दुनिया को एक नए समाजवादी विकास सिद्धांत की जरूरत है
डोजियर संख्या 66
इस डोसियर की कलाकृतियाँ तीसरी दुनिया के देशों और लोगों की विकास की आकांक्षाओं को श्रद्धा अर्पित करती हैं। 1950 के दशक से लेकर 1970 के दशक तक की हर एक परियोजना – बाँध, रेल स्टील कारखाना, आवासीय खंड, सरकारी बिल्डिंग, या स्टेडियम – सदियों की औपनिवेशिक लूट एवं अल्पविकास की विरासत की बुनियाद पर बने भविष्य की एक नई दृष्टि का प्रतिनिधित्व करती है। डोसियर के चित्रों का क्रम एक परियोजना की निर्माण प्रक्रिया पर आधारित है। यह क्रम स्केच, योजना एवं मॉडल बनाने से शुरू होकर निर्माण तथा अंत में उद्घाटन और जनता द्वारा उपयोग होने पर जाकर खत्म होता है। हर कोलॉज में हमने ऐतिहासिक तस्वीरों के ऊपर ग्रिडों को सजाया है। यह स्थापत्य कला के एक ऐसे कैनवास को निरुपित करता है जिसपर राष्ट्रीय मुक्ति की अधूरी परियोजनाओं के लिए नए निर्माणों की कल्पना की जा सकती है।
नोट: पिछले साल, ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान और डोंगशेंग ने वेन्हुआ ज़ोंगहेंग (文化纵横) के संपादकों के साथ बातचीत शुरू की। इस साझेदारी के परिणामस्वरुप एक अंतर्राष्ट्रीय त्रैमासिक पत्रिका शुरू हुई। इस पत्रिका में चीनी संस्करण के चुनिंदा निबंधों का अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, और स्पेनिश अनुवाद प्रकाशित किया जाता है। यह पत्रिका अफ़्रीका, एशिया, और लैटिन अमेरिका को चीन के साथ संवाद–सूत्र में पिरोती है। इस डोजियर का एक पूर्व संस्करण, 重振社会主义发展理论的必要, चीनी भाषा में वेन्हुआ ज़ोंगहेंग के अप्रैल अंक में प्रकाशित हो चुका है।
हम बदहाली के साक्ष्यों से घिरे पड़े हैं। अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा इकट्ठा किए गए आँकड़े भयावह तथ्य उजागर करते हैं: कि अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, पर्याप्त भोजन, आवास, उचित जानकारी और संस्कृति अभी भी दुनिया के अरबों लोगों की पहुँच से बाहर है। सरकारों और संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों द्वारा हर साल एकत्रित किए जाने वाले इन आँकड़ों से किसी को असहमति नहीं है।
असहमतियाँ, भूख और बेहाली जैसे इन दुराग्रही तथ्यों के प्रति अपनाये जाने वाले रवैये में मौजूद हैं। लोकतांत्रिक समाजों से पहले और तंगहाली के युग में जन्मे पुरातन विचार आज भी फल–फूल रहे हैं, जिनके अनुसार लोग भाग्य या अन्य धार्मिक प्रकोपों, अपने आलस या संसाधनों की कमी की वजह से बदहाली में जीते हैं। इस तरह के तर्क बेबुनियाद हैं। यह मान लेना कि भाग्य या कोई धार्मिक प्रकोप कामगार वर्ग के परिवारों को पीढ़ी–दर–पीढ़ी बदहाली में जकड़कर रखता है, अतार्किक है। यह कहना कि आधे से ज़्यादा दिन कड़ी मेहनत करने के बाद भी बमुश्किल गुजारा करने वाले मजदूर आलसी हैं, तथ्यात्मक रूप से गलत है। सारे साक्ष्य इंगित करते हैं कि संसाधनों की प्रचुरता के बावजूद दुनिया की ज्यादातर आबादी दयनीय हालातों में गुजर–बसर करती है। उदाहरण के लिए, इस ग्रह की कुल जनसंख्या आठ बिलियन है, जबकि हम चौदह बिलियन लोगों का पेट भरने के लिए पर्याप्त भोजन पैदा करते हैं।1
बहरहाल, 2022 में दुनिया में कुपोषित लोगों की संख्या बढ़कर 828 मिलियन पहुँच गई। इसमें गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे 349 मिलियन लोग भी शामिल हैं। गंभीर खाद्य असुरक्षा के आँकड़े रिकॉर्ड स्तर पर हैं।2 लोकतांत्रिक समाज के उद्भव से पूर्व उपजे भाग्यवाद और नव–माल्थसवाद जैसे ये विचार तथ्यों के बजाय भ्रांतियों पर आधारित हैं, लेकिन फिर भी बौद्धिक और राजनीतिक विमर्शों में इनकी बारंबार दुहाई दी जाती है।
उन्नीसवीं सदी में, कार्ल मार्क्स ने बदहाली के सवाल पर गहन मनन किया और पाया कि इन समस्याओं (भूख, बेघरता, निराशा) का मूल कारण आलस्य, अभिशाप या संसाधनों की कमी में नहीं, बल्कि पूंजीवाद की संरचना में निहित है। उत्पादन के साधनों का स्वामित्व लोगों को अपना जीवन–यापन कर पाने में सक्षम बनाता है। लेकिन हिंसा के बल पर दुनिया के ज्यादातर लोगों से उनके उत्पादन के साधनों का स्वामित्व छीन लिया गया। जीविकोपार्जन का साधन छिन जाने के पश्चात बेदखल हुए लोगों को उत्पादन के साधनों पर नया नियंत्रण स्थापित करने वालों (पूंजीपतियों) को अपनी क्षमता –जिसे मार्क्स ने उनकी ‘श्रम शक्ति’ कहा – बेचने पर मजबूर होना पड़ा। पूंजीपतियों ने काम की अवधि को लंबा करके और मशीनीकरण की सहायता से उत्पादकता बढ़ाकर मज़दूरों का शोषण करते हुए उनसे बेशी मूल्य हथियाया। इस तरह से पूंजीपति मज़दूरों से बेशी मूल्य चूसते रहे, जबकि मज़दूरों के लिए जिंदा रहना भी मुहाल हो गया। आपसी प्रतिस्पर्धा ने पूंजीपतियों को अपनी लागत को यथासंभव कम रखने के लिए बाध्य किया। इससे मज़दूरों की स्थिति बद–से–बदतर होती गई और पूंजीपति मालामाल होते गए। इस तरह मार्क्स ने प्रचुरता के दरम्यान मौजूद बदहाली को समझने के लिए एक तर्कसंगत और तथ्यपरक सिद्धांत पेश किया। मार्क्स के अनुसार, इस बदहाली को तभी खत्म किया जा सकता है जब मज़दूर संगठित होकर एक ऐसे समाजवादी समाज का निर्माण करें जहां उत्पादन के साधनों पर पूरे समाज का नियंत्रण हो। इसलिए लोकतंत्र से पहले उपजे लेकिन आज भी क़ायम भाग्यवाद और नव–माल्थसवाद जैसे विचार न केवल लोकतंत्र के उदय से पहले का नज़रिया प्रस्तुत करते हैं, बल्कि वे मुद्दे को मार्क्स की बेशी मूल्य कार्यप्रणाली कि खोज से पहले के प्रतिगामी विचारों की ओर मोड़ना चाहते हैं।
पिछली सदी के दौरान मार्क्सवादी परंपरा के आँगन में पल रहे विमर्शों ने उल्लेखनीय प्रगति की है। कुछ विमर्शों ने आधुनिक समाज में मौजूद असामानता के विभिन्न स्तरों का वर्गीकरण करने का प्रयास किया है। इनमें तीन प्रमुख स्तर चिन्हित किये गए। पहला, वर्ग के आधार पर; दूसरा, राष्ट्रीयता के आधार पर; और तीसरा, सामाजिक श्रेणियों (जैसे कि लिंग, नस्ल और जाति आदि बाधाओं) के आधार पर। हर मनुष्य इन तीनों तरह की असमानताओं से प्रभावित होता है, हालाँकि असमानता के इन तीन स्तरों की प्रभावशक्ति/भूमिका के विषय में विचार एकमत नहीं हैं। औपनिवेशिक तथा अर्ध–औपनिवेशिक दुनिया के लोगों की सामाजिक प्रगति की संभावना को अवरुद्ध करने में साम्राज्यवाद की भूमिका को नकारने वाले मार्क्सवादी, वर्ग की प्रभुता को सामाजिक विभेदन का मुख्य कारक बताते हैं। यह तर्क, कमजोर तो है, लेकिन यूरोप और अमेरिका के अकादमिक जगत में स्वीकार्यता पाता है। मार्क्सवादी राष्ट्रीय मुक्ति की परंपरा – जो लेनिन के साथ शुरू होकर माओ से होते हुए कास्त्रो तक जाती है – के अनुसार साम्राज्यवाद दुनिया की संरचना के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका रखता है। इसलिए औपनिवेशिक तथा नव–औपनिवेशिक संचयन के ढाँचों से पीड़ित लोगों की गरिमा के निर्माण में राष्ट्रीय संप्रभुता की स्थापना सबसे पहली शर्त होनी चाहिए। सामाजिक विभेदों की वीभिषिका से आक्रांत लोगों के संघर्षों से पितृसत्ता, जाति विभेद, नस्लवाद और अन्य सामाजिक विभेदों से लड़ने की जरूरत पनपी और इन विभेदों के खिलाफ लड़ाई मानवीय गरिमा के निर्माण की प्रक्रिया का अभिन्न अंग बन गई। राष्ट्र या वर्ग, वर्ग या जाति, किस प्रकार की असमानता को प्रमुखता दी जाए, इस विषय में भले ही सहमति नहीं बन पाई हो, लेकिन इस परंपरा में राष्ट्र, वर्ग तथा सामाजिक विभेद, तीनों स्तरों को स्वीकार करने की सहमति है।
