस पर अपनी ‘हैसियत’ थोपने की कोशिश करता है, तो इसका मतलब है कि वो अपनी जड़ों को भूला नहीं है।

यह ग़ैर-सरकारी संगठनों या छोटे राजनीतिक समूहों द्वारा आयोजित किए जाने वाले राजनीतिक शिक्षा कार्यक्रमों से बहुत अलग है, जो मानता है कि उत्पीड़ित अज्ञानी और चिंतन करने में अक्षम होते हैं और उन कार्यक्रमों का उद्देश्य उत्पीड़ितों को ज्ञान देना है। फ़्रेरे ने कहा कि ‘वे नेता, जो संवादात्मक ढंग से काम नहीं करते, बल्कि अपने निर्णयों को थोपने का आग्रह करते हैं, जनता को संगठित नहीं करते बल्कि उससे तिकड़म करते हैं। वे न तो दूसरों को मुक्त करते हैं, न स्वयं मुक्त होते हैं। वे उत्पीड़न करते हैं।’

फ़्रेरे ने यह भी महसूस किया कि लोग अकेले अपने दम पर उत्पीड़न और अन्याय की स्थितियों को नहीं बदल सकते। इसका मतलब यह है कि मुक्ति का संघर्ष सामूहिक रूप से लड़ा जाना चाहिए। उन्होंने सुझाव दिया कि जिसे वे ‘एनिमेटर’ कहते हैं, वो इसमें मदद कर सकते हैं। ‘एनिमेटर’ ग़रीबों और उत्पीड़ितों की जीवन स्थितियों के बाहर से आ सकता/ती है लेकिन वो एक ऐसी भूमिका निभाता/ती है जो उन स्थितियों में रह रहे लोगों की सोच और जीवन और उनकी शक्ति को बढ़ाने में उनकी मदद करे। एनिमेटर उत्पीड़ितों पर अपनी शक्ति थोपने के लिए काम नहीं करता/ती। एनिमेटर एक सवाल उठाने वाला समुदाय बनाने के लिए काम करता/ती है जिसमें हर कोई सतत ज्ञान में योगदान दे सकता है, और उत्पीड़ितों की लोकतांत्रिक शक्ति का निर्माण किया जा सकता है। इसे प्रभावी बनाने के लिए उनमें विनम्रता और प्यार की भावना का होना आवश्यक है; यह महत्वपूर्ण है कि एनिमेटर ग़रीबों और उत्पीड़ितों के जीवन और उनकी दुनिया में प्रवेश करे और ऐसा करते हुए उनके साथ एक सच्चे और बराबरी पर आधारित संवाद की शुरुआत करे।

फ़्रेरे ने लिखा है कि:

[कोई व्यक्ति] जितना अधिक मूलभूत-परिवर्तनवादी होता है, उतना ही अधिक वह यथार्थ में प्रवेश करता है, ताकि उसे बेहतर तौर पर जानकर उसका बेहतर रूपांतरण कर सके। दुनिया की सच्चाई का पता चलने के बाद वह उसे देखने, सुनने और उसका सामना करने से डरता नहीं है। वह जनता से मिलने व उनसे संवाद करने से डरता नहीं है। वह न तो स्वयं को इतिहास का या मनुष्यों का स्वामी समझता है, न उत्पीड़ितों का मुक्तिदाता; लेकिन वह इतिहास के अंतर्गत उनके पक्ष में लड़ने के लिए स्वयं को प्रतिबद्ध अवश्य करता है।

एनीमेटर और उत्पीड़ितों में से आने वाले शिक्षार्थी दोनों ही वास्तविक संवाद की इस प्रक्रिया में कुछ योगदान देते हैं। इस संवाद के माध्यम से और जीवन के अनुभवों पर पूरी सोच-समझ के साथ, सामूहिक और आलोचनात्मक चिंतन की वजह से उत्पीड़ितों में से आए शिक्षार्थी और एनीमेटर दोनों का ‘विवेकीकरण’ होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, वे वास्तव में उत्पीड़न की प्रकृति को समझने लगते हैं। लेकिन, फ़्रेरे के लिए, केवल दुनिया को समझना ही काफ़ी नहीं है; ‘आवश्यक है अशक्त लोगों की कमज़ोरी को सशक्त लोगों की ताक़त में बदल देना जो न्याय की माँग कर सकें।’

उत्पीड़न के ख़िलाफ़ ये काम हमेशा हमारे द्वारा की गई कार्रवाइयों और उनके परिणामों पर सचेत चिंतन (विचार) के साथ जुड़ा होना चाहिए। कार्रवाई और उसकी समीक्षा परिवर्तन-चक्र का हिस्सा है, कार्ल मार्क्स का अनुसरण करते हुए फ़्रेरे जिसे ‘आचरण (प्रैक्सिस)’ कहते हैं।

 

Book covers of Pedagogy of the Oppressed in different languages.

विभिन्न भाषाओं में छपी ‘पेडागोजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड’ किताब के आवरण चित्र।

 

दक्षिण अफ़्रीका में फ़्रेरे के विचारों का महत्व

 

आप कह सकते हैं कि पॉलो फ़्रेरे एक महान विचारक थे। लेकिन हमारे लिए पॉलो फ़्रेरे को ब्राज़ील की बजाय दक्षिण अफ़्रीकी संदर्भ में समझना ज़रूरी था। हम ब्राज़ील के बारे में कुछ भी नहीं जानते थे सिवाय उसके जो हम पढ़ रहे थे। मैं इस प्रकार के किसी अन्य लेखन से परिचित नहीं हूँ, जिसका उपयोग हम दक्षिण अफ़्रीका में दक्षिण अफ़्रीका के संदर्भ को समझने और उसमें हस्तक्षेप करने के लिए कर सकते थे।

बर्नी पिटयाना, अश्वेत चेतना आंदोलन की एक प्रमुख बुद्धिजीवी

 

