प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
23 जुलाई 2021 को, न्यूयॉर्क टाइम्स में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन के नाम क्यूबा के ख़िलाफ़ अमेरिकी नाकाबंदी हटाने की माँग करते हुए एक पूरे पेज पर अपील छपी थी। जब वो अपील प्रेस में छपने के लिए गई तब मैं ग्लोबल टाइम्स (जीटी) के चीनी पत्रकार लू युआनझी से बात कर रहा था। आगे के न्यूज़लेटर में उस साक्षात्कार के कुछ अंश हैं, जिनमें मैंने क्यूबा के ख़िलाफ़ अमेरिकी नीति से लेकर चीन के ख़िलाफ़ नये शीत युद्ध पर बात की है।
जी.टी.: कोरोनावायरस महामारी और लंबे समय तक चल रही अमेरिकी नाकाबंदी ने क्यूबा के लोगों के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया है। क्यूबा के मौजूदा संकटों का फ़ायदा उठाकर अमेरिका उनके लिए मुश्किलें बढ़ा रहा है। एकमात्र महाशक्ति होने के कारण, अमेरिका अपने दक्षिण में स्थित इस छोटे से समाजवादी देश के ख़िलाफ़ शत्रुतापूर्ण नीति अपनाता रहा है। आख़िरकार अमेरिका अपनी परिधि में एक छोटे से समाजवादी देश को बर्दाश्त क्यों नहीं कर पाता?
प्रसाद: क्यूबा ने 1959 से मानवता के लिए एक वैकल्पिक दृष्टिकोण पेश किया है, जिसमें लोगों की ज़िंदगियाँ मुनाफ़े की ज़रूरतों से ज़्यादा महत्व रखती हैं। समाजवादी परियोजना के मूल में मानवता है, इसका अंदाज़ा इसी तथ्य से लग जाता है कि क्यूबा एक ग़रीब देश होने के बावजूद भुखमरी और निरक्षरता को जल्द ही ख़त्म करने में सफल हो गया लेकिन अमेरिका -एक अमीर देश- इन प्राथमिक समस्याओं से आज भी त्रस्त है। यह बात अमेरिका का कुलीन वर्ग सह नहीं पाता। इसलिए, वो क्यूबा के ख़िलाफ़ कड़ी से कड़ी नाकाबंदी लगाता है। वास्तव में, क्यूबा की जनता का हौसला पस्त करने के लिए वो हाइब्रिड युद्ध रणनीति के तहत सोशल मीडिया युद्ध समेत हर प्रकार के साधनों का उपयोग करता है। 11 जुलाई को यह प्रयास किया गया था, लेकिन वो असफल रहा। अपनी क्रांति की रक्षा हेतु क्यूबा के लाखों लोग सड़कों पर उतर आए।
जी.टी.: हालाँकि संयुक्त राष्ट्र संघ क्यूबा के ख़िलाफ़ अमेरिकी नाकेबंदी की लगातार कई वर्षों से कड़ी निंदा करता रहा है, लेकिन वाशिंगटन ने अपनी अमानवीय नीति जारी रखी है। अमेरिका की अंतर्राष्ट्रीय छवि के लिए इसका क्या मतलब है? अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि, ‘अमेरिका क्यूबा के लोगों के साथ मज़बूती से खड़ा है’, लेकिन उनके प्रशासन की नाकेबंदी हटाने की कोई मंशा नहीं दिखती। ऐसी पाखंडी कूटनीतिक बयानबाज़ी के समर्थक कौन हैं?