द्वितीय विश्व युद्ध और वि–औपनिवेशीकरण के युग से पहले, पूरी दुनिया के सामाजिक विकास की बात को गंभीरता से नहीं लिया गया। साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपनी उपनिवेशिकृत प्रजा की मानवीय संभावनाओं को सिरे से खारिज करती रहीं। इसके परिणामस्वरूप, उस दौर में साम्राज्यवादी केंद्र ने विकास का कोई सिद्धांत नहीं दिया। विकास का शुरूआती सिद्धांत उपनिवेशवाद–विरोधी आंदोलन ने प्रतिपादित किया। विकास के इस शुरूआती सिद्धांत का तर्क था कि उपनिवेशवाद के अंत के बिना विकास की संभावना नगण्य रहेगी क्योंकि साम्राज्यवाद उपनिवेशों की अर्थव्यवस्थाओं को कंगाल कर चुका था (इस विषय पर भारत के दादाभाई नौरोजी द्वारा 1902 में लिखी गई भारत में ग़रीबी और ग़ैर–ब्रिटिश शासन एक महत्वपूर्ण पुस्तक थी)। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान दो चीजें स्पष्ट हो गई थीं। पहली, उपनिवेश साम्राज्यवादी केंद्रों को अपने ऊपर प्रत्यक्ष शासन नहीं करने देंगे। दूसरी, शीर्ष साम्राज्यवादी देश – जिनका अगुवा अमेरिका था – ब्रेटन वुड संस्थाओं के माध्यम से दुनिया के ऊपर एक नया वित्तीय तथा विकास तंत्र थोपेंगे (अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) तथा विश्व बैंक इस प्रक्रिया में दो महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान हैं)। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आए नए देशों के सामने कुछ गंभीर समस्याएँ मौजूद थीं। सबसे विकराल समस्या थी वित्तीय स्त्रोतों का अभाव। आज़ादी प्राप्त होने से पहले सैकड़ों सालों तक साम्राज्यवादी केंद्र इनका धन चूसते रहे, जिस कारण इन नए आज़ाद देशों के पास पर्याप्त वित्तीय स्त्रोत नहीं थे। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों ने इस समस्या का निराकरण नहीं होने दिया। उन्होंने इन देशों के ऊपर ‘बाहरी’ दबावों की उपस्थिति को खारिज कर सारा दोष इनकी ‘आंतरिक’ समस्याओं के ऊपर मढ़ दिया। उपनिवेशवाद–विरोधी प्रक्रिया और वैश्विक अर्थव्यवस्था के नव–औपनिवेशिक ढाँचे के अंतर्द्वंद ने द्वितीय विश्व युद्ध के तुरंत बाद शुरू हुए विमर्शों को आकार दिया। कई मायनों में विकास सम्बन्धी वर्तमान विमर्शों पर इसकी अमिट छाप आज भी विद्यमान है।
इन विमर्शों को ठीक से समझने के लिए द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दौर को चार भागों में बाँटा जा सकता है: 1944 से 1970 तक आधुनिकीकरण सिद्धांत का दौर, 1970 से 1979 तक नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक क्रम का दौर, 1979 से 2008 तक वैश्वीकरण तथा नवउदारवाद का दौर, और 2007-08 में आए वित्तीय संकट के बाद का संक्रमण काल जिसमें हम रह रहे हैं।
1. आधुनिकीकरण सिद्धांत का दौर (1944-1970)
1944 की ब्रेटन वुड्स कॉन्फ्रेंस ने विश्व अर्थव्यवस्था को संभालने में विफल रही अंतर्राष्ट्रीय संरचना में मौजूद खामियों को स्वीकार किया, लेकिन अर्थव्यवस्था के नव–औपनिवेशिक ढाँचे में निहित समस्याओं को नज़रअंदाज कर दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप के पुनर्निर्माण हेतु धन जुटाने की बात तो शुरू की गई, लेकिन औपनिवेशिक लूट से पीड़ित अफ़्रीका, एशिया, तथा लैटिन अमेरिका के नवीन राष्ट्रों के पुनर्निर्माण के विषय में सुगबुगाहट भी नहीं हुई। ब्रेटन वुड्स द्वारा विकसित और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) तथा विश्व बैंक की कार्यप्रणाली को आकार प्रदान करने वाले आधुनिकीकरण सिद्धांत की एक प्रमुख विशेषता थी विश्व अर्थव्यवस्था की संरचना को अक्षुण्ण रखना। इस सिद्धांत ने सुनिश्चित किया कि यूरोप को मार्शल योजना के माध्यम से और अमेरिका अधिकृत जापान तथा दक्षिण कोरिया को पुनर्निर्माण हेतु अकूत धनराशि देने के अलावा किसी नये राष्ट्र को रियायती दरों पर धन कोष प्रदान न किया जाए।
1960 में, डब्ल्यू. डब्ल्यू. रोस्तोव ने आर्थिक विकास के चरण: एक ग़ैर–कम्युनिस्ट घोषणापत्र प्रकाशित की। इस किताब के शीर्षक ने ही इसके कम्युनिस्ट–विरोधी तथा मार्क्सवाद–विरोधी नज़रिये को जाहिर कर दिया। रोस्तोव ने मार्शल योजना के निर्माण में योगदान दिया था और वो आगे चलकर संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बने। इन्होंने सामाजिक विकास के विभिन्न चरणों का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। रोस्तोव के अनुसार इन चरणों की शुरूआत एक ‘पारंपरिक समाज’ के साथ होती है जो औद्योगीकरण तथा एक राष्ट्रीय संभ्रांत वर्ग के उद्भव के बल पर तीव्र आर्थिक विकास तथा परिपक्वता की तरफ आसीन हो जाएगा। राष्ट्रीय संभ्रांत वर्ग के नेतृत्व में पूर्वकालिक ‘पारंपरिक समाज’ व्यापक स्तर पर जन–उपभोग की वस्तुओं का इस्तेमाल करने वाले समाज में तब्दील हो जाएगा। इस मॉडल के अनुसार तीसरी दुनिया इस ‘पारंपरिक समाज’ के चरण में ही फंसी हुई थी। पारंपरिक समाज की यह अवधारणा ऐतिहासिक प्रमाणों से मेल नहीं खाती है तथा इस तथ्य की अनदेखी करती है कि अफ़्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के समाज औपनिवेशिक लूट के कारण कंगाल हुए थे। ‘पारंपरिक समाज’ की सारी समस्याओं को आंतरिक (सांस्कृतिक) माना गया, जबकि सारी बाहरी समस्याओं (जैसे कि उपनिवेशवाद से उपजे अंतर्राष्ट्रीय श्रम के विषम विभाजन) के अस्तित्व को खारिज किया गया। रोस्तोव के पाश्चात्य एजेंडे में नव स्वाधीन देशों को साम्यवाद के मोह से दूर रखना सबसे महत्वपूर्ण कार्य था। रोस्तोव ने सुझाव दिया कि पश्चिमी देश विकास अनुदान का इस्तेमाल करके तीसरी दुनिया के देशों को समाजवादी विकल्पों से दूर रखें, उन्हें नव–औपनिवेशिक ढाँचे की आलोचना करने से रोकें, और तीसरी दुनिया के देशों में केवल उन सेक्टरों का औद्योगीकरण होने दें जिनमें पश्चिम के बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों की वाणिज्यिक रुचि न हो।
