समानता की कठिन राह पर भारत की महिलाएँ

Illustration: Vikas Thakur (India) / Tricontinental: Institute for Social Research

‘साइकिल सीखने आने के लिए उसने अपनी सबसे अच्छी साड़ी पहनी थी। पुडुक्कोट्टई, तमिलनाडु में आयोजित ‘साइकिल टैनिंग कैम्प’ के दौरान। वो एक अच्छी बात पर खुश थी। उसके गाँव की 4000 अति गरीब महिलाएँ, अब उन खदानों की मालिक होंगी, जहाँ वो पहले बँधुआ मज़दूर थीं। उनके संगठित संघर्ष, और एक राजनीतिक रूप से सचेतन साक्षरता अभियान ने पुडुक्कोट्टई को एक बेहतर जगह बनाया है’।- पी साईनाथ
चित्र: विकास ठाकुर (भारत)/ ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान।
संदर्भ चित्र: पी साईनाथ/ पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया (मध्य प्रदेश, जुलाई, 2014)

 


 

Illustration: Karuna Pious P (India) / Young Socialist Artists

ईंट भट्टे पर काम, आम भाषा में इसे ‘पक्का पे काम’ कहा जाता है।
चित्र: करना पाइयस पी (भारत)/ यंग सोशलिस्ट आर्टिस्ट्स
संदर्भ चित्र: खबर लहरिया/ पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया (उत्तर प्रदेश, फ़रवरी, 2017))

 

कुछ सदियों पहले, तेलुगु कवि बडेना ने पत्नी की भूमिका पर एक विजय गान लिखा था: वो जो एक नौकर की तरह काम करती है, एक माँ की तरह खिलाती है, एक देवी जैसी दिखती है, एक वेश्या की तरह सुख देती है, और पृथ्वी जैसी सहनशीलता रखती है। 13वीं शताब्दी की एक कविता में गढ़े गए ये स्त्री गुणआधुनिक भारतीय समाज में इस क़दर पसंद किए जाते हैं कि इस कविता का महिमामंडन आज भी फ़िल्मों, गीतों और साहित्य में अक्सर दिखाई दे जाता है।

भारतीय महिलाओं के लिए, ये सभी गुणउत्पीड़न के अलगअलग रूप हैं, जैसे घरेलू श्रम का बोझ, शरीर तथा यौनिकता का वस्तुकरण, और यह उम्मीद कि महिलाएँ दुर्व्यवहार, हिंसा और शोषण को अपने भाग्य के रूप में स्वीकार करें, और माता, पत्नी, बहन तथा बेटी की सामाजिक रूप से निर्धारित भूमिका को पूरा करती रहें। उन्हें अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व (एजेंसी) के साथ एक इंसान के रूप में कभी देखा ही नहीं जाता। वास्तव में, मनुस्मृति, हिंदू दक्षिणपंथियों की एक अहम और व्यापक रूप से उद्धृत की जाने वाली पुस्तक, जिसने ख़ास तौर पर भारतीय समाज में जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर उत्पीड़न को संहिताबद्ध किया है, स्पष्ट रूप से कहती है कि महिलाओं को बचपन में पिता, वयस्कता में पति और बुढ़ापे में बेटों के नियंत्रण में रखने की ज़रूरत है, और पुरुषों के संबंध में इन भूमिकाओं से परे उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। इस तरह के उत्पीड़न के लिए भारत के (ग़ैरहिंदुओं सहित) सभी समुदायों में स्वीकृति मिलती है।

आधुनिक भारत में, महिलाओं के उठनेबैठने, पहनावे, चलनेफिरने, और उनके सामाजिक संबंधों पर लगे प्रतिबंधों और उनके ख़िलाफ़ विभिन्न प्रकार के अत्याचारोंजैसे घरेलू हिंसा, यौन शोषण, और बलात्कारके लिए आम सहमति की संस्कृति है। महिलाओं द्वारा सांस्कृतिक मानदंडों का उल्लंघन ही उनके ख़िलाफ़ होने वाले अत्याचारों का कारण समझा जाता है।

पूरे देश के आँकड़ों से पता चलता है कि कमसेकम एक तिहाई विवाहित भारतीय महिलाओं ने अपने पतियों के हाथों घरेलू हिंसा का सामना किया है।[1]

इस तरह की हिंसा की भारतीय समुदायों और परिवारों में गहरी स्वीकार्यता हैऔर इस हद तक कि कई महिलाओं ने ख़ुद पर होने वाली हिंसा के औचित्य को आत्मसात कर लिया है। 15-49 आयु वर्ग की बावन प्रतिशत भारतीय महिलाओं का मानना ​​है कि इनमें से किसी भी एक कारण के लिए कोई भी आदमी अपनी पत्नी को मारने या पीटने का हक़ रखता है: पत्नी पति को बिना बताए घर छोड़ दे, आदमी को यदि लगता है कि वह अपने बच्चों की उपेक्षा कर रही है, वह उससे बहस करती है, वह उसके साथ यौन संबंध बनाने से इनकार करती है, वह अच्छा खाना नहीं बनाती है, उसे उसके विश्वासघाती होने का संदेह है, या उसे लगता है कि वह ससुराल वालों का अनादर करती है।

मनुस्मृति को लिखे जाने के बाद लगभग दो सहस्राब्दियाँ बीत गईं और बडेना की कविता लगभग आठ शताब्दी पहले लिखी गई थी, लेकिन फिर भी, ऐसा लगता है, जैसा कि सर्वेक्षण के परिणाम दिखाते हैं, कि 21वीं सदी के भारत की महिलाएँ जिन्होंने शायद मनु को कभी नहीं पढ़ा होगा और ही कभी बडेना के बारे में सुना होगा, अपने पतियों और परिवारों के प्रति दायित्व की वही समान भावना रखती हैं। यह आभ्यंत्रीकरण उस समाज में कोई अजीब बात नहीं है जो व्यापक रूप से इस तरह की हिंसा को नज़रअंदाज़ करता है और जहाँ प्रमुख राजनीतिक दल वैवाहिक बलात्कार को अपराध की तरह देखे जाने का विरोध कर रहे हैं। भारतीय क़ानून यह मानता है कि एक आदमी और उसकी पत्नी, जो वयस्क हो चुकी है, के बीच यौन संबंध को बलात्कार नहीं माना जा सकता है, भले ही पत्नी ने उसके लिए सहमति दी हो या नहीं। अभी हाल ही में अगस्त 2021 में, छत्तीसगढ़ के उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए एक आदमी पर वैवाहिक बलात्कार का मुक़दमा चलाने से इनकार कर दिया कि यौन संबंध या पति द्वारा उसके [पत्नी के] साथ किया गया कोई भी यौन कार्य बलात्कार का अपराध नहीं माना जाएगा, भले ही ऐसा बलपूर्वक या उसकी इच्छा के विरुद्ध किया गया हो प्रगतिशील न्यायाधीश विवाहित महिलाओं के अपनी यौनिकता पर पूर्ण अधिकार को मान्यता दे चुके हैं, लेकिन उनके हाथ प्रतिगामी क़ानूनों से बँधे हैं, जिन्हें हमारी सरकार पक्के तौर पर मानती है और जिनका अधिकांश राजनीतिक दल समर्थन करते हैं।

बेशक, पिछले कुछ वर्षों में कुछ चीज़ें बदली हैं। 1911 में केवल एक प्रतिशत महिलाएँ ही पढ़लिख सकती थीं। [2]अब लगभग एक सदी से थोड़ा अधिक समय बाद, भारत की महिलाओं में साक्षरता दर 70 प्रतिशत है।[3] आज शिक्षा क्षेत्र में महिलाओं के लिए संभावनाएँ बढ़ी हैं: 24 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं में साक्षरता दर लगभग 90 प्रतिशत है और समान आयु वर्ग के पुरुषों की साक्षरता दर के लगभग बराबर है।[4] आज उच्च शिक्षा में महिलाओं का नामांकन पुरुषों के बराबर है। वर्तमान में उच्च शिक्षा में नामांकित छात्रों में से उनतालीस प्रतिशत महिला छात्र हैं, हालाँकि इंजीनियरिंग और चिकित्सा जैसे महँगे और आकर्षक नौकरियों की बेहतर संभावना प्रदान करने वाले कोर्सों में उनकी उपस्थिति विरल है।[5]

साक्षरता और शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की प्रगति के बावजूद, महिलाओं की समाज द्वारा निर्दिष्ट घरेलू भूमिकाएँ बहुत ज़्यादा नहीं बदली हैं। कामकाजी उम्र की महिलाएँ औसतन पाँच घंटे पंद्रह मिनट का समय खाना पकाने, साफ़सफ़ाई करने और कपड़े धोने जैसे घरेलू कामों में बिताती हैं।[6] यह कामकाजी उम्र की 92 प्रतिशत से अधिक महिलाओं द्वारा घरेलू काम पर बिताया जाने वाला औसतन समय है। घरेलू कामों में लगने वाले समय के अलावा, एक तिहाई महिलाएँ, जिनमें से ज़्यादातर के छोटे बच्चे हैं, हर दिन औसतन दो घंटे और सत्रह मिनट बच्चों की देखभाल और उन्हें पढ़ाने में बिताती हैं। इसके विपरीत, 30 प्रतिशत से भी कम पुरुष घरेलू कामों में हाथ बँटाते हैं और केवल 16 प्रतिशत पुरुष ही बच्चों की देखभाल और पढ़ाई में अपना कुछ समय व्यतीत करते हैं। घरेलू काम और बच्चों की देखभाल करने वाले ये थोड़े से पुरुष भी इन कामों पर महिलाओं द्वारा बिताए जाने वाले समय का एक अंश मात्र ही ख़र्च करते हैं।[7] इन ज़िम्मेदारियों में पुरुषों की नगण्य भागीदारी में शिक्षित पुरुष बाक़ी पुरुषों से अलग नहीं हैं। ठीक इसी तरह से, उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली महिलाओं पर इन कामों का बोझ अन्य महिलाओं की तुलना में बहुत अलग नहीं है।

यह स्पष्ट है कि भारत की महिलाएँ आम तौर पर अपने परिवारों में घरेलू काम और देखभाल के काम के रूप में बहुत महत्वपूर्ण उत्पादक गतिविधियों को अंजाम देती हैं। फिर भी, सामाजिक पुनरुत्पादन की अत्यंत आवश्यक प्रक्रिया में भारत की महिलाओं के इस योगदान की कोई मान्यता या पहचान नहीं है। कुछ भी हो, परिवारों के भीतर महिलाओं की सामाजिक पुनरुत्पादनबच्चे पैदा करना, उनकी देखभाल करना और उन्हें पढ़ाना, और कामकाजी परिवार को खाने साफ़सफ़ाई आदि के माध्यम से केवल अगले दिन के लिए ही नहीं, बल्कि पूँजीपति वर्ग की भविष्य की माँगों के लिए भी तैयार करनाके कामों में प्राथमिक भूमिका समाज में महिलाओं के सामने खड़ी समस्याओं से क़रीब से जुड़ी हुई लगती है।