फ़्रेरे ने अफ़्रीका के कई देशों का दौरा किया था, लेकिन रंगभेदी (अपार्थेड) सरकार ने उन्हें दक्षिण अफ़्रीका में आने की अनुमति नहीं दी थी। फिर भी, वो अपनी पुस्तकों में दक्षिण अफ़्रीका की चर्चा करते हैं और बताते हैं कि कैसे दक्षिण अफ़्रीका के रंगभेद-विरोधी कार्यकर्ता उनके काम के बारे में बात करने के लिए उनसे मिलने आए थे और दक्षिण अफ़्रीकी संदर्भ में इसका क्या मतलब था। रंगभेद-विरोधी संघर्ष में शामिल कई संगठनों और आंदोलनों ने फ़्रेरे के विचारों और तरीक़ों का उपयोग किया था।

 

अश्वेत चेतना आंदोलन

हालाँकि रंगभेदी सरकार ने पेडागोजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन चोरी-छुपे इस किताब की प्रतियाँ बाँटी जाती रहीं। 1970 के दशक की शुरुआत से फ़्रेरे के विचारों का दक्षिण अफ़्रीका में उपयोग होने लगा था। अश्वेत चेतना आंदोलन पर फ़्रेरे के विचारों के प्रभाव के बारे में लिखने वाली एक कॉलेज लेक्चरर लेसली हेडफ़ील्ड का मानना है कि 1970 के दशक के शुरुआत में पेडागोजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड पहली बार यूनिवर्सिटी क्रिस्चियन मूवमेंट (यूसीएम) के माध्यम से दक्षिण अफ़्रीका में पहुँची थी। इस आंदोलन ने फ़्रेरे से प्रेरित होकर साक्षरता परियोजनाएँ भी चलाईं। यूसीएम ने 1968 में स्टीव बीको, बर्नी पिटयाना और ऑब्रे मोकोपे आदि द्वारा स्थापित किए गए दक्षिण अफ़्रीकी छात्र संगठन (सासो) के साथ मिलकर काम किया। सासो, अश्वेत चेतना आंदोलन (बीसीएम) को खड़ा करने वाले शुरुआती संगठनों में से एक था।

जोहानेसबर्ग की एक मूलभूत-परिवर्तनवादी ईसाई महिला तथा ‘प्रेम और न्याय द्वारा दुनिया को बदलने’ के लिए प्रतिबद्ध ईसाई महिलाओं के एक संगठन ‘ग्रेल’ की सदस्या ऐनी होप, 1969 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय, बॉस्टन में और फिर तंज़ानिया में फ़्रेरे से मिलीं थीं। 1971 में उनके दक्षिण अफ़्रीका लौटने के बाद, बीको ने उनसे फ़्रेरे की सहभागिता विधियों पर छह महीने के लिए सासो  के नेताओं के साथ काम करने के लिए कहा। इन मासिक कार्यशालाओं में बीको के साथ चौदह अन्य कार्यकर्ताओं ने फ़्रेरियन पद्धति का प्रशिक्षण लिया। बीसीएम के एक प्रमुख नेता रहे बेनी खोआपा याद करते हैं कि ‘पाउलो फ़्रेरे… ने स्टीव बीको पर एक स्थायी दार्शनिक छाप छोड़ी थी।’ 

इन कार्यशालाओं के दौरान, विवेकीकरण की प्रक्रिया के एक हिस्से के रूप में कार्यकर्ता समुदाय-आधारित अनुसंधान करने के लिए बाहर जाते थे। बर्नी पिटयाना याद करते हैं कि :

ऐनी होप अनिवार्य रूप से एक साक्षरता प्रशिक्षण कार्यक्रम ही चला रहीं थीं, लेकिन वो एक अलग तरह का साक्षरता प्रशिक्षण था क्योंकि वो पाउलो फ़्रेरियन साक्षरता प्रशिक्षण था जिसमें वास्तव में मानव अनुभव के माध्यम से अवधारणाओं की समझ विकसित की जा रही थी। यहाँ रोज़मर्रा के अनुभवों और रोज़मर्रा की आम समझ पर चिंतन होता था: इन अनुभवों का लोगों के दिमाग़ पर क्या प्रभाव पड़ता है और उससे उन्होंने क्या सीखा और समझा है इस पर विचार किया जाता था।

मुझे लगता है कि हम में से कुछ लोगों ने पहली बार पाउलो फ़्रेरे को जाना था; मेरे लिए तो निश्चित रूप से ऐसा ही था, लेकिन स्टीव, स्टीव बीको विविध प्रकार के लेखन पढ़ने वाला व्यक्ति था, बहुत-सी चीज़ें जो स्टीव को पता थीं, हमें उनके बारे में नहीं पता होता था। और इसलिए, वो पाउलो फ़्रेरे का पेडागोजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड पहले पढ़ चुके थे और दक्षिण अफ़्रीका में दमनकारी प्रणाली की व्याख्या करने के लिए इसका इस्तेमाल करने लगे थे।

फ़्रेरे का यह तर्क कि केवल उत्पीड़ित ही सब को मुक्त कर सकते हैं, इस बात को ध्यान में रखते हुए बीसीएम ने भी रंगभेद-विरोधी संघर्ष का नेतृत्व करने में अश्वेतों की महत्वपूर्ण भूमिका पर ज़ोर दिया। फ़्रेरे ने ज़ोर देकर कहा था कि ‘पहचान की चेतना के बिना, कोई वास्तविक संघर्ष नहीं लड़ा जा सकता।’ उनका यह विचार भी बीसीएम आंदोलन में प्रतिध्वनित होता था। इस आंदोलन ने श्वेत वर्चस्व के ख़िलाफ़ स्वाभिमानी और दृढ़ अश्वेत पहचान को मज़बूती के साथ रखा।