पहले विकास दशक (1960-70) में संयुक्त राष्ट्र संघ ने आधुनिकीकरण सिद्धांत अपनाया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने वैश्विक अर्थव्यवस्था के नव–औपनिवेशिक ढाँचे का ज़िक्र तक नहीं किया और देशों से ‘सहायता देना जारी रखने’ का आग्रह किया ताकि विकासशील देश ‘अपनी अर्थव्यवस्था को विकास और सामाजिक तरक्की की आत्मनिर्भर राह पर ला सकें जिससे कि हरेक विकासशील देश में विकास दर में ठोस वृद्धि हो सके’।3 यह इंगित किया गया कि उपनिवेश रह चुके देश आधुनिकीकरण के लिए आवश्यक बुनियादी ढाँचे और उद्योगों के निर्माण हेतु बहुपक्षीय एजेंसियों तथा निजी वित्त बाजारों से कर्ज़ लें, और निर्यात से अपना कर्ज़ उतारते रहें। आधुनिकीकरण सिद्धांतकारों के इस तर्क को लैटिन अमेरिका के संयुक्त राष्ट्र आर्थिक कमीशन [ECLA] और एशिया तथा सुदूर पूर्व के संयुक्त राष्ट्र आर्थिक कमीशन [ECAFE] ने ECLA के कार्यकारी सचिव राउल प्रीबिश द्वारा पेश किए गए सिद्धांत के आधार पर चुनौती दी। 1950 में प्रतिपादित इस सिद्धांत का तर्क था कि विनिर्मित माल निर्यातक देशों के सापेक्ष प्राथमिक माल निर्यातक देशों को मिलने वाली कीमतें समय के साथ गिरती जाएंगी और प्राथमिक माल निर्यातक देशों को दरिद्र बनाएंगी।4 एशिया तथा लैटिन अमेरिका के अर्थशास्त्रीय कमीशनों ने 1950 के शुरूआती महीनों में ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वाशिंगटन तथा यूरोप की अगुवाई में बेचा जा रहा आधुनिकीकरण सिद्धांत तीसरी दुनिया के देशों में तीव्र आर्थिक विकास की आधारशिला रख पाने में नाकाम साबित होगा। प्रीबिश के विचारों का प्रभाव बुर्जुआ अर्थशास्त्रीय सिद्धांतों और वैकासिक अर्थशास्त्रियों पर भी पड़ा। उन्होंने प्रीबिश के विचारों से प्रभावित होकर ‘निम्न–स्तरीय–आय का व्यूह’ जैसे विचारों का विकास तो किया, लेकिन – ECLA और ECAFE के अर्थशास्त्रियों के विपरीत – उन्होंने विश्व अर्थव्यवस्था के नव–औपनिवेशिक ढाँचे को चुनौती नहीं दी (इसमें तीसरी दुनिया के देशों की कच्चे माल के निर्यात पर निर्भरता भी शामिल है)।5
आधुनिकीकरण सिद्धांत के खिलाफ तीसरी दुनिया की मुखर आलोचनाओं के फलस्वरूप, प्रीबिश के निर्देशन में, 1964 में संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास कॉन्फ्रेंस (UNCTAD) की स्थापना हुई। प्रीबिश तथा UNCTAD के काम के साथ–साथ नव–औपनिवेशिक ढाँचे के खिलाफ नए साहित्य के उद्भव (विशेषतौर पर क्वामे न्क्रूमा की पुस्तक नव उपनिवेशवाद: साम्राज्यवाद का आखिरी चरण, 1965) ने तीसरी दुनिया के देशों की राजधानियों में आधुनिकीकरण सिद्धांत के तथा–कथित आधुनिकीकरण की कमियों पर केंद्रित चर्चाओं को जन्म दिया। तीसरी दुनिया के शिक्षाविदों के बीच आधुनिकीकरण सिद्धांत के सैद्धांतिक खोखलेपन के विषय में गर्म विमर्शों का दौर चल पड़ा। आधुनिकीकरण सिद्धांत के कार्यों में सामाजिक इतिहास की अनुपस्थिति, उपनिवेशों की ऐतिहासिक लूट तथा प्रीबिश प्रीबिश द्वारा प्रतिपादित व्यापार के सिद्धांत के समागम के फलस्वरूप निर्भरता सिद्धांत का निर्माण हुआ (जिसमें मार्क्सवादी तथा वैकासिक, दोनों धड़े मौजूद थे)।6 उपरोक्त पहलुओं की स्वीकार्यता के परिणामस्वरूप राजनेताओं के बीच एक दशक तक भूतपूर्व उपनिवेशों के विकास को बाधित करने वाले बाहरी कारकों के विषय में विमर्श शुरू हुआ। इस विमर्श की परिणति नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक क्रम (New International Economic Order, NIEO) नामक योजना के मसौदे में हुई। आधुनिकीकरण सिद्धांत के विरुद्ध हुए गंभीर बौद्धिक एवं राजनीतिक कार्यों ने इसके खिलाफ न सिर्फ विश्वविद्यालयों की दीवारों के भीतर, अपितु संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों के गलियारों में और न्यू यॉर्क स्थित संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय में भी चुनौती पेश की।
2. नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक क्रम (NIEO) का दौर (1970-1979)
UNCTAD सम्मेलनों में, तीसरी दुनिया के देशों ने आधुनिकीकरण सिद्धांत की कमियों के साथ अपने अनुभवों को निर्भरता सिद्धांत के दृष्टिकोण से प्राप्त अंतर्दृष्टियों के साथ समाहित किया। UNCTAD की इस प्रक्रिया के फलस्वरूप, तीसरी दुनिया के देशों को उनकी आंतरिक समस्याओं के सामने विफल बनाने वाले बाहरी कारकों को रेखांकित करने वाले कई रिपोर्टों एवं अध्ययनों का प्रकाशन हुआ। इन देशों की खस्ताहाल आधारभूत संरचना के निर्माण हेतु रियायती दर पर मिलने वाले वित्त का अभाव, पश्चिम के देशों के भीतर तकनीक एवं विज्ञान साझा करने की अनिच्छा, पश्चिमी देशों द्वारा ज्यादातर एक वस्तु की प्रधानता वाली अर्थव्यवस्थाओं को औद्योगीकरण के माध्यम से विविध वस्तुओं वाली अर्थव्यवस्थाओं में बदलने हेतु आवश्यक प्रशुल्क और सब्सिडी आधारित व्यापार प्रणाली को फलीभूत होने से रोकना, तीसरी दुनिया के देशों का अपने भूतपूर्व औपनिवेशिक शासकों से पुराने जुड़ाव को तोड़कर उसके स्थान पर आपसी सहयोग स्थापित कर पाने की अक्षमता इन बाहरी कारकों में शामिल थे। जब तक बाहरी औपनिवेशिक वातावरण तीसरी दुनिया के देशों के संसाधनों को चूसता रहेगा, तब तक किसी भी स्तर का आंतरिक बदलाव – जैसे कि सार्वभौमिक शिक्षा के माध्यम से जनता के भीतर तकनीकी कौशल का विकास, या कानून व्यवस्था बनाए रखने तक सीमित रहने वाली राजकीय संस्थाओं के बजाय सामाजिक बराबरी के लिए प्रतिबद्ध राजकीय संस्थाओं का निर्माण या सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार विरोधी आदर्शों की स्थापना – कर पाना असंभव रहेगा।
UNCTAD की बैठकों तथा 1961 में स्थापित गुटनिरपेक्ष आंदोलन में होने वाले विमर्शों ने नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक क्रम (NIEO) की रुपरेखा को आकार देना शुरू कर दिया था। अक्टूबर 1970 में, संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने द्वितीय संयुक्त राष्ट्र विकास दशक के लिए प्रस्ताव संख्या 2626 पारित किया। तीसरी दुनिया के देशों के दबाव के परिणामस्वरूप इस प्रस्ताव ने संयुक्त राष्ट्र के सदस्यों का आह्वान किया कि वे ‘शपथ लें कि वो व्यक्तिगत एवं सामूहिक तौर पर उन नीतियों का अनुपालन करेंगे जो ऐसी न्यायशील तथा तर्कसंगत वैश्विक आर्थिक एवं सामाजिक प्रणाली के निर्माण हेतु प्रतिबद्ध होंगी जिसमें सभी देशों को और देशों के भीतर रहने वाले व्यक्तियों को भी अवसर की समानता सुलभ होगी’। संयुक्त राष्ट्र के घोषणापत्र ने कहा कि, ‘आंचलिक, सेक्टरीय एवं सामाजिक असमानताओं को ठोस रूप से कम करने के लिए गुणात्मक तथा संरचनात्मक बदलाव आवश्यक हैं’।7
संयुक्त राष्ट्र के इस घोषणापत्र ने अप्रैल–मई 1972 में सैंटियागो (चिली) में हुई UNCTAD III की बैठकों के लिये ज़मीन तैयार की। इस बैठक में UNCTAD के महासचिव मैनुअल पेरेज़ गुरेरो ने रेखांकित किया कि ‘तीसरी दुनिया के देश वैश्विक मौद्रिक नीति से जुड़े फैसलों में अपनी न्यायसंगत भागीदारी की माँग कर रहे हैं। इस भागीदारी का अभाव उनके लिए बेहद नुकसानदेह साबित हो सकता है। चूँकि उनकी विदेशी आय का मुख्य हिस्सा प्राथमिक उत्पादों की बिक्री से आता है, इसलिए वो जाहिर तौर पर मानते हैं कि इस दिशा में उठाये गए कदम त्वरित और ठोस परिणाम लाएंगे’।8 ये दो मुद्दे – वैश्विक मौद्रिक नीति निर्माण प्रक्रिया में भागीदारी तथा प्राथमिक उत्पादों की कीमतों पर नियंत्रण – NIEO के दो प्रमुख स्तंभ बने।