 

Illustration: Junaina Muhammed (India) / Young Socialist Artists

कोरई के खेतों में काम करती एक महिला, इन खेतों में आजीविका कमाने के लिए महिलाएँ अक्सर बहुत छोटी उम्र से ही काम करने लगती हैं। 
चित्र: जुनैना मोहम्मद (भारत)/ यंग सोशलिस्ट आर्टिस्ट्स
संदर्भ चित्र: एम पलनी कुमार/ पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया (तमिलनाडु, अप्रैल, 2021)

 

श्रमिक के रूप में महिलाएँ

आँकड़े बताते हैं कि भारत में नवउदारवादी पूँजीवाद के पिछले तीन दशकों के दौरान कार्यबल (लेबर फ़ोर्स) में महिलाओं की उपस्थिति में भारी कमी आई है। कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी, जहाँ 1999-2000 में 41 प्रतिशत थी, 2011-12 में घटकर 32 प्रतिशत रह गई; और 2018-19 तक, यह तेज़ी से गिरती हुई 25 प्रतिशत पर गई। इसका मतलब है कि 2018-19 में, जब कामकाजी उम्र के तीनचौथाई पुरुष वेतन वाले व्यवसायों में कार्यरत थे, कामकाजी उम्र की तीनचौथाई महिलाएँ जीविकोपार्जन नहीं कर रही थीं, बल्कि इसके बजाय अवैतनिक घरेलू और देखभाल के काम कर रहीं थीं।[8] एक ओर महामारी से प्रेरित आर्थिक संकट के कारण सवैतनिक व्यवसायों में नियोजित महिलाओं का प्रतिशत और भी कम होने की संभावना है, वहीं दूसरी ओर महिलाओं की आवाजाही पर प्रतिबंध बढ़े हैं।

सरकारी नीतियों के कई समर्थक कार्यबल में महिलाओं की घटती उपस्थिति का श्रेय आय प्रभावको देते हैंउनका मानना है कि यह एक सकारात्मक संकेत है कि भारत की आर्थिक वृद्धि परिवारों को ग़रीबी से बाहर ला रही है, और पुरुषों की बढ़ी आय के कारण महिलाओं के लिए वैतनिक काम करने की ज़रूरत कम हो रही है। तर्क दिया जाता है कि भारतीय समाज में, जब किसी परिवार की आय बढ़ती है, तो वे पसंद करते हैं कि महिलाएँ काम पर जाकर घर पर रहें; काम नहीं करना महिलाओं के लिए उच्च सामाजिक स्थिति के संकेतक के रूप में देखा जाता है।

जबकि, निश्चित रूप से सच्चाई ये नहीं है। महिलाओं की कार्यबल में सापेक्षिक रूप से घटती उपस्थिति के लिए दिया जाने वाला यह छद्मसमाजशास्त्रीय तर्क इस तथ्य को छुपा देता है कि महिलाओं को कार्य बल से बाहर किया जा रहा है कि वे ख़ुद आराम से रहने के लिए काम छोड़ने का विकल्प चुन रही हैं। बल्कि सच यह है कि वर्षों से भारतीय अर्थव्यवस्था में किए जा रहे संरचनात्मक परिवर्तनोंविशेष रूप से 1991 के उदारीकरण के बाद सेऔर ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इन परिवर्तनों के असर ने महिलाओं को काम से बाहर किया है।

शहरी महिलाओं की कार्यबल भागीदारी दर दशकों से कम और कमोबेश स्थिर रही है, लेकिन ग्रामीण महिलाओं की कार्यबल भागीदारी दर उदारीकरण से पहले के समय में अधिक थी, हालाँकि पुरुषों के बराबर वो तब भी नहीं थी। आज भी, कार्यबल में शामिल अधिकांश महिलाएँ ग्रामीण क्षेत्रों से हैं और उनमें से अधिकांश कृषि और उससे संबंधित गतिविधियों में कार्यरत हैं।

जब कृषि में मशीनीकरण का स्तर निम्न होता है, तो कृषि पर निर्वाह करने वाले ग़रीब और छोटे किसान परिवार पारिवारिक श्रम का अधिकतम उपयोग करते हैं; नतीजतन, किसान महिलाएँ खेतों में पुरुषों के बराबर या अक्सर उनसे ज़्यादा काम करती हैं। इसके अलावा, कृषि कार्य की मौसमी प्रकृति के चलते श्रमगहन मौसमी कार्यों के दौरान श्रमिकों की माँग सबसे ज़्यादा होती है, और इसलिए कृषि के लिए महिला श्रमिक परम आवश्यक हैं।

भारत में निरंकुश और अनियंत्रित पूँजीवाद या नवउदारवादी पूँजीवाद को स्वीकार लिए जाने के बाद से, कृषि ही वह क्षेत्र है जो सबसे अधिक प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है। पिछले तीन दशकों में, बढ़ती भूमिहीनता, बदलते फ़सल पैटर्न, और बढ़ते मशीनीकरण के साथसाथ कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग ने मौसमी कृषि कार्यों जैसे कटाई, रोपाई और निराई में रोज़गार को बहुत कम कर दिया। यही वो काम थे जो अहम रूप से किसान परिवारों की महिलाओं खेत मज़दूर महिलाओं को सवैतनिक रोज़गार देते थे।

2000 के दशक के शुरुआत से 2010 के दशक के शुरुआती सालों तक भारत ने जिस तरह की उच्च आर्थिक वृद्धि का अनुभव किया, उससे गाँवों में कोई स्थायी वैकल्पिक रोज़गार नहीं पैदा हुआ है। इसके बजाय, ग्रामीण महिलाओं को कुछ ग़ैरकृषि रोज़गार प्रदान करने वाले बुनाई, हथकरघा, साबुन बनाने, भोजन तैयार करने आदि जैसे ग्रामोन्मुखी कुटीर उद्योग समाप्त हुए हैं, जबकि इन सभी सामानों के उत्पादन के लिए अधिकांश बाज़ारों में कॉर्पोरेट उद्योगों का क़ब्ज़ा बढ़ा है। वर्षों से विकसित हो रहे आधुनिक उद्योग केवल कृषि रोज़गार को पहुँचे नुक़सान की भरपाई करने में ही असमर्थ रहे; बल्कि वे आम तौर पर ग्रामीण भारत से दूर भी रहे। ऐसे उद्योग ज़्यादातर कुछ राज्यों और क्षेत्रों के चुनिंदा औद्योगिक इलाक़ों में केंद्रित रहे, जहाँ उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और मध्य प्रदेश जैसे ग़रीब कृषि राज्यों के श्रमिक जीवन यापन करने के लिए प्रवासी मज़दूर बन कर जाने लगे।

विस्थापित हुए अधिकतर पुरुष खेत मज़दूर ग़ैरकृषि अर्थव्यवस्था के उच्च विकास के वर्षों के दौरान ग़ैरकृषि अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन गए। ग़ैरकृषि कार्य अनिवार्य रूप से कार्यस्थल को गाँव से दूर कर देता है, जैसा कि कई ग्रामीण पुरुषों के मामले में होता है, जो भारत के असंगठित कार्यबल के बड़े हिस्से को रोज़गार देने वाले क्षेत्रों निर्माण, पर्यटन, परिवहन, ख़ुदरा व्यापार आदि में काम करने के लिए कम या लम्बे समय के लिए शहरों और महानगरों में प्रवास कर जाते हैं।[9] महिलाओं के लिए इस बदलाव के अनुसार सफलतापूर्वक ढलना ज़्यादा मुश्किल लगता है।

कृषि रोज़गार में कमी, जिसकी भरपाई किसी और तरह के रोज़गार पैदा करके नहीं की गई, का मतलब है कि गाँवों में ही छूट गई ग्रामीण महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा लंबे समय तक बेरोज़गारी में रहने के लिए मजबूर हो गया। इससे यह धारणा पैदा हुई कि महिलाएँ घर से बाहर काम करने के लिए उपलब्ध नहीं हैं। जो महिलाएँ अब भी आधिकारिक तौर पर ग्रामीण कार्यबल का हिस्सा हैं, वे ज़्यादातर कम वेतन वाले अस्थाई अर्धरोज़गारों पर पूरी तरह से निर्भर हैं, जैसे कृषि कार्य जिनका अभी तक मशीनीकरण नहीं हुआ है, महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत मिलने वाला ग्रामीण निर्माण कार्य, या सम्पन्न किसान परिवारों के यहाँ कम वेतन के घरेलू काम, आदि। अपने परिवारों के साथ प्रवास करने वाली ज़्यादातर महिलाएँ जो शहरी परिवेश का हिस्सा बन जाती हैं, उनके पास सबसे कम वेतन और सबसे ज़्यादा उत्पीड़ित करने वाली नौकरियों, जैसे कि खाना बनाना, सफ़ाई करना, और अन्य घरेलू कामों, या बहुत कम वेतन पर आउटसोर्स किए गए घर से ही किए जाने वाले काम जैसे सिलाई, कढ़ाई या पैकिंग के अलावा रोज़गार के बहुत कम विकल्प होते हैं।

भारत की उच्च आर्थिक विकास दरों ने उसके अनुरूप रोज़गार बढ़ाने में योगदान नहीं दिया है। इसके कारण, भारत के श्रमिकों को गंभीर बेरोज़गारी और अल्परोज़गार का सामना करना पड़ रहा है। नियमित रूप से नियोजित श्रमिकों का प्रतिशत बहुत कम है, और शहरी श्रमिक ज़्यादातर असंगठित और अल्पकालिक रोज़गारों में हैं। महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह और भेदभाव के अलावा, बड़ी संख्या में बेरोज़गार पुरुषों के होने का मतलब है कि महिलाविशिष्ट कार्य के रूप में देखे जाने वाले कामों के अलावा, नियोक्ता लगभग हमेशा किसी महिला के बजाय एक पुरुष को काम पर रखेंगे।

