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एक गीत से जलती है जनता के मन में क्रांति की चिंगारी: सैंतीसवाँ न्यूज़लेटर (2024)

कविताएँ, गीत, गाथाएँ, गुज़रे दौर के संघर्षों की याद ज़िंदा रखती हैं और इन स्मृतियों से नए संघर्षों के लिए प्रेरणा मिलती है। यही संस्कृति की द्वन्द्वात्मक धुरी है।

महांकाली पार्वती (बाएं), मोटुरु उदयम (बीच में), और चिंतला कोटेश्वरम्मा (दाएं), द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अपने बुर्राकथा समूह के साथ युद्ध-विरोधी गीत प्रस्तुत कर रही हैं। साभार: प्रजा नाट्य मंडली फोटोग्राफी अभिलेखागार

प्यारे दोस्तो,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन

मल्लू स्वराज्यम (1931-2022) का नाम उनके लिए बड़ा सार्थक रहा। उनकी माँ भीमीरेड्डी चौकअम्मा किसानों और मज़दूरों द्वारा शुरू किए गए जनांदोलन से गहरे रूप में जुड़ी थीं, जिसे गांधीजी ने स्वराज आंदोलन का रूप दिया। उन्होंने अपनी बेटी को यह प्रभावशाली नाम देकर उसे आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा बनाया। मल्लू स्वराज्यम एक ऐसे घर में बड़ी हुईं, जहाँ पढ़ने का माहौल था और किताबें भी आसानी से मिल जाया करती थीं, उन्होंने मैक्सिम गोर्की की ‘माँ’ (1907) का तेलुगू अनुवाद कहीं से हासिल कर लिया। उस किताब का अनुवाद सोवियत संघ में हुआ था और यह दुनिया भर में साक्षरता के लिए उस देश का एक तोहफ़ा था। कम्युनिस्टों ने भारत में भी इस किताब का प्रसार किया। इस किताब की कहानी एक माँ – पेलेगेया निलोव्ना व्लासोवा – और उसके बेटे – पावेल व्लासोव के इर्द-गिर्द घूमती है। माँ एक फैक्ट्री में काम करती है, क्रूर पिता की मृत्यु हो चुकी है और बेटा आख़िरकार क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो जाता है। माँ को बेटे की चिंता होती है, लेकिन अपने बेटे के लाए हुए समाजवादी साहित्य को पढ़कर वो खुद क्रांतिकारी गतिविधियों में डूब जाती है। इस किताब का मल्लू स्वराज्यम की ज़िंदगी पर बहुत गहरा असर पड़ा, इसकी चर्चा उन्होंने 2019 के संस्मरण (कात्यायनी और विमल को बताए गए) ‘न माते तुपाकी तुतलु’ [गोलियों जैसे मेरे शब्द] में की है।

दस साल की उम्र में ‘माँ’ पढ़कर मल्लू स्वराज्यम प्रेरित हुईं और वह अगले बरस आंध्र महासभा की बँधुआ मज़दूरी के खिलाफ़ लड़ाई में शामिल हो गईं। उन्होंने फ़ैसला किया कि वह जाति के बंधनों को तोड़ेंगी और उन्होंने अपने शहर में बँधुआ मज़दूरों में चावल बाँटे। उन्हें याद आता था कि कैसे ‘उनके अपने चाचा उनके बँधुआ मज़दूरों को चावल देने के खिलाफ़ थे’। ‘लेकिन मैं इस बात पर अडिग थी कि उन्हें उनका हिस्सा मिलना चाहिए। और मेरा यह क़दम पूरे इलाक़े में एक मिसाल बना, बँधुआ मज़दूरों ने अपने काम के लिए मेहनताना माँगना शुरू कर दिया।’ उनकी माँ ने उनका समर्थन किया, काफ़ी कुछ वैसे ही जैसे पेलेगेया निलोव्ना व्लासोवा ने माँ में पावेल वलसोव का किया था। जीवन के इन शुरुआती अनुभवों ने मल्लू स्वराज्यम को भारत के तेलुगूभाषी क्षेत्र में 1946 से 1951 के बीच हुए ग्रामीण जनता के आंदोलन के लिए तैयार किया, जिसे तेलंगाना आंदोलन कहा गया।

