लेकरा की विरासत: इंडोनेशिया में क्रांतिकारी संस्कृति की रवायत

एस पुदजानदी, ‘किसानों की माँगें’, 21 जून 1964 को हरियन राक्यत में प्रकाशित। माँगें इस प्रकार हैं: यूयूपीए ('कृषि कानून 1960'), यूयूडी 45 ('इंडोनेशियाई 1945 संविधान') ) और डेमोक्रासी ('लोकतंत्र')।

एस. पुदजानदी, (‘किसानों की माँगें’), 21 जून 1964 को हरियन राक्यत में प्रकाशित। माँगें इस प्रकार हैं: यूयूपीए (‘कृषि कानून 1960′), यूयूडी 45 (‘इंडोनेशियाई 1945 संविधान‘) ) और डेमोक्रासी (‘लोकतंत्र‘)

 

 

 

साहित्य जो पीड़ितों का पक्षधर हो न कि सत्ता का।

 

हमारी चीत्कारें उठी हैं

अलगाव की दीवारों के पीछे से

लिजलिजे बिस्तरों की गिरफ़्त से

गटरों में चलते रातों के व्यापार से

अनचाहे ब्याह के प्रतिशोध से

हम इंसान हैं’

-‘महिलाएँ’, सुगिआर्ती सिस्वादी, लेकरा और महिला संगठन (गेरवानी)[1] की नेता द्वारा लिखित।

 

रिहा होना मेरे लिए सबसे ज़्यादा भयावह था। खुली दुनिया मेरे लिए सबसे बड़ा क़ैदख़ाना थी।’

मार्टिन अलिडा उस लम्हे को याद करते हैं, जब 1966 के अंत में उनको जेल से रिहा किया गया था । 22 वर्षीय मार्टिन लगभग एक साल जेल में गुज़ारने के बाद रिहा हुए, और अपने दोस्तों तथा कॉमरेडों को खोजने में नाकाम रहे। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडोनेशिया (पीकेआई) का आधिकारिक समाचारपत्र हरियन रक्यात (’द पीपुल्स डेली’) बंद हो चुका था, जहाँ वह काम करते थे। उनकी पार्टी और उसके सांस्कृतिक संगठन लेकरा (लेम्बागा केबुदायान राक्यात या “जन संस्कृति संस्थान) पर प्रतिबंध लग चुका था, और उसके बाद से उसे अवैध क़रार दे दिया गया था।

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने छिहत्तर वर्षीय मार्टिन से बातचीत की। वह दक्षिणी सुमात्रा के रहने वाले हैं, लेकिन 1960 के दशक की शुरुआत से ही जकार्ता में रह रहे हैं। वो हर शनिवार को एक स्थानीय पुस्तकालय में जाते हैं। उन्होंने हमारे सवालों का जवाब उसी पुस्तकालय से दिया।

अपने संस्मरण ‘हिंसा के दौर में रोमांस’ का उल्लेख करते हुए वह बताते हैं कि ‘पिछले पचास सालों के दौरान मैं बहुतसी ऐसी घटनाओं और एहसासों से गुज़रा हूँ जिनको अभिव्यक्त कर पाना मेरे लिए संभव नहीं है।’ हालाँकि मार्टिन उनका असली नाम नहीं है। ‘जनरल सुहार्तो के तीस सालों के सैन्य शासन के दौरान, मुझे लिखने के लिए एक छद्म नाम मार्टिन अलेडाका प्रयोग करना पड़ा क्योंकि सरकार ने मेरे लिखने पर प्रतिबंध लगा रखा था। मैं पेशेवर लेखक के तौर पर दोबारा लिखना शुरू नहीं कर सकता था क्योंकि मेरे ऊपर बिना किसी सबूत के मनगढ़ंत तरीक़े से 1965 में 30 सितंबर के आंदोलन [G30S] के दौरान सेना द्वारा किए गए तख़्तापलट के असफल प्रयास में शामिल होने का आरोप लगाया गया था। यही हाल हज़ारों शिक्षकों, सरकारी मुलाज़िमों और यहाँ तक कि कठपुतली का खेल दिखाने वालों तक का था। उनके अपने कार्यक्षेत्र में दोबारा प्रवेश करने का मतलब बारबार जाँच का सामना करने और गिरफ़्तारी की आशंका के अलावा ख़ुद की हत्या कर दिए जाने के लिए तैयार रहना था।’ ‘हत्या कर दिए जाने’ का प्रयोग हल्के में नहीं किया गया है। मेजर जनरल सुहार्तो की अगुआई वाले 1965 के तख़्तापलट के दौरान तख़्तापलट की सरकार और उसके सहयोगियों ने दस लाख से ज़्यादा कम्युनिस्टों और कम्युनिस्ट समर्थकों की हत्या की थी।

1965 में 30 सितंबर के आंदोलन में सेना के एक धड़े ने तड़के सुबह कार्रवाई की। इस कार्रवाई के दौरान छह वरिष्ठ अधिकारियों का अपहरण कर लिया गया और हत्या कर दी गई। हालाँकि उस दिन की घटनाओं का विवरण अंधेरे के साये में गुम हो गया, लेकिन इतना साफ़ है कि दक्षिणपंथ और सेना ने कम्युनिस्टों पर इस बग़ावत में चिंगारी लगाने का आरोप लगाया। इस घटना की आड़ में बहुत आसानी से पीकेआई को नरसंहार का निशाना बनाया गया। मेजर जनरल सुहार्तोजिनको इंडोनेशियाई मज़दूरों और किसानों के घरों की बजाय सीआईए के मुख्यालय में बेहतर तरीक़े से जाना जाता थाने अपनी अगुआई में सेना को बैरकों से निकालकर वामपंथ के सुनियोजित क़त्लेआम की शुरूआत की। ऑस्ट्रेलियाई और संयुक्त राज्य अमेरिकी दूतावासों ने कम्युनिस्टों की सूची प्रदान की, सूची मिलने के बाद जिन्हें ‘साफ़ कर दिया गया’। संयुक्त राज्य अमेरिका के राजदूत मार्शल ग्रीन ने लिखा कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने सेना को स्पष्ट कर दिया था कि वह उनके अभियान के प्रति ’सहानुभूति रखता है और उसकी प्रशंसा करता है’। राष्ट्रपति सुकर्णो, जिन्हें 1965 में तख़्तापलट करके हटा दिया गया था, 1949 में अपने नेतृत्व में इंडोनेशिया को डच साम्राज्यवाद के शिकंजे से बाहर निकालने के बाद से वामपंथ की तरफ़ झुकते जा रहे थे। 1955 में सुकर्णो ने बांडुंग में एशियाअफ़्रीका कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया। यह तीसरी दुनिया के निर्माण की परियोजना की दिशा में एक अहम क़दम था।

 

Djoko Pekik, Tuan Tanah Kawin Muda (‘Old Landlord Marries a Youngster’), 1964.

