प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
आज से डेढ़ सौ साल पहले 28 मई, 1871 को पेरिस कम्यून बहत्तर दिनों के बाद ढह गया था। 1789 में फ़्रांस के तटों को पार कर पहली बार आई क्रांतिकारी आशावाद की लहर और फिर 1830 व 1848 की क्रांतियों के बाद, पेरिस के मज़दूरों ने 18 मार्च, 1871 को कम्यून बनाया था। कम्यून बनाने की तत्कालिक आवश्यकता फ़्रांस और प्रशिया के बीच के निरर्थक युद्ध में प्रशिया की जीत से उत्पन्न हुई थी। सम्राट नेपोलियन III के हेलमुथ वॉन मोल्टके के सामने आत्मसमर्पण करने के दो दिन बाद, पेरिस के उतावले जनरलों और राजनेताओं ने तीसरे गणराज्य (1870-1940) का गठन किया। लेकिन ये लोग -जैसे कि जनरल लुइस-जूल्स ट्रोचु (राष्ट्रीय सुरक्षा सरकार के अध्यक्ष, 1870-1871) और एडोल्फ़ थियर्स (फ़्रांस के राष्ट्रपति, 1871-1873)- इतिहास के ज्वार को रोक नहीं सके। पेरिस के लोगों ने उन्हें हटाकर अपनी सरकार बना ली। दूसरे शब्दों में कहें तो, उन्होंने प्रसिद्ध पेरिस कम्यून की स्थापना की।
सभी की निगाहें पेरिस की ओर देखने लगीं, हालाँकि पेरिस ऐसी एकमात्र जगह नहीं थी जहाँ मज़दूर और कारीगर इस प्रकार के विद्रोह कर रहे थे। थियर्स के कटलरी (काँटा-चम्मच बनाने वाले) मज़दूरों और ल्योन के रेशम मज़दूरों ने कुछ समय के लिए अपने-अपने शहरों पर अपना नियंत्रण जमा लिया था (थियर्स के मज़दूर केवल कुछ घंटों के लिए ही), लेकिन वे महसूस कर चुके थे कि बुर्जुआ सरकार की विफलता को मज़दूरों की सरकार ही दूर कर सकती है। उनके एजेंडे अलग-अलग थे, उन एजेंडों को लागू करने की उनकी क्षमता विविध प्रकार की थी, लेकिन जो एक बात पेरिस कम्यून को पूरे फ़्रांस और दुनिया भर के तमाम विद्रोहों के साथ जोड़ती थी, वो यह थी कि रेशम मज़दूर और कटलरी मज़दूर, बेकरी वाले और बुनकर बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व के बिना समाज को नियंत्रित कर सकते हैं। पेरिस के मज़दूर वर्ग को 1870 में यह बात समझ में आ गई थी कि बुर्जुआ राजनेताओं और जनरलों ने उन्हें सेडान के युद्धक्षेत्र में मरने के लिए भेजा था, कि वे प्रशिया की शर्तों के आगे हथियार डाल चुके हैं, और मज़दूर वर्ग से युद्ध की लागत वसूलना चाहते हैं। फ़्रांस का नियंत्रण मज़दूरों को हाथ में लेना ज़रूरी था।
पेरिस कम्यून की हार के कुछ हफ़्ते बाद, कार्ल मार्क्स ने इंटरनेशनल वर्किंगमेन एसोसिएशन की जनरल काउंसिल के लिए कम्यून के अनुभवों पर एक छोटा पैम्फ़्लेट लिखा। Der Bürgerkrieg in Frankreich (‘फ़्रांस में गृहयुद्ध’) के नाम से लिखा गया यह लेख, इस विद्रोह का विश्लेषण एक समाजवादी समाज की संभावना के बेहतरीन प्रदर्शन और उस समाज के लिए अपनी राज्य संरचनाएँ बनाने की अहम ज़रूरत के रूप में करता है। इतिहास के उतार-चढ़ावों को पूरी तरह से समझने वाले मार्क्स ने लिखा कि बुर्जुआ वर्ग द्वारा पेरिस पर फिर से अपनी हुकूमत क़ायम कर लेने के बाद हुए क़त्लेआम के बावजूद, 1789 की क्रांति के साथ शुरू हुई और 1871 में पेरिस कम्यून के रूप में सामने आई क्रियाशीलता रुकेगी नहीं: अतीत से विरासत में मिले पुराने शासक और पूँजीवाद द्वारा बनाए गए नये शासक लोकतांत्रिक भावना को बर्दाश्त नहीं कर सके।