कम्युनिस्ट क्रांतिकारी नेता मल्लू स्वराज्यम (बाएं), 1940 के दशक के अंत में सशस्त्र संघर्ष की अन्य महिला सेनानियों के साथ। साभार: सुनील जाना

मल्लू स्वराज्यम की क्रांतिकारी भावना उन्हें उभरते हुए किसान आंदोलन और कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण की कोशिशों की ओर ले गई। वह पूरी तरह से अपने ज़िले में किसानों को संगठित करने के काम में लग गईं और जल्द ही पूरे क्षेत्र के किसानों को भी। जब आंदोलन शुरू हुआ तो उन्हें एक ‘दलम’ (लड़ाकू टुकड़ी) का प्रमुख या कमांडर बनाया गया, उनके भाषणों की तुलना लोग बंदूक की गोलियों से करते थे। ज़मींदारों ने मिलकर उनके सिर पर इनाम रख दिया, 10,000 रुपये का इनाम जो उस दौर के लिए बहुत बड़ी रकम थी। लेकिन वह निडर थीं और सशस्त्र संघर्ष के सबसे चहेती युवा नेताओं में से एक बनीं।

सालों बाद मल्लू स्वराज्यम ने 40 के दशक में किसानों को संगठित करने के अपने अनुभव साझा किए। गाँव में रातों को धान से भूसा अलग करने का काम करते वक़्त महिलाओं और शोषित जातियों के गीतों से आसमान गूँज उठता था। वे गीत उनके देवताओं और जीवन के बारे में होते थे। स्वराज्यम को याद आता था कि ‘चाँदनी तले’ ये गीत इतने मधुर हुआ करते थे कि ‘नींद की आग़ोश में सोये हुए लोग भी उठकर उनका आनंद लेने लगते थे’। ये गीत तेलुगू समाज में प्रचलित लोक कला परंपरा से निकले थे जैसे क़िस्सागोई के वे रूप जो गायन एवं नाट्य शैली का इस्तेमाल कर कथा कहते हैं। उदाहरण के लिए हरिकथा (भगवान विष्णु की कथा),पाकिर पाटलु (सूफ़ी गीतों का संकलन), भागवतम् (महाभारत की कहानियाँ) और साथ ही मज़दूर-किसानों के जीवन पर आधारित बुर्राकथा और गोलासुद्दुलु जैसे गैर-धार्मिक क़िस्से, जिन्हें एक गायक दो ढोल की थाप के साथ गाता था। इन्हीं संगीतमय कला रूपों के ज़रिए मज़दूरों व किसानों ने दबंग जातियों के विचारों को चुनौती दी। और सामाजिक बदलाव के इस कलात्मक अभियान में वामपंथ शुरू से ही शामिल हो गया था। मल्लू स्वराज्यम ने बताया कि वे विद्रोह शुरू करने के लिए कम-से-कम तीस गाँवों में गईं थीं जहां ‘मैंने एक गीत के ज़रिए लोगों में क्रांति की लौ जलाई थी। मुझे इससे ज़्यादा और क्या चाहिए था?’

बाएँ: गदर के नाम से मशहूर गुम्मादी विट्ठल राव तेलुगू के सबसे प्रभावशाली क्रांतिकारी गीतकारों में से एक थे। यहाँ वह दर्शकों के लिए अपने गीत की एक पंक्ति गा रहे हैं फिर उस पर नृत्य कर रहे हैं, फिर ठहरकर उस पंक्ति का राजनीतिक और ऐतिहासिक महत्त्व समझा रहे हैं। साभार: केएन हरि
दाएँ: श्री श्री नाम से प्रसिद्ध तेलुगू कवि श्रीनिवास राव, लाल झंडे के साथ जन संघर्ष में शामिल होने जा रहे आंदोलनकारियों के लिए अपने काव्य संग्रह ‘महाप्रस्थानम’ से एक कविता पढ़ते हुए। दायें नीचे की ओर उनका यह संग्रह पीले आवरण में दिखाया गया है। साभारः कुरेला श्रीनिवास, 2009