1 मई 1974 को, संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने NIEO को पारित कर दिया। यह उपनिवेशवाद से विरासत में मिले संरचनात्मक कारकों से पार पाने की महत्ता तथा रोस्तोव के ‘’तीव्र विकास’ के वादे को पूरा करने की बजाय उधार ग्रहण – कर्ज़ – मितव्ययिता के व्यूह में फँसाने वाले आधुनिकीकरण सिद्धांत पर दशकों तक चले विमर्श का परिणाम था। NIEO के सिद्धांत आज के समय में भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। उनमें से कुछ का ज़िक्र किया जाना जरूरी है:
सभी राज्यों की संप्रभु समानता, आंतरिक हस्तक्षेप की समाप्ति, विश्व की समस्याओं को सुलझाने में उनकी प्रभावकारी भागीदारी तथा अपनी आर्थिक एवं सामाजिक प्रणालियों को अपनाने का पूर्ण अधिकार
अपने प्राकृतिक संसाधनों एवं विकास के लिए आवश्यक अन्य आर्थिक गतिविधियों तथा बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों के नियमन पर हर राज्य की संपूर्ण संप्रभुता
विकासशील देशों द्वारा निर्यातित कच्चे माल तथा अन्य उत्पादों, और विकसित देशों द्वारा निर्यातित कच्चे माल तथा अन्य उत्पादों के बीच न्यायसंगत तथा समरूप सम्बन्ध
विकासशील देशों में औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए, विशेषकर पर्याप्त वित्तीय संसाधनों के प्रबंधन तथा यथोचित तकनीकों एवं प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण के माध्यम से, द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय सहायता का सशक्तिकरण।9
कुछ महीनों के पश्चात, अक्टूबर 1974 में, UNCTAD तथा संयुक्त राष्ट्र ऊर्जा कार्यक्रम कोकोयोक (मेक्सिको) में आयोजित एक बैठक में मिले। वहाँ उन्होंने NIEO परियोजना के मूल में निहित विकास की एक नई अवधारणा पर प्रकाश डाला:
हमारा पहला मकसद विकास के लक्ष्य को फिर से परिभाषित करना है। इसका लक्ष्य वस्तुओं का विकास नहीं, बल्कि इंसानों का विकास होना चाहिए। इंसानों की बुनियादी जरूरतें होती हैं: भोजन, मकान, कपड़ा, स्वास्थ्य, शिक्षा। विकास की कोई भी प्रक्रिया जो इनको पूरा नहीं करती, या फिर इनकी प्राप्ति में बाधक बनती है, विकास के विचार का उपहास है।10
भविष्य को एक उम्मीद भरे झरोखे से देखने वाला यह नजरिया बहुत सारी प्रतिकूल प्रक्रियाओं के कारण अपने आप को स्थापित करने में असफल रहा। मुख्य प्रतिकूल प्रक्रियाएं निम्नलिखित हैं:
नवस्थापित सात देशों के समूह (कनाडा, फ़्रांस, इटली, जापान, यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका, तथा पश्चिमी जर्मनी) का राजनीतिक आक्रमण। तेल के उत्पादकों द्वारा उत्पादक संघ बनाकर अपने बाहुबल के आधार पर 1973 में तेल संकट को जन्म देने के परिप्रेक्ष्य में NIEO को चुनौती देने के लिए 1974 में सात देशों के समूह की स्थापना की गई थी। पेट्रोलियम का निर्यात करने वाले देशों का संगठन (OPEC) ऐसा पहला उत्पादक संघ था जिसने निर्यात की कीमतें तय करने की शक्ति रखने वाले बहुराष्ट्रीय कॉर्पोरेशनों को चुनौती देकर उत्पादक देशों को कीमतें तय करने की शक्ति दी थी।
तीसरी दुनिया के देशों के कर्ज़ की दरों को बढ़ाकर उनके ऊपर आर्थिक आक्रमण। इसे वोल्कर संकट के माध्यम से अंजाम दिया गया। संयुक्त राज्य अमेरिका ने ब्याज दरों में इज़ाफ़ा करके तीसरी दुनिया के देशों में कर्ज़ संकट को पैदा किया।
IMF तथा विश्व बैंक ने तीसरी दुनिया के कर्ज़ संकट का फायदा उठाकर प्रभावित देशों को ‘संरचनात्मक समायोजन’ नीतियाँ लागू करने के लिए मजबूर किया। उन्होंने अल्पकालिक भुगतान संतुलन (Balance of Payments) समस्या से जूझ रहे देशों को संरचनात्मक समायोजन नीतियों के तहत बुनियादी जरूरतों पर होने वाले खर्च में कटौती करने तथा सार्वजनिक मितव्ययिता की व्यवस्था स्थापित करने के लिए बाध्य किया। संरचनात्मक समायोजन की नीतियों ने तीसरी दुनिया में उधार ग्रहण – कर्ज़ – मितव्ययिता की व्यूह रचना को मजबूत किया और वैश्विक पटल पर विकास के एजेंडा व इन सरकारों की राजनीतिक ताकत पर कुठाराघात किया।
फोर्डिस्ट उत्पादन प्रणाली का विखंडन तथा वैश्विक कारखानों का प्रादुर्भाव। इसको संभव बनाने में जनसंचार एवं परिवहन की तकनीकों में हुए विकास के साथ–साथ (1986 से 1994 के शुल्क और व्यापार पर सामान्य समझौते (GATT) के अंतिम चरण में अपनाए गए) बौद्धिक संपदा अधिकार के नये कानूनों ने मुख्य भूमिका निभाई।11
विकासशील देशों में छोटे किसानों एवं भूस्वामियों पर कृषि–व्यवसायों के आक्रमण (विकसित देशों में कृषि–व्यवसायों को प्रदान की जाने वाली सब्सिडी ने इस आक्रमण की धार को तेज किया) तथा उपठेकाकृत वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के उदय ने वैश्विक वर्ग संघर्ष में कामगार वर्ग तथा किसानों को कमजोर किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि इनकी वजह से कामगार यूनियनों का संगठनकर्म बेहद मुश्किल हो गया और राष्ट्रीयकरण जैसी रणनीतियाँ पहले की तरह कारगर नहीं रहीं।
इन घटनाओं ने तीसरी दुनिया की प्रगतिशील ताकतों को कमजोर किया और धीरे–धीरे NIEO विमर्श को हाशिए पर धकेल दिया। इससे नवउदारवादी सिद्धांत एवं नीति के आगमन और दबदबे का मंच तैयार हो गया।
3. वैश्वीकरण तथा नवउदारवाद का दौर (1979-2008)
दिसंबर 1980 में, तृतीय संयुक्त राष्ट्र विकास दशक की स्थापना करने के लिए संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने एक प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव ने पुन: पुष्टि की कि संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश ‘एक नये अंतर्राष्ट्रीय क्रम की स्थापना’ हेतु ‘निष्ठा’ के साथ काम करेंगे। इसने स्थापित किया कि ‘विकास का परम ध्येय विकास की प्रक्रिया में सभी लोगों की पूर्ण भागीदारी एवं विकास के फायदे के न्यायोचित वितरण के आधार पर सभी लोगों के कल्याण की सतत् उन्नति है’।12
लेकिन शीघ्र ही इस प्रस्ताव में दरारें प्रकट होने लगीं। प्रस्ताव के भीतर नए शब्दों का प्रवेश हुआ। वैश्विक विमर्श में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) द्वारा चलन में लाये गए ‘व्यापार का उदारीकरण’ तथा ‘संरचनात्मक समायोजन’ जैसे विचार इस प्रस्ताव के भीतर भी घुस गए। उदाहरण के लिए, यह प्रस्ताव कहता है: ‘सभी देश व्यापार के उदारीकरण तथा संरचनात्मक समायोजन को बढ़ावा देने हेतु एक उदार तथा विस्तारशील व्यापार प्रणाली के प्रति प्रतिबद्ध रहेंगे, जिससे देशों को तुलनात्मक सुलाभ (Comparative Advantage) का फायदा प्राप्त होने का मार्ग प्रशस्त होगा’।13