प्रसाद: अमेरिका ‘क्यूबा के लोगों के साथ मज़बूती से खड़ा’ नहीं है। दरअसल अमेरिका क्यूबा के लोगों की गर्दन पर खड़ा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के 184 सदस्य देशों को यह साफ़ नज़र आता है, इसीलिए 23 जून को उन्होंने अमेरिका को नाकाबंदी समाप्त करने के लिए एक संदेश भेजने के हक़ में मतदान किया। सच तो ये है कि राष्ट्रपति जो बाइडेन ने डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा लागू किए गए 243 क्रूर उपायों को वापस लेने से भी इनकार कर दिया है। क्यूबा पर लगी नाकेबंदी और विश्व के कम-से-कम तीस देशों के ख़िलाफ़ अवैध प्रतिबंधों की अमेरिकी नीति की क्रूरता को दुनिया जानती है। लेकिन, अमेरिका की ताक़त के कारण कुछ ही देश ऐसे हैं जो संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में क्यूबा के हक़ में वोट देने से ज़्यादा कुछ करने को तैयार हैं।
क्यूबा को भौतिक समर्थन की ज़रूरत है, जो अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से बहुत कम मिल पा रहा है; उदाहरण के तौर पर इस भौतिक समर्थन में क्यूबा के दवा उद्योग के लिए आवश्यक सामग्री से लेकर खाद्य सामग्रियाँ शामिल हैं। यदि अमेरिका अपनी नाकेबंदी ख़त्म नहीं करता, तो क्या दुनिया के प्रमुख देश इसे तोड़ने के लिए एक साथ आगे आएँगे?
जी.टी.: दुनिया भर में सबसे ज़्यादा मौतों के साथ कोविड-19 महामारी के प्रबंधन में अमेरिका की विफलता जगज़ाहिर है। महामारी के बीच, अमेरिकी पूँजीवादी व्यवस्था का मानव जीवन से पहले अर्थव्यवस्था को तवज्जो देना अब सबके सामने आ चुका है। महामारी ने अमेरिका के संस्थागत लाभों और बेलगाम शक्ति में सेंध लगा दी है। क्या बड़े संकटों के सामने पूँजीवादी व्यवस्था बेकार हो गई है?
प्रसाद: पूँजीवादी व्यवस्था बड़ी मात्रा में वस्तुओं का उत्पादन करने और कुछ वस्तुओं के बेहतरीन मॉडल बनाने में बहुत अच्छी है। उदाहरण के लिए, यह व्यवस्था उच्च गुणवत्ता की चिकित्सा देखभाल का उत्पादन करने में अच्छी है, लेकिन गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल का उत्पादन करने में बहुत अच्छी नहीं है। क्योंकि ये व्यवस्था मुनाफ़े पर टिकी है। चूँकि सामाजिक असमानता की खाई बहुत बड़ी है, और जनता के बड़े हिस्से की जेब में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल के लिए पैसे नहीं हैं, इसलिए स्वास्थ्य देखभाल अधिकांश जनता की पहुँच से बाहर है। स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति यह रवैया ही पूँजीवाद का अमानवीय पक्ष पेश करता है। महामारी के समय में, 64 देशों ने हेल्थकेयर की तुलना में अपने बाहरी ऋण चुकाने के लिए ज़्यादा पैसा ख़र्च किया। ऐसे हैं पूँजीवादी व्यवस्था के तौर-तरीक़े: कि विकसित दुनिया में बैठे अमीर बांड होल्डरों के पैसे तो बनते रहें, भले ही ग़रीब ज़िंदा रहने के लिए संघर्ष करते रहें।
जी.टी.: महामारी के प्रबंधन में चीन की प्रतिक्रिया ने उसके जनोन्मुख दर्शन और उसकी राजनीतिक व्यवस्था की ताक़त को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया है। महामारी के बाद चीन की राजनीतिक व्यवस्था के बढ़ते प्रभाव पर आपकी क्या राय है? चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के नेतृत्व में चीन की राजनीतिक व्यवस्था के अनूठे फ़ायदों को बाहरी दुनिया कैसे बेहतर ढंग से समझ सकती है? सीपीसी को बदनाम करने की पश्चिमी कोशिशों का चीन बेहतर तरीक़े से मुक़ाबला कैसे कर सकता है?