जोको पेकिक, बूढ़े ज़मींदार की नवयुवती से शादी, 1964

 

1968 में, सीआईए विश्लेषक हेलेनलुई हंटर ने एक रिपोर्ट लिखी जिसका शीर्षक था: 1965: वह तख़्तापलट जो उल्टा पड़ गया।[2] इस रिपोर्ट में उन्होंने लिखा कि ‘हत्या के आँकड़ों के हिसाब से इंडोनेशिया में हुआ पीकेआई विरोधी क़त्लेआम 20वीं सदीं के सबसे वीभत्स जनसंहारों में शामिल है’। मारे जाने वाले लोगों में पीकेआई के महासचिव डी. एन. ऐदित, दो मुख्य पोलित ब्यूरो सदस्य एम. एच. लुकमान और लुकमान न्जोटो तथा पार्टी के दो अन्य सदस्य सुदिस्मान और इर सकिर्मन शामिल थे। किसी भी अदालती प्रक्रिया का पालन किए बिना पीकेआई के इन पाँच वरिष्ठ नेताओं की ‘हत्या कर दी गई’। यहाँ यह ध्यान देना महत्त्वपूर्ण है कि ख़ुद को पदोन्नति देकर जनरल बनने और राष्ट्रपति के पद पर बैठने वाले मेजर जनरल सुहार्तो ने 2008 में अपनी मौत तक हिंसा और तख़्तापलट को लेकर कोई प्रायश्चित नहीं किया। ‘नयी व्यवस्था’ के नाम से मशहूर सुहार्तो की तानाशाही अगले बत्तीस सालों तक यानी 1998 तक क़ायम रही। 1998 में व्यापक आधार वाले लोकतंत्र के आंदोलन ने इस तानाशाही का अंत किया। पीकेआई विरोधी तख़्तापलट का ख़ूनी शिकंजा इंडोनेशिया के ऊपर आज भी कसा हुआ है, जहाँ मार्क्सवादी और कम्युनिस्ट संगठन प्रतिबंधित हैं।

मार्टिन ने उस नरसंहार का सामना किया, जो कम्युनिस्टों को निशाना बनाने वाला, इतिहास का सबसे ख़ूनी नरसंहार था, जिसके बारे में किसी भी जानकारी को पूरी तरह दबा दिया गया। लेकिन इस नरसंहार से मार्टिन की साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता और गहरी हुई। जैसा कि वह कहते हैं उनका साहित्य ‘पीड़ितों का पक्षधर है, न कि सत्ता का’। अपने कल्पित नाम मार्टिन का प्रयोग करके वह लोगों की पीड़ा, ग़ायब कर दिए गए लोगों और एक पीढ़ी की दमित आकांक्षाओं पर उपन्यास, लघु कहानियाँ, गल्प तथा कथेतर साहित्य लिखते हैं। वह बहासा इंडोनेशियाई में लिखते हैं, इंडोनेशियाई भाषाओं में से एक, जिसे 1928 में राष्ट्रीय मुक्ति की भाषा के रूप में अपनाया गया था तथा जो 1930 और 1940 के दशक के उपनिवेशवादविरोधी तथा सामंतवादविरोधी संघर्षों की आवश्यकता से अनुसार परिपक्व हुई थी।

मार्टिन की लघु कहानियों में से एक की नायिका देवांग्गा मृत्युशैया पर लेटी हुई है और अपने पति अब्दुल्ला के साथ अपनी शादी सहित पुरानी यादों को फिर से जी रही है। अपने जीवन के अंतिम क्षणों में, जीवन भर साथ में मौन रहने के बाद, क्या वे अंततः अपने युद्धरत अतीत को एकदूसरे से साझा करने का साहस दिखा पाएँगे अब्दुल्लाह 1965 में जेल में बंद कार्यकर्ता के रूप में, देवांग्गा भूमिहीन किसानों के संगठनकर्ता के रूप में। मार्टिन उम्मीद करते हैं कि उनका हालिया संस्मरण युवा पीढ़ी से देवांग्गा और अब्दुल्ला की कहानियों जैसी असाधारण कहानियों का परिचय कराएँगी, जो बताएँगी कि कहानियों के नायक और नायिका का जीवन 1965 के पहले कैसा था और उसके बाद उनको किन संघर्षों का सामना करना पड़ा, तथा वे कैसी परिस्थितियाँ थीं जिसने इंडोनेशियाई इतिहास को ऐसे ज़ख़्म दिए जो अभी तक भरे नहीं हैं।

 

हम विश्व संस्कृति के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं

 

यह पैदा हुआ था

पैंतीस साल पहले

सबसे प्रगतिशील वर्ग की

पीड़ा से

एक युग का शिशु

यह एक युग को जन्म देगा

उद्दाम तूफ़ान

हवा से नहीं रोका जाएगा

यह लोगों के दिलों में समा गया है

बांदा के समुद्र से भी गहरे

जीवन का शृंगार कर रहा है

चेम्पेका के खिलने से अधिक सुंदर

यह जीवन जीता है

आतंक और उकसावे को झेलते हुए

कल आज कल

यह एंटियस है, पोसिडोन का पुत्र

अजेय जब तक यह पृथ्वी के प्रति वफ़ादार है

एक युग का शिशु जो एक नये युग को जन्म देगा

अब वह जवान हो गया है।

डी एन ऐदित लिखित कविता ‘जवान होना’[3]

 

जब वे कहते हैं कि ‘पूरब लाल था’, तो ऐसा इसलिए कहा जाता था क्योंकि पूरब सच में लाल था। 1965 में पीकेआई के पैंतीस लाख सदस्य थे तथा इसके युवा, महिला, किसान और श्रमिक जन संगठनों के सदस्यों की संख्या दो करोड़ थी। पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना और सोवियत संघ की पार्टियों के बाद यह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी थी। पीकेआई का सांस्कृतिक मोर्चा, लेकरा उसके बड़े जन संगठनों में से एक था, जिसमें 2,00,000 से अधिक सदस्य थे तथा जिसके समर्थकों की संख्या पंद्रह लाख के आसपास थी। लेकरा संभवतः दुनिया भर में सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन था, जो किसी सरकार से संबद्ध नहीं था। लेकरा के एक सदस्य के रूप में, मार्टिन याद करते हैं, ‘मुझे संगठन के उस दृष्टिकोण ने आकर्षित किया था कि साहित्य को उत्पीड़ित जनता का पक्ष लेना चाहिए और उसके न्याय के लिए लड़ना चाहिए – जिनमें मज़दूर, किसान और मछुआरे शामिल हैं। पहले से तय है कि सामान्य रूप से कला तथा साहित्य शोषितों की रक्षा के लिए है। ‘इस ऐतिहासिक संगठन के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं; यह महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं है, बल्कि इसके कामों को मिटाने और नष्ट किए जाने तथा इसके सदस्यों के निर्वासन और गुमशुदगी की वजह से ऐसा हुआ’।

17 अगस्त 2020 को लेकरा अपनी स्थापना का सत्तरवाँ सालगिरह मनाता। इसका स्थापना दिवस उसी दिन है, जिस दिन इंडोनेशिया का स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। 1945 में इसी दिन इंडोनेशियाइयों ने साम्राज्यवादियों से अपनी आज़ादी छीनी थी। इस दिन को तुजुहबेलासन ( इसका अर्थ हैसत्रहवीं) के रूप में भी जाना जाता है। ब्रिटिश, डच और जापानियों को पूरी तरह से पराजित होने तथा हेग में 1949 में गोलमेज़ सम्मेलन को आयोजित होने में चार साल लग गए। इस सम्मेलन में डच बेमन से इंडोनेशिया छोड़ने पर सहमत हुए, लेकिन उन्होंने अपने लिए कई रियायतें माँग ली। इनमें से एक ‘विशेष’ सांस्कृतिक समझौता था, जिसने विचार और संस्कृति के क्षेत्र में डचों के साथ संबंध बनाए रखने की व्यवस्था की। क्रांतिकारी कलाकारों के लिए यह अगस्त क्रांति अधूरी थी, और उन्होंने ख़ुद को साम्राज्यवादी और स्वतंत्र राष्ट्रीय संस्कृति के निर्माण के कार्य के लिए झोंक दिया और समाजवादी क्रांति की शुरुआत की। 1950 में, सियासत साप्ताहिक पत्रिका के साथ जुड़े कलाकारों के एक समूह, गेलैंगगंग, ने सोशलिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडोनेशिया के साथ मिलकर कुछ महीने पहले जन्मे राष्ट्रराज्य के लिए ‘टेस्टीमनी ऑफ़ बिलीफ़्स’ के नाम से सांस्कृतिक घोषणापत्र जारी किया:

हम विश्व संस्कृति के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं, और हम अपने तरीक़े से इस संस्कृति को बनाए रखेंगे। हम सामान्य लोगों की तरह पैदा हुए थे, और हमारे लिए, ‘जनता’ की अवधारणा संक्रांति काल की तरह है, जहाँ से नयी, मज़बूत दुनिया का जन्म होता है। हमारा इंडोनेशियाईपन हमारी भूरी त्वचा, हमारे काले बालों या हमारे उभरे हुए माथे से नहीं निकलता है, बल्कि हमारे विचारों और भावनाओं के रूप में इसकी अभिव्यक्ति होती है हमारे लिए क्रांति नये मूल्यों की स्थापना है जिसके द्वारा आने वाली बाधाओं को समाप्त कर दिया जाना चाहिए आसपास की स्थितियों (समाज) की प्रशंसा उन लोगों की प्रशंसा है जो समाज और कलाकार के बीच प्रभाव की पारस्परिकता को स्वीकार करते हैं’।[4]

अगस्त क्रांति को पूरा करना एक महान कार्य होगा। 1950 के दशक की शुरुआती अवधि के दौरान, कम्युनिस्ट आंदोलन सांगठनिक रूप से कमज़ोर था, कम्युनिस्ट विरोधी मादियन विद्रोह (1948) और सुकिमान छापों (1951) की वजह से पीकेआई के हज़ारों समर्थकों को जेल में डाल दिया गया तथा उनकी हत्या कर दी गई। 1951 में जब डी. एन. ऐदित को पीकेआई का महासचिव चुना गया तब पीकेआई की सदस्यों की संख्या महज़ 8,000 थी। उनके ही नेतृत्व में अगले चार वर्षों में पार्टी की सदस्यता तेज़ी से बढ़ते हुए एक लाख हो गई थी और 1965 के तख़्तापलट के बाद पार्टी के विनाश के समय उसके सदस्यों की संख्या पैंतीस लाख थी। कम्युनिस्ट आंदोलन अपने जन संगठनों और व्यापक राजनीतिक गठबंधनों को विकसित करके आश्चर्यजनक रूप से अपना विस्तार करने में सक्षम हुआ। राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा की रणनीति को अपनाने से पार्टी को समाज के उन प्रगतिशील तबक़ों के साथ मिलकर साझा कार्यक्रम बनाने में मदद मिली जो साम्राज्यवाद विरोधी राजनीति के कारण एक साथ आए थे। इस प्रक्रिया का केंद्रबिंदु सुकर्णो के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ इंडोनेशियाई नेशनल पार्टी (पीएनआई) का वामपंथी ख़ेमे के साथ संबंध था। हालाँकि, बुर्जुआ क्रांति से निकले सुकर्णो ने इस अवधि में तेज़ी से रक्यातसमर्थक (या जनसमर्थक) और एक साम्राज्यवादविरोधी रुख़ अपनाया। जैसेजैसे पीकेआई और उसके जन संगठनों का विकास हुआ कम्युनिस्ट आंदोलन सत्तारूढ़ पीएनआई का महत्त्वपूर्ण स्तंभ बन गया।

S. Nar, People’s Iron Broom, from the Afro-Asian People’s Anti-Imperialist Caricature Exhibition, 1966.

एस.नर, जनता का लोहे का झाड़ू, एफ्रो एशियाई पीपुल्स एंटी इंपीरियलिस्ट कैरिकेचर प्रदर्शनी से साभार,1966

 

इन वर्षों के दौरान कई क्रांतिकारी सांस्कृतिक संगठन फलेफूले और विकसित हुए, जिनमें से लेकरा न केवल सबसे बड़ा था, बल्कि सबसे अधिक वामपंथी रुझान वाला भी था। इसके कई वरिष्ठ सदस्य पीकेआई के कैडर थे, जिनमें लेकरा के दो संस्थापक सदस्य भी शामिल थे: हरियन रक्यात के संपादक और पीकेआई पोलित ब्यूरो के सदस्य नजोटो और स्वयं डी.एन. ऐदित। हालाँकि, लेकरा पीकेआई का आधिकारिक संगठन नहीं था, और न ही इसे सीधे पार्टी से राजनीतिक दिशानिर्देश मिलता था। एक बार की बात है, वरिष्ठ पत्रकार अमरज़ान इस्माइल हामिद हरियनन रक्यात के लिए कविता का चयन कर रहे थे, उनके सामने डी. एन. ऐदित की कविता आई, तब हामिद ने नजोटो से कहा कि यह कविता अच्छी नहीं है, नजोटो ने जवाब दिया, ठीक है।

लेकरा का उद्देश्य था पार्टी से परे एक मज़बूत कम्युनिस्ट आंदोलन के निर्माण में योगदान देना। लेकरा कम्युनिस्ट सांस्कृतिक कार्य का हिरावाल दस्ता था। इस बीच, सेंत्राल ऑर्गेनीसासी बुरुह सेलुरुह इंडोनेशिया (‘ऑलइंडोनेशियाई फ़ेडरेशन ऑफ वर्कर्स ऑर्गनाइजेशन’या SOBSI) में मज़दूर, गेरवानी (‘इंडोनेशियाई महिला आंदोलन’) में महिलाएँ, बारिसन तानी इंडोनेशिया (‘इंडोनेशिया का किसान मोर्चा’ या BTI) में किसान और पेमुदा रक्यात (‘पीपुल्स यूथ’) में युवा संगठित हो रहे थे। ये सभी जन संगठन जिनमें से सभी वैध थे और पीकेआई के साथ जिनका संबंध जगज़ाहिर था ने कम्युनिस्ट आंदोलन का निर्माण किया, जिसने साम्राज्यवादविरोधी राष्ट्रीय संघर्ष को गति दी। डी. एन. ऐदित और नजोटो के नेतृत्व में, पार्टी और कम्युनिस्ट आंदोलन के पुनर्निर्माण के काम के लिए संस्कृति को लेकर एक व्यवस्थित दृष्टिकोण की आवश्यकता महसूस हुई, जो कि वर्ग चेतना, साम्राज्यवादविरोध और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से युक्त हो। इस परियोजना के केंद्र में लोग हों, जिनके लिए और जिनके द्वारा संस्कृति बनाई गई है। लेकरा के 1955 के बयान मुकद्दिमा (‘परिचय’) में जिसका समाहार इस तरह किया गया है, ‘जनता संस्कृति की एकमात्र निर्माता हैं’।

1959 में लेकरा के पहले राष्ट्रीय अधिवेशन में महासचिव जोएबार अजोएब ने कहा कि 1950 में लेकरा की स्थापना अगस्त 1945 क्रांति के प्रति जागरूकता, क्रांति और संस्कृति के संबंध, संस्कृति के लिए क्रांति के महत्त्व और अगस्त क्रांति के लिए संस्कृति की अहमियत के प्रति जागरूकता के कारण हुई।[5] पहला काम घरेलू सामंतवाद और विदेशी साम्राज्यवाद के