NIEO के लिए हामी भरने के बावजूद यह साफ हो गया था कि कर्ज़ के बढ़ते दरों के दबाव (मेक्सिको द्वारा 1982 में दिवालियापन घोषित करने के पश्चात इसमें बेतहाशा वृद्धि हुई) में आकर तीसरी दुनिया के अधिकाधिक देशों ने संयुक्त राज्य अमेरिका के आर्थिक विभागों में प्रकट होने वाले मुद्रावादी विचारों (ये विचार मिल्टन फ्रीडमैन के काम से प्रेरित थे) को अपनाना शुरू कर दिया था। संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार के दबाव में प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों का नेतृत्व NIEO का विरोध करने वाले मुद्रावादियों के हाथों में सौंप दिया गया। इन मुद्रावादियों ने विकास विमर्श के वैश्विक पहलूओं को नज़रअंदाज़ किया और इस विचार का प्रचार किया कि विकास की समस्या सरकारों से जुड़ी हुई है (उदाहरण के लिए, विलियम हूड – जिन्होंने कुछ समय के लिए शिकागो विश्वविद्यालय में काम किया – 1979 में IMF के मुख्य अर्थशास्त्री बने, जबकि ऐनी क्रूगर – फ्रीडमैन के नवउदारवाद की समर्थक – 1982 में विश्व बैंक की मुख्य अर्थशास्त्री बनीं)। एक दशक के बाद, जॉन टॉय ने NIEO के इस अवसान को एक ‘प्रतिक्रांति’ की उपमा दी।14
वैश्विक पटल पर शक्ति संतुलन में आए परिवर्तनों ने नव–औपनिवेशिक ढाँचे में बदलाव की गुंजाइश को खत्म कर दिया। इससे वैकासिक सिद्धांत के विमर्शों का भी अवसान हो गया। कर्ज़ के अंबार तले दबे वैश्विक दक्षिण के देशों ने – विशेषकर अफ़्रीका और लैटिन अमेरिका में – सरकारी व्यय एवं सब्सिडियों में कटौती, घरेलू बाज़ारों का उदारीकरण और मज़दूरी को कम रखने वाली नीतियाँ लागू करना शुरू कर दिया। ऐसी नीतियों ने इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को भारी नुकसान पहुँचाया। इस दौर को ‘विकास का खोया हुआ दशक’ के नाम से जाना गया। इनके ऊपर आयात–प्रतिस्थापन को त्यागकर निर्यात–प्रोत्साहन की नीतियों को अपनाने का दबाव था। बहुत सारे देश इस दबाव की वजह से अपने प्राथमिक उत्पादों का ज्यादा–से–ज्यादा निर्यात करने लगे; या बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने देश के भीतर उत्पादन की वैश्विक वस्तु श्रृंखला स्थापित करने हेतु लुभाने के लिए अर्थव्यवस्थाओं का उदारीकरण और नियामक नियंत्रणों को हटाने लगे।15
विश्व बैंक तथा IMF के दस्तावेजों ने विकास के विमर्श को आकार देना शुरू कर दिया, जहां मार्क्सवादी एवं राष्ट्रीय मुक्ति की आवाजों को अगुवा की बजाय आलोचकों का दर्ज़ा देकर हाशिए पर धकेल दिया गया। अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों और संयुक्त राष्ट्र ने उल्टी दिशा में कुछ उल्लेखनीय कदम उठाए। सबसे पहले, विश्व बैंक ने पहली बार कहा कि ग़रीबी का खात्मा संभव नहीं है, इसे सिर्फ कम किया जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र के चतुर्थ विकास दशक के प्रस्ताव ने तीव्र भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में ‘बदलती विश्व अर्थव्यवस्था के प्रति खुले एवं लचीले जवाबों’ की जरूरत की पुनर्पुष्टि की ।16 उसी साल सोवियत संघ का विघटन हो गया और भूमंडलीकरण की ताकतों पर नकेल की संभावना भी खत्म हो गई।
हालात गंभीर थे। जनवरी 1993 में संयुक्त राष्ट्र ने विश्व सामाजिक स्थिति का प्रकाशन किया। इस प्रकाशन को संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने सामाजिक प्रगति और विकास पर उद्घोषणा (1969) के अनुपालन के मूल्यांकन हेतु अनुमोदित किया था। 1993 की यह रिपोर्ट कहती है, ‘हालाँकि उद्घोषणा के लक्ष्य हासिल नहीं हुए हैं, लेकिन विकास के पीछे मौजूद शक्तियों की समझ गहरी हुई है और लक्ष्यों, दृष्टिकोणों और उनपर दिए जाने वाले जोर का मूल्यांकन करके उनका नवीनीकरण किया गया है। फलत:, विकास की प्रक्रिया को सतत् बनाने हेतु ग्रहणकर्ता देशों की सांस्थानिक क्षमता को सुदृढ़ करने के लिए सहायता दिए जाने पर जोर दिया जा रहा है’।17
संयुक्त राष्ट्र का यह कथन विश्व बैंक और IMF के विचारों – तीसरी दुनिया के विकास के मुद्दों पर बाहरी कारकों को नज़रअंदाज़ करना – से मेल खाता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार सब्सिडी–शुल्क शासनपद्धति (व्यापार का उदारीकरण) तथा मजदूरों को मिलने वाली सुरक्षा का अंत (श्रम बाजार का उदारीकरण) जैसे आंतरिक सुधारों पर जोर दिया जाना चाहिए। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि भ्रष्टाचार का मुकाबला, ‘सुशासन’ और मानवाधिकारों के राजनीतिक पहलू पर जोर देना (किंतु श्रम अधिकार इसके दायरे से बाहर रखे जाएंगे) अगली अवधि के एजेंडा होंगे। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठनों ने बहुत सारे दक्षिण–पूर्व एशिया के देशों के द्वारा की गई प्रगति का हवाला देकर यह साबित करने की कोशिश की कि निर्यात–प्रोत्साहन अथवा ‘एशियाई मूल्यों’ के बल पर आंतरिक विकास हासिल करना संभव है। उन्होंने चार एशियाई टाईगरों – (हांग कांग, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, और ताईवान) को उदाहरण के तौर पर पेश किया कि कैसे उन्होंने उपरोक्त बदलाव कर विपरीत बाहरी कारकों के बावजूद तीव्र आर्थिक विकास हासिल की।18 इन देशों के छोटे आकार के अलावा और भी कई मददगार कारक थे जिनको इन अध्ययनों ने अनदेखा किया; जैसे मजदूर अधिकारों का दमन करने वाली दीर्घकालिक राजनीतिक तानाशाही और संयुक्त राज्य अमेरिका की साम्राज्यवादी उपस्थिति के फलस्वरूप निम्न सैन्य खर्च जैसे कारणों को विकास के कारक के रूप में पहचानने की बजाय NIEO की आलोचना के रूप में दर्ज किया गया।19 वैश्विक दक्षिण के देशों पर अपने श्रम बाजारों तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का उदारीकरण करने का दबाव बनाने के लिए ‘पूर्व एशियाई चमत्कार’ का प्रयोग हथियार की मानिंद किया गया।20
इस दौरान, विकास की बहसों के केंद्र में NIEO अथवा विश्व अर्थव्यवस्था के नव–औपनिवेशिक ढाँचे नहीं, अपितु बुनियादी ज़रूरतों की माप तय कर संसाधन–निर्धन देशों के ऊपर लादे गए लक्ष्यों की गणना थी। यह सब सहस्त्राब्दी घोषणा (2000) और सतत् विकास हेतु 2030 के एजेंडा (2015) के माध्यम से किया गया। सहस्त्राब्दी घोषणा (2000) ने आठ सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों तथा सतत् विकास हेतु 2030 के एजेंडा ने सत्रह सतत् विकास लक्ष्यों की नींव रखी। इन सबको संयुक्त राष्ट्र मानव विकास परियोजना के मानव विकास सूचकांक परियोजना (1990) तथा आर्थिक सहयोग एवं विकास के अंतर्राष्ट्रीय विकास लक्ष्य (1996) के तकनीकी कार्यों के आधार पर विकसित किया गया था। इनमें से किसी भी लक्ष्य में विकास की संभावना को प्रभावित करने वाले बाहरी कारकों (उदाहरण के लिए, स्थायी कर्ज़ संकट) को जगह नहीं दी गई। यही कारण है कि यह साहित्य उधार ग्रहण – कर्ज़ – मितव्ययिता के व्यूह को जन्म देने वाली IMF की नीतियों और इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आवश्यक सामाजिक धन के निर्माण के सतत् तरीकों पर विमर्श नहीं करता है। विश्व बैंक ने 1996 में कहा था कि नियोजन का दौर खत्म हो चुका है, और वैश्विक दक्षिण की सरकारों को इन सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों तथा सतत् विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आवश्यक विकास दर एवं सार्वजनिक वित्त प्राप्त करने हेतु बाज़ारों पर श्रद्धा रखनी होगी।21 पिछले कुछ दशकों के दौरान वैश्विक दक्षिण के केवल मुट्ठीभर देश सतत् विकास लक्ष्यों के कुछ लक्ष्यों को हासिल कर पाने में सफल हो पाए हैं। 2007-2008 के वित्तीय संकट, 2020-2022 की महामारी तथा यूक्रेन युद्ध ने इन लक्ष्यों और देशों के बीच के फ़ासले को बढ़ा दिया है।