पेरिस कम्यून की राख से एक नये समाजवादी लोकतंत्र का प्रयोग उठेगा, जो फिर गिर भी सकता है, और फिर उससे एक और नया प्रयोग उभरेगा। इंटरनेशनल द्वारा प्रोत्साहित ऐसे प्रयोग आधुनिक समाज के अंतर्विरोधों से निकले थे। मार्क्स ने लिखा है, ‘किसी भी स्तर का नरसंहार इसे ख़त्म नहीं कर सकता। इसे ख़त्म करने के लिए, सरकारों को मज़दूरों पर पूँजी की तानाशाही -उनके परजीवी अस्तित्व की होड़- को ख़त्म करना होगा’।
1871 का पेरिस कम्यून हमारी राजनीतिक कल्पना के लिए महत्वपूर्ण है, इसके सबक़ हमारी मौजूदा प्रक्रियाओं का ज़रूरी हिस्सा हैं। यही कारण है कि इंडोनेशिया से स्लोवेनिया और अर्जेंटीना तक सत्ताईस प्रकाशक मिलकर ‘पेरिस कम्यून 150’ स्मारक पुस्तक प्रकाशित कर रहे हैं (जिसे 28 मई से पंद्रह देशों की अठारह भाषाओं में डाउनलोड किया जा सकता है)। इस पुस्तक में मार्क्स का उपरोक्त लेख, (‘राज्य और क्रांति’, 1918 पुस्तक में से) व्लादिमीर लेनिन की उस निबंध की चर्चा, और कम्यून के संदर्भ और संस्कृति पर मेरे व ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की प्रमुख डिज़ाइनर और शोधकर्ता टिंग्स चक द्वारा लिखे गए दो व्याख्यात्मक निबंध शामिल हैं।
1918 में, अक्टूबर क्रांति और सोवियत गणराज्य के 73वें दिन, व्लादिमीर लेनिन स्मॉली इंस्टीट्यूट (पेत्रोग्राद) स्थित अपने कार्यालय से बाहर निकले और बर्फ़ में नाचने लगे। उन्होंने इस बात का जश्न मनाया कि सोवियत प्रयोग पेरिस कम्यून से ज़्यादा लम्बा चला। पाँच दिन बाद, लेनिन ने सोवियत संघ की तीसरी अखिल रूसी कांग्रेस को संबोधित किया, जहाँ उन्होंने कहा कि उनका कम्यून पेरिस 1871 के मुक़ाबले ‘अधिक अनुकूल परिस्थितियों’ की वजह से लम्बा चल पाया है जिनमें ‘रूसी सैनिक, मज़दूर और किसान सोवियत सरकार का निर्माण करने में सक्षम रहे’। उन्होंने दमनकारी आदतों वाले पुराने ज़ारवादी राज्य को क़ायम नहीं रखा बल्कि उसकी जगह एक नया ‘तंत्र बनाया जिसने पूरी दुनिया को उनके संघर्ष के तरीक़ों से अवगत कराया’। इन तरीक़ों में समाज के विभिन्न अहम वर्गों को एक समाजवादी समाज बनाने के लिए आवश्यक ‘बदलाव के लम्बे, [और] कमोबेश कठिन समय’ में आकर्षित करना शामिल था। हर हार -1871 में पेरिस कम्यून की और, बाद में, सोवियत संघ की- मेहनतकशों के लिए सबक़ है। समाजवाद के निर्माण का हर प्रयास हमें अपने अगले प्रयोग के लिए सबक़ सिखाता है। यही कारण है कि हमने यह किताब तैयार की है, और इसे कम्यून के पहले दिन नहीं, बल्कि उसकी हार के दिन, कम्यून और उससे निकले सबक़ पर चिंतन करने के दिन, जारी कर रहे हैं।