दोहरे उत्पीड़न से लोगों की कला को ‘पुनर्जीवित’ करना था। अजोएब ने इस बात को विस्तार से कहा कि पुनर्जीवित करने का मतलब ‘लोगों की कला को मरने से रोकने के नकारात्मक अर्थ में नहीं था बल्कि सकारात्मक अर्थ में इसे पुनर्जीवित करना था, विशेष रूप से इसे नयी सामग्री देकर जो अगस्त क्रांति के चरित्र और उद्देश्य से मेल खाता हो’।[6]

सांस्कृतिक कार्य की बहुत लम्बी सूची थी; उन्होंने लोकप्रिय और पारंपरिक संगीत को व्यवस्थित करने से लेकर, मौजूदा ह्रासोन्मुख, सामंती या ग़ैरक्रांतिकारी पहलुओं की पहचान करने तक, सांस्कृतिक राजनीतिक शिक्षा कार्यक्रम को विकसित करने से लेकर, नये रचनात्मक कार्यों को प्रोत्साहित करने तक, ‘लोगों के संगीत’ और उपकरणों को पुन: आविष्कृत करने से लेकर अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक आदानप्रदान के आयोजन तक। अपने पंद्रह साल की सक्रियता से लेकरा ने न केवल लाखों लोगों को जुटाया, बल्कि ठोस और भौतिक परिस्थितियों से जुड़ी सांस्कृतिक परंपराओं को विकसित किया। उसके आयोजन से अभिव्यक्ति के नये रूप और नये कलात्मक सिद्धांत उभरे जिनका सार थामार्क्सवादी परंपरा में कला इतिहास लिखना।

 

जीवंत संस्कृति का निर्माण

लेकरा ने अपने तंत्र, संबद्ध संगठनों और क्षेत्रीय सांस्कृतिक मोर्चों के माध्यम से कई क्षेत्रों में और कई स्तरों पर काम किया। स्टीफ़न मिलर ने लेकरा और हरियन रक्यात अख़बार के सांस्कृतिक परिशिष्ट केबुदयान के व्यापक अध्ययन के माध्यम से इस बात की ओर इशारा किया है कि इसने ख़ुद को कैसे व्यवस्थित किया।[7] राष्ट्रीय सचिवालय एक केंद्रीय निकाय था, जिसमें कलात्मक विधाओं के आधार पर विभाग बने हुए थे। पहले राष्ट्रीय कांग्रेस के दौरान लेकरा को साहित्य, ललित कला, फिल्म, थिएटर, संगीत, नृत्य और विज्ञान के लिए सात संस्थाओं में औपचारिक रूप से बाँटा गया था।

राष्ट्रीय स्तर के नीचे क्षेत्रीय संगठन थे और उनके नीचे स्थानीय शाखाएँ थीं। लेकरा ने अपनी स्थापना के पहले वर्ष में इक्कीस इकाइयों का गठन किया, जो बड़े पैमाने पर जावा में स्थित थीं, और सुमात्रा, सुलावेसी, बाली और कालीमंतान में भी शाखाएँ बनाई गई थीं। प्रमुख शाखाएँ राष्ट्रीय राजधानी जकार्ता और पीकेआई के गढ़ योग्याकार्ता में थीं, साथ ही सुमात्रा के मेदन में व्यापक बाग़बानी अर्थव्यवस्था और भूमि संघर्ष की वजह से शाखाएँ बनीं। प्रत्येक शाखा का अपना चरित्र था, जो अपनेअपने क्षेत्र की संस्कृतियों और परंपराओं को साथ लेकर आती थीं। अपने पहले दशक के दौरान, लेकरा की स्थानीय शाखाओं का 200 तक विस्तार हुआ। 1963 तक इसकी सदस्यता 1,00,000 तक पहुँच गई थी। क्रूरतापूर्ण तख़्तापलट में संगठन को तबाह किए जाने से दो साल पहले की यह स्थिति थी। तब से यह अवैध है। लेकरा अपने दूसरे राष्ट्रीय कांग्रेस को देखने के लिए जीवित नहीं बचा था, जिसका आयोजन उसी ख़ूनी साल के दिसंबर महीने में होने वाला था।

 

Amrus Natalsya, Mereka Yang Terusir Dari Tanahnya (‘Those Chased Away from Their Land’), 1960, oil on canvas, 80 x 187 cm, Collection of National Gallery Singapore.

अम्रस नटालस्या, जिन्हें अपनी ज़मीन से बेदख़ल कर दिया गया, 1960, कैनवास पर तेल, 80 x 187 सेमी, साभार: नेशनल गैलरी सिंगापुर।

अपनी सदस्यता बढ़ाने के अलावा, 1950 के दशक में लेकरा की सफलताओं में से एक था और क्यों यह साम्राज्यवादी और पूँजीवादी महत्वाकांक्षाओं के लिए खतरनाक हो गया कम्युनिस्ट आंदोलन में और उसके आसपास व्यापक ‘सांस्कृतिक परिदृश्य’ के साथ संवाद स्थापित करना, जैसाकि मिलर द्वारा उल्लेख किया गया है। ग्रेटर जकार्ता आर्टिस्ट्स सोसाइटी (मसयारकत सेनीमन जकार्ता राया या MSDR) के साथ मिलकर अलगअलग क्षेत्रों में शहरव्यापी सांस्कृतिक मोर्चों का निर्माण किया गया, जो कि सबसे महत्त्वपूर्ण काम था। देश की राजधानी जकार्ता की सरकार के साथ काम करते हुए एक महत्त्वपूर्ण परियोजना थीलोकप्रिय मनोरंजक कार्यक्रमों का आयोजन करना, जो युवा और बुज़ुर्गों दोनों के लिए इंडोनेशियाई समाज के ‘स्वस्थ’ विकास को प्रोत्साहित करें। सांस्कृतिक मोर्चे ने जीवित लोककला रूपों और डच औपनिवेशिक संस्कृति के अवशेषों और चारों ओर व्याप्त विनाशकारी अमेरिकी साम्राज्यवादी सामग्री का गहराई से अध्ययन किया। उन्होंने राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष में मौजूदा लोकप्रिय संस्कृति जैसे कि तंजिदोर (या ‘उद्दाम’) नुक्कड़ नाटकों की क्रांतिकारी क्षमता का भी अध्ययन किया। जकार्ता सरकार के साथ एक सांस्कृतिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए 1950 के दशक के मध्य तक क्षेत्रीय संगठन से उठकर मज़बूत राष्ट्रीय शक्ति को रूप में लेकरा की पहचान बनी।

 

 

समाजवादी यथार्थवाद के पास ही उम्मीद और दिशा है 

यह मत कहो कि रात ग्रेनाइट जितनी कठिन है

चूँकि यहाँ चीन में लोगों द्वारा एक भी पत्थर नहीं छोड़ा जाता है

यहाँ प्रकृति संगमरमर की तरह है

नक़्क़ाशी और पॉलिश का सभी काम हाथ से किया जाता है

लोग संस्कृति का निर्माण करते हैं

रिवाई एपिन, पीकिंग, 1961[8]

 

जैसेजैसे कम्युनिस्ट आंदोलन अपनी जड़ें जमा रहा था और जल्दी से प्रभावशाली गति से आगे बढ़ने लगा यह युवा राष्ट्र की आकांक्षाओं को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त रूपों की खोज भी कर रहा था। सोवियत संघ या चीन के साँचों में इंडोनेशियाई अनुभव को निचोड़ने की कोशिश करना ग़लत होगा। ‘समाजवादी यथार्थवाद’ 1930 के दशक के सोवियत संघ की आधिकारिक सौंदर्यवादी शैली था और अधिकांश अंतरकम्युनिस्ट आंदोलनों की भी। लेकिन 1930 के दशक की सोवियतशैली के समाजवादी यथार्थवाद का सभी वामपंथी सौंदर्य परंपराओं में अच्छी तरह से रूपांतरण नहीं किया गया था और लेकरा के सदस्यों ने अपने स्वयं के आस्वाद के हिसाब से इसे ढालने के लिए इंडोनेशियाई संस्कृति का गहराई से अध्ययन किया।