4. पाँच नियंत्रणों का दौर
संयुक्त राज्य अमेरिका में कर्ज़ बाज़ार के विफल हो जाने की वजह से पाश्चात्य वित्तीय बाज़ारों में 2007-2008 का संकट आया। इस संकट ने नवउदारवादी एजेंडा की चूलें हिलाकर रख दीं। वैश्विक दक्षिण के देश – खासकर चीन जैसे विशाल देश – संयुक्त राज्य अमेरिका की मुख्य खरीददार की भूमिका को लेकर आशंकित हो गए। संयुक्त राज्य अमेरिका के घरेलू बाज़ार तथा पाश्चात्य वित्तीय बाज़ारों की इन बुनियादी कमजोरियों के सामने आने से वैश्विक दक्षिण में बहुत सारे व्यावहारिक बदलाव आए। इनमें से दो महत्वपूर्ण बदलाव निम्नलिखित हैं:
2009 में बड़े विकासशील राज्यों – ब्राज़ील, चीन, भारत और दक्षिण अफ़्रीका – ने मिलकर BRICS की स्थापना की। इन्होंने इंडोनेशिया, मेक्सिको, नाईजीरिया व अन्यों के साथ मिलकर दक्षिण–दक्षिण विकास एजेंडा में जान फूँकने की कोशिश की। इन घटनाओं ने BRICS के सहारे एक नवीन व्यापार तथा विकास प्रणाली के जन्म और दक्षिणी वायर ट्रांसफर प्रणाली सहित एक नयी वित्तीय तथा मौद्रिक प्रणाली के निर्माण की आशा जगाई। संयुक्त राज्य अमेरिकी सरकार की प्रतिबंध नीति, जिसने बहुत से देशों को पाश्चात्य देशों के दबदबे वाली वित्तीय व्यवस्था से अलग–थलग कर दिया, ने भी इन घटनाओं को आकार देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस नए दक्षिण–दक्षिण एजेंडा के परिणामस्वरूप बहुत सारे लेख अस्तित्व में आए। हालाँकि इनमें से ज्यादातर लेख इस तरह के विकास के लिए आवश्यक बुनियादी ढाँचे के निर्माण के तकनीकी पहलूओं पर प्रकाश डालते हैं। अभी तक दक्षिण–दक्षिण एजेंडा के भीतर से विकास का कोई ठोस सिद्धांत उत्पन्न नहीं हो पाया है। संयुक्त राष्ट्र ने 2013 में दक्षिण–दक्षिण सहयोग कार्यालय (United Nations Office for South-South Cooperation (UNOSSC)) स्थापित किया था, जिसका काम सतत् विकास लक्ष्यों के काम को आगे बढ़ाना मात्र है। इसके कार्यक्षेत्र में विकास के लिए राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय योजना के निर्माण की जरूरत का मूल्यांकन नहीं आता है और इसकी दक्षिण–दक्षिण सहयोग की सैद्धांतिक समझ दक्षिण–दक्षिण के बीच व्यापार में बढ़ोत्तरी तक ही सीमित है।
औद्योगिक उत्पादन (विशेषकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, बायोटेक्नोलॉजी, हरित टेक्नोलॉजी, उच्च–गति की रेल, क्वांटम कम्प्यूटिंग, रोबोटिक्स और दूरसंचार) में असीम प्रगति के बल पर चीनी वैकासिक प्रतिमान नाटकीय रूप से बदला। चीनी सरकार ने अपने पश्चिमी राज्यों पर केंद्रित “पश्चिम की तरफ चलो” नीति तथा ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम के माध्यम से घरेलू बाज़ार का आकार बढ़ाया और 2013 में शुरू की गई वन बेल्ट, वन रोड पहल (जिसको 2016 में बेल्ट तथा रोड परियोजना का नाम दिया गया) की मदद से व्यापार तथा विकास के नए नेटवर्कों का निर्माण किया।22 2000 में स्थापित चीन–अफ़्रीका सहयोग फ़ोरम और 2001 में स्थापित शंघाई सहयोग संगठन आदि के माध्यम से चीन ने अपनी व्यापार नीतियों को तीव्र रुप से विस्तारित किया; जिसके फलस्वरूप 2022 में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) दुनिया का सबसे बड़ा व्यापार धड़ा बना। वर्तमान में चीन वैश्विक दक्षिण के ज्यादातर देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है। इस व्यापारिक विस्तारीकरण और वैश्विक दक्षिण पर इसके प्रभाव से सम्बन्धित सिद्धांत विकासशील अवस्था में हैं। इससे जुड़े साहित्य सैद्धांतिक न होकर मुख्यत: वर्णनात्मक हैं।23
दुनिया में हो रहे व्यापार तथा विकास से सम्बन्धित इन तीव्र परिवर्तनों के साथ कदम मिलाने अथवा इनको आकार देने वाली ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को समझने के बजाय संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके सहयोगी एक राजनैतिक तथा सैन्य एजेंडे के माध्यम से उनको पीछे धकेलने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे नव शीत युद्ध के नाम से जाना है।24 वॉशिंगटन की अगुवाई में यह एजेंडा धड़ों की आक्रामक राजनीति, आर्थिक विघटन तथा व्यापक सैन्यीकरण के माध्यम से चीन की आर्थिक प्रगति तथा दक्षिण–दक्षिण कार्यक्रमों को रोकने की कोशिश कर रहा है। इसकी वजह से दुनिया अस्थिर हो गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि पाश्चात्य देशों ने यह मान लिया है कि वो चीन के आर्थिक विकास तथा दक्षिण–दक्षिण व्यापार एवं विकास प्रणाली से मुकाबला करने में अक्षम हैं। आर्थिक रूप से मुकाबला करने में अक्षम पश्चिमी देश इन प्रगतियों को अवरुद्ध करने के लिए अपनी श्रेष्ठ सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर रहे हैं। वर्तमान के किसी भी विकास सिद्धांत को वैश्विक दक्षिण की समस्याओं के निराकरण की कोशिशों को अवरुद्ध करने वाले इस नव शीत युद्ध को भी विमर्श का हिस्सा बनाना होगा।
वर्तमान में विभिन्न प्रकार के विकास के सिद्धांत बौद्धिक अखाड़े में ताल ठोंक रहे हैं, लेकिन उनमें से सिर्फ इक्का–दुक्का सिद्धांत ही हमारे वर्तमान की समस्याओं को संपूर्णता तथा गहराई के साथ देख पाने में सक्षम हैं। आर्टुरो एस्कोबार, गुस्तावो एस्टेवा, और अरम ज़िया जैसे ‘विकासोत्तर’ स्कूल के विद्वान विमर्श के दायरे को स्थानीय स्तर तक सीमित कर देते हैं। सीमित दायरे में बँधा उनका नज़रिया समस्या के स्तर तथा राज्यों तथा आंदोलनों द्वारा स्थानीय दायरे से निकलकर वृहत्तर एजेंडा बनाने की जरूरत को नज़रअंदाज़ करता है। यह नज़रिया छोटे स्तर की घटनाओं के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी तो देता है, लेकिन ‘इसकी नींव नवउदारवादी धरातल में मजबूती से जमी होती है’। नवउदारवादी धर्म के शिकंजे में जकड़े लोग, जिसमें IMF के अर्थशास्त्री भी शामिल हैं, नए भाषा विन्यास में छुपे संरचनात्मक समायोजन तथा सुशासन जैसे पुराने राग अलापते रहते हैं। आजकल विकास के बारे में लिखने वाले कुछ ही लोग तथ्यों के साथ शुरूआत करते हैं और उनके आधार पर सिद्धांत का निर्माण करते हैं, लेकिन वो अक्सर अपनी नवउदारवादी हठधर्मिता को सच्चाई के ऊपर थोपते हैं।