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‘पेरिस कम्यून 150′, भारत के वामपंथी प्रकाशकों के बीच नयी दिल्ली में हुई एक बातचीत से उभरे, एक अनौपचारिक समूह इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ लेफ़्ट पब्लिशर्स (आईयूएलपी) की सबसे हालिया रचना है। साल 2019 की शुरुआत में हमने वामपंथी लेखकों और प्रकाशकों पर बढ़ते हमलों के विरुद्ध ‘लाल’ किताबों के योगदान का जश्न मनाने के लिए हर साल एक दिन आयोजित करने का फ़ैसला किया था। दक्षिण अमेरिका के दो प्रकाशकों (ब्राज़ील के एक्सप्रेसो पॉपुलर और अर्जेंटीना के बैटला दे आइडियाज़) के साथ मिलकर, हमने तय किया कि हम लोगों से 21 फ़रवरी को कम्युनिस्ट घोषणापत्र, जो कि 1848 में इसी दिन प्रकाशित हुआ था, के सार्वजनिक पाठ का आह्वान करेंगे। क्योंकि 21 फ़रवरी अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस भी होता है, हमने फ़ैसला किया कि हम लोगों से उनकी अपनी भाषाओं में घोषणापत्र पढ़ने का आह्वान करेंगे। 2020 और 2021 में, रेड बुक्स डे मनाने के लिए हज़ारों लोग सार्वजनिक जगहों पर या ऑनलाइन मिले और उन्होंने घोषणापत्र पढ़ा और इस पर चर्चा की। हम आशा करते हैं कि, मई दिवस की तरह, यह दिन भी जन आंदोलनों के सांस्कृतिक कलैण्डर का हिस्सा बने।
रेड बुक्स डे 2020 के अनुभव ने हमारे प्रकाशन समूह को और परियोजनाओं के लिए प्रेरित किया, जैसे कि ख़ास किताबों का संयुक्त प्रकाशन करना। आईयूएलपी ने अब तक पेरिस कम्यून 150 के अलावा तीन संयुक्त पुस्तकें जारी की हैं:
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लेनिन 150: 22 अप्रैल 2020 को, लेनिन के जन्म की 150वीं जयंती पर, तीन प्रकाशकों (बैटला दे आइडियाज़, एक्सप्रेसो पॉपुलर, और लेफ़्टवर्ड बुक्स) ने ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के साथ मिलकर, अंग्रेज़ी, पुर्तगाली और स्पेनिश भाषाओं में यह किताब प्रकाशित की जिसमें लेनिन के कुछ लेख, 1924 में लेनिन के लिए व्लादिमीर मायाकोवस्की द्वारा लिखी गई कविता और एक परिचयात्मक निबंध शामिल हैं।
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मारियातेगुई: 14 जून 2020 को, पेरू के मार्क्सवादी होस कार्लोस मारियातेगुई के जन्मदिन पर, छह प्रकाशकों (उपरोक्त तीन के साथ भारती पुस्तकालयम, चिन्था प्रकाशक, और वाम प्रकाशन) ने संयुक्त रूप से यह पुस्तक प्रकाशित की जिसमें मारियातेगुई के तीन शानदार लेख शामिल हैं। ब्राज़ील के मार्क्सवादी फ़्लोरेस्तेन फ़र्नांडीस ने इस किताब का परिचय लिखा था और लूसिया रीयर्टेस और येल अर्डील्स ने होस कार्लोस मारियातेगुई स्कूल पर प्रस्तावना लिखी थी।
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चे: 8 अक्टूबर 2020 को, अर्नेस्टो ‘चे’ ग्वेरा की हत्या के दिन, बीस प्रकाशकों ने मिलकर एक साथ चे के दो अहम निबंधों (‘मैन एंड सोशलिज़्म इन क्यूबा’ और ‘मैसेज टू द ट्राईकॉन्टिनेंटल’) का एक नया संस्करण तैयार किया। इस संस्करण में मारिया डेल कारमेन एरिएट गार्सिया (रिसर्च कोऑर्डिनेटर, चे ग्वेरा स्टडीज़ सेंटर) और एजाज़ अहमद (सीनियर फ़ेलो, ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान) के निबंध भी शामिल हैं।