लेकरा के सौंदर्यशास्त्रीय विचारधारा की व्याख्याएँ विविधतापूर्ण थीं, जैसा कि साहित्यिक विद्वान माइकल बोड्डन ने संगठन के थिएटर प्रोडक्शंस के अपने अध्ययन के माध्यम से इस विषय पर प्रकाश डाला है।[9] जबकि सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं के लिए लेकरा के पाँच बिंदुओं के दिशानिर्देश ने ‘समाजवादी यथार्थवाद और क्रांतिकारी स्वच्छंदतावाद’ की एकता पर ज़ोर दिया, लेकिन इस बात पर अभी भी बहस चल रही है कि क्या समाजवादी यथार्थवाद को कभी आधिकारिक रूप से संगठन द्वारा अपनाया गया था। क्रांतिकारी साहित्य और कला पर 1964 के राष्ट्रीय सम्मेलन में डी. एन. ऐदित ने तर्क दिया कि समाजवादी यथार्थवाद इंडोनेशियाई ऐतिहासिक क्षण के लिए अनुचित था क्योंकि इंडोनेशिया अभी तक समाजवादी क्रांतिकारी प्रक्रिया से नहीं गुज़रा था इसलिए ‘समाजवादी यथार्थवाद’ के बजाय ‘क्रांतिकारी यथार्थवाद’ का उपयोग करना चाहिए। इस बीच, इंडोनेशिया के महान उपन्यासकारों में से एक, प्रमोएदया अनंता एक कम्युनिस्ट होने की वजह से जिन्हें यातना दी गई और जो बुरु द्वीप में तेरह साल तक जेल में बंद रहे – ने कई बार इसके लिए ‘देशभक्त स्वच्छंदतावाद’ का उल्लेख किया, समाजवाद का निर्माण करने के लिए संघर्ष के सबसे वीरतापूर्ण पहलुओं के साथ रोज़मर्रा की वास्तविकताओं का संयोजन।

समाजवादी यथार्थवाद का सिद्धांत और कलात्मक अभिव्यक्ति दोनों निर्माण की प्रक्रिया में थे। कम्युनिस्ट आंदोलन शैलियों और रूपों की विविधता को लेकर खुला रहा; यह रक्यातसमर्थक था और 1945 अगस्त क्रांति की भावना को आगे बढ़ाने वाला था। अमूर्त कला को कभी भी रोका नहीं गया, और लेकरा ने शैलियों की विविधता की वकालत की, जैसा कि लेकरा के 1959 के मुकद्दिमा (‘परिचय’) में कहा गया है: ‘लेकरा रचनात्मक पहल को प्रोत्साहित करता है, रचनात्मक शौर्य को प्रोत्साहित करता है, और लेकरा हर तरह की आकृति और शैली की पुष्टि करता है जब तक वह सत्य के प्रति आस्थावान है और जब तक वह उच्चतम कलात्मक सौंदर्य निर्मित करने के लिए प्रयास करता है’।[10]

Cover of Viva Cuba, a collection of poetry, including by Lekra members, in homage to the Cuban Revolution, 1963.

1963 की क्यूबा क्रांति के सम्मान में तैयार की गई पुस्तक ‘वीवा क्यूबा’ का कवर पेज; इस कविता संग्रह में लेकरा सदस्यों की कविताएँ भी शामिल हैं।

 

सिद्धांत और व्यवहार के बीच की यह जीवंत बहस विभिन्न कलात्मक क्षेत्रों में फैली। उदाहरण के लिए साहित्य के क्षेत्र में, जोएबार अजोएब ने सोवियत लेखक मैक्सिम गोर्की के काम का विश्लेषण करके समाजवादी यथार्थवाद को परिभाषित किया, जो न केवल ‘यथार्थवादी मात्र’ है, बल्कि वह ‘उम्मीद और दिशा देता है’। अजोएब ने इस बात को रेखांकित किया कि ‘साहित्य अधिक महत्त्वपूर्ण और उपयोगी होगा यदि यह केवल आलोचनात्मक यथार्थ ही नहीं हो, बल्कि एक रास्ता दिखाता हो’।[11] यह उम्मीद और दिशा देता है – पूर्व निर्देशित शैली के बजाय कि कैसे समाजवादी कलाकार क्रांतिकारी संघर्ष के वाहक बनते हैं।

लेकरा की सौंदर्यवादी विचारधारा ने रात में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अपने सैद्धांतिक प्रयोगों के बारे में सीखा, जहाँ कलाकार, योद्धा और आम लोग एकदूसरे से मिलते थे। लेकरा के नेतृत्व में होने वाले इन आयोजनों की मेज़बानी इसकी महिला नेता करती थीं और ऐसी सांस्कृतिक संध्या का आयोजन आंदोलन के आधिकारिक कार्यक्रमों, महत्त्वपूर्ण क्षणों के सालगिरह और अंतरराष्ट्रीय उत्सव के लिए किया जाता था। संगीत, नृत्य और रंगमंच के मिश्रण के साथ, ये सांस्कृतिक शामें सामूहिक रूप से अभ्यास करने, परीक्षण करने, मूल्यांकन करने और अमूर्त सिद्धांतों को ठोस रूप में विकसित करने में मददगार होती थीं। मिलर ने इस बात को रेखांकित किया कि वह नृत्य का क्षेत्र था जहाँ कम्युनिस्ट आंदोलन ने मौजूदा लोक परंपराओं के साथ राजनीतिक सामग्री का समावेश करने का रास्ता खोजा। ‘जागरूक युवाओं का नृत्य’, ‘क्रांति का नृत्य’, और ‘किसान नृत्य’ जैसे नाम, प्रदर्शन के ये अंश बहस और नवाचार के उत्पाद थे। इनमें से कुछ समृद्ध घटनाक्रम का केबुदयान के पन्नों में व्यवस्थित रूप से दस्तावेज़ीकरण किया गया था: ‘इंडोनेशिया की नयी प्रगतिशील राजनीति के साथ नृत्य के समायोजन’ का मुख्य उद्देश्य क्या था? श्रमिकों और किसानों के भाग लेने के लिए उन तक ‘नृत्यों की पहुँच’ किस प्रकार की थी? ‘सामान्य इंडोनेशियाइयों के जीवन के साथ शिल्प तथा कथ्य’ का कैसा संबंध था?[12]

लोगों के बीच जाकर आयोजित की जाने वाली ये सांस्कृतिक संध्याएँ ‘मेलुआस डैन मेनिंग्गी’ के लक्ष्य का हिस्सा थीं – जिसका मकसद अपने आधार का विस्तार करते हुए कला के मानकों का स्तर उठाना था। और इस सवाल का जवाब भी ढूंढना था कि किस तरह की कला को आगे बढ़ाया जाए, मौजूदा किन कला रूपों में संशोधन किया जाए या किन्हें छोड़ दिया जाए। इन आयोजनों की सफलता यह थी कि वे लोगों की ज़रूरतों पर बात कर सकते थे – 1955 के चुनाव में पीकेआई की सांस्कृतिक संध्या में सुरकार्ता में दस लाख लोग जमा हुए थे। साधारण लोगों द्वारा अपनी सामूहिक आकांक्षाओं को व्यक्त करने और सृजन की प्रक्रियाओं में शामिल होने के लिए लाखों लोग सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से भाग लेते थे।