आंदोलन को आलोचनात्मक चिंतन की निरंतर प्रक्रिया के रूप में विवेकीकरण को जारी रखने वाली परियोजना में फ़्रेरे के विचारों से हर क़दम पर प्रेरणा मिलती रही। ऑब्रे मोकोपे, जो पैन-अफ़्रीकनिस्ट कांग्रेस (पीएसी) के सदस्य रहे थे और सासो की स्थापना करने वाले छात्रों के लिए गुरु-समान बन गए थे, बताते हैं कि अश्वेत चेतना और विवेकीकरण के बीच की कड़ी बेहद स्पष्ट है :

इस सरकार को उखाड़ फेंकने का एकमात्र तरीक़ा यही है कि हमारे लोगों को यह समझ में आने लगे कि हम क्या करना चाहते हैं और वे इस प्रक्रिया को अपने हाथ में ले लें, दूसरे शब्दों में कहें तो, [वे] समाज में अपनी स्थिति के प्रति सचेत हो जाएँ, यानी … [अलग-अलग दिखने वाले] बिंदुओं को जोड़ें, समझें कि यदि आपके पास अपने बच्चे के स्कूल की फ़ीस देने के लिए, मेडिकल स्कूल की फ़ीस देने के लिए पैसे नहीं हैं… और आपके पास रहने के लिए पर्याप्त जगह नहीं है, आपके परिवहन के साधन बेहद ख़राब हैं, तो ये सभी चीज़ें एक ही क्रम बनाती हैं; ये सभी चीजें वास्तव में एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। ये सभी चीज़ें हमारी सामाजिक प्रणाली में अंतर्निहित हैं, यानी समाज में आपकी जो स्थिति है उनके बीच आपसी संबंध है और इनके व्यवस्थागत कारण हैं।

 

Steve Biko

डरबन में 1971 में हुए दक्षिण अफ्रीकी छात्र संगठन (सासो) के सम्मेलन में स्टीव बीको (खड़े हुए) और रुबिन फिलिप (सबसे दाएं)।
स्टीव बीको फाउंडेशन
स्टीव बीको
फ्रेज़र मैकलीन/ हिस्टोरिकल पेपर्स रिसर्च आर्काइव यूनिवर्सिटी ऑफ विटवॉटर्सरैंड। 

 

चर्च

1972 में, बीको और बोक्वे मफ़ुना (जो कि फ़्रेरियन विधियों के प्रशिक्षण में शामिल रहे थे) को बेनी खोआपा द्वारा क्षेत्र अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया था। खोआपा दक्षिण अफ़्रीकी काउंसिल ऑफ़ चर्चेज़ (एसएसीसी) और क्रिश्चियन इंस्टीट्यूट के ब्लैक कम्युनिटी प्रोजेक्ट्स (बीसीपी) के प्रमुख थे तथा फ़्रेरियन विधियों में प्रशिक्षित थे। बीसीपी का काम फ़्रेरे से काफ़ी प्रभावित था। दक्षिण अफ़्रीका में बीसीएम और क्रिश्चियन चर्चेज़ मुक्तिकामी धर्मशास्त्र से प्रभावित रहे हैं; मुक्तिकामी धर्मशास्त्र, वो मूलभूत-परिवर्तनवादी विचारधारा है जिससे फ़्रेरे प्रेरित भी हुए थे और फिर जिसमें उन्होंने वैचारिक योगदान भी किया। रुबिन फ़िलिप, जो 1972 में सासो के उपाध्यक्ष के रूप में चुने गए थे, और आगे चलकर एंग्लिकन धर्माध्यक्ष भी बने, बताते हैं कि:

पॉलो फ़्रेरे मुक्तिकामी धर्मशास्त्र के संस्थापकों में से एक माने जाते हैं। वो एक ईसाई थे जिन्होंने अपना धर्म एक मुक्तिकामी तरीक़े से जिया। पाउलो ने अपनी पद्धति के केंद्र में ग़रीबों और उत्पीड़ितों को रखा, जो कि मुक्तिकामी धर्मशास्त्र की मूल अवधारणा तथा ग़रीबों को प्राथमिकता देने के विकल्प का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।.

मुक्तिकामी धर्मशास्त्र के विचारों का -और संयुक्त राज्य अमेरिका में जेम्स एच कोन द्वारा विकसित किए गए अश्वेत मुक्तिकामी धर्मशास्त्र का- दक्षिण अफ़्रीका में, विभिन्न प्रकार के संघर्षों पर गहरा प्रभाव पड़ा। बिशप रुबिन याद करते हैं कि :

हमारी बातचीत से जो मैंने सीखा, वह यह था कि हमें आलोचनात्मक विचारक होने की ज़रूरत है… मुक्तिकामी धर्मशास्त्रियों का मानना है कि शिक्षा की तरह धर्मशास्त्र, मुक्ति के लिए होना चाहिए, न कि अनुकूलित करने के लिए। धर्म ने हमें श्रद्धालु बना दिया, हमें हमारी आलोचनात्मक क्षमता का उपयोग करने और ज्ञान को हमारी रोज़मर्रा की वास्तविकता से जोड़ने में आलसी बना दिया है। तो, उनके लिए शिक्षा का मतलब है…  जीवन को आलोचनात्मक तरीक़े से जीना और अपनी ज़िंदगी को [अर्जित] ज्ञान से जोड़कर देखना।

 