छोटे बच्चों वाली महिलाएँ घर और देखभाल के कामों में प्रतिदिन औसतन सात घंटे बत्तीस मिनट बिताती हैं। काम की जगह तक पहुँचने में लगने वाले समय को गिनें (पुरुषों के लिए दैनिक औसत आवागमन समय 60-90 मिनट है), तो महिलाओं के लिए आठ घंटे या उससे अधिक समय के कार्य दिवस वाले रोज़गारों में और कड़े नियोक्ताओं के साथ काम करना मुश्किल हो जाता है। असंगठित कार्य उन महिलाओं के लिए और भी कठिन होता है जिन्हें घरेलू ज़िम्मेदारियों को भी निभाना पड़ता है, क्योंकि इस तरह के कार्यों में अक्सर श्रमिकों को काम की तलाश में इधरउधर जाना पड़ता है और काम की उपलब्धता के आधार पर अक्सर विभिन्न कार्य स्थलों पर रहना पड़ता है।

यद्यपि कृषि कार्य के लिए महिलाओं को मिलने वाली मज़दूरी अन्य क्षेत्रों की तुलना में सबसे कम है, इस क्षेत्र में महिलाओं को एक फ़ायदा है कि वे बच्चों की देखभाल और घरेलू काम करने के लिए कमोबेश आसानी से समय निकाल सकती हैं और यहाँ आनेजाने में कम समय लगता है। इसलिए, कुछ हद तक, ग्रामीण महिलाएँ घर से बाहर रोज़गार के साथ परिवारों में प्राथमिक देखभालकर्ता की अपनी भूमिका में सामंजस्य बिठा पाती हैं।

भारत के शहरी इलाक़ों में, अधिकतर कार्यालयों में चाइल्डकेयर और क्रेच सेवाएँ प्रदान करने की संस्कृति नहीं है। असंगठित क्षेत्र में तो यह मुद्दा एजेंडा में भी नहीं है। कम आय वाली कामकाजी महिलाओं के लिए सरकारें पर्याप्त रूप से मुफ़्त या किफ़ायती सामुदायिक क्रेच उपलब्ध नहीं कराती हैं। भारत में, असंगठित क्षेत्र में मातृत्व अवकाश का विचार ही मौजूद नहीं है। बल्कि, मातृत्व अवकाश और शिशु गृह को अनिवार्य बनाने वाले श्रम क़ानूनों के परिणामस्वरूप महिलाओं की नौकरियाँ गई हैं, क्योंकि नियोक्ता इन सुविधाओं को प्रदान करने के बजाय महिलाओं को काम पर रखने से बचते हैं। आज, आईटी क्षेत्र में रोज़गार प्राप्त करने हेतु कड़े संघर्ष से प्राप्त हुए क़ानूनी लाभों, कि महिलाओं को नाइट शिफ़्ट में काम करने की आवश्यकता नहीं होगी, को दरकिनार कर महिलाओं को नाइट शिफ़्ट में काम करने के लिए सहमत होने को मजबूर किया जाता है।

शहरों में, उच्च शिक्षा प्राप्त थोड़ीसी महिलाओं और अनपढ़ अर्धसाक्षर महिलाओं की कार्यबल भागीदारी दर असल अधिक होती है। इस कड़ी के एक छोर पर वे महिलाएँ हैं जो अत्यंत ग़रीबी के कारण काम करने के लिए मजबूर हैं, जिन्हें यदि एक हफ़्ते की कमाई मिले तो वे भुखमरी की शिकार हो जाएँगी। अन्य नौकरियों के अलावा, ऐसी अधिकतर महिलाएँ बहुत कम मज़दूरी पर कई घरों में घरेलू काम करती हैं। और कड़ी के दूसरे छोर पर वे महिलाएँ हैं जो प्रोफ़ेशनल रोज़गारों में हैं, जिनका वेतन इतना होता है कि वे आमतौर महिलाओं द्वारा किए जाने वाले घरेलू कामों के लिए घरेलू कामगारों (डमेस्टिक वर्कर्स) को नियुक्त कर पाती हैं। यह विडंबना ही है कि मध्यम वर्ग की इन महिलाओं के काम करने और आर्थिक स्वतंत्रता हासिल करने की क्षमता, कठिन परिश्रम से मुक्ति, और उपलब्धि तथा स्वाभिमान की भावना मज़दूर वर्ग की निराश महिलाओं की उपलब्धता पर निर्भर करती है, जिनकी स्थितियाँ इतनी बदतर हैं कि वे मामूली से वेतनों पर काम करने को मजबूर हैं।

आमतौर पर यह माना जाता है कि महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता समाज में उन्हें समान दर्जा दिलाने के लिए एक आवश्यक लेकिन अपर्याप्त शर्त है। वर्तमान में, भारत की 75 प्रतिशत बेरोज़गार महिलाओं के लिए आर्थिक स्वतंत्रता की बात ही नहीं की जा सकती। शेष 25 प्रतिशत महिलाओं में से अधिकांश महिलाएँ इतनी कम मज़दूरी अर्जित करती हैं कि भुखमरी से बचे रहना भी मुश्किल होता है, आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करना तो दूर की बात है।[10] ऐसी स्थिति में, क्या मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की थोड़ीसी महिलाएँ जिन्हें आर्थिक रूप से स्वतंत्र कहा जा सकता है, सही मायने में समानता प्राप्त कर सकती हैं, जब समानता के लिए उनका संघर्ष बाक़ी महिलाओं की स्थितियों से अलगथलग है?

इस बात के पर्याप्त सुबूत हैं कि वाइट कॉलर प्रोफ़ेशनल नौकरियों में काम करने वाली महिलाओं को शारीरिक और यौन शोषण तथा कार्यस्थल पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। हिंसा विशेष तौर पर कामकाजी महिलाओं और सार्वजनिक स्थानों में भागीदारी की हिम्मत करने वाली महिलाओं के ख़िलाफ़ की जाती है, महिलाओं द्वारा लैंगिक भूमिकाएँ लाँघने के ख़िलाफ़ यह पितृसत्तात्मक प्रतिशोध है। आँकड़ों के अनुसार, भारत में कामकाजी महिलाओं के शारीरिक हिंसा की शिकार होने की संभावना अधिक है: 26 प्रतिशत ग़ैरकामकाजी महिलाएँ और 40 प्रतिशत कामकाजी महिलाएँ शारीरिक हिंसा झेल चुकी हैं।[11]

अधिकांश महिलाओं के पास आर्थिक स्वतंत्रता होने का मतलब है कि परिवारों और समुदायों में महिलाओं के प्रति प्रतिगामी दृष्टिकोण लम्बे समय तक क़ायम रहेगा। चाहे उनकी सामाजिक हैसियत, वर्ग और आय कुछ भी हो, सभी महिलाएँ इस दृष्टिकोण का सामना करती हैं।

इन सामाजिकआर्थिक परिस्थितियों में भारत की महिलाएँ मनुष्य के रूप में अपनी गरिमा, स्वतंत्रता और मानव अधिकारों के पक्ष में संघर्ष करती हैं।

 

Illustration: Navya (India)/ Young Socialist Artists

हैदराबाद के निज़ाम के निरंकुश राज और जमिंदारों के सामंती शोषण के ख़िलाफ़ वामदलों के नेतृत्व में लड़े गए तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष की सिपाही महिलाएँ। 
चित्र: नव्या (भारत)/ यंग सोशलिस्ट आर्टिस्ट्स
संदर्भ चित्र: सुंदरैय्या विज्ञान केंद्र (तेलंगाना,1948)

 

समानता के लिए महिलाओं का संघर्ष

अपनी सामाजिकआर्थिक स्थितियों से उत्पन्न बाधाओं के बावजूद, भारत की महिलाएँ अपने अधिकारों की लड़ाई के लिए सामूहिक रूप से लड़ती रहीं हैं। भारत के विभिन्न हिस्सों में एक जीवंत महिला आंदोलन मौजूद है, जिसने वर्षों से महिलाओं की स्थिति के प्रति राज्य की उदासीनता का विरोध किया है, और महिलाओं के नागरिक और श्रमिक होने की जगह से संवैधानिक अधिकारों का दावा पेश करते हुए बहुतसी बड़ी और छोटी लड़ाइयाँ जीती हैं।

भारत में, औपनिवेशिक उत्पीड़न से मुक्ति के संघर्ष से निकले तीसरी दुनिया के अन्य देशों की ही तरह, महिला आंदोलन का जन्म हर प्रकार के उत्पीड़न और शोषण के ख़िलाफ़ चले संघर्षों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ हैइतना ही नहीं महिला आंदोलन की कोई भी बात उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों, किसान आंदोलनों, मज़दूर आंदोलनों और जाति उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लड़े गए संघर्षों की चर्चा के बिना अधूरी है। महिलाओं की स्वतंत्र राजनीतिक पहचान के रूप में पहली महत्वपूर्ण और स्पष्ट अभिव्यक्ति इन्हीं संघर्षों में हुई थी।

भारत के विभिन्न हिस्सों में जब उपनिवेश विरोधी संघर्ष अपने चरम पर था, तब ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों, ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार करने, औपनिवेशिक टैक्स क़ानूनों का विरोध, और पुलिस अत्याचारों से अपने गाँवों की रक्षा करने के लिए बड़ी संख्या में महिलाएँ आगे आईं थीं। महिलाओं की भागीदारी से भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की व्यापक लोकतांत्रिक जगह बनी; यही कारण है कि स्वतंत्रता आंदोलन को राजनीतिक स्थानों में महिलाओं की उपस्थिति को स्वीकार करना पड़ा और उन्हें पुरुषों के समान नागरिकता अधिकार देने के लिए प्रतिबद्ध होना पड़ा। हालाँकि ये अधिकार भारत की आबादी के बड़े हिस्से को पसंद नहीं थे, लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं, जो कि अंततः स्वतंत्र भारत के नेता बने, को संघर्ष में उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वालों के समानता के दावों को स्वीकार करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप 1950 में स्वतंत्र भारत के संविधान ने महिलाओं को समान अधिकार दिए।

औपनिवेशिक और सामंती शोषण के ख़िलाफ़ हुए किसान आंदोलनों का महिलाओं की राजनीतिक जागृति पर और भी गहरा प्रभाव पड़ा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन ने बड़ी संख्या में मध्यम वर्ग की महिलाओं को आकर्षित किया था, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में लड़े गए सशस्त्र किसान आंदोलन  –जैसे तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष, तेभागा आंदोलन, वर्ली आदिवासी विद्रोह, और विभिन्न क्षेत्रों में लड़े गए इस तरह के अन्य संघर्षमज़दूर वर्ग और किसान पृष्ठभूमि की महिलाओं को सशस्त्र मुक्ति संघर्षों में लाए। इन संघर्षों में भाग लेने वाली ग्रामीण महिलाएँ केवल ज़मींदारों के शोषण के ख़िलाफ़ लामबंद नहीं हुईं थीं बल्कि वे एक वर्ग आधारित समाज में महिला, किसान और श्रमिक के रूप में अपने मुद्दों को समझती थीं और व्यक्त करने में सक्षम थीं। पहली बार ग्रामीण भारत की महिलाओं ने अपनी सामूहिक कार्रवाई की शक्ति का अनुभव किया और एक सामंती पितृसत्तात्मक समाज द्वारा सीमित अपनी भूमिका से बाहर अपने होने को महसूस किया। कहा जा सकता है कि इन संघर्षों ने भारत के महिला आंदोलन की नींव रखी और समाज के शोषित वर्गों के बीच उनकी पकड़ मज़बूत हुई।