हाशिये के लोगों के दिलों की धड़कन पकड़ना

 

लेकरा के प्रमुख सिद्धांतों में से एक था तुरुन के बावाह या तुरबा, (‘ऊपर से नीचे उतरना’; या ‘जनता तक पहुँचना’) जिसे पहले राष्ट्रीय कांग्रेस में कलाकारलड़ाकुओं के काम के मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया गया था।[13] मार्टिन बताते हैं कि ‘इसका मतलब है कि निचले स्तर तक जाना – मज़दूरों, भूमिहीन किसानों और मछुआरों के साथ काम करना, खाना और रहना’। मार्टिन का कहना है कि ‘उनके जैसे तीन काम’ उनके जैसे काम करना, उनकी तरह खाना, उनके जैसे सोना यह पद्धति ‘आपकी कल्पना और प्रेरणा को तेज़ करने का तरीक़ा है, इस बात की तीव्र अनुभूति के लिए कि लोगों का जीवन कितना कठिन है’।

हर्स्री सेतियावान लेकरा के सदस्य और 1960 के दशक में होने वाले एफ़्रोएशियन राइटर्स ब्यूरो के लिए इंडोनेशिया के प्रतिनिधि थे। लेकरा के साथ काम करने की वजह से उन्हें कई वर्षों तक बुरु द्वीप में जेल में बंद रखा गया था। लस्जा एफ. सुसात्यो और एम. अब्दुल अज़ीज़ की डॉक्यूमेंट्री, तजीदुरियन 19 (2009) – जो उस सड़क के नाम पर थी, जहाँ जकार्ता सचिवालय था, और जहाँ तोड़फोड़ की गई थी – में हर्स्री उन दिनों को याद करते हैं जब वे दिन में खेतों में निराईगोड़ाई का काम करते और रात में बुनाई का काम करते हुए लोककथाओं पर चर्चा करते थे। उनके लिए, एक कलाकार का उद्देश्य था ‘हाशिये के लोगों के दिलों की धड़कन को पकड़ना’।[14]

कीथ फ़ाउकर द्वारा किए गए लेकरा के साहित्य और नाट्य कलाओं के अध्ययन में, कुसनी सुलंग (जो हेल्मी के नाम से लेखन करते थे) तुरबा के अपने अनुभव का बिना रूमानीकरण किए बताते हैं कि बतौर एक शहरी बुद्धिजीवी असुविधाजनक और अरुचिकर स्थितियों में रहना उनके भीतर एक ख़ास तरह की सनसनी पैदा करता था। उन्हें यह सीखने में भी वक़्त लगा कि उन्हें प्रशिक्षण की भाषा में नहीं, लोगों के व्यवहार की भाषा में बात करना है।’ फ़ाउकर इसमें जोड़ते हैं, इसके लिए ‘लेकरा की सांस्कृतिक राजनीति को परखा गया, उस पर सवाल किए गए और क्रांतिकारी संघर्ष की प्रक्रिया में इसे मज़बूत किया गया’।[15]

 

S. Pudjanadi, Tanah untuk Penggarap (‘Land for Tenants’) in Harian Rakyat, 25 October 1964.

एस. पुदजानदी, ‘किरायेदारों के लिए ज़मीनहरियन राक्यत में 25 अक्टूबर 1964 को प्रकाशित।

 

क्रांतिकारी यथार्थवादी’ नाटक उस समय की सामूहिक आवश्यकताओं के अनुसार विकसित किए गए थे, जिसके लिए विषयवस्तु अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में चल रहे पीकेआई के भूमि सुधार अभियानों से लिए जाते थे, जिनकी अगुआई बीटीआई किसान मोर्चा करता था। कुसनी सुलांग द्वारा नाटक आपी दी पेमातांग (धान के खेतों में आग, 1964) तुरबा के कामों से प्रेरित होकर तैयार किया गया था। पार्टी के क्षेत्रीय नेताओं से लेकर स्थानीय नेतृत्वकर्ताओं तक की राय और उनकी आलोचना के आधार पर किसान अभिनेताओं की पहचान की गई और दो पूर्वाभ्यास आयोजित किए गए, जिसमें से एक में दर्शक के रूप में 600 किसान शामिल थे। इस विस्तृत प्रक्रिया के माध्यम से किसानों की चिंताओं को एक रचनात्मक उत्पादन में परिवर्तित किया गया और फिर इसे किसानों के बीच अभियान चलाने तथा मूल्यांकन करने के लिए वापस लाया गया। पार्टी की दृष्टि और किसान जीवन की वास्तविकताओं के बीच चल रही निरंतर संवाद प्रक्रिया द्वारा इसे व्याख्यायित किया गया था। लेकरा की कलात्मक परंपराओं तथा सिद्धांतों में मार्क्सवादी विचार का योगदान स्पष्ट है। इंडोनेशियाई विद्वान ब्रिगिट्टा इसाबेला लिखते हैं ‘समाज में वर्ग विभाजन की वस्तुगत वास्तविकता को समझने के लिए कला एक वैज्ञानिक उपकरण है; कला लोगों की भावनाओं को पकड़ सकती है और समाजवादी भविष्य हासिल करने के लिए आवश्यक क्रांतिकारी भावना उत्पन्न कर सकती है’।[16]

मार्टिन ने लेकरा के मूर्तिकार अम्रस नतलसया के बारे में बात की, जिनके काम को राष्ट्रपति सुकर्णो ने सराहा और बांडुंग सम्मेलन की कला प्रदर्शनी में जिनकी कला प्रदर्शित हुई। अम्रस सेंट्रल जावा के किसानों के बीच रहते थे और उन्होंने उस भूमि विवाद के बाद अपनी सबसे प्रसिद्ध लकड़ी की मूर्ति बनाई, जिसमें ग्यारह भूमिहीन किसानों की मृत्यु हो गई थी। यह कृति एक घटना का साक्ष्य, वर्ग संघर्ष का विश्लेषण, और लेकरा के सिद्धांत क्रिएतिवितास इंडीवीजुअल दान किएरिफ़ान मास्सा (‘वैयक्तिक सृजनात्मकता तथा सामूहिक बुद्धिमत्ता’) की अभिव्यक्ति था। छियासी वर्षीय अम्रस ने जुलाई 2019 में जकार्ता में अपनी अंतिम एकल प्रदर्शनी आयोजित की थी। इत्तेफ़ाक़ से प्रदर्शनी के समापन के दिन ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की अम्रस से मुलाक़ात हो गई और हमने उनके काम के लिए उन्हें धन्यवाद दिया। उस प्रदर्शनी का शीर्षक तोराखिर,सालामत तिंगल दान तेरिमा कसिह (‘अंतिम, विदाई और धन्यवाद’) इस अवसर के लिए उपयुक्त था।

 

भावनाएँ बची रहती हैं, अगर वे सच्ची हों

 

छोटी नाव वहाँ जाकर वापस चली आती है

और सुरबाया तक पहुँचती है

क्यूबा में उन्होंने हमले को रोक दिया

लैटिन अमेरिका एफ़्रोएशिया के साथ एकजुट हो रहा है।

एक अलिखित कविता, मौखिक कविता का एक लोकप्रिय रूप हरियन रक्यात द्वारा जिसका दस्तावेज़ीकरण

किया गया था।[17]

 