श्रमिक आंदोलन

अश्वेत चेतना आंदोलन में अश्वेत श्रमिक परियोजना जैसे श्रमिक संगठन शामिल थे, जो कि बीसीपी और सासो की संयुक्त परियोजना थी। 1970 के दशक में शुरू की गई श्रमिक शिक्षा परियोजनाओं के माध्यम से मज़दूरों के आंदोलन भी फ़्रेरियन विचारों से प्रभावित हो रहे थे। इन परियोजनाओं में से एक था शहरी प्रशिक्षण कार्यक्रम (यूटीपी), जिसमें यंग क्रिश्चियन वर्कर्स की सी-जज-एक्ट-कार्यप्रणाली (दखो-निर्णय करो-कार्रवाई करो) का इस्तेमाल किया गया था, जिसने फ़्रेरे की अपनी सोच और कार्यप्रणाली को प्रभावित किया था। यूटीपी में श्रमिकों को अपने रोज़मर्रा के अनुभवों पर सोचने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करने हेतु इस पद्धति का उपयोग होता था, जिससे कि वो सोच सकें कि वे अपनी स्थिति और दुनिया को बदलने के लिए क्या कर सकते हैं। यूटीपी के अलावा, वामपंथी छात्रों ने नेशनल यूनियन ऑफ़ साउथ अफ़्रीकन स्टूडेंट्स (नुसास) के अंदर और उसके द्वारा संयोजित कई श्रमिक शिक्षा परियोजनाएँ चलाईं। सासो 1968 में नुसास से अलग हो गया था, लेकिन बड़े पैमाने पर श्वेत संगठन होने के बावजूद, नुसास सचेत रूप से एक रंगभेद विरोधी संगठन बना रहा और फ़्रेरे के विचारों से सीखता रहा; चूँकि नुसास के कई सदस्य पहले यूसीएम का हिस्सा रह चुके थे।

 

1970 के दशक के दौरान, नेटाल विश्वविद्यालय, विटवाटर्सरैंड विश्वविद्यालय और केप टाउन विश्वविद्यालय में वेतन आयोग स्थापित किए गए थे। विश्वविद्यालयों और कुछ प्रगतिशील यूनियनों के संसाधनों का उपयोग करते हुए इन वेतन आयोगों ने कुछ ऐसी व्यवस्थाएँ कीं, जिनसे केप टाउन में पश्चिमी प्रांत श्रमिक सलाह ब्यूरो (WPWAB), डरबन में जनरल फ़ैक्ट्री वर्कर्स बेनिफ़िट फ़ंड (GFWF), और जोहानेसबर्ग में औद्योगिक सहायता सोसायटी (IAS) का गठन करने में मदद मिली। कई वामपंथी छात्रों और पुराने ट्रेड यूनियन सदस्यों -जैसे कि डरबन में हेरिएट बोल्टन-  ने इन पहलों का समर्थन किया। डरबन में, रिक टर्नर, एक परिवर्तनवादी शिक्षक जिनकी शिक्षण शैली पर फ़्रेरे का प्रभाव था, कई छात्रों के बीच एक प्रभावशाली व्यक्ति बन गए थे। टर्नर सहभागिता पर आधारित जनवादी भविष्य के प्रति प्रतिबद्ध थे और उनके कई छात्र प्रतिबद्ध ऐक्टिविस्ट बने।

इन गतिविधियों में शामिल रहे डेविड हेम्सन बताते हैं कि :

दो ख़ास दिमाग़ काम कर रहे थे, एक [टर्नर] बेल्लैर में लकड़ी व लोहे से बने घर में; और दूसरा [बीको] ऐलन टेलर आवास में धुएँदार और मशीनों की गड़गड़ाहट से भरी वेंटवर्थ तेल रिफ़ायनरी के साये में। दोनों घनिष्ठ मित्र बने और दोनों अपने ऊर्जावान लेखन तथा राजनीतिक संबद्धता के कारण रंगभेदी सुरक्षा तंत्र के हाथों मारे गए। दोनों पाउलो फ़्रेरे के पेडागोजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड से प्रभावित थे तथा स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध इस पुस्तक के विचार और अवधारणाएँ उनकी लेखनी का हिस्सा बनीं।.

उमर बादशा उन छात्रों में से थे जो टर्नर के बेहद क़रीब थे; वे औद्योगिक शिक्षा संस्थान (आईआईई) की स्थापना में शामिल रहे। वे याद करते हैं कि :

रिक टर्नर शिक्षा में बहुत रुचि रखते थे,  किसी अन्य बुद्धिजीवी की तरह हमने पढ़ना शुरू किया, और हमने जो किताबें पढ़ीं उनमें से एक थी पउलो फ़्रेरे की किताब जो उस समय हाल ही में प्रकाशित हुई थी। और यह किताब हमारे विचारों से मिलती थी, यानी इसमें शिक्षण के बारे में कुछ मूल्यवान विचार मौजूद थे और -जनता और उसके साथ संबंध बनाने को ध्यान में रखते हुए- शिक्षण का एक पुष्टिकारी (अफ़र्मेटिव) तरीक़ा सुझाया गया था।

जनवरी 1973 में, डरबन के मज़दूरों ने बड़ी हड़ताल की। ये एक ऐसी घटना थी जिसे अब श्रमिक संगठनों में और रंगभेद के विरोध में की गई सभी गतिविधियों में एक प्रमुख कार्रवाई के रूप में देखा जाता है। हेम्सन याद करते हैं कि :

भोर के झुटपुटे में से वो निकलते आ रहे थे, कोरोनेशन ब्रिक्स के बैरक जैसे हॉस्टलों से, पाइनटाउन में दूर तक फैली हुई कपड़ा मिलों से, नगर निगम के अहातों से, बड़ी-बड़ी फ़ैक्ट्रियों, मिलों और कारख़ानों से और लघु फ़ाइव रोज़ेज़ चाय प्रसंस्करण संयंत्र से। दबे-कुचले और शोषित लोग मालिकों व उनके शासन को चुनौती देने के लिए अपने पैरों पर उठ खड़े हुए थे। एकत्रित घेराबंदियों, हड़तालियों की नेतृत्वहीन जन-सभाओं, बंद किए गए मज़दूरों के मजमों के सामूहित तथा व्यक्तिगत अभिव्यक्तियों में साहस था। रंगभेद की कठोर व्यवस्था में दरारें आने लगीं और स्वतंत्रता के नये रूपों का जन्म हुआ। नयी अवधारणाओं ने मानवीय रूप लिया: बुनकर फ़ैक्ट्री मज़दूरों का नुमाइंदा बन गया, असंगठित श्रमिकों की जगह बड़े पैमाने पर संगठित श्रमिक आए, कपड़ा प्रशिक्षक मज़दूरों का एक प्रतिबद्ध नेता बन गया, संकोची बूढ़ा आदमी ज़िंदगी की एक नयी शुरुआत कर कांग्रेस का अनुभवी कार्यकर्ता बन गया, सफ़ाई कर्मचारी को सामान्य श्रमिक की तरह परिभाषित किया गया।