इस प्रक्रिया में शामिल हर प्रकाशक ने इन पुस्तकों के लिए एक ही आवरण का प्रयोग किया। ‘पेरिस कम्यून 150’ के लिए, हमारे कला विभाग ने एक आवरण प्रतियोगिता आयोजित करने का निर्णय लिया था; पंद्रह देशों के इकतालीस कलाकारों ने कवर के लिए अपनी प्रस्तुतियाँ भेजीं -लगभग उन सैंतालीस कलाकारों के बराबर जिन्होंने 1871 के कम्यून में कलाकारों के संघ की स्थापना की थी। हम इन इकतालीस प्रस्तुतियों की एक ऑनलाइन प्रदर्शनी आयोजित कर रहे हैं।
इनमें से दो कालाकृति (तस्वीर) हमें किताब के लिए बेहतरीन लगीं। आवरण चित्र क्यूबा के कलाकार जॉर्ज लुइस रोड्रिग्ज एग्विलर के द्वारा बनाया गया है, जो हवाना के सैन एलेजांद्रो नेशनल एकेडमी ऑफ़ फ़ाइन आर्ट्स में ग्राफ़िक और डिजिटल कला विभाग के प्रमुख हैं। बैक कवर केरल की जुनैना मोहम्मद ने बनाया है, जो कि स्टूडेंट फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया और यंग सोशलिस्ट आर्टिस्ट्स क्लेक्टिव की सदस्य हैं। मज़ेदार बात ये है कि ये कलाकार क्यूबा और केरल के रहने वाले हैं, वो दो जगहें जहाँ कम्यून के प्रयोग की रौशनी अब भी दमक रही है।
पेरिस कम्यून के कुछ समय बाद, अल्जीरिया और न्यू कैलेडोनिया की फ़्रांसीसी कॉलोनियों में विद्रोह शुरू हो गया। दोनों ही जगहों पर पेरिस कम्यून के उदाहरण का बहुत अधिक महत्व था। मोहम्मद अल-मोक्रानी, जिन्होंने मार्च 1871 में अरब और कबाइल विद्रोह का नेतृत्व किया था, और अताय, जिन्होंने 1878 में न्यू कैलेडोनिया में कनक विद्रोह का नेतृत्व किया था, फ़्रांसीसी बंदूक़ों के आगे शहीद होने से पहले, कम्यून के लोगों के ही गीत गाते थे। पेरिस कम्यून में अपनी भूमिका के लिए न्यू कैलेडोनिया में क़ैद लुईस मिशेल ने वहाँ अपने लाल दुपट्टे के टुकड़े कर उन्हें कनक विद्रोहियों के साथ साझा किया था। कनक की कहानियों के बारे में उन्होंने लिखा था:
कनक का कहानीकार, अगर वो पूरे जोश में है, अगर वह भूखा नहीं है, और अगर रात सुंदर है, तो वो कहानी में कुछ जोड़ता है, और अन्य लोग उसके बाद [उसमें कुछ] और जोड़ते हैं, और वही कहानी अनेकों ज़ुबानों और कई जनजातियों से गुज़रती रहती है, कभी-कभी वह पहली कहानी से बिलकुल अलग कहानी बन जाती है।
हम पेरिस कम्यून की कहानी ठीक उसी तरह से सुनाते हैं जैसे कनक विद्रोही अपनी कहानी सुनाया करते थे: कहानी जो बहत्तर दिनों से बढ़ती हुई, सोवियत संघ और 1927 के ग्वांगझू कम्यून में बदल गई, पूरी तरह से अलग, बिलकुल अलग, और कहीं अधिक सुंदर बन गई।
कम्यून का राजनीतिक महत्व हमारे समय में भी बरक़रार है। वेनेज़ुएला में, छोटे मोहल्लों में बने कम्यून्स की समाज को आगे बढ़ाने वाले नये विचारों और उनके लिए ज़रूरी भौतिक शक्तियों को स्थापित करने में केंद्रीय भूमिका रही है। दक्षिण अफ़्रीका में, डरबन की ‘कनान‘ लैंड ऑक्युपेशन, जिन्हें निरंतर दमन का सामना करना पड़ रहा है, एक कम्यून है जहाँ लोकतांत्रिक स्व-प्रबंधन ने सामाजिक सेवाएँ प्रदान की हैं, कृषि परियोजनाओं की स्थापना की है, और देश भर के कार्यकर्ताओं द्वारा उपयोग किए जाने वाले एक राजनीतिक स्कूल का निर्माण किया है।
स्नेह-सहित,
विजय।