इंडोनेशिया में राष्ट्रीय सांस्कृतिक परियोजना का निर्माण हमेशा एक अंतरराष्ट्रीयतावादी दृष्टि से जुड़ा रहा है। लेकरा के शुरुआती दिनों में समाजवादी देशों के साथ सांस्कृतिक आदानप्रदान शुरू हुआ, जब आधिकारिक तौर पर पीकेआई का प्रतिनिधित्व करने वाला एक प्रतिनिधिमंडल जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक में अंतरराष्ट्रीय युवा महोत्सव में शामिल हुआ था। 1955 में बांडुंग में एशियाईअफ़्रीकी सम्मेलन में तीसरी दुनिया की परिकल्पना रखी गई, जिसके प्रस्तावकों में सुकर्णो भी थे। ठीक यही भावना अंतरराष्ट्रीयतावादी कला की अवधारणा में भी थी। औपनिवेशिक शक्तियों की मध्यस्थता के बिना, उनत्तीस नये स्वतंत्र या जल्द ही स्वतंत्र होने वाले अफ़्रीकी और एशियाई देशों के नेता एक साथ आए, जो दुनिया की आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करते थे।[18] इस ऐतिहासिक क्षण को यादगार बनाने के लिए इंडोनेशिया के कलाकारों का पहला अंतरराष्ट्रीय समूह प्रदर्शनी आयोजित हुई जिसमें समकालीन और पारंपरिक चित्रों को भी शामिल किया गया था। शैलियों की इस विविधता ने गुटनिरपेक्षता के बहुलतावाद को रेखांकित किया, साम्राज्यवाद विरोधी संस्कृति इनको आपस में जोड़ने वाला सूत्र थी। ऐतिहासिक सम्मेलन में अपने उद्घाटन भाषण में सुकर्णो ने ‘साम्राज्यवाद की जीवनरेखा’ की निरंतरता के बारे में बात की, जो एफ़्रोएशियाई एकता का आधार निर्मित करता है। सुकर्णो इस बात को मज़बूती के साथ रखते हैं कि ‘कोई भी व्यक्ति ख़ुद को स्वतंत्र महसूस नहीं कर सकता है, जब तक कि उनकी मातृभूमि स्वतंत्र नहीं है। शांति की तरह, स्वतंत्रता अविभाज्य है। जैसे आधा जीवित रहना कोई विकल्प नहीं है वैसे ही आधा स्वतंत्र होना भी कोई विकल्प नहीं है’।[19]

बांडुंग सम्मेलन के बाद एफ़्रोएशियन राइटर्स एसोसिएशन का गठन करके अंतरराष्ट्रीयतावाद को संस्थागत रूप दिया गया और ताशकंद (1958), क़ाहिरा (1962), बेरूत (1967), नयी दिल्ली (1970), अल्माअता (1973), लुआंडा (1979), ताशकंद (1983), और ट्यूनिस (1988), में इसके सम्मेलन हुए, जैसा कि इसाबेला ब्रिगिट्टा ने उस समय की इंडोनेशियाई सांस्कृतिक कूटनीति पर किए गए अपने काम द्वारा इस बात को रेखांकित किया है।[20] चीन से लेकर चेकोस्लोवाकिया तक इंडोनेशिया के साथ राजनयिक मैत्री सोसायटी स्थापित की गई थी। समाजवादी और ग़ैरसमाजवादी दोनों देशों के साथ संयुक्त रूप से अध्ययन कार्यक्रम और प्रदर्शनियाँ आयोजित की गईं। जैसा कि फ़ाउकर का तर्क है, ‘लड़ाई केवल कला पर नियंत्रण के लिए नहीं थी, बल्कि यह इंडोनेशियाई राज्य की प्रकृति और बाहरी दुनिया के साथ उसके संबंधों के लिए थी’।

लेकरा के सामने यह स्पष्ट था कोई भी राष्ट्रीय संस्कृति बाकी चीज़ों से अलगथलग रहकर विकसित नहीं हो सकती। वह विश्व संस्कृति के निर्माण में कम्युनिस्ट आंदोलन की भूमिका से परिचित था। समकालीन प्रगतिशील इंडोनेशियाई कविता (1962) की भूमिका में पीकेआई और गेरवानी की नेता बितंग सुरादी लिखती हैं, ‘प्रगतिशील इंडोनेशियाई कवि सचेत और जागरूक नागरिक हैं, जो सुखद जीवन के निर्माण के लिए अपनी रचनात्मक क्षमता और प्रतिभा समर्पित करते हैं, न केवल अपने लोगों के लिए, बल्कि दुनिया के सभी लोगों के लिए; वे एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना चाहते हैं, जिसका सपना युगों से दुनिया के सर्वश्रेष्ठ कवि देखते और उस पर लिखते आए हैं।’[21] इस कविता संग्रह में कांगो के क्रांतिकारी पैट्रिस लुमुम्बा और वियतनाम के ‘अंकल’ हो ची मिन्ह को समर्पित कविताएँ हैं, क्यूबा और अरब के लोगों को श्रद्धांजलि दी गई है, ब्राज़ील के मायरियो डी एंड्रेड को और बांडुंग सम्मेलन में शामिल एफ़्रोएशियाई देशों के प्रति आदर व्यक्त किया गया है। ये कविताएँ प्रेरणा के लिए बाहर देखती हैं और अंतरराष्ट्रीयतावाद की विरासत ‘बांडुंग की भावना’ को अपने भीतर समाहित करती हैं।

सुकर्णो पदच्युत किए से पहले के वर्षों में, गुटनिरपेक्ष आंदोलन के वामपंथी धड़े के क़रीब आने लगे थे। गुटनिरपेक्ष आंदोलन एक अंतरराष्ट्रीय मंच था. जिसकी नींव बांडुंग सम्मेलन में पड़ी थी जिसमें क्यूबा और इंडोनेशिया दोनों ने हिस्सा लिया था। 1959 में, सुकर्णो ने कलाकारों से उपनिवेशवादविरोधी तथा साम्राज्यवादविरोधी मोर्चों में शामिल होने का आह्वान किया। वह जानते थे कि एक मज़बूत राष्ट्रीय संस्कृति का विकास निश्चित रूप से साम्राज्यवादविरोधी ही होना चाहिए। ‘हमें साम्राज्यवादी संस्कृति, विशेष रूप से अमेरिकी साम्राज्यवादी संस्कृति के विरोध में अधिक सतर्क, अधिक दृढ़ और मज़बूती से खड़ा रहना चाहिए, जो वास्तव में हमें सभी रूपों और तरीक़े से धमकाता रहता है।’ यही क्यूबा की क्रांति का साल भी था। इंडोनेशिया और क्यूबा दोनों साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ एकजुट हुए और 1966 में हवाना में होने वाले ट्राइकॉन्टिनेंटल सम्मेलन को संयुक्त रूप से आयोजित करने वाले थे उसी सम्मेलन की स्मृति को संजोने के लिए हमने अपना नाम रखा ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान। उस सम्मेलन को देखने के लिए न तो पीकेआई रहा, न लेकरा और न ही राष्ट्रपति के रूप में सुकर्णो का शासनकाल।

लेकिन इतिहास हमें एकजुट करता है। मार्टिन ने ज़ोर दिया कि ‘युवा पीढ़ी के लिए यह बेहद महत्त्वपूर्ण है कि वह देश के हालिया अतीत तथा इतिहास को आगे बढ़ाए’। 1965 की घटनाओं पर गठित 2015 के इंटरनेशनल पीपुल्स ट्रिब्यूनल के सामने मार्टिन ने मानवता के ख़िलाफ़ अपराधों के बारे में गवाही दी, जो उन्होंने देखा था। जब उनसे पीकेआई से संबद्धता के बारे में सवाल किया गया एक पार्टी जो आज भी अवैध है – उन्होंने अपने लिए जोखिम उठाते हुए जवाब दिया कि जब बीस साल की उम्र में वह पार्टी में शामिल हुए तो इस बात का उन्हें कभी अफ़सोस नहीं हुआ। ‘मैं इंसान हूँ; मुझे गर्व है कि मेरे पास आदर्श है, भले ही हर कोई मेरी निंदा करता हो’।[22]