 

Clover's main factory at Congella (Durban) was crippled when its 500 African employees went on strike for higher wages. 7 February 1973, Clover Dairy, Durban. Credit: Mike Duff / Source Sunday Times

जब वेतन बढ़ाने की माँग करते हुए 500 अफ्रीकी कर्मचारी हड़ताल पर गए तो कोंगेल्ला (डरबन) में क्लोवर डेयरी का मुख्य कारखाना लगभग बंद हो गया था।
7 फरवरी 1973, क्लोवर डेयरी, डरबन।
माइक डफ/ संडे टाइम्स

 

डरबन चरण के बाद

डरबन में 1973 की हड़तालों से पहले और बाद का समय डरबन चरण के रूप में जाना जाने लगा। दो करिश्माई नेताओं बीको और टर्नर के नेतृत्व में यह समय महत्वपूर्ण राजनीतिक रचनात्मकता का समय था, जिसने आने वाले संघर्ष की नींव रखी।

लेकिन मार्च 1973 में, सरकार ने बीको और टर्नर के साथ-साथ रुबिन फ़िलिप सहित कई बीसीएम और नुसास नेताओं पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके बावजूद, जैसे-जैसे हड़तालों के परिणामस्वरूप यूनियनों का गठन हो रहा था, कई विश्वविद्यालय-प्रशिक्षित, अक्सर फ़्रेरे से प्रभावित, बुद्धिजीवी यूनियनों में और यूनियनों के साथ काम करने लगे। ये गतिविधियाँ तेज़ी से बढ़ रहीं थीं। 1976 में, सोवेटो विद्रोह हुआ; ये विद्रोह स्पष्ट तौर पर अश्वेत चेतना आंदोलन से प्रभावित था। इसके बाद संघर्ष का एक नया अध्याय शुरू हुआ और जोहानेसबर्ग प्रतिरोध का नया केंद्र बना।

1977 में बीको को पुलिस हिरासत में ही मार डाला गया और इसके बाद अश्वेत चेतना संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके अगले साल टर्नर की हत्या कर दी गई।

1979 में, कई यूनियनों ने मिलकर दक्षिण अफ़्रीका ट्रेड यूनियन संघ (फ़ोसाटो) बनाया। ये ट्रेड यूनियन संघ डरबन चरण की भावना को आगे ले जाने की दिशा में यूनियनों और फ़ैक्ट्रियों के उत्पादन स्थलों पर लोकतांत्रिक श्रमिक नियंत्रण और फ़ैक्ट्री श्रमिकों के प्रतिनिधियों के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए प्रतिबद्ध था।

1983 में, केप टाउन में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ़्रंट (यूडीएफ़) का गठन किया गया। इसने देश भर के जन-संगठनों को एकजुट करने का काम किया। यूडीएफ़ नीचे से ऊपर तक लोकतांत्रिक आचरण विकसित करने और रंगभेद के बाद के भविष्य में मौलिक प्रजातंत्र स्थापित करने की दिशा में काम कर रहा था। 1980 के दशक के मध्य तक, यूडीएफ़ और ट्रेड यूनियन आंदोलन के माध्यम से लाखों लोग लामबंद होने लगे। 1985 में ट्रेड यूनियन आंदोलन अफ़्रीकी नेशनल कांग्रेस से संबद्ध कांग्रेस ऑफ़ साउथ अफ़्रीकन ट्रेड यूनियन्स (कोसाटू) में सम्मिलित हो गया।

इस पूरे समय के दौरान, डरबन चरण में सीखे और विकसित किए गए फ़्रेरियन विचार राजनीतिक शिक्षा और आचरण (प्रैक्सिस) की बहसों के केंद्र में रहे। ऐनी होप और सैली टिम्मेल ने “ट्रेनिंग फ़ॉर ट्रांसफ़ॉर्मेशन” नाम से तीन खंड की कार्यपुस्तिका लिखी, जिसका उद्देश्य था दक्षिणी अफ़्रीका में चल रहे मुक्ति संघर्षों के संदर्भ में फ़्रेरे के तरीक़ों को लागू कर मूलभूत परिवर्तनवादी आचरण (प्रैक्सिस) का विकास करना। पहला खंड ज़िम्बाब्वे में 1984 में प्रकाशित हुआ। दक्षिण अफ़्रीका में इसे तुरंत प्रतिबंधित कर दिया गया, हालाँकि चोरी-छिपी इस किताब की प्रतियाँ बाँटी गईं। यूडीएफ़ से जुड़े ट्रेड यूनियन आंदोलनों और जन-संघर्षों में राजनीतिक शिक्षा के काम के लिए ट्रेनिंग फ़ॉर ट्रांसफ़ॉर्मेशन का इस्तेमाल किया जाता रहा। 

सलीम वैली, जो कि एक कार्यकर्ता और अकादमिक हैं, याद करते हैं कि: ’80 के दशक के साक्षरता समूह, कुछ प्री-स्कूल ग्रूप, श्रमिक शिक्षा परियोजनाएँ और जन-शिक्षा आंदोलन फ़्रेरे से काफ़ी प्रभावित थे।’ साउथ अफ़्रीकन कमेटी फ़ॉर हायर एजुकेशन (सैचेड) भी फ़्रेरे से बहुत प्रभावित थी। 1959 में विश्वविद्यालयों में पृथक्करण (सेग्रेगेशन) लागू करने के सरकारी क़दम का विरोध करने के लिए पहली बार इस समिति का गठन किया गया था। सैचेड ने 1980 के दशक में ट्रेड यूनियनों और जन-आंदोलनों को शैक्षिक समर्थन प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वैली कहते हैं कि ‘नेविल ऐलेग्ज़ैंडर -जो कि सैचेड की केपटाउन इकाई के निदेशक थे- सैचेड [की बैठकों] में और अन्य स्टडी सर्किलों जिनमें वे शामिल होते थे, हमेशा फ़्रेरे की चर्चा करते रहते थे। जॉन सैमुअल्स -सैचेड के राष्ट्रीय निदेशक- जिनेवा में फ़्रेरे से मिले थे।’