महिलाओं की समानता के सवाल पर भारत के महिला आंदोलन के, शुरू से ही, दो अहम पहलू रहे हैं। पहला, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत में ख़ुद को अवस्थित कर बड़े पैमाने पर राजनीतिक और नागरिकता अधिकारों के इर्दगिर्द महिलाओं के संघर्ष खड़े करना। स्वायत्त महिला संगठन और स्वतंत्र कार्यकर्ता अक्सर इस दृष्टिकोण से काम करते हैं, और घरेलू हिंसा, बलात्कार, यौन हिंसा, दहेज के नाम पर उत्पीड़न, संपत्ति के अधिकारों और महिलाओं के मानवाधिकारों के उल्लंघन जैसे मुद्दों पर प्रगतिशील क़ानून बनाने की पैरवी करते हैं और इनके तहत अभियान चलाते हैं। प्रत्येक संगठन या कार्यकर्ता अक्सर किसी एक विशेष मुद्दे पर काम करता है। हालाँकि ऐसे संगठनों और कार्यकर्ताओं की संख्या बहुत अधिक है, लेकिन जनता के बीच उनकी पहुँच बहुत कम है। इनका काम मुख्य रूप से मध्यम वर्गों के बीच प्रचार करने और नीतियाँ बनाने की जगहों पर लॉबी करने तक सीमित है। यद्यपि ये संगठन और कार्यकर्ता सामान्य रूप से महिला आंदोलन के लिए महत्वपूर्ण रहे हैं, फिर भी इनकी क्षमता और महिला मुक्ति के प्रश्न पर इनका दृष्टिकोण सीमित है।

महिलाओं के सवाल पर दूसरा दृष्टिकोण विभिन्न किसान और श्रमिक आंदोलनों में महिलाओं की लामबंदी से पैदा हुआ था। यह दृष्टिकोण पहले वाले का विरोधाभासी या उससे अलग नहीं है; बल्कि, यह दृष्टिकोण उपरोक्त दृष्टिकोण को इस समझ के साथ जोड़ता है कि पितृसत्ता के ख़िलाफ़ महिलाओं के संघर्ष में शोषक वर्ग संरचनाओं के ख़िलाफ़ संघर्ष अनिवार्य रूप से शामिल होने चाहिए और ये भी कि महिलाएँ केवल महिलाएँ नहीं हैं बल्कि किसान, खेत मज़दूर, औद्योगिक श्रमिक आदि भी हैं।

दूसरा दृष्टिकोण अपनाने वाले संगठन भारत में एक मज़बूत वामपंथी महिला आंदोलन के रूप में विकसित हुए हैं। आज, यही सबसे परिवर्तनवादी महिला संगठन हैं, ग्रामीण किसान वर्ग और कामकाजी वर्ग की महिलाओं के साथसाथ शहरी मज़दूर वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग की महिलाओं के बीच जिनकी महत्वपूर्ण उपस्थिति है। जिन क्षेत्रों में ये संगठन सक्रिय हैं, वहाँ वे महिलाओं के मुद्दों पर स्वतंत्र रूप से तथा किसान और श्रमिक आंदोलनों के साथ मिलकर संघर्ष करते हैं। समुदायों के भीतर वामपंथी किसान और मज़दूर आंदोलनों की उपस्थिति महिला आंदोलन के कार्यकर्ताओं के परिवारों और समुदायों के भीतर उनके लिए एक बेहतर जगह बनाती है। यह तर्क इस तथ्य से सिद्ध होता है कि जिन क्षेत्रों में महिला आंदोलन ने महत्वपूर्ण पैठ बनाई है और बड़े पैमाने पर लामबंदी की है, उन क्षेत्रों में किसान और मज़दूर वर्ग के आंदोलनों की ऐतिहासिक रूप से उल्लेखनीय उपस्थिति रही है। इसके साथसाथ, इन वर्ग संगठनों के साथ मिलकर काम करने से महिला आंदोलन को अपनी माँगों के लिए अपने कार्यकर्ताओं और सदस्यों के अलावा और भी लोगों का समर्थन मिलता है। दूसरी ओर, महिला आंदोलन अन्य आंदोलनों के माँग पत्रों में महिला श्रमिकों की विशिष्ट माँगों को भी शामिल करवा पाती हैं, जैसे समान काम के लिए समान वेतन, महिला श्रमिकों के लिए मातृत्व अवकाश, कार्यस्थलों पर बाल गृह (क्रेच) की सुविधा, और महिलाओं के यौन उत्पीड़न को रोकने और उसकी शिकायतों की जाँच करने के लिए कमेटियों का गठन आदि।

अलगअलग दृष्टिकोण के बावजूद, दोनों तरह के महिला संगठन और सभी नज़रियों के कार्यकर्ता विभिन्न माँगों और मुद्दों पर और ख़ास संघर्षों के लिए अक्सर एक साथ मिलकर काम करते रहे हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि ख़ुद वामपंथी आंदोलन महिलाओं के मानवाधिकारों और नागरिकता के अधिकारों के मुद्दों को उठाने के महत्व को भी समझता है और समाज की वर्गआधारित नींव को तोड़ना भी ज़रूरी समझता है।

 

Illustration: Tings Chak (China) / Tricontinental: Institute for Social Research

महिलाओं के यौन उत्पीड़न की घटनाओं पर कार्रवाई की मांग करने के लिए अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति, स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया, नौजवान सभा और सीटू द्वारा सयुक्त रूप से आयोजित एक प्रदर्शन में एक प्रदर्शनकरि नारा देते हुए। यह प्रदर्शन 16 दिसंबर 2012 की दिल्ली गैंग-रेप घटना के बाद उमड़े जन-प्रतिरोध में से एक प्रदर्शन था।
चित्र: टिंग्स चक (चीन)/ ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान
संदर्भ चित्र: सुबिन डेनिस (भारत)/ ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान (दिल्ली, 23, दिसंबर, 2012)

 

पितृसत्तात्मक हिंसा का विरोध

यौन हिंसा की अधिकांश घटनाएँ या तो पतियों/प्रेमियों (86 प्रतिशत) या रिश्तेदारों और जानकारों द्वारा अंजाम दी जाती हैं।[12] भारत की 30 प्रतिशत विवाहित महिलाओं को उनके पति पीटते हैं, इस हिंसा के लिए परिवारों और समाज में आम स्वीकृति है; महिलाओं की अपने परिवारों पर आर्थिक और मनोवैज्ञानिक निर्भरता के कारण उनके लिए बोलना मुश्किल हो जाता है। अक्सर, महिलाएँ तभी मदद माँगती हैं, जब हिंसा असहनीय हो जाती है। केवल दो फ़ीसदी मामले ही थाने तक पहुँचते हैं।[13]

और तब, पुलिस अक्सर महिलाओं को अपने हमलावरों के साथ समझौता करने के लिए मनाने की कोशिश करती है। पड़ोस की महिलाओं या महिला संगठनों के हस्तक्षेप के बाद ही पुलिस कोई कार्रवाई करने को तैयार होती है। अधिकतर पीड़ित महिलाएँ क़ानूनी रास्ता नहीं चुनतीं क्योंकि पुलिस और क़ानूनी कार्यवाही महँगी और अनिश्चित होती है और अक्सर, वे और उनके बच्चे ज़िंदा रहने के लिए पूरी तरह से हिंसा करने वाले पर ही निर्भर होते हैं। इसके अलावा, महिलाओं को क़ानूनी सहारा लेने से रोकने में समाज में कलंकित हो जाने का डर सबसे ज़्यादा प्रभावशाली तरीक़े से काम करता है। जिन मामलों में महिलाएँ पुलिस और अदालतों का रास्ता चुनती हैं, उनमें अक्सर वे ऐसा इसलिए कर पाती हैं क्योंकि महिला संगठन ऐक्शन लेने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करते हैं और क़ानूनी सहायता परामर्श प्रदान करते हैं।

अधिकांश लिंग आधारित हिंसा परिवारों के भीतर होती है, इसलिए महिला संगठनों के लिए सीधे हस्तक्षेप करना मुश्किल होता है। यही कारण है कि महिला आंदोलन राजनीतिक और न्यायिक प्रक्रियाओं के माध्यम से शारीरिक और यौन शोषण से पीड़ित महिलाओं का समर्थन करने वाले क़ानूनों को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष करता है। हिंसा की कई भयावह घटनाओं के बाद ही महिलाओं के अधिकारों के समर्थन में क़ानून बनाने की माँग पर लोगों को लामबंद किया जा सका है।

[मथुरा] 1972 में, महाराष्ट्र में एक आदिवासी समुदाय की चौदह साल की लड़की मथुरा के साथ दो पुलिसकर्मियों ने बलात्कार किया। इस घटना के ख़िलाफ़ महिलाओं में व्यापक रूप से आक्रोश फैल गया। मथुरा, जिस लड़के के साथ संबंध में थी उसके ख़िलाफ़ एक मामला दर्ज था। इस मामले में गवाही देने के लिए पुलिसकर्मियों ने मथुरा को थाने में बुलाया था। जहाँ उन्होंने उसके साथ बलात्कार किया। मथुरा की सात साल तक चली क़ानूनी लड़ाई ने न्यायपालिका और पुलिस की अक्षमता, पूर्वाग्रहों, अज्ञानता और स्त्री द्वेष को उजागर कर दिया। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अंतिम निर्णय ने निष्कर्ष निकाला कि चौदह वर्षीय मथुरा का बलात्कार नहीं किया जा सकता था, क्योंकि वह एक अनैतिक आदिवासी लड़की थी जो वर्जिन नहीं थी, उसने कोई शोर नहीं मचाया, उसके शरीर पर किसी ज़ोर ज़बरदस्ती के निशान नहीं थे, और बहुत संभावना है कि उसी ने शराब के नशे में धुत पुलिसकर्मियों को संभोग के लिए उकसाया हो। पुलिस की हिरासत में किया गया बलात्कार और मथुरा के प्रति देश के सर्वोच्च न्यायालय के स्त्रीद्वेषी और आदिवासीविरोधी पूर्वाग्रहों ने महिला संगठनों और कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में यौन हिंसा के ख़िलाफ़ संभवत: पहली बार पूरे देश भर में विरोधप्रदर्शनों को प्रेरित किया। इन विरोधप्रदर्शनों, और वामपंथी दलों के कार्यकर्ताओं महिला सांसदों के प्रयासों के कारण संसद दंड संहिता में संशोधन करने, यौन उत्पीड़न का सबूत पेश करने का बोझ पीड़िता से आरोपी पर स्थानांतरित करने और हिरासत में किए गए बलात्कार को एक अलग अपराध की तरह मानने को मजबूर हुई।