ज़मीन और सपनों के लिए तेलुगूभाषी जनता का संघर्ष (डोसियर संख्या 80, सितंबर 2024) – हमारा हालिया प्रकाशित डोसियर किसानों और मज़दूर वर्ग में क्रांतिकारी विचारों और संस्कृति के रिश्ते पर विस्तार से चर्चा करता है। जिन क्षेत्रों में साक्षरता दर ऊँची थी और औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था थी वहाँ दुनिया को देखने के एक नए नज़रिये का प्रसार सिर्फ लेखन या ऐसे सांस्कृतिक रूपों के ज़रिए करना नामुमकिन था जो जनता के लिए अजनबी थे। भारत, चीन और वियतनाम जैसी जगहों पर गीत और रंगमंच या नाटक लोगों के बीच राजनीतिक संवाद का माध्यम बने। वियतनाम में कम्युनिस्ट पार्टी ने प्रॉपगंडा टीमें (Doi Tuyen Truyen Vo Trang) तैयार कीं, जो लोगों के बीच जाकर नाटकों और गीतों के माध्यम से आज़ादी के संघर्ष में शामिल होने के लिए पूरे गाँव को लामबंद करती थीं। चीन में गाँव-देहात तक नाटकों को लेकर जाने का चलन 30 के दशक से रहा है; यनान दशक (1935-1945) के दौरान कम्युनिस्ट सांस्कृतिक दल ‘लिविंग न्यूज़पेपर’ (जीते-जागते अखबार) का मंचन करते थे, यह प्रचलन 20 के दशक में सोवियतों ने शुरू किया था, इसमें अभिनेता घटनाओं और ख़बरों पर तैयार नाटक किया करते थे। नुक्कड़ नाटक, गीत, दीवारों पर बनाए गए चित्र, जादुई लैन्टर्न के खेल तमाशे: ये सब क्रांतिकारी गतिविधियों का जैसे पाठ्यक्रम बन गए। हमारा डोसियर कोशिश करता है समाजवादी संस्कृति के इतिहास के एक भाग के रूप में गीतों की दुनिया को उजागर करने का।

किसानों की गाथाओं पर आधारित इन क्रांतिकारियों के गीत ने नई संस्कृति के तत्त्वों का निर्माण किया: अपने शब्दों से इन्होंने ग्रामीण क्षेत्र की ऊँच-नीच को नकारा और अपनी धुन से इन्होंने किसानों को अपनी आवाज़ बुलंद करने का मौका दिया जो वो अमूमन ज़मींदारों की मौजूदगी में नहीं कर पाते थे। अपने कथ्य और रूप दोनों में इन गीतों ने एक नई दुनिया के साहस को पेश किया।

<प्रजा नाट्य मंडली एक नुक्कड़ नाटक खेलते हुए। साभार: प्रजा नाट्य मंडली फोटोग्राफी अभिलेखागार>

इन सांस्कृतिक गतिविधियों और इनके द्वारा लाए गए बदलावों के इतिहास को अक्सर भुला दिया जाता है – आज इन तमाम इतिहास को एक ख़ास राजनीति के तहत दबाया जाता है। यह साफ़ था कि 40 के दशक के कम्युनिस्ट कलाकारों ने कृषकों के पहले के गीतों और इनमें व्यक्त विद्रोह के इतिहास का अच्छे से अध्ययन किया; उन्होंने इस इतिहास को और विकसित किया, अमूमन उन्होंने किसानों और मज़दूरों के क्रांतिकारी इतिहास को याद करते समय नई और जीवंत धुनों का इस्तेमाल किया। यह संस्कृति की द्वन्द्वात्मक धुरी है, जिसमें गुज़रे दौर के संघर्षों की याद को जगाया जाता है और इन स्मृतियों से नए संघर्षों के लिए प्रेरणा मिलती है; हर संघर्ष सांस्कृतिक रूपों को भी उनमें निहित संभावनाओं को साकार करने की ओर धकेलते हैं, इससे लोगों में नया आत्मविश्वास पैदा होता है जिनकी अस्मिताएँ पुरानी ऊँच-नीच की व्यवस्थाओं और ग़रीबी के चलते ख़त्म हो चुकी होती हैं।