1986 से, जन-संघर्षों में ‘जनता की शक्ति’ की अवधारणा बहुत महत्वपूर्ण हो गई थी, हालाँकि इस अवधारणा के अभ्यास के तरीक़ों और इसके मायनों में कई प्रकार की भिन्नता थी। एक तरफ़ जनता को उस मोर्चे के रूप में देखा जाता था जो एएनसी के लिए निर्वासन और अंडरग्राउंड से लौटने व समाज पर उसकी सत्ता क़ायम करने का रास्ता तैयार करेगा। दूसरे पक्ष का मानना था कि ट्रेड यूनियनों और सामुदायिक संगठनों में लोकतांत्रिक प्रथाओं और संरचनाओं का विकास रंगभेद के बाद के भविष्य, जिसमें भागीदारीपूर्ण लोकतंत्र सामान्य जीवन के हर स्तर जैसे कार्यस्थलों, समुदायों, स्कूलों, विश्वविद्यालयों, आदि में गहराई से रचा बसा होगा, के निर्माण के लिए शुरुआती ज़मीन तैयार करेगा। ट्रेड यूनियन के नारे ‘आज ही कल का निर्माण करें’ का यही मतलब था।

हालाँकि उस समय में फ़्रेरे का बहुत अधिक प्रभाव था, लेकिन 1980 के दशक के उत्तरार्ध में राजनीति के बढ़ते सैन्यीकरण के साथ और ख़ास तौर पर 1990 में एएनसी पर से प्रतिबंध हटने के बाद से फ़्रेरे का प्रभाव कमज़ोर होने लगा। एएनसी के निर्वासन और भूमिगत अवस्था से लौटने के साथ ही सामुदायिक जन-संघर्षों को अलग-थलग किया जाने लगा और ट्रेड यूनियन आंदोलन को प्रत्यक्ष रूप से एएनसी की ताक़त के अधीन कर दिया गया। यह स्थिति फ़्रांत्ज़ फ़ैनन द्वारा ‘द रैचेड ऑफ़ द अर्थ’ [धरती के मनहूस] में वर्णित स्थिति से अलग नहीं थी:

आज पार्टी का मिशन जनता में ऊपर से जारी किए गए निर्देश लागू करना रह गया है। अब नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे का लाभकारी आदान प्रदान मौजूद नहीं रहा, जो किसी पार्टी में लोकतंत्र का निर्माण भी करता है और उसे सुरक्षित भी रखता है। इसके विपरीत, पार्टी ने ख़ुद को जनता और नेताओं के बीच एक दीवार की तरह खड़ा कर लिया है।

 

Rick Turner, undated. Credit: Helen Joseph Collection of the Historical Papers Research Archive, University of the Witwatersrand

रिक टर्नर।
हेलेन जोसेफ कलेक्शन ऑफ़ द हिस्टोरिकल पेपर्स रिसर्च आर्काइव, यूनिवर्सिटी ऑफ विटवॉटर्सरैंड
(बाएं से दाएं) हेनरी फैजी, मर्फी मोरोबे और अल्बर्टिना सिसुलु, दक्षिण अफ्रीका की काउंसिल ऑफ चर्चेज़ (एसएसीसी) और यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) के मुख्यालय, खोत्सो हाउस, में। 
जोहान्सबर्ग, दक्षिण अफ्रीका, कोई तारीख़ नहीं।
जोए सेफ़ाले/ गैलो इमेज़िस
फेडरेशन ऑफ साउथ अफ्रीकन ट्रेड यूनियंस (फोसाटो) की बैठक।
विट्स हिस्टोरिकल पेपर्स

 

वर्तमान संदर्भ में पॉलो फ़्रेरे

रंगभेद के बाद की नयी शासन व्यवस्था के कुछ हलक़ों में फ़्रेरे के विचार फलते रहे। उदाहरण के लिए, लोकतांत्रिक व्यवस्था के शुरुआती वर्षों में, डर्बन के वर्कर्स कॉलेज, जो कि एक ट्रेड यूनियन शिक्षा परियोजना थी, में कुछ ऐसे शिक्षक भी शामिल थे, जिनका फ़्रेरियन विधियों में गहरा विश्वास था। दार्शनिक मबोगो मोरे इनमें से ही एक शिक्षक थे जिन्होंने अश्वेत चेतना आंदोलन में भाग लिया था। वे याद करते हैं कि 1970 के दशक में जब वे यूनिवर्सिटी ऑफ़ द नॉर्थ (जिसे टरफ़्लूप भी कहते हैं) में छात्र थे तब उन्हें पहली बार ‘सासो द्वारा आयोजित शीतकालीन निर्माण विद्यालयों में इस्तेमाल की जाने वाली “विवेकीकरण” की अवधारणा के माध्यम से फ़्रेरे के बारे में पता चला था। बाद में, टरफ़्लूप के तात्कालीन लाइब्रेरियन, स’बु न्देबेले, किसी तरह पेडागोजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड की एक प्रति ले आए, जिसे हमने बतौर विवेकीकृत छात्र चोरी-चोरी फ्रांत्ज़ फ़ैनन की द रैचेड ऑफ़ द अर्थ के साथ पढ़ा था’।

1994 में, मोरे ने संयुक्त राज्य अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में फ़्रेरे के एक व्याख्यान में भाग लिया था। उनका कहना है कि ‘फ़्रेरे का व्याख्यान दिलचस्प था और उससे पेडागोजी ऑफ़ द ऑप्रेस्ड में बताई गई विधियों के अनुसार मुझे मेरे शिक्षण कार्य  को आकार देने में मदद मिली।’ आज कई संगठन फ़्रेरियन तरीक़ों के प्रति समर्पित हैं, जैसे डरबन में उमटापो केंद्र। उमटापो केंद्र की शुरुआत डरबन में 1986 में अश्वेत समुदायों के भीतर बढ़ती राजनीतिक हिंसा की प्रतिक्रिया स्वरूप हुई थी। ये केंद्र अश्वेत चेतना आंदोलन से निकला था और इसके विभिन्न कार्य स्पष्ट रूप से फ़्रेरे की कार्यप्रणाली पर आधारित है।