[दहेज के लिए हत्याएँ] 1980 के दशक के शुरुआत में, देश भर में हिंसक और व्यापक रूप से प्रचारित दहेज हत्याओं की कई घटनाएँ सामने आईं। शादी के बाद महिलाओं पर और अधिक दहेज के लिए दबाव डाला जाता था और अगर वे ऐसी माँगों को पूरा नहीं कर पातीं, तो उनके पति और ससुराल वाले अक्सर उन्हें जलाकर मार देते थे। अपराधी दावा करते थे कि इस प्रकार की हत्या आत्महत्या या अचानक रसोई में आग लगने से हुई हत्या है। हालाँकि दहेज से संबंधित हिंसा और मौतें नयी नहीं थीं, लेकिन इस दौरान महिला संगठनों और समूहों का विस्तार हो रहा था जिसने महिलाओं के देशव्यापी आंदोलन का नेतृत्व किया। इस आंदोलन का असर यह हुआ कि एक क़ानून लागू हुआ, जिसके तहत किसी महिला की शादी के सात साल के भीतर जलने या शारीरिक चोट के कारण मृत्यु हो जाने के मामले में पति और ससुराल वालों पर अपनी बेगुनाही साबित करने की ज़िम्मेदारी आई। पर, इस तरह के हमले आज भी जारी हैं।

[सामूहिक बलात्कार] 1992 में, मामूली वेतन पाने वाली एक सरकारी सामाजिक कार्यकर्ता, भँवरी देवी का उसके गाँव के ऊँची जाति के पुरुषों ने सामूहिक बलात्कार किया था। सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते भँवरी देवी की ज़िम्मेदारियों में से एक थी बाल विवाह को रोकना। उन्होंने नौ साल की एक लड़की की शादी रोकने की कोशिश की थी, इसके लिए उनका उत्पीड़न हुआ। सबसे पहले उनके परिवार का सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार किया गया और फिर उनके परिवार के ख़िलाफ़ हिंसा हुई। इसके बाद पाँच लोगों ने भँवरी देवी के पति को पीटा और उनके सामने भँवरी देवी के साथ सामूहिक बलात्कार किया।

पुलिस ने केस दर्ज करने में देरी की, मेडिकल परीक्षकों ने शुरू में उसकी जाँच करने से इनकार कर दिया (और फिर जाँच करने में इतना समय लगा दिया कि सबूत कमज़ोर हो गए), मामले की जाँच के दौरान पाँच न्यायाधीशों को बिना किसी स्पष्टीकरण के बदला गया और 1995 में छठे न्यायाधीश ने अपराधियों को हास्यास्पद तर्क देकर बरी कर दिया (कि ऊँची जाति के पुरुषों ने निचली जाति की महिला का बलात्कार नहीं किया होगा और उसके पति की उपस्थिति में उसका बलात्कार नहीं किया जा सकता) प्रभुत्वशाली जातियाँ इस क़दर बलात्कारियों का समर्थन कर रहीं थीं कि जब उन्हें केस से बरी किया गया तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से संबंधित स्थानीय सांसद ने उनके लिए एक विजय रैली का आयोजन किया था। भँवरी देवी की नियोक्ता, राजस्थान की राज्य सरकार, उसका समर्थन करने या भविष्य में यौन हिंसा को रोकने के लिए कोई क़दम उठाने में विफल रही। लेकिन भँवरी देवी के अपने साहस और उनके पक्ष में एकजुट हुईं हज़ारों महिलाओं के समर्थन ने संसद और न्यायपालिका पर दबाव डाला, जिसके बाद भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय, विशाखा जज्मेंट पास किया जिसमें कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न के मामलों से निपटने के लिए दिशानिर्देश दिया गया है।

1997 के विशाखा जज्मेंट के तहत महिलाओं के लिए एक सुरक्षित कार्यस्थल सुनिश्चित करने और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों की सुनवाई करने की व्यवस्था निर्मित करने की ज़िम्मेदारी नियोक्ताओं की है। सालों से, कई विश्वविद्यालयों के छात्र अपने शिक्षण संस्थानों में इन दिशानिर्देशों को लागू करवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। आज भी कामकाजी महिलाएँ इन दिशानिर्देशों को अपने कार्यस्थलों पर लागू करवाने के लिए संघर्ष कर रही हैं।

भारत में बलात्कार की घटनाएँ आम हैं, लेकिन यौन उत्पीड़न के एक प्रतिशत से भी कम मामले ही पुलिस में रिपोर्ट होते हैं। भँवरी देवी जैसी महिलाओं पर जिस तरह की क्रूर यौन हिंसा की जाती है, वह रूढ़िवादी समाज की पारंपरिक भूमिकाओं से बाहर निकलने का साहस करने वालों को सबक़ सिखाने के लिए पितृसत्ता का एक तरीक़ा है। लेकिन इन महिलाओं ने अपनी लड़ाई में असाधारण हिम्मत दिखाई है, जिससे व्यापक महिला आंदोलन के लिए जनता के बीच अभियान चलाने, नीति निर्माण प्रक्रिया में लॉबी करने और प्रगतिशील क़ानून बनवाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने की जगह बनी है।

भारत की महिलाओं के लिए, जिनमें से आधी महिलाओं को अपने आप बाहर जाने की भी इजाज़त नहीं है, महिला आंदोलन द्वारा जीते गए क़ानूनी अधिकार शायद ही कभी वास्तविक रूप से अस्तित्व में आते हैं। सार्वजनिक क्षेत्र और सामूहिक जगहों से महिलाओं का अलगाव यौन हिंसा के मामलों के निवारण को रोकता है। इसीलिए भँवरी देवी जैसी महिलाओं के द्वारा उठाए गए क़दम असाधारण हैं। जबकि नये क़ानून बनवाने की लड़ाई संघर्षों को आगे बढ़ाने में सक्षम महिलाओं के लिए नयी संभावनाएँ खोलने के हिसाब से महत्वपूर्ण है, लेकिन इस लड़ाई के साथ महिलाओं के ख़िलाफ़ हर दिन उनके समुदायों में होने वाली हिंसा, उत्पीड़न और भेदभाव का सामूहिक रूप से सामना करने की ज़रूरत ख़त्म नहीं हो जाती। वामपंथी महिला आंदोलन ने बाधाओं के बावजूद इस तरह की सामूहिक लामबंदी के महत्व को साबित किया है।

[अरकविरोधी आंदोलन] 1990 के दशक में आंध्र प्रदेश की महिलाएँ घरेलू हिंसा और अरकएक सस्ती शराबके ख़िलाफ़ सामूहिक रूप से लामबंद हुई थीं। उस समय, राज्य में सबसे अधिक शराब की खपत दर्ज की गई थी। राज्य सरकारों ने नवउदारवादी नीतियाँ लागू की थीं, जिसके कारण उनका राजस्व कम होने लगा था। इसलिए धन जुटाने के लिए सरकारों ने शराब पर उत्पाद शुल्क लगाना शुरू कर दिया था। भारत में क़रीब 30 फ़ीसदी पुरुष और क़रीब एक फ़ीसदी महिलाएँ शराब का सेवन करते हैं। आँकड़े शराब के सेवन और पितृसत्तात्मक हिंसा के बीच संबंध दर्शाते हैं; जिन महिलाओं के पति शराब नहीं पीते हैं उनमें से 22 प्रतिशत और जिनके पति शराब पीते हैं उनमें से 71 प्रतिशत महिलाओं ने घरेलू हिंसा की रिपोर्ट दर्ज कराई है।[14] जब सरकार ने अरक की बिक्री को बढ़ावा दिया, तो ग्रामीण समुदायों में घरेलू और यौन हिंसा में भी वृद्धि हुई। खेत मज़दूरोंमुख्य रूप से दलितपरिवारों की महिलाओं ने अपने परिवारों के पुरुषों, शराब के कारोबार और सरकारी तंत्र से टक्कर ली।

अरकविरोधी आंदोलन उस समय शुरू हुआ जब वामपंथी महिला आंदोलन और जन विज्ञान आंदोलन कई गाँवों में प्रौढ़ साक्षरता अभियान चला रहा था। जब महिलाएँ साक्षरता अभियान के दौरान इकट्ठी होने लगीं, तो जल्द ही उनकी चर्चा अपनी समस्याओं, विशेष रूप से घरों में शराब के कारण होने वाली हिंसा पर जाती। घरेलू हिंसा ही एकमात्र मुद्दा नहीं था: शराब के सेवन में मज़दूरी का बड़ा हिस्सा खप जाता है, यहाँ तक कि महिलाओं की अपनी मज़दूरी का पैसा शराब पीने के लिए उनसे ज़बरदस्ती छीन लिया जाता है जिसके कारण घर चलाना और बच्चों को खिलाना मुश्किल हो जाता है।

दुब्बाका गाँव में, जहाँ पर शराब के नशे में विशेष रूप से हिंसक घटनाएँ घटी थीं, साक्षरता अभियान के दौरान एकत्रित हुई महिलाओं ने स्थानीय शराब की दुकान को नष्ट कर दिया। जल्द ही, राज्य भर में महिला आंदोलन ने इस तरीक़े को अपनाया और गाँवगाँव की महिलाएँ शराब की दुकानों को नष्ट करने, शराब की आपूर्ति को तोड़ने, सरकार द्वारा शराब लाइसेंस की नीलामी को बाधित करने और कभीकभी पुरुषों को घर पर बंद करने, यहाँ तक कि अपने समुदायों के पुरुषों, पुलिसवालों और शराब कारोबारियों द्वारा नियुक्त गुंडों के साथ लड़ाई करने के लिए एकजुट होने लगीं। महिलाओं ने इस आंदोलन को दो साल तक जारी रखा जब तक कि उन्होंने राज्य सरकार को शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के लिए मजबूर नहीं कर दिया (हालाँकि कुछ वर्षों के बाद ये प्रतिबंध हटा दिया गया)