तथ्यों के साथ शुरूआत करने के लिए आवश्यक है कि कर्ज़ तथा विऔद्योगीकरण की समस्याओं, प्राथमिक उत्पादों के निर्यात पर निर्भरता, बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा रॉयल्टियों को हथियाने के लिए हस्तांतरण मूल्य निर्धारण (Transfer pricing) का प्रयोग, नई औद्योगिक रणनीतियों के निर्माण में आने वाली कठिनाइयों और दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में लोगों की तकनीकी, वैज्ञानिक एवं नौकरशाही की क्षमताओं की निर्माण प्रक्रिया में आने वाली समस्याओं को स्वीकार किया जाए। इन कठिनाइयों से पार पाना वैश्विक दक्षिण की सरकारों के लिए हमेशा से ही एक दुष्कर कार्य रहा है। हालाँकि अब, दक्षिण–दक्षिण के नए खिलाड़ियों तथा चीनी सार्वजनिक संस्थानों के उद्भव ने इन सरकारों के सामने बहुत से विकल्प पैदा कर दिए हैं। अब ये सरकारें पश्चिमी देशों द्वारा नियंत्रित वित्तीय एवं व्यापारिक संस्थानों पर आश्रित नहीं हैं। इन नई सच्चाइयों का जन्म नये विकास सिद्धांतों के प्रतिपादन और दुराग्रही सामाजिक निराशा से पार पाने हेतु नये नज़रियों के निर्माण की माँग करता है। दूसरे शब्दों में, राष्ट्रीय नियोजन तथा क्षेत्रीय सहयोग के साथ–साथ वित्त एवं व्यापार के लिए एक बेहतर बाहरी वातावरण बनाने की लड़ाई की नितांत आवश्यकता है।
दक्षिण–दक्षिण सहयोग के संस्थानों तथा BRI परियोजना का उद्भव समाजवादी आंदोलनों एवं समाजवादी सरकारों के लिए एक नए समाजवादी सिद्धांत के निर्माण हेतु एक साथ मिलकर काम करने का अवसर लाया है। इस सिद्धांत की निर्माण प्रक्रिया में विकास के एजेंडे को अवरुद्ध करने वाले पाँच नियंत्रणों – जैसा कि समीर अमीन ने वर्णित किया है25 – की समझ विकसित करते हुए इनको खत्म करने के रास्ते तलाशने होंगे:
प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण: औद्योगिक उत्पादन के लिए आवश्यक ज्यादातर प्राथमिक संसाधन अफ़्रीका, एशिया तथा लैटिन अमेरिका के क्षेत्रों में पाए जाते हैं। लेकिन इन संसाधनों के ऊपर नियंत्रण मुख्यत: प्रत्यक्ष स्वामित्व के रूप में अथवा वस्तु श्रृंखला के ऊपर नियंत्रण के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनियों का होता है। ज्यादातर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ पश्चिमी देशों में हैं। पहले के दौर में इस्तेमाल की गई संसाधनों के राष्ट्रीयकरण की रणनीति आज के समय में पर्याप्त नहीं है, क्योंकि देशों के भीतर इन संसाधनों के उपयोग हेतु आवश्यक औद्योगिक क्षमता नहीं होने के कारण देशों को इन्हें बाहर बेचने पर मजबूर होना पड़ता है। इन संसाधनों के ऊपर नियंत्रण स्थापित करने के लिए कौन से साधन मौजूद हैं? इस सवाल का जवाब विकास के नए सिद्धांत को आधारशिला प्रदान करेगा।
वित्तीय प्रवाह पर नियंत्रण: सीमित आंतरिक धन एवं असमान वितरण (क्योंकि धनाढ्य अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रयोग कर टैक्स देने से इंकार करते हैं और अवैध टैक्स हेवनों में अपना धन छुपाते हैं) के कारण बहुत सारे विकासशील देश घरेलू पूंजी संचयन के लिए आवश्यक उच्च बचत दर पैदा करने में अक्षम होते हैं। इसके अतिरिक्त, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ बहुत सारे अपारदर्शी हथकंडों (जैसे कि हस्तांतरण मूल्य निर्धारण है (Transfer pricing)) का प्रयोग करके ट्रिलियनों डॉलर की धनराशि विकासशील देशों से हथिया लेती हैं। पूंजी नियंत्रण तथा बेहतर टैक्स प्रबंधन के माध्यम से संसाधनों का नियंत्रण और रियायती दर पर वित्तपोषण प्राप्त कर पाना वित्तीय प्रवाह पर नियंत्रण स्थापित करने के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं। क्या बाहरी वित्त के नए स्त्रोतों (उदहरण के लिए, पीपुल्स बैंक ऑफ़ चाइना के उदय ने लंदन क्लब के अलावा एक और विकल्प पैदा कर दिया है) का फायदा उठाकर विकासशील देश वित्तीय बाज़ारों के ऊपर नियंत्रण स्थापित करेंगे?
विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी पर नियंत्रण: पुरातन औपनिवेशिक इतिहास तथा नई बौद्धिक संपदा अधिकार प्रणालियों के कारण वैश्विक दक्षिण के बहुत सारे देश विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी के संस्थानों को विकसित करने के लिए अपने साधनों का विकास करने में कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। इस कारण तकनीकी जानकारी खरीदने के लिए उन्हें महँगा शुल्क अदा करना पड़ता है। उनके प्रतिभाशाली नौजवान पढ़ाई करने और अपनी ज़िंदगी बनाने के लिए दूसरे देशों की तरफ पलायन करते हैं। विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी के ऊपर नियंत्रण के अभाव के कारण संसाधनों का स्त्राव और प्रतिभा का पलायन, दोनों होता है। क्या राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय विकास की योजनाएँ विज्ञान एवं टेक्नोलॉजी के हस्तांतरण की युक्तियाँ ईज़ाद कर सकती हैं?
सैन्य शक्ति पर नियंत्रण: वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देश हथियारों पर प्रतिवर्ष 2 ट्रिलियन डॉलर खर्च करते हैं। इसमें से लगभग आधी रकम संयुक्त राज्य अमेरिका अकेले खर्च करता है।26 हथियारों के व्यापारी केवल मुट्ठीभर देशों में केंद्रित हैं। ज्यादातर हथियार व्यापारी संयुक्त राज्य अमेरिका के हैं। अपने पड़ोसियों के साथ सीमा विवाद तथा आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों का सामना करने वाले विकासशील देश अपने बेशकीमती सामाजिक धन का एक बड़ा हिस्सा हथियारों पर खर्च करते हैं। हथियारों की खरीद के दौरान ये देश अक्सर साम्राज्यवाद के सैन्य एजेंडे में शामिल हो जाते हैं। क्या नए विकास एजेंडा के लिए यह संभव है कि वो हथियारों पर होनेवाले खर्च को सीमित करने वाले एक अंतर्राष्ट्रीय एजेंडे में प्रतिभागी बने, और यह माँग रखे कि मुख्य ताकतें विवादों को गहरा न करें, और शांति क्षेत्रों के विस्तार की माँग भी उठाये?
सूचना पर नियंत्रण: 1980 में, UNESCO की रिपोर्ट कई आवाज़ें, एक दुनिया ने सूचना के ऊपर एकाधिकार को लेकर आगाह किया था। रिपोर्ट ने बताया था कि यह एकाधिकार ज्यादातर पश्चिमी राज्यों में केंद्रित था। पचास सालों के बाद आज सूचना पर एकाधिकार ज्यादा नाटकीय रूप ले चुका है। सूचना एवं संचार के प्रवाह की संरचना का नियंत्रण चुनिंदा पश्चिमी फ़र्मों – गूगल, फ़ेसबुक (मेटा) और ट्विटर – के हाथों में है।27 किसी भी विकास एजेंडे ने सूचना पर नियंत्रण तथा एक दूसरे के सांस्कृतिक एवं राजनीतिक संसारों के विषय में लोगों की परस्पर शिक्षा की महत्ता को गंभीरता से नहीं लिया है। क्या एक नया समाजवादी विकास सिद्धांत सूचना की महत्ता को रेखांकित करेगा? क्या दक्षिण–दक्षिण तथा BRI के नए नेटवर्क सत्यनिष्ठ संचार तथा विकासशील दुनिया में सूचना के प्रसार के लिए सूचना की नई प्रणालियों का निर्माण करेंगे?28
विकास के एक नए सिद्धांत का निर्माण करते वक्त हमें इन सवालों की दहलीज से होकर गुजरना होगा। वर्तमान में तैयार किये गए विकास के सिद्धांत के लिए यह जरूरी होगा कि वह आंदोलनों, राज्यों और क्षेत्रों को इन पाँचों पहलुओं पर अपना नियंत्रण स्थापित करने का रास्ता दिखाए और बाहरी, साम्राज्यवादी ताकतों के दबाव से खुद को बचाए।
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1. Bibliotheca Alexandrina via Wikimedia Commons; Olaf Tausch via Wikimedia Commons (CC BY 3.0); German Federal Archives via Wikimedia Commons (CC BY-SA 3.0 DE); and JSC Gateway to Astronaut Photography of Earth via Wikimedia Commons.