फ़्रेरे के विचारों का उपयोग करने वाला एक अन्य संगठन है पीयटरमैरिट्ज़बर्ग का चर्च लैंड प्रोग्राम (सीएलपी), जिसकी जड़ें मुक्तिकामी धर्मशास्त्र परंपरा में हैं; यह परियोजना बिशप रुबिन, अबहलाली बासे मज़ोंडोलो, और कई अन्य ज़मीनी स्तर के संगठनों और संघर्षों से निकटता से जुड़ी हुई है। दक्षिण अफ़्रीका में चल रही भूमि सुधार प्रक्रिया के जवाब में 1996 में सीएलपी स्थापित किया गया और 1997 में यह एक स्वतंत्र संगठन बन गया था। 2000 के दशक के शुरुआती सालों में, सीएलपी ने महसूस किया कि रंगभेद के ख़िलाफ़ चले संघर्ष ने उत्पीड़न का अंत नहीं किया था, सरकार का भूमि सुधार कार्यक्रम कोई मुक्तिकामी दिशा नहीं ले रहा था, और ये भी कि सीएलपी का अपना काम उत्पीड़न को समाप्त करने में मदद नहीं कर रहा था। इसलिए, सीएलपी ने फ़्रेरे का एनीमेशन का विचार अपनाने और नये संघर्षों के साथ एकजुटता स्थापित करने का निर्णय लिया।

सीएलपी के साथ काम करने वाले एक एनिमेटर ज़ोद्वा न्सीबंदे ने कहा कि :

अपनी बातचीत और विचार-विमर्शों में, हम लोगों को सोचने देते हैं क्योंकि हम उनकी सोचने-विचारने की शक्ति नहीं छीनना चाहते हैं। हम लोगों को उनके जीवित अनुभवों के बारे में सोचने के लिए उनसे उत्तेजक सवाल पूछते हैं। हम पाउलो फ़्रेरे के इस विचार पर पूर्णत: विश्वास करते हैं कि ‘समस्या को सामने रखकर दी जाने वाली शिक्षा मनुष्यों को ऐसा प्राणी मानती है, जो निर्माण की प्रक्रिया में है’। जब हम समुदायों के साथ काम करते हुए समस्या को सामने रखकर काम करने की पद्धतियों को अपनाते हैं, तो हम लोगों को उनकी अपनी शक्ति का अहसास करवाते हैं। सिबाबूइसेले इसिथुंज़ी सबो, न्कोबा सिखोल्वा उकुथी नेगेन्क्थी उमसिनदेज़ेलि एसिनदेज़ेला उसुसा इसथुंज़ी सोमसिनदेज़ेल्वा। थिना सिबुयीसेला  इसिथुंज़ी सोमसिनदेज़ेल्वा एसिसुस्वा यिसिह्लूकु सोकुसिनदेज़ेल्वा। [हम उनकी गरिमा उन्हें लौटाते हैं, क्योंकि हम मानते हैं कि जब उत्पीड़क उत्पीड़न करता है, तो वह उत्पीड़ित की गरिमा छीन लेता है। हम उत्पीड़न की क्रूरता द्वारा नष्ट कर दी गई उत्पीड़ितों की गरिमा उन्हें लौटाते हैं]।

हाल के वर्षों में, ब्राज़ील के भूमिहीन श्रमिक आंदोलन (मोविमेंटो सेम टेरा- एमएसटी) के साथ बढ़ते संबंध से दक्षिण अफ़्रीका में फ़्रेरे के विचारों का प्रभाव फिर से बढ़ने लगा है। 1984 में गठित एमएसटी आंदोलन ने लाखों लोगों को संगठित किया है और अनुत्पादक ज़मीनों पर हज़ारों भू-क़ब्ज़े करने में मदद की है। इस संगठन ने दक्षिण अफ़्रीका की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन, नेशनल यूनियन ऑफ़ मेटलवर्कर्स इन साउथ अफ़्रीका (नुमसा) और देश के सबसे बड़े जन-आंदोलन, अबहलाली बासे मज़ोंडोलो के साथ नज़दीकी संबंध बनाए हैं। इसका मतलब है कि नुमसा और अबहलाली बासे मज़ोंडोलो के कई कार्यकर्ता, एमएसटी के राजनीतिक शिक्षा स्कूल, फ़्लोरेस्टन फर्नांडिस नेशनल स्कूल (ईएनएफ़एफ़) के कार्यक्रमों में भाग ले सके हैं।

ईएनएफ़एफ़ स्कूल में कार्यकर्ताओं के अनुभवों और दक्षिण अफ़्रीका में राजनीतिक स्कूलों –जैसे कि डरबन में ईखेनाना भू-क़ब्ज़े पर अबहलाली बासे मज़ोंडोलो द्वारा बनाया और चलाया जा रहा फ्रांत्ज़ फ़ैनन राजनीतिक स्कूल- की स्थापना के बीच स्पष्ट संबंध हैं।

जे सी बेज़ क्षेत्र की नुमसा कमेटी में क्षेत्रीय शिक्षा अधिकारी वुयोलवेथु टोली ने कहा कि :