हमारा डोसियर एक कोशिश है इतिहास के हिस्से को उजागर करने की, ज़ाहिर है यह हमारे कला विभाग के काम के अनुसार भी है (इस तरह के अभिलेखकीय और सैद्धांतिक कार्यों से जुड़ी जानकारी के लिए, मेरा सुझाव रहेगा कि आप मार्च महीने में शुरू हुए ट्राईकॉन्टिनेन्टल आर्ट बुलेटिन को सबस्क्राइब करें, यह महीने के आख़िरी रविवार को छपता है)।

इस कोलाज में ‘वीर तेलंगाना’ नुक्कड़ नाटक के 2000 के दशक में हुए मंचन की तस्वीरें हैं, जो प्रजा नाट्य मंडली द्वारा ली गईं हैं। 40 के दशक के उत्तरार्द्ध में सशस्त्र संघर्ष के एक दलम (दल) की मार्च करते हुए तस्वीर सुनील जाना द्वारा ली गई थी।

खालिदा जरार (जन्म 1963) पॉपुलर फ्रन्ट फॉर द लिबरैशन ऑफ फिलिस्तीन की एक फिलिस्तीनी नेता हैं और फिलिस्तीनी लेजिस्लेटिव काउन्सल की चुनी हुई सदस्य भी हैं। जरार एक बहादुर और दयालु इंसान हैं जो दशकों से चले आ रहे इज़राइली सैन्य कब्ज़े का निशाना बनी हुईं हैं। उन्हें कई दफ़ा गिरफ़्तार किया गया है और प्रशासनिक हिरासत में रखा गया है, अमूमन उनके साथ ऐसा बिना किसी आरोप के हुआ है (1989 में पहली बार उन्हें फिलिस्तीन में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के एक जुलूस से गिरफ़्तार किया गया था)। 2015 से उन्होंने जितना समय जेल के बाहर गुज़ारा लगभग उतना ही जेल के अंदर और उनकी क़ैद लंबी होती जा रही है। जेल के अंदर जरार महिला कैदियों की एक महत्त्वपूर्ण आवाज़ बनकर उभरीं और अपने साथी क़ैदियों के लिए उन्होंने राजनीतिक कक्षाएं चलाईं। 2020 में इज़राइल की डेमन जेल से खालिदा जरार ने एक खत छिपाकर बाहर भेजा जिसे उनकी बेटी ने एक भाषण के रूप में फिलिस्तीन राइटस् लिटरेचर फेस्टिवल में पढ़ा; इनमें कैदियों के बीच सांस्कृतिक काम की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया था:

जेल के अंदर की ज़िंदगी की बुनियाद किताबों पर टिकी है। इनसे स्वतंत्रता सेनानियों का मानसिक और नैतिक संतुलन बना रहता है, ये स्वतंत्रता सेनानी अपनी क़ैद को फिलिस्तीन के उपनिवेशवादी कब्ज़े के खिलाफ प्रतिरोध के ही एक हिस्से के तौर पर देखते हैं। हर क़ैदी और जेल प्रशासन के बीच इच्छाशक्ति की लड़ाई में भी किताबें बहुत अहम भूमिका निभाती हैं। दूसरे शब्दों में फिलिस्तीनी क़ैदियों के लिए संघर्ष भी अपने आप में एक चुनौती बन जाता है क्योंकि जेलर हमसे हमारी इंसानियत ही छीन लेना चाहते हैं और हमें बाहर की दुनिया से अलग-थलग रखते हैं। क़ैदियों के लिए चुनौती यह है कि कैसे अपनी इस क़ैद को पढ़ने, शिक्षा और साहित्यिक बहसों के ज़रिए ‘सांस्कृतिक क्रांति’ में तब्दील करें।