प्रसाद: महामारी के प्रबंधन में चीन का दृष्टिकोण विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफ़ारिशों के अनुरूप रहा है: महामारी से निपटने में विज्ञान, सहानुभूति और सहभागिता का उपयोग। चीन के लोग ख़ुद से एक-दूसरे की मदद करने के लिए आगे आए, डॉक्टर जो कि कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी हैं, ख़ुद फ़्रंटलाइन पर जाकर काम करते रहे, और बीमारी ख़त्म करने तथा यह सुनिश्चित करने के लिए कि लोगों को लंबे समय तक आर्थिक मंदी का सामना न करना पड़े, चीन की सरकार ने भरपूर ख़र्च किया। उनके इस दृष्टिकोण बहुत कुछ सीखा जा सकता है; कोरोनाशॉक पर हमारे अध्ययनों में यह बात स्पष्ट हुई है।
महामारी के प्रबंधन का यह तरीक़ा अधिकांश पश्चिमी देशों और विकासशील दुनिया के कई अन्य देशों के विज्ञान विरोधी, अमानवीय और संकीर्ण राष्ट्रवादी रवैये के बिलकुल विपरीत है; उनके तरीक़े से अराजकता पैदा हुई। अमेरिका जैसे देशों में महामारी का प्रबंधन कर पाने में विफल रही सरकारों ने वायरस के लिए चीन को नस्लवादी तरीक़े से दोष देना शुरू कर दिया, जैसा कि ट्रम्प ने किया। हम वैज्ञानिक रूप से जानते हैं कि वायरस कई कारणों से प्रकट होते हैं, और उनमें से किसी भी कारण का नस्ल से कोई लेना-देना नहीं है। चीनी बुद्धिजीवियों और अन्य लोगों को चाहिए कि वे ग़रीबी के उन्मूलन से लेकर कोविड-19 को बेहद जल्द हरा पाने में उनकी सफलता सहित चीन के विकास का स्पष्ट विवरण दें। इस प्रकार के विवरणों से दुनिया के अन्य हिस्सों के लोगों को चीन में सार्वजनिक कार्रवाई और राज्य की कार्रवाई के बीच के संबंधों को समझने में मदद मिलेगी। इसे व्यापक रूप से लोग ग़लत समझते हैं, ख़ास तौर पर अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा चलाए जा रहे सूचना युद्ध के कारण। 23 जुलाई को, ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने अत्याधिक ग़रीबी के उन्मूलन पर किए गए फ़ील्ड अध्ययनों के आधार पर ‘सर्व द पीपल: द इरेडिकेशन ऑफ़ एक्सट्रीम पॉवर्टी इन चाइना’ नामक एक लेख जारी किया है।
जी.टी.: हाल के वर्षों में सीपीसी के बारे में पश्चिम के द्वारा किए जाने वाले वर्णनों में चीन की सामाजिक प्रगति और वैश्विक आर्थिक विकास पर सीपीसी के सकारात्मक प्रभावों का उल्लेख करने को लेकर आनाकानी नज़र आती है। पश्चिम सीपीसी का निष्पक्ष मूल्यांकन क्यों नहीं कर सकता?