दक्षिण अफ़्रीका और दुनिया भर की स्कूली शिक्षा प्रणाली शिक्षा की बैंकीय पद्धति का उपयोग करती हैं जहाँ अधिगम की प्रक्रियाएँ पारस्परिक या दो-तरफ़ा नहीं होती हैं। शिक्षक, या जो भी सिखाने वाले हैं, वे ख़ुद को ज्ञान के प्रमुख प्रचारक के रूप में तैनात करते हैं, जहाँ वे ख़ुद को ऐसे देखते हैं जैसे उनका ज्ञान पर एकाधिकार है। लेकिन ट्रेड यूनियन में लोकनिष्ठ शिक्षा के लिए ज़िम्मेदार कॉमरेड होने के नाते हम इस तरह से काम नहीं करते। हम सुनिश्चित करते हैं कि ज्ञान का सामूहिक सृजन हो और सभी सत्र श्रमिकों के अनुभवों पर आधारित हों। हमारा प्रस्थान बिंदु यही है कि कार्यकर्ता का ज्ञान हमारी विषय वस्तु का आधार हो, न कि इसका उल्टा हो। हम शिक्षा की बैंकीय पद्धति पर विश्वास नहीं करते हैं।

ब्राज़ील में पहली बार उत्पन्न हुए फ़्रेरे के विचारों ने पूरी दुनिया में संघर्षों को प्रेरित किया है। दक्षिण अफ़्रीका में बुद्धिजीवियों और आंदोलनों को प्रभावित करने के लगभग पचास साल बाद, उनके विचार आज भी प्रासंगिक और प्रभावशाली हैं। विवेकीकरण का काम एक स्थायी प्रतिबद्धता का काम है, ये जीवन जीने का एक तरीक़ा है। जैसा कि ऑब्रे मोकोपे कहते हैं कि ‘चेतना का कोई अंत नहीं होता। और चेतना की कोई वास्तविक शुरुआत नहीं होती’।

 

अबहलाली बासे मज़ोंडोलो के ईखेनाना लैंड ऑक्युपेशन में फ्रांत्ज़ फ़ैनन पॉलिटिकल स्कूल, काटो मेनर, डरबन, दक्षिण अफ्रीका।
14 अक्टूबर 2020।
रिचर्ड पिटहाउस

 

आभार

इस डोज़ियर के लिए शोध और लेखन का कार्य ज़ामालोत्श्वा सेफ़ात्सा ने किया है।

हम इस डोज़ियर में साक्षात्कार देने के लिए सहमत होने पर निम्नलिखित लोगों को धन्यवाद देना चाहते हैं:

उमर बादशा, जुडी फ़ेविश, डेविड हेम्सन, ऑब्रे मोकोपे, मबोगो मोरे, ज़ोद्वा न्सीबंदे, डेविड निट्सेंग, जॉन पैम्पालिस, बिशप रुबिन फ़िलिप, बर्नी पिटयाना, पैट्रिसिया (पैट) हॉर्न, वुयोलवेथु टोली, सलीम वैली, और स’बु ज़िकोदे।

हम निम्नलिखित संगठनों को भी इस शोध में योगदान देने के लिए धन्यवाद देना चाहते हैं:

अबहलाली बासे मज़ोंडोलो, चर्च लैंड प्रोग्राम, लेवांते पॉपुलर दा जुवेंटुड (पॉपुलर यूथ अपराइज़िंग), नेशनल यूनियन ऑफ़ मेटलवर्कर्स ऑफ़ साउथ अफ़्रीका (नुमसा), द पाउलो फ़्रेरे नेशनल स्कूल और द उमटापो सेंटर।

हम ऐनी हार्ले को भी धन्यवाद देना चाहते हैं, जिन्होंने दक्षिण अफ़्रीका में फ़्रेरे के विचारों के प्रभाव और महत्व पर मार्गदर्शक का काम किया है, और जिनके लेखन ने न केवल इस शोध कार्य के लिए संभावना बनाई बल्कि जिन्होंने ख़ुद भी इस पूरे डोज़ियर के लिखे जाने में खुलकर अपना सहयोग दिया।

 

Further Reading

Biko, Steve. I Write What I Like. Johannesburg: Raven Press. 1996.

Friedman, Steven. Building Tomorrow Today: African Workers in Trade Unions, 1970-1984. Johannesburg: Ravan Press.1987

Fanon, Frantz. The Wretched of the Earth. London: Penguin. 1976.

Freire, Paulo. The Pedagogy of the Oppressed. London: Penguin. 1993.

Freire, Paulo and Macedo, Donaldo. (1987). Literacy: Reading the Word and the World. Routledge. 1987.

Hadfield, Leslie. Liberation and Development: Black Consciousness Community Programs in South Africa. East Lansing: Michigan State University Press. 1996

Macqueen, Ian. Black Consciousness and Progressive Movements under Apartheid. Pietermaritzburg: University of KwaZulu-Natal Press, 2008

Magaziner, Dan. The Law and the Prophets: Black Consciousness in South Africa, 1968-1977. Johannesburg: Jacana. 2008

More, Mabogo. Philosophy, Identity and Liberation. Pretoria: HSRC Press. 2017.

Pityana, Barney; Ramphele, Mamphele; Mpumlwana, Malusi and Wilson, Lindy (Eds.) Bounds of Possibility: The Legacy of Steve Biko & Black Consciousness. David Philip, Cape Town. 2006.

Turner, Rick. The Eye of the Needle: Towards Participatory Democracy in South Africa. Johannesburg. Ravan Press. 1980.

 

The flags of the MST and Abahlali baseMjondolo photographed at the celebration of the movement's fifteenth anniversary. eKhenanan occupation, Durban, South Africa, 4 October 2020. Credit: Landh Tshazi / Abahlali baseMjondolo

एमएसटी आंदोलन की पंद्रहवीं सालगिरह पर एमएसटी और अबहलाली बासे मज़ोंडोलो के झंडों की तस्वीर। ईखेनाना लैंड ऑक्युपेशन, डरबन, दक्षिण अफ्रीका, 4 अक्टूबर 2020।
लन्ध त्शाज़ी/ अबहलाली बासे मज़ोंडोलो

 

 

 


[1] फ़्रेरे को पढ़ते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जब वह मर्द लिखते हैं तो उसका मतलबमानवहोता है 1960 के दशक के अंत तक प्राय: ऐसा ही चलन में था।.