2. Jean-Pierre Dalbéra (CC BY 2.0) via Flickr and Senado the Commons via Flickr (Flickr Commons).
3. Bdgzczy via Wikimedia Commons (CC0 1.0), Katorisi via Wikimedia Commons (CC BY-SA 3.0), Ktneop via Wikimedia Commons (CC0 1.0), Reinhard Kraasch via Wikimedia Commons (CC BY-SA 4.0), and Mohigan via Wikimedia Commons (CC BY-SA 3.0).
4. The National Archives UK via Wikimedia Commons (OGL v1.0) and Unknown source via Pan-African News Wire.
5. People’s Pictorial via Wikimedia Commons.
6. Indonesian Department of Information via Wikimedia Commons and Dutch National Archives via Wikimedia Commons (CC0 1.0).
7. David Brossard via Wikimedia Commons (CC BY-SA 2.0) and Unknown source via The Zambian Observer.
Notes
1 Food and Agriculture Organisation of the United Nations (FAO), Building a Common Vision for Sustainable Food and Agriculture: Principles and Approaches (Rome: FAO, 2014), https://www.fao.org/3/i3940e/i3940e.pdf.
2 ‘World Hunger Statistics 2022,’ Embrace Relief, 17 February 2023, https://www.embracerelief.org/world-hunger-statistics-2022/#:~:text=According%20to%20the%20United%20Nations,majority%20living%20in%20developing%20countries.
3 United Nations General Assembly, Resolution 1710 (XVI), United Nations Development Decade: A Programme for International Economic Co-operation, A/RES/16/1710, (19 December 1961), https://digitallibrary.un.org/record/204609?ln=en, 17.
4 United Nations Economic Commission on Latin America, The Economic Development of Latin America and Its Principal Problems (New York: United Nations Publications, 27 April 1950).
5 Harvey Leibenstein, Economic Backwardness and Economic Growth (New York: John Wiley & Sons, 1957); Irma Adelman, Theories of Economic Growth and Development, (Stanford: Stanford University Press, 1958).
6 Key early texts that were critical of the dependency literature from a Marxist standpoint include Paul Baran, The Political Economy of Growth (New York: Monthly Review Press, 1957) and Celso Furtado, Formação econômica do Brasil [The Economic Growth of Brazil] (Rio de Janeiro: Fundo de Cultura, 1959).
7 United Nations General Assembly, Resolution 2626 (XXV), International Development Strategy for the Second United Nations Development Decade, A/R/25/2626 (24 October 1970), http://www.un-documents.net/a25r2626.htm.
8 United Nations, Proceedings of the United Nations Conference on Trade and Development, Third Session, vol. 1 (New York: United Nations, 1973), https://unctad.org/system/files/official-document/td180vol1_en.pdf, 2.
9 United Nations General Assembly, Resolution 3201 (S-VI), Declaration on the Establishment of a New International Economic Order, A/RES/S-6/3201 (1 May 1974), https://digitallibrary.un.org/record/218450?ln=en.
10 United Nations Environment Programme, Cocoyoc Declaration adopted by the participants in the UNEP/UNCTAD Symposium on ‘Patterns of Resource Use, Environment and Development Strategies’ held at Cocoyoc, Mexico, A/C.2/292 (8–12 October 1974), https://digitallibrary.un.org/record/838843?ln=en.
11 For more on the disarticulation of production, see Tricontinental: Institute for Social Research’s working document no.1, In the Ruins of the Present (2018),https://dev.thetricontinental.org/working-document-1/.
12 United Nations General Assembly, Resolution 35/56, International Development Strategy for the Third United Nations Development Decade, A/RES/56/33 (5 December 1980), https://digitallibrary.un.org/record/18892?ln=en.
13 United Nations General Assembly, Resolution 35/56, International Development Strategy for the Third United Nations Development Decade, A/RES/56/33 (5 December 1980), https://digitallibrary.un.org/record/18892?ln=en.
14 John Toye, Dilemmas of Development: Reflections on the Counter-Revolution in Development Theory and Policy (Oxford: Blackwell, 1987); Vijay Prashad, The Poorer Nations: A Possible History of the Global South (London: Verso, 2012).
15 आयात प्रतिस्थापन का तात्पर्य घरेलू उद्योग के उत्पादन, सरंक्षण और सुरक्षा के हित में विदेशी आयात की जगह घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने वाली आर्थिक रणनीति से है। निर्यात प्रोत्साहन का तात्पर्य ऐसी आर्थिक रणनीति से है जो उन वस्तुओं के निर्यात करने प्राथमिकता देती है जिसमें किसी देश के पास तुलनात्मक सुलाभ होता है तथा यह अंतरराष्ट्रीय व्यापार को अधिकाधिक खुला रखने की हिमायती होती है।
16 World Bank, World Development Report 1990: Poverty, (New York: Oxford University Press, 1990); United Nations General Assembly, Resolution 45/199, International Development Strategy for the Fourth United Nations Development Decade, A/RES/45/199 (21 December 1990), https://digitallibrary.un.org/record/105649?ln=en, 126.
17 United Nations Economic and Social Council, 1993 Report on the World Social Situation: Addendum, E/1993/50/Add.1 (12 January 1993), https://digitallibrary.un.org/record/171302?ln=en, 45.
18 World Bank, The East Asian Miracle: Economic Growth and Public Policy (Washington D. C.: World Bank, 1993); Joseph Stiglitz, ‘Some Lessons of the East Asian Miracle’, World Bank Research Observer 11, no. 2 (August 1996). For more, see studies by the Korea Development Institute.
19 Prabhat Patnaik, ‘Diffusion of Activities and the Terms of Trade’ in Accumulation and Stability Under Capitalism (New York: Oxford University Press, 1997).
20 Adjustment in Africa: Reforms, Results, and the Road Ahead (Washington, DC: World Bank, 1994).
21 World Bank, World Development Report 1996: From Plan to Market (New York: Oxford University Press, 1996), http://openknowledge.worldbank.org/handle/10986/5979;?locale-attribute=fr.
22 For more on the eradication of absolute poverty in China, see Tricontinental: Social Institute for Research’s first study on socialist construction, Serve the People: The Eradication of Extreme Poverty in China, (2021), https://dev.thetricontinental.org/studies-1-socialist-construction/.
23 A useful start is provided by the seven-volume series titled Five Years of the Belt and Road Initiative, published by Chongyang Institute for Financial Studies of Renmin University of China and Foreign Language Press (2019) and New Silk Road, New Thinking, a collection published by Foreign Language Press (2018).
24 Vijay Prashad, John Bellamy Foster, John Ross, and Deborah Veneziale, The United States Is Waging a New Cold War: A Socialist Perspective (Tricontinental: Institute for Social Research, Monthly Review, and No Cold War, 13 September 2022), https://dev.thetricontinental.org/the-united-states-is-waging-a-new-cold-war-a-socialist-perspective/. For more details, see https://nocoldwar.org/.
25 Samir Amin, ‘The Challenge of Globalisation’, Review of International Political Economy, vol. 3, no. 2, Summer 1996. Also see Tricontinental: Institute for Social Research’s notebook no. 1, Globalisation and Its Alternative: An Interview with Samir Amin (2018).
26 Stockholm International Peace Research Institute, ‘World Military Expenditure Passes $2 Trillion for First Time,’ SIPRI, 25 April 2022, https://www.sipri.org/media/press-release/2022/world-military-expenditure-passes-2-trillion-first-time#:~:text=Military%20expenditure%20reaches%20record%20level,consecutive%20year%20that%20spending%20increased.
27 Vijay Prashad, ‘History has not ended: An assessment of the Culture of Information Production’, Keynote address, East China Normal University, Shanghai, 4 May 2023.
28 ALBA-TCP, Tricontinental: Institute for Social Research and Simón Bolívar Institute, A Plan to Save the Planet, 24 November 2021,
(CC BY-NC 4.0) license. The human-readable summary of the license is available at
https://creativecommons.org/licenses/by-nc/4.0/.