1966 में,एफ़्रोएशियन राइटर्स एसोसिएशन ने बीजिंग में साम्राज्यवादविरोधी प्रदर्शनी का आयोजन किया, जिसमें एशिया और अफ़्रीका महाद्वीपों के 24 देशों की 180 कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान और ‘साम्राज्यवादविरोधी संघर्ष के अंतरराष्ट्रीय सप्ताह’ ने सैकड़ों सामाजिक आंदोलनों और लोगों के संगठनों के एक अंतरराष्ट्रीय मंच के हिस्से के रूप में चार खंडों में साम्राज्यवादविरोधी पोस्टर प्रदर्शनी का आयोजन किया। स्थितियाँ सुकर्णो के समय से अलग नहीं हैं, साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष आज भी हमें आपस में जोड़ने वाली कड़ी है। 35 देशों के 145 से अधिक कलाकारों ने पूँजीवाद, नवउदारवाद, साम्राज्यवाद और हाइब्रिड वॉर जैसे विषयों पर केंद्रित हमारी प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया।

लेकरा के कवि पुतु ओका सुकांता हमें याद दिलाते हैं, ‘औपचारिक संगठन ग़ायब हो सकते हैं; पार्टी संगठनों को समाप्त किया जा सकता है, लेकिन भावनाएँ बची रहती हैं, अगर वे सच्ची हों’। 17 अगस्त 1950 को स्थापित लेकरा की सत्तरवीं वर्षगांठ के बाद, लेकरा की भावनाओं को शब्द देते हुए कहें तो यह प्रदर्शनी आज के कलाकारों और कार्यकर्ताओं का आह्वान करने के लिए है ताकि वे वैयक्तिक सृजनात्मकता को जनता की बुद्धिमत्ता के साथ समायोजित करें जिनकी मुक्ति के लिए किए जाने वाले संघर्ष से हम उम्मीद और दिशा चाहते हैं।

 

Posters from the Anti-Imperialist Poster Exhibition series

साम्राज्यवाद-विरोधी पोस्टर प्रदर्शनी श्रृंखला के पोस्टर: पेड्रो सार्टोरियो, बेंडिक वेस्ट्रे, एमिली डेविडसन, अहमद मोफीद, चू चोन काई, ग्रेटा अकोस्टा रेयेस, घालमी ओथमाने, एडसन जोआओ गोम्स गार्सिया, फैबियोला सांचेज़ क्विरोज़, रॉबर्ट स्ट्रीडर, माधुरी शुक्ला, रेबेल पोलिटिक, रामचंद्रन विश्वनाथन, हिरोटो मोराइस, सिनैड एल। उहले और पॉल मेयर और जूडी एन सीडमैन।

 

संदर्भ

[1] Suradi, Bitang, Ed. Contemporary Progressive Indonesian Poets, League of People’s Culture, 1962.

[2] CIA, Research Study: Indonesia–1965: The Coup That Backfired, https://www.cia. gov/library/readingroom/docs/esau-40.pdf

[3] Translated from Goenawan Mohamad, ‘Forgetting; Poetry and the nation, a motif in Indonesian literary modernism after 1945’, 2002.

[4] Yuliantri, Rhoma Dwi Aria. ‘LEKRA and Ensembles Tracing the Indonesian Musical Stage’ in Heirs to World Culture. Brill, 2012: 421-452.

[5] Yuliantri, Rhoma Dwi Aria. ‘LEKRA and Ensembles Tracing the Indonesian Musical Stage’ in Heirs to World Culture. Brill, 2012: 421-452.

[6] Yuliantri, Rhoma Dwi Aria. ‘LEKRA and Ensembles Tracing the Indonesian Musical Stage’ in Heirs to World Culture. Brill, 2012: 421-452.

[7] Miller, Stephen. The Communist Imagination: A Study of the Cultural Pages of Harian Rakjat in the Early 1950s, UNSW Canberra, 2015.

[8] Written after a visit to China following the Afro-Asian Writers Bureau meeting in Tokyo in 1961. Apin was part of the Indonesian delegation to the Tashkent (1959) and Cairo (1962) Afro-Asian Writers Conferences. Found in Suradi, Bitang, Ed. Contemporary Progressive Indonesian Poets, League of People’s Culture, 1962.

[9] Bodden, Michael. ‘Dynamics and tensions of LEKRA’s modern national theatre’, 1959-1965 in Heirs to World Culture. Brill, 2012: 453-484.

[10] Translation quoted in Brigitta, Isabella. ‘The Politics of Friendship: Modern Art in Indonesia’s Cultural Diplomacy, 1950-1965’, in Ambitious Alignments: New Histories of Southeast Asian Art, 1945-1990. Power Publications, 2018: 83-106.

[11] Miller, Stephen. The Communist Imagination: A Study of the Cultural Pages of Harian Rakjat in the Early 1950s, UNSW Canberra, 2015.

[12] Miller, Stephen. The Communist Imagination: A Study of the Cultural Pages of Harian Rakjat in the Early 1950s, UNSW Canberra, 2015.

[13] Different English translations of turun ke bawah: ‘descend from above’ in translation by Antariksa, Sari D., Sol

Aréchiga, Edwina Brennan for School of Improper Education, KUNCI Cultural Studies Center, 2018, ‘going down to the masses’ by Michael Bodden

[14] Susatyo, Lasja F. and M. Abduh Aziz, Tjidurian 19 (41 min.), 2009.

[15] Foulcher, Keith. ‘Politics and Literature in Independent Indonesia: The View from the Left’ in Southeast Asian

Journal of Social Science, Vol. 15, No. 1: 83-103.

[16] Brigitta, Isabella. ‘The Politics of Friendship: Modern Art in Indonesia’s Cultural Diplomacy, 1950-1965’, in

Ambitious Alignments: New Histories of Southeast Asian Art, 1945-1990. Power Publications, 2018: 83-106.

[17] Suradi, Bitang, Ed. Contemporary Progressive Indonesian Poets, League of People’s Culture, 1962.

[18] Prashad, Vijay. The Darker Nations: A People’s History of the Third World, LeftWord Books, 2008.

[19] President Sukarno’s opening speech at the Bandung Conference on 18 April 1955.

[20] Brigitta, Isabella. ‘The Politics of Friendship: Modern Art in Indonesia’s Cultural Diplomacy, 1950-1965’, in

Ambitious Alignments: New Histories of Southeast Asian Art, 1945-1990. Power Publications, 2018: 83-106.

[21] Suradi, Bitang, Ed. Contemporary Progressive Indonesian Poets, League of People’s Culture, 1962.

[22] Martin Aleida’s testimony at the International People’s Tribunal in the Hague on 11 November 2015:

https://genosidapolitik65.blogspot.com/2017/11/ipt-1965-kesaksian-martin-aleida-saya.html

 

 

 

Hendra Gunawan, War and Peace, c. 1950s, oil on canvas, 93.7 x 140.3 cm, Collection of National Gallery Singapore.

हेन्द्रा गुनावन , जंग और अमन, 1950, कैनवास पर तेल, 93.7 x 140.3 सेमी, साभार: नेशनल गैलरी सिंगापुर।