कई राज्यों और समुदायों में महिलाओं को लामबंद करने के लिए अरकविरोधी आंदोलन आज भी एक महत्वपूर्ण जगह है, हालाँकि ये हो सकता है कि आज 1992 के आंदोलन जितनी महिलाओं को लामबंद किया जा सके, क्योंकि जो प्रतिबंध लगे थे वे आम तौर पर कमज़ोर थे और बाद में राज्य सरकारों द्वारा हटा दिए गए थे। 1992 के अरकविरोधी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण कारक यह भी था कि राज्य में वामपंथी किसान और मज़दूर वर्ग के संगठनों की उपस्थिति थी, जिन्होंने गाँवों में आंदोलनकारी महिलाओं और कार्यकर्ताओं का पुरज़ोर समर्थन किया।

 

Illustration: Jazila Lulu (India)/ Young Socialist Artists

नागरिकता संशोधन कानून का विद्रोह करती एक मुस्लिम महिला।
चित्र: जज़िला लूलू (भारत)/  यंग सोशलिस्ट आर्टिस्ट्स
संदर्भ चित्र: विकास ठाकुर (भारत)/ ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान (दिल्ली, दिसंबर, 2019)

 

राजनीति में महिलाएँ

बढ़ती साक्षरता और शिक्षा के स्तर, दृश्य और प्रिंट मीडिया के साथ व्यापक संपर्क, और अरक, दहेज, बढ़ती क़ीमतों घटते वेतन के ख़िलाफ़ तथा अन्य मुद्दों पर आंदोलनों में भागीदारी से चुनावों के अलावा राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। राजनीतिक दलों ने महिलाकेंद्रित वायदोंजैसे कि रसोई गैस के प्रावधान के लिए योजनाएँ, शौचालयों का निर्माण, महिलाओं के लिए पेंशन, आसान ऋण की सुविधा और स्वयं सहायता समूहों के लिए सब्सिडी आदिके माध्यम से महिलाओं को अपील करने का तंत्र विकसित कर लिया है। हालाँकि इन स्कीमों का सरकारों पर बहुत बड़ा बजटीय बोझ नहीं पड़ता, लेकिन कम पारिवारिक आय और मामूली आर्थिक स्वतंत्रता वाली महिलाओं के लिए ये छोटी सहायता भी उनके संकट को कम करने के लिए शुरुआती बिंदु हो सकती हैं।

राजनीति में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी के बावजूद, निर्वाचित पदों पर या राजनीतिक दलों में (वाम पार्टियों में भी) नेतृत्वकारी भूमिका में महिलाओं की संख्या में पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई है। वर्तमान भारतीय संसद (2019-2024) के सदस्यों में केवल 14 प्रतिशत महिलाएँ हैं। दशकों से महिला संगठन विधानसभाओं तथा लोकसभा में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की माँग कर रहे हैं। वामपंथी पार्टियों को छोड़कर अधिकांश पार्टियाँ इस माँग पर केवल दिखाने के लिए हामी भरती हैं, जबकि वास्तव में वे इसे कमज़ोर करने के लिए काम कर रही हैं। उदाहरण के लिए, भाजपा के वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावों से पहले महिलाओं के लिए संसद की 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने का वादा किया था। लेकिन, वर्तमान संसद में उनकी पार्टी के भारी बहुमत में होने के बावजूद उन्होंने चुनाव के बाद इस मुद्दे पर चुप्पी बनाए रखी।

गाँवों और शहरी क्षेत्रों के स्थानीय स्वसरकारी संस्थानों के चुनावों में भारत सरकार महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने की माँग पर सहमत हो गई (1992 से, इस स्तर पर इस तरह के आरक्षण लागू किए गए हैं) कई राज्यों ने 33 प्रतिशत के बजाए महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर दी। कई लोगों का अनुमान था कि इसके बाद राज्यों की विधानसभाओं और संसद में महिलाओं के लिए आरक्षण लागू किया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

स्थानीय स्वसरकारी संस्थानों को सरकारी धन का केवल छोटासा अंश प्राप्त होता है, लेकिन इस स्तर की राजनीति में महिलाओं का प्रभाव महत्वपूर्ण रहा है। हालाँकि यह सच है कि कई मामलों में वे महिलाएँ ही इन सीटों पर चुनाव लड़ती हैं जो उन पुरुषों से संबंधित हैं, जो कि स्थानीय राजनीतिक नेता हैं, लेकिन यह भी सच है कि वे अक्सर अपना स्वयं का राजनीतिक करियर भी बनाती हैं और बहुत बार महत्वपूर्ण और नये मानक स्थापित करती हैं। स्थानीय संस्थानों में महिलाओं का पाना भी ग्रामीण समाजों के लिए क्रांतिकारी क़दम है। स्थानीय स्वसरकारी संस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी की स्वतंत्रता उन क्षेत्रों में अधिक है जहाँ महिलाओं, किसानों और श्रमिकों के आंदोलनों की उपस्थिति है।

 

Illustration: Daniela Ruggeri (Argentina) / Tricontinental: Institute for Social Research

मोदी सरकार के महिलाओं और श्रमिकों के प्रति अनुचित व्यवहार का प्रतिरोध करती चाइल्ड केयर वर्कर्स। 
चित्र: डैनिएला रुग्गेरी (अर्जेंटीना)/ ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान
सन्दर्भ चित्र: सुमेधा पाल/ न्यूज़क्लिक (दिल्ली, फरवरी, 2019)

 

नवउदारवादी युग में

पिछले तीस सालों में, भारत के वामपंथी महिला आंदोलन ने महिलाओं के बीच महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है और अनेकों मुद्दों पर नवउदारवाद के ख़िलाफ़ उन्हें लामबंद किया है। आंदोलन ने दोतरफ़ा रणनीति अपनाई है: सामाजिक मज़दूरी से संबंधित मुद्दों पर महिलाओं को लामबंद किया और इस प्रक्रिया में, अपने परिवारों और समुदायों में हिंसा और भेदभाव के ख़िलाफ़ महिलाओं के प्रतिरोध को मज़बूत किया। 1981 में, भारत भर के किसान और मज़दूर संघर्षों से निकले वामपंथी महिला संगठनों ने अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (एडवा) का गठन किया। आज, एडवा अपनी सदस्यता, भौगोलिक प्रसार और इस पिछले तीस सालों में सामने आए कई नये मुद्दों को उठाने की क्षमता के मामले में भारत का सबसे बड़ा महिला संगठन है।

 

स्वयं सहायता समूहों में महिला आंदोलन

नवउदारवादी सुधारों के दौर में बढ़ते कृषि संकट, व्यापक आर्थिक संकट और बढ़ती ग़रीबी ने महिला आंदोलन को सामाजिक वेतन के मुद्दे पर महिलाओं को संगठित करने के लिए प्रेरित किया। जब सरकारों ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) पर राशन कार्डों की संख्या और पीडीएस के माध्यम से वितरित अनाज और प्रावधानों की मात्रा को कम करके ख़र्च में कटौती करने की कोशिश की, तो वामपंथी महिला आंदोलन ने स्थानीय स्तर पर और देश भर में महिलाओं को बजट कटौती के ख़िलाफ़ संगठित करने की पहल की। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में, वामपंथी दलों ने कामकाजी वर्ग के इलाक़ों और गाँवों में महिलाओं को संगठित किया और इन इलाक़ों में राशन की दुकानें स्थापित करने की माँग उठाई और राशन कार्ड पर्याप्त राशन उपलब्ध करवाने के लिए संघर्ष किया। महिलाओं ने राशन पानी, स्ट्रीट लाइट और सड़कों जैसी सुविधाओं की माँगों पर संघर्ष करते हुए स्थानीय अधिकारियों से निपटना भी सीखा।

इसी तरह, जब आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ीं, तो महिलाएँ लामबंद हुईं, क्योंकि वे समझती थीं कि क़ीमतों में बढ़ोतरी का सीधा असर उनकी रसोई पर पड़ता है, और उन्होंने सरकारी योजनाओं को लागू करवाने के लिए स्थानीय स्तर पर लड़ाई लड़ी। हालाँकि नौकरियों की घटती उपलब्धता के कारण महिलाओं का बड़ा वर्ग कार्यबल का हिस्सा नहीं रहा था, फिर भी वे परिवारों और समुदायों के सामाजिक वेतन को बढ़ाने के संघर्षों में सबसे आगे थीं। इन संघर्षों से कई कार्यकर्ता विकसित हुए।

इसी बीच, अपनी नवउदारवादी रणनीति के तहत, विश्व बैंक ने मज़दूर वर्ग के समुदायों के लिए माइक्रोफ़ाइनेंस योजनाओं की वकालत की, ताकि ये समुदाय वित्तीय क्षेत्र के लिए नये ग्राहक बन सकें। माइक्रोफ़ाइनेंस को आर्थिक संकट और मज़दूर वर्ग द्वारा खपत में की जाने वाली कटौतियों के तोड़ के रूप में पेश किया गया। बैंक ने वित्त पूँजी के इस विस्तार को महिलाओं के सशक्तिकरणके रूप में प्रस्तुत किया। महिलाओं की छोटी बचतों को इकट्ठा कर क्रेडिटजो पहले उन्हें उपलब्ध नहीं थाके लिए आवेदन भरने की प्रक्रिया में सहयोग के लिए ग़ैरसरकारी संगठन आगे आए। इस क्रेडिट का उपयोग उन्हें ग़रीबी से बाहर लाने हेतु आयसृजन गतिविधियों के लिए किया जाना था। भारत सरकार ने स्वयं सहायता समूहों की स्थापना की जो कि माइक्रोक्रेडिट समूहों की तरह काम करते हैं जिन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों राज्य और केंद्र सरकारों से फ़ंड मिलता है। वर्तमान में, स्वयं सहायता समूहों की सदस्यता लगभग 6 करोड़ है यानी भारत की वयस्क महिलाओं में 12 प्रतिशत से अधिक इनकी सदस्य हैं।

प्रारंभ में, महिला आंदोलन में स्वयं सहायता समूहों के बारे में आशंकाएँ थीं, क्योंकि ये समूह माइक्रोक्रेडिट समूहों का एक रूप है। ये आशंकाएँ निराधार नहीं थीं। माइक्रोफ़ाइनेंस कंपनियों द्वारा महिलाओं के माइक्रोक्रेडिट समूह बनाने की प्रवृति बढ़ रही है, और इन समूहों ने महिलाओं पर क़हर ही बरपाया है। सरकार द्वारा समर्थित स्वयं सहायता समूहों के विपरीत, इन माइक्रोक्रेडिट समूहों को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक या सरकार फ़ंड नहीं करते। कंपनियाँ इन समूहों को ऊँची ब्याज दरों पर उधार देती हैं। और चूँकि समूह के सभी सदस्य समय पर पुनर्भुगतान के लिए संयुक्त रूप से उत्तरदायी हैं, परिणाम यह होता है कि महिलाओं के सामाजिक बंधन नष्ट हो जाते हैं। यदि कोई महिला अपना ऋण नहीं चुका पाती है तो वो समूह की अन्य महिलाओं और यहाँ तक की माइक्रोफ़ाइनेंस कंपनियों के गुंडों की निंदा, अविश्वास और हिंसा का शिकार होती है।