प्रसाद: पश्चिम निष्पक्ष नहीं हो सकता क्योंकि पश्चिम विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में चीन की प्रगति से डरता है। पिछले 50 वर्षों से, पश्चिमी फ़र्मों ने अपने कॉपीराइट लाभों को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए बौद्धिक संपदा क़ानूनों का उपयोग कर, उच्च प्रौद्योगिकी क्षेत्रों पर अपना एकाधिकार बनाए रखा है। दूरसंचार, रोबोटिक्स, हाई-स्पीड रेल और नयी ऊर्जा प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में चीन का विकास इन पश्चिमी फ़र्मों के प्रभुत्व के लिए संभावित ख़तरा है। इन प्रमुख तकनीकी क्षेत्रों में वर्चस्व खोने का डर ही चीन के ख़िलाफ़ ‘नये शीत युद्ध’ का कारण है और यही चीन के विकास का गंभीर मूल्यांकन नहीं होने देता।
एक संतुलित रवैया अपनाने के बजाय, पश्चिम ने चार दिशाओं में क़दम बढ़ाए हैं। सबसे पहले तो, अमेरिका ने अपना आर्थिक और तकनीकी वर्चस्व बनाए रखने के लिए चीन के ख़िलाफ़ व्यापार और आर्थिक युद्ध छेड़ा। दूसरा, उसने विकासशील देशों और अमेरिका के सहयोगियों पर चीनी फ़र्मों के साथ संबंध तोड़ने और चीन को अलग-थलग करने का दबाव बनाया है। तीसरा, इसने ‘मानवाधिकारों’ का भ्रामक इस्तेमाल कर चीन के भीतर सरकार विरोधी और अलगाववादी ताक़तों का समर्थन करके चीन को बदनाम करने का प्रयास किया है। और चौथा, उसने सैन्य उकसावे का रास्ता अपनाया है, ख़ास तौर पर क्वाड (ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका) गठबंधन के माध्यम से। ये तंत्र चीन की वास्तविकताओं को पश्चिमी जनता के सामने नहीं आने देते।
जी.टी.: अपने आर्थिक सुधार और उदारीकरण के शुरुआती समय में चीन पश्चिमी समाजों से सीखने के लिए ग्रहणशील रहा। इससे चीन के विकास को काफ़ी बढ़ावा मिला है। क्या आपको लगता है कि पश्चिम चीन की राजनीतिक व्यवस्था को गंभीरता से लेने के लिए वैचारिक तौर पर तैयार हो सकता है?
प्रसाद: पश्चिम की जनता जिस राजनीतिक वर्ग द्वारा निर्देशित की जाती है, वो अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों को बचाने में लगा है जो कि चीन के वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से ख़तरे में हैं, लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि सच्चाई देर सेवर पश्चिमी जनता के सामने आएगी। फ़िलहाल, ऐसा कोई सकारात्मक मूल्यांकन संभव नहीं है। हालाँकि इस प्रकार का मूल्यांकन हम अफ़्रीका, लैटिन अमेरिका और दक्षिणी एशिया के देशों के संदर्भ में कर सकते हैं, जहाँ लोग अत्यधिक ग़रीबी के उन्मूलन की अपार शक्ति और उच्च गुणवत्ता वाले एक स्वदेशी तकनीकी उद्योग के निर्माण की अपार शक्ति को समझेंगे। लूला के कार्यकाल में, ब्राज़ील ने फ़ोमे ज़ीरो कार्यक्रम के माध्यम से भुखमरी को ख़त्म कर दिया था, और केरल में वाम लोकतांत्रिक मोर्चे की सरकार ने हाल ही में ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया है। दुनिया के ये क्षेत्र पश्चिम में रहने वालों की तुलना में चीन के द्वारा उठाए गए क़दमों की बेहतर सराहना कर सकते हैं।
जी.टी.: जब से बाइडेन ने पदभार संभाला है, उनके प्रशासन ने चीन को नियंत्रित करने के लिए समान विचारधारा वाले लोकतंत्रों को अपनी तरफ़ करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा है, मानो वो शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ के नेतृत्व वाले दो गुटों के बीच की दुश्मनी को अमेरिका और चीन के संदर्भ में दोहराना चाहते हैं। क्या आपको लगता है कि लोकतांत्रिक कार्ड खेलना अमेरिका के लिए चीन विरोधी ख़ेमे को अपनी तरफ़ करने का एक प्रभावी तरीक़ा है?