जब मैंने जरार का भाषण पढ़ा तो एक वाक्य ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उन्होंने लिखा था: ‘अपनी माँ के प्यार से वंचित महिला क़ैदियों के लिए मैक्सिम गोर्की का ‘माँ’ बेहद सुखद उपन्यास बन गया’। यह कितना अद्भुत है कि साल 2020 में जरार और दूसरी फिलिस्तीनी क़ैदियों के अनुभव काफ़ी हद तक वहीं हैं, जो मल्लू स्वराज्यम ने 1940 के दौर में महसूस किए थे। इससे हम जान सकते हैं कि साहित्यिक रचनाओं में कितनी ताक़त होती है कि वे हमारा मनोबल ऊपर उठा सकती हैं और हमें उन कार्यों के लिए प्रेरित कर सकती हैं जो हम अन्यथा सोच भी नहीं सकते।

11 जुलाई 2021 को जब जरार इज़राइल की एक जेल में क़ैद थीं, तो उनकी बेटी सुहा की मौत हो गई। इज़राइलियों ने सुहा के अंतिम संस्कार में शामिल होने की जरार की याचिका नामंज़ूर कर दी। दुख में डूबी जरार ने अपनी बच्ची की मौत के शोक में एक कविता लिखी,

सुहा, मेरी प्यारी।
तुम्हें आखिरी बार चूमने का मेरा हक़ उन्होंने छीन लिया।
मैं अलविदा में तुम्हें एक फूल भेज रही हूँ।
तुम्हारा न होना एक ग़म है, मुझे अंदर तक भेदता हुआ।
यह दर्द बहुत बड़ा है।
मैं चुप हूँ, दृढ़ हूँ,
जैसे फिलिस्तीन के हमारे प्रिय पहाड़।

कविताएँ, गीत, उपन्यास, नाटक: इन विधाओं के द्वन्द्वात्मक विमर्श से हमें कुछ करने की प्रेरणा मिलती है और अपने कामों को ज़ाहिर करने की भी, जिससे दूसरे लोग प्रेरित होते हैं कुछ करने और अपनी ही कोई कहानी लिखने के लिए।

अक्टूबर 2023 से इज़राइलियों ने फिलिस्तीनी क़ैदियों के प्रति अपना रुख और कड़ा कर लिया है और साथ ही पहले से ही भरी हुई जेलों में और भी हज़ारों फिलिस्तीनी राजनीतिक क़ैदियों को ठूँस दिया गया है। अब हालात जानलेवा हो चुके हैं। खालिदा जरार ने जेल से हाल ही में जो लिखा है उसे पढ़कर दिल टूट जाता है, यह 28 अगस्त को छपा था। कमीशन ऑफ डीटैनीज़ एण्ड एक्स-डीटैनीज़ अफेयर्स और फिलिस्तीनी सोसाइटी ऑफ प्रिज़नर्स क्लब की ओर से गए एक वकील के हाथ उन्होंने यह संदेश भेजा:

मैं हर दिन मर रही हूँ। सेल एक छोटे बंद डिब्बे जैसी लगने लगी है। सेल में एक शौचालय है और एक छोटी सी खिड़की है जो पहले दिन के बाद बंद कर दी गई थी। उन्होंने हमारे लिए साँस लेने का भी कोई चारा नहीं छोड़ा है। एक सँकरा रोशनदान है, मैं साँस लेने के लिए वहीं बैठती हूँ। मेरा इस सेल में बहुत दम घुटता है, समय गुज़रने का इंतजार करती हूँ, उम्मीद करती हूँ कि साँस लेने के लिए हवा मिल जाए और मैं ज़िंदा रहूँ। बढ़ते हुए तापमान ने इस एकांत क़ैद में मेरी मुसीबतें और भी बढ़ा दी हैं, उनकी मंशा थी कि सेल में पानी भी बंद कर दें और जब मैंने अपनी पानी की बोतल को भरने के लिए कहा तो वो उन्होंने चार घंटे बाद लौटाई। वो मुझे आठ दिन की एकांत क़ैद के बाद बस एक बार जेल के आँगन में जाने देते हैं।

हम खालिदा जरार के साथ खड़े हैं। हम अपने नवीनतम डोसियर का अरबी में अनुवाद कर उन्हें भेजेंगे ताकि वे तेलंगाना के नायकों के गीत पढ़ सकें और उनसे प्रेरणा ले सकें।

सस्नेह,

विजय