इस तरह के सामाजिक दबाव और ब्याज दरों (जो कि कहीं कहीं 60 प्रतिशत तक भी है) के कारण कई महिलाओं ने आत्महत्याएँ की है और बहुतसी महिलाएँ इन माइक्रोफ़ाइनेंस कंपनियों का विरोध भी कर रही हैं।

वामपंथी महिला आंदोलन ने माइक्रोफ़ाइनेंस कंपनियों के शोषणकारी तरीक़ों के ख़िलाफ़ लड़ने और आंदोलन की जगह के रूप में स्वयं सहायता समूहों के साथ काम किया है। महिलाओं के कार्यबल से बाहर जाने के साथ सामूहिक कार्यस्थलों की अनुपस्थिति भी कम हुई है, ऐसे में ये स्वयं सहायता समूह महिलाओं को संगठित करने के अवसर प्रदान करते हैं। वामपंथी दलों ने इन समूहों की महिलाओं को ब्याज दरें कम करवाने, स्वयं सहायता समूहों के लिए सरकारी सब्सिडी बढ़ाने, और मुश्किल समय में, जैसे कि कोविड​​​-19 महामारी के दौरान जब कम आय या बिना आय वाली महिलाएँ ऋण भुगतान करने में असमर्थ हैं, ऋण ब्याज के भुगतान पर रोक लगवाने के लिए संगठित किया है। जिन क्षेत्रों में महिला आंदोलन ने स्वयं सहायता समूहों में हस्तक्षेप किया है, वहाँ ये समूह राजनीतिक रूप से प्रखर हैं और दहेज उत्पीड़न, अरक और अंधविश्वास के ख़िलाफ़ संघर्ष में और गाँव की बैठकों में भाग लेने और समुदायों में अन्य मुद्दों को उठाने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। केरल की वामपंथी सरकार द्वारा समर्थित और 45 लाख महिलाओं की सदस्यता के साथ कुदुम्बश्रीएक स्वयं सहायता समूह की अत्यधिक विकसित प्रणाली का और महिलाओं के बीच आर्थिक राजनीतिक एजेंसी और शक्ति विकसित करने के लिए एक मॉडल बन गया है। ग्रामीण महिलाएँ, जिनमें वामपंथी महिला संगठनों की सदस्यता सबसे ज़्यादा है, विभिन्न राज्यों में कृषि भूमि के जबरन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत अधिक रोज़गार और बेहतर मज़दूरी की माँग करने के संघर्ष में सबसे आगे रही हैं। स्वयं सहायता समूहों के भीतर हस्तक्षेप और सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन के लिए संघर्ष वहाँ मज़बूत है जहाँ महिला आंदोलन वामपंथी और लोकतांत्रिक आंदोलनों के संयोजन के साथ विकसित हुआ है। इसके विपरीत, जहाँ इस तरह के व्यापक आंदोलन अनुपस्थित रहे हैं, वहाँ महिला आंदोलन भी कमज़ोर रहा है। इससे निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि एक मज़बूत महिला आंदोलन खड़ा करने के लिए वर्ग शोषण के ख़िलाफ़ आंदोलन ज़रूरी हैं।

 

जाति का सामना

जाति सामाजिक पदानुक्रम की एक घृणित, लेकिन ​​सर्वव्यापी व्यवस्था है। दलित, जिनके साथ इस व्यवस्था में सबसे अधिक भेदभाव किया जाता है, हर दिन दृश्य और अदृश्य अपमान का सामना करते हैं। हालाँकि इस तरह का भेदभाव अवैध है, लेकिन भेदभाव की ये प्रथाएँ ग्रामीण और शहरी दोनों समाजों में विभिन्न प्रकार के पुराने और नये उभरते रूपों में जारी हैं। किनकिन तरीक़ों से अपमान किया जाता ही इसकी सूची लंबी है: गाँव के मंदिरों में प्रवेश मना है; जूते और साफ़सुथरे कपड़े पहनने के बावजूद कुछ सड़कों पर चलना मना है; विशिष्ट कुओं से पीने भरना मना है; अच्छे परीक्षा परिणामों का जश्न मनाना मना है; कुछ तरह के ग्लासों का इस्तेमाल मना है; ज़्यादा वेतन की माँग उठाने की मनाही है। यदि कोई दलित इन नियमोंको तोड़ता है, तो केवल उस व्यक्ति को ही दंड का सामना नहीं करना पड़ता; बल्कि उसके समुदाय को सामूहिक दंड का भी सामना करना पड़ता है, जिसमें महिलाओं और बच्चों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा भी शामिल है। दलित महिलाओं के शरीर प्रभुत्वशाली जातियों की हिंसा के आसान शिकार बनते रहे हैं। जाति के मानदंडों के कथित उल्लंघन के लिए दलित महिलाओं के साथ बलात्कार, नंगा कर उन्हें घुमाने, बेरहमी से पीटने, और पेशाब पीने के लिए मजबूर करने जैसी घटनाएँ बहुत आम हैं। 

उनकी रक्षा के लिए कई क़ानून होने के बावजूद, दलित महिलाओं और पुरुषों कोक्योंकि भूमिहीन दिहाड़ी मज़दूर होने के कारण वे आजीविका के लिए उच्च जातियों पर निर्भर हैंउत्पीड़न और हिंसा के ख़िलाफ़ वास्तव में बहुत कम सहारा मिलता है। जब कोई दलित परिवार सापेक्षिक समृद्धि प्राप्त करने में सफल हो जाता है, तो वह समृद्धि ही हिंसा का कारण बन जाती है।

दलित महिलाएँ, जो बड़े पैमाने पर खेतिहर मज़दूर हैं, भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे कम वेतन पाने वाली श्रमिक हैं। जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर उनके त्रिस्तरीय शोषण के बावजूद, एक अस्वीकृत तथ्य यह है कि वे महिला आंदोलन के सबसे क्रांतिकारी वर्गों में से एक रही हैं और एडवा जैसे बड़े वामपंथी महिला संगठनों की सदस्यता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। विभिन्न प्रकार की हिंसा का आसान निशाना होने के बावजूद, दलित महिलाएँ महिला आंदोलन के विभिन्न स्थानीय संघर्षोंजो कि राष्ट्रीय मीडिया में दिखाए नहीं जातेके लिए जुझारू रूप से लामबंद होती रही हैं। हालाँकि, वामपंथी महिला संगठनों की सदस्यता में दलित महिलाओं की एक बड़ी उपस्थिति रही है, लेकिन दलित महिलाओं के जाति से जुड़े विशिष्ट मुद्दे आंदोलन में किसी सार्थक तरीक़े से नहीं उठाए गए। यद्यपि महिला आंदोलन ने क़ानूनी और अन्य प्रकार के समर्थन के माध्यम से दलित महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले विशिष्ट अत्याचारों पर प्रतिक्रिया व्यक्त की और न्यायिक कार्रवाई की माँग को लेकर विरोध प्रदर्शन किए, लेकिन इन मुद्दों पर निरंतर अभियान नहीं चलाया गया था।

नवउदारवादी युग में यह स्थिति बदल गई, जब एक बेहतर रूप से संगठित वामपंथी महिला आंदोलन ने विशेष रूप से दलित महिलाओं के मुद्दों को तमिलनाडु जैसे राज्यों में महत्वपूर्ण तरीक़े से उठाना शुरू किया। दलित समुदायों की महिला कार्यकर्ताओं ने, अन्य समुदायों के अपने साथियों के साथ, छुआछूत के विभिन्न रूपों और दैनिक जीवन में उनके साथ होने वाले भेदभाव के ख़िलाफ़ लड़ाई शुरू की और पीने के पानी की कमी, सामुदायिक हॉल होने, और दलित मोहल्लों में श्मशान स्थल होने जैसे मुद्दे उजागर किए। उन्होंने उन क्षेत्रों में वामपंथी आंदोलन के समर्थन के साथ पुलिस, ज़िला प्रशासन और राज्य का सामना किया है। यद्यपि भेदभावपूर्ण प्रथाएँ अभी भी जारी हैं क्योंकि जातिगत उत्पीड़न का भौतिक आधार समाज में ज्यों का त्यों बना हुआ है, दलित महिलाएँ आंदोलनों और राजनीति में सक्रिय नेतृत्व के रूप में उभरी हैं, जो महिला आंदोलन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जबकि एडवा और अन्य महिला संगठनों ने भारत भर में जाति हिंसा की घटनाओं में नियमित रूप से हस्तक्षेप किया है, तमिलनाडु का उदाहरण अभी भी देश के अन्य राज्यों में पूरी तरह से दोहराया जाना बाक़ी है।

भाजपा, जो कि स्पष्ट रूप से एक मनुवादी पार्टी है, के सत्ता में आने के बाद से देश के कई हिस्सों में, और ख़ास तौर पर भाजपा शासित राज्यों में दलित महिलाओं, लड़कियों और बच्चियों के ऊपर हिंसा की घटनाएँ बढ़ी हैं। ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ हिंसा करने वाले भाजपा के नेता रहे हैं, और जिन्हें सरकार ने पूरा समर्थन दिया है। ऐसे भी मामले सामने आए हैं जैसे कि उत्तर प्रदेश के हाथरस में, जहाँ बाल्मीकि जाति की एक युवती के साथ चार ऊँची जाति के पुरुषों ने सामूहिक बलात्कार किया। वह कुछ ही समय बाद मर गई। उत्तर प्रदेश की सरकार ने बारबार यह स्टैंड लिया कि कोई बलात्कार नहीं हुआ था। पूरे देश में आक्रोशित जनता के प्रदर्शनों के बाद ही आरोपियों को गिरफ़्तार किया गया था। पीड़िता के परिवार को अभी मुआवज़ा मिलना बाक़ी है और वे भय और असुरक्षा के माहौल में जी रहे हैं।

 

साम्प्रदायिकता का सामना [16]