प्रसाद: लोकतंत्रों के एक समुदाय/समूह का विचार हास्यास्पद है ख़ासकर तब जब इस प्रकार के समूह के द्वारा चीन और रूस पर उनके विकास को उलटने का दबाव बनाने के लिए सभी प्रकार के बलों (राजनयिक, आर्थिक, सैन्य, आदि) का उपयोग किया जाता हो। सही मायने में एक लोकतांत्रिक समूह को संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर का पालन करना चाहिए, पश्चिमी देशों द्वारा लागू की गई प्रतिबंध नीतियाँ जिसकी अवमानना करती हैं। यही कारण है कि 18 देशों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर की रक्षा में ग्रूप ऑफ़ फ़्रेंड्ज़ इन डिफ़ेन्स ऑफ़ यूएन चार्टर बनाया है। यह एक महत्वपूर्ण प्रगति है, क्योंकि यह बताता है कि असल मुद्दा चार्टर के साथ खड़े रहना है, न कि एक अमूर्त लोकतंत्र के साथ, जिसका मतलब अक्सर यह होता है कि एक देश को पश्चिमी हितों के अधीन होना चाहिए। दुनिया गुटों में बँटना नहीं चाहती।
गुटनिरपेक्ष आंदोलन इस सितंबर में 60 साल का हो जाएगा। विकासशील देश अब भी इस परियोजना के हक़ में हैं। दुनिया के देश एक ‘नये शीत युद्ध‘ में किसी एक गुट का पक्ष नहीं लेना चाहते हैं, अमेरिका के अलावा ऐसा कोई भी नहीं चाहता है। चीन और अमेरिका दो गुट नहीं हैं, जैसा कि अमेरिका दुनिया पर थोपने की कोशिश कर रहा है: मानवता और साम्राज्यवाद असल गुट हैं।
जी.टी.: आपकी पुस्तक वाशिंगटन बुलेट्स अमेरिकी सीआईए के द्वारा करवाई गई हत्याओं और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में उनकी घुसपैठ का ब्योरा पेश करती है। अमेरिकी साम्राज्यवाद का वैश्विक स्तर पर विरोध हुआ है। आप अमेरिकी साम्राज्यवाद के भविष्य को कैसे देखते हैं?
प्रसाद: अमेरिका एक बहुत शक्तिशाली देश बना हुआ है, जिसके पास सबसे बड़ा सैन्य बल है जो ग्रह पर कहीं भी कार्रवाई करने में सक्षम है और सॉफ़्ट पावर (जैसे सांस्कृतिक और कूटनीतिक शक्ति) के रूप में उसके पास जो कुछ भी है उससे किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है। विकासशील देशों में अमेरिकी हस्तक्षेप के भयानक रिकॉर्ड के बावजूद – जिसका मैंने वाशिंगटन बुलेट्स (2020) में दस्तावेज़ीकरण किया है – अमेरिका दुनिया की कल्पना शक्ति पर पकड़ बनाए हुए है। एक राय बनी हुई है – हालाँकि यह ग़लत है – कि अमेरिका अपनी शक्ति को एक परोपकारी तरीक़े से संचालित करता है और यह सार्वभौमिक रूप से कार्य करता है, न कि राष्ट्रवादी हित में। अमेरिका की सांस्कृतिक शक्ति काफ़ी है, यही वजह है कि अमेरिका किसी भी विरोधी के ख़िलाफ़ सूचना के हथियारों को आसानी से चलाने में सक्षम है।
लगभग 30 साल पहले, क्यूबा के फ़िदेल कास्त्रो ने दुनिया भर के देशों से विचारों की लड़ाई को कमतर नहीं आँकने का आग्रह किया था। अमेरिकी साम्राज्यवाद हमेशा नहीं रहेगा। बहुध्रुवीयता और क्षेत्रवाद के विकास से अब इसे टक्कर मिलने लगी है। ये महत्वपूर्ण घटनाक्रम है जिन्हें अमेरिकी सेना या सांस्कृतिक शक्ति रोक नहीं पा रही है। इतिहास बहुध्रुवीयता और क्षेत्रवाद की ओर ही बढ़ रहा हैं। वही अंततः जीतेंगे।
इस न्यूज़लेटर में शामिल सभी चित्र ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के द्वारा क्यूबाई आंदोलन के स्थापना दिवस के मौक़े पर 26 जुलाई को जारी की गई ‘लेट क्यूबा लिव’ प्रदर्शनी से ली गई है, जब दुनिया भर के शांतिप्रिय लोग अमेरिका से नाकेबंदी ख़त्म करने की माँग कर रहे हैं।
स्नेह-सहित,
विजय।