हिंदू दक्षिणपंथ का राजनीतिक प्रभुत्व बढ़ने से महिला आंदोलन के सामने बड़ी चुनौतियाँ और बाधाएँ उत्पन्न हुई हैं। इसका एक उदाहरण है बढ़ती मुस्लिम विरोधी बयानबाज़ी, जिसका केंद्रीय उद्देश्य है महिलाओं के शरीर का नियंत्रण और हिंदू मुस्लिम दोनों महिलाओं को स्वायत्तता से वंचित रखना। दक्षिणपंथियों ने अंतरधार्मिक विवाहों को अवैध बनाने, युवा महिलाओं के अपना साथी चुनने की स्वतंत्रता पर हमला करने और मुस्लिम पुरुषों को अपराधियों के रूप में पेश करने के लिए लव जिहादका अवधारणा विकसित किया है। सरकार द्वारा नियुक्त और ग़ैरसरकारी निगरानी समूहों ने अंतरधार्मिक जोड़ों को हिंसा और अपमान के माध्यम से सबक़सिखाने की ज़िम्मेदारीली है। कई भाजपाशासित राज्य सरकारों ने क़ानून पारित किए हैं जो अंतरसामुदायिक विवाह को अमान्य बताते हैं। जबकि इन क़ानूनों का उपयोग मुस्लिम पुरुषों और उनके परिवारों को प्रताड़ित करने और परेशान करने के लिए किया जाता है, ये क़ानून हिंदू महिलाओं को अपना जीवन साथी चुनने के अधिकार से वंचित कर उनके शोषण और उनके साथ विभिन्न प्रकार के दुर्व्यवहार का अवसर प्रदान करते हैं। ऐसे क़ानून इस धारणा को पक्का करते हैं कि महिलाएँ उनके परिवारों की संपत्ति हैं, जिनका परिवार किसी भी तरीक़े से निपटारा कर सकता है। हालाँकि न्यायपालिका ने बड़े पैमाने पर वयस्कों के अपने साथी चुनने के अधिकार के पक्ष में एक मज़बूत रुख़ अपनाया है, लेकिन अपने से अलग समुदायों के साथी चुनने वाले युवाओं के ख़िलाफ़ दक्षिणपंथी हिंसा बेरोकटोक जारी है।

2002 के गुजरात दंगों के दौरान जब नरेंद्र मोदी राज्य के मुख्यमंत्री थे, मुस्लिम महिलाओं के शरीरों पर जो क्रूरता की गई थी, वह महिला आंदोलन में शामिल लोगों के दिमाग़ में अभी भी ताज़ा है। उस हिंसासामूहिक बलात्कार और हत्याएँ की गईं, गर्भवती महिलाओं के गर्भ फाड़े गए और बच्चों के सिर फोड़ दिए गए थेने देश भर की महिलाओं को झकझोर कर रख दिया था। 2014 में मोदी के प्रधान मंत्री बनने के बाद यह रवैया केंद्र सरकार ने अपना लिया। भाजपा विकास और आर्थिक वृद्धि की बयानबाज़ी की आड़ में अल्पसंख्यकों और महिलाओं के ख़िलाफ़ किए जाने वाले क्रूर हमलों को छुपा लेती है।

फिर भी, यह दौर भारत के सार्वजनिक स्थानों पर मुस्लिम महिलाओं की अभूतपूर्व उपस्थिति का दौर रहा है। उन्होंने तीन तलाक़एक मुस्लिम व्यक्ति द्वारा अपनी पत्नी को केवल तीन बार तलाक़ शब्द बोलकर (चाहे फ़ोन पर ही) तलाक़ देने की प्रथाके ख़िलाफ़ लड़ाई जीती है। इस प्रथा का अंत मुस्लिम महिलाओं और महिला आंदोलन की दशकों पुरानी माँग थी, जो अंततः 2017 में पूरी हुई जब भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रथा को संविधान का उल्लंघन माना। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को ज्यों का त्यों लागू करने के बजाय, मोदी सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हुए एक क़ानून पास किया। इस क़ानून के तहत तीन तलाक़ के माध्यम से तलाक़ का दावा पेश करने वाले मुस्लिम पुरुष अपराधी माने जाएँगे, जबकि मुस्लिम महिलाओं और महिला आंदोलन की माँग थी कि इस प्रकार के तलाक़ को अमान्य माना जाए। इस क़ानून ने मुस्लिम पुरुषों को निशाना बनाते हुए एक सिविल अपराध को दंडनीय अपराध में बदल दिया है।

इस जीत के बाद बड़ी तादाद में मुस्लिम महिलाओं ने राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के ख़िलाफ़ आंदोलन किया। ये अधिनियम भारतीय मुसलमानों के नागरिकता अधिकारों को छीनने के लिए मोदी सरकार का गेम प्लान था। 2020 के शुरुआती महीनों में, सीएएएनआरसी के ख़िलाफ़ हज़ारों की संख्या में मुस्लिम महिलाएँ सड़कों पर धरनाप्रदर्शन कर रही थीं। राजनीतिक माँगों को लेकर सार्वजनिक स्थानों पर इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं की उपस्थिति शायद भारत में पहले कभी नहीं देखी गई थी। इस आंदोलन ने महिला आंदोलन, जो कि शुरू से आंदोलनकारी मुस्लिम महिलाओं के साथ खड़ा था, में एक उम्मीद जगाई है।

इस आंदोलन को देश भर में अपार समर्थन मिला और मोदी सरकार दुविधा में फँस गई थी। तो सरकार सीएएएनआरसी को वापस लेने के लिए तैयार थी और ही इन दृढ़ महिलाओं के सामने उनमें कोई परिवर्तन कर पा रही थी। इनमें से कई संघर्ष, महामारी फैलने के बाद ठप पड़ गए थे।

 

भविष्य के लिए

कोविड ​​​​-19 महामारी से निपटने में सरकार की अक्षमता के परिणामस्वरूप हज़ारों लोग मारे गए, और ऑक्सिजन की कमी से जूझ रहे मरीज़ों और उनके निराश परिजनों की दिल दहला देने वाली तस्वीरें टेलिविज़नों पर घूमती रहीं। भारतीय अर्थव्यवस्था चरमरा गई है और इसके तत्काल सुधार की कोई संभावना नहीं है। बेरोज़गार होकर घर लौटे प्रवासियों का संकट जारी है। कामगार वर्ग की महिलाएँ रोज़गार गारंटी की अपर्याप्तता के ख़िलाफ़ और उसके विस्तार की माँग उठा रही हैं। एक बार फिर भुखमरी और बेरोज़गारी के मुद्दे विचार के केंद्र में गए हैं। कई हज़ार महिला सामुदायिक स्वास्थ्य और चाइल्डकेयर कार्यकर्ता जिन्होंने महामारी से लड़ने में सबसे अग्रणी भूमिका निभाईय थी, और जिसके लिए उन्हें देश भर से प्रशंसा मिली थी, उन्हें अभी तक वेतन नहीं मिले हैं और वे उन्हें रोज़गार देने वाली सामुदायिक योजनाओं के बजट में हुई कटौती से लड़ने के लिए एकजुट हो रही हैं।

हालाँकि भारत के महिला आंदोलन ने बीते दशकों में कई उतारचढ़ाव देखे हैं, लेकिन केवल इसकी ऊर्जा बरक़रार है बल्कि इस आंदोलन ने बदलती सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों के अनुकूल ढलकर अपना विस्तार किया है। वर्तमान स्थिति जन आंदोलनों को मज़बूत करने तथा महिलाओं श्रमिकों के अधिकारों और आजीविका की ओर समाज का ध्यान केंद्रित करने का अवसर प्रदान कर सकती है। किसान आंदोलन, जो महामारी से पहले शुरू हुआ था और लगातार मज़बूती से डटा हुआ है, इस तरह के एजेंडे को देश भर की आम बातचीत में शामिल करवाने का अवसर प्रदान करता है। दिल्ली के बोर्डरों पर बारीबारी से बैठने के लिए विभिन्न राज्यों से यात्रा कर आने वाली ग्रामीण महिलाओं की ज़बरदस्त भागीदारी एक ऐतिहासिक घटना है। किसान आंदोलन में उनकी उपस्थिति महामारी के बाद के भविष्य में महिला आंदोलन के लिए आशा प्रदान करती है।

 

Illustration: Ingrid Neves (Brazil) / Tricontinental: Institute for Social Research

समुद्र की जंगली घास काटने वाली एक महिला, समंदर की लहरों का सामना करते हुए.
चित्र: इंग्रिड नेवेस (ब्राज़ील)/ ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान
सन्दर्भ चित्र: एम पलनी कुमार/ पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया (तमिलनाडु, अक्टूबर, 2019)

 

Endnotes

[1] International Institute for Population Sciences (IIPS) and ICF, National Family Health Survey (NFHS-4), 2015-16: India (Mumbai: IIPS, 2017).

[2] E. A. Gait, Census of India, 1911: Volume I, India, Part I – Report (Calcutta: Superintendent, Government Printing, India, 1913). https://ruralindiaonline.org/en/library/resource/census-of-india-1911-volume-i-part-i—report/

[3] Government of India, Household Social Consumption on Education in India, NSS 75th Round (July 2017 – June 2018) (New Delhi: Ministry of Statistics and Programme Implementation, National Statistical Office, 2020).

[4] Tanushree Chandra, ‘Literacy in India: The Gender and Age Dimension’, ORF Issue Brief No. 322 (Observer Research Foundation, October 2019).

[5] Government of India, All India Survey on Higher Education, 2019-20 (New Delhi: Ministry of Education, Department of Higher Education, 2020).

[6] Government of India, Time use in India – 2019, Time Use Survey (TUS), (January-December 2019) (New Delhi: Ministry of Statistics and Programme Implementation, National Statistical Office, 2020).

[7] Government of India, Time use in India – 2019, Time Use Survey.

[8] Government of India. Employment and Unemployment in India, 1999-2000 – Key Results, NSS 55th Round (July 1999 – June 2000). New Delhi: National Sample Survey Organisation, Ministry of Statistics and Programme Implementation, December 2000; Government of India. Key Indicators of Employment and Unemployment in India, NSS 68th Round, July 2011 – June 2012. New Delhi: National Sample Survey Organisation, Ministry of Statistics and Programme Implementation, December 2013; Government of India. Annual Report, Period Labour Force Survey, July 2018 – June 2019. New Delhi: Ministry of Statistics and Programme Implementation, National Statistical Office, June 2020.

[9] Though non-agricultural work increased in rural areas, it was not sufficient to employ all of the rural work force and such employment was not available to women.

[10] Government of India. Employment and Unemployment in India, 1999-2000.

[11] IIPS and ICF, National Family Health Survey (NFHS-4), 2015-16.

[12] IIPS and ICF, National Family Health Survey (NFHS-4), 2015-16.

[13] IIPS and ICF, National Family Health Survey (NFHS-4), 2015-16.

[14] IIPS and ICF, National Family Health Survey (NFHS-4), 2015-16.

[16] Communalism in South Asia refers to the idea that religious communities are political communities with secular interests that are opposed to each other. Political parties that subscribe to the worldview of communalism are called communal parties; terms like ‘communal violence’ and ‘communal riots’ are used to refer to clashes between people belonging to different religious communities in the context of an atmosphere charged with communalism.

 

 

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