प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
यह परेशान करने वाला समय है। कोविड-19 महामारी लोगों को एक साथ ला सकती थी। यह महामारी विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) जैसे वैश्विक संस्थानों को मज़बूत कर सकती थी और सार्वजनिक कार्रवाई (पब्लिक ऐक्शन) में नया विश्वास जगा सकती थी। हमारी विशाल सामाजिक संपदा को महामारियों पर निगरानी रखने और किसी महामारी के फैलने पर लोगों का इलाज करने के मक़सद से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों में सुधार करने के काम में लगाया जा सकता था। पर नहीं।
डब्ल्यूएचओ के अध्ययन दिखाते हैं कि महामारी के दौरान ग़रीब देशों में सरकारों द्वारा स्वास्थ्य देखभाल के मद में किए जाने वाले ख़र्च का ग्राफ़ अपेक्षाकृत सपाट (फ़्लैट) रहा है, जबकि स्वास्थ्य देखभाल पर निजी ख़र्च में वृद्धि लगातार जारी है। मार्च 2020 में महामारी घोषित होने के बाद से, कई सरकारों ने असाधारण बजट आवंटन किए हैं; लेकिन, इन असाधारण बजटों में भी अमीर से लेकर ग़रीब देशों तक, स्वास्थ्य क्षेत्र को ‘काफ़ी छोटा हिस्सा’ प्राप्त हुआ। बजट ख़र्च का बड़ा हिस्सा बहुराष्ट्रीय निगमों और बैंकों को वित्तीय सहायता देने और जनता को सामाजिक राहत प्रदान करने के लिए इस्तेमाल किया गया था।
2020 में, महामारी पर वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लगभग 4 ट्रिलियन डॉलर ख़र्च हुए। हालाँकि डब्ल्यूएचओ के अनुसार, ‘प्रति वर्ष महामारी की तैयारी सुनिश्चित करने के लिए लगभग 150 बिलियन अमेरिकी डॉलर… धन की आवश्यकता है’। दूसरे शब्दों में कहें तो, 150 बिलियन डॉलर का वार्षिक ख़र्च महामारी से भी बचा सकता है, और खरबों डॉलर के आर्थिक नुक़सान और अनंत दुखों को भी रोक सकता है। लेकिन इस तरह के सामाजिक निवेश पर कोई बात नहीं होती। यह भी हमारे समय की परेशानियों के कई कारणों में से एक कारण है।
5 मई को, डबल्यूएचओ ने कोविड-19 महामारी से हुई अतिरिक्त मौतों पर अपने निष्कर्ष जारी किए। 2020 और 2021 के 24 महीने की अवधि में, डब्ल्यूएचओ का अनुमान है कि महामारी से मरने वालों की संख्या लगभग 1 करोड़ 49 लाख थी। और इनमें से एक तिहाई मौतें (लगभग 47 लाख) भारत में हुई हैं; यह प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार द्वारा जारी किए गए आधिकारिक आँकड़े से दस गुना ज़्यादा है। यही कारण है कि मोदी सरकार ने डब्ल्यूएचओ के आँकड़ों को विवादास्पद कहा है। किसी को भी लगेगा कि ये चौंका देने वाले आँकड़े -दो साल में विश्व स्तर पर लगभग 1.5 करोड़ लोगों की मौत- सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों के पुनर्निर्माण की इच्छा को मज़बूत कर देंगे। पर नहीं।
वैश्विक स्वास्थ्य वित्तपोषण (हेल्थ फ़ायनैन्सिंग) पर एक अध्ययन के अनुसार, 2019 और 2020 के बीच स्वास्थ्य के लिए विकास सहायता (डीएएच) में 35.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। डीएएच में इस वृद्धि के साथ कुल 13.7 बिलियन डॉलर गया है, जो कि महामारी से निपटने के लिए 33 बिलियन से 62 बिलियन डॉलर की अनुमानित सहायता से बहुत कम है। दूसरी तरफ़, महामारी के दौरान डीएएच की फ़ंडिंग कोविड-19 परियोजनाओं में लगी, और अन्य प्रमुख स्वास्थ्य क्षेत्रों के फ़ंड में कमी देखी गई (मलेरिया में 2.2 प्रतिशत, एचआईवी/एड्स में 3.4 प्रतिशत, और ट्यूबरक्लोसिस में 5.5 प्रतिशत, प्रजनन और मातृ स्वास्थ्य में 6.8 प्रतिशत की गिरावट)। कोविड-19 पर हुए ख़र्च में कई भौगोलिक विषमताएँ भी रहीं, जैसे कि विश्व स्तर पर कोविड-19 से होने वाली मौतों में से 28.7 प्रतिशत मौतें कैरिबियन और लैटिन अमेरिका में हुई, लेकिन इस क्षेत्र को डीएएच फ़ंडिंग का केवल 5.2 प्रतिशत हिस्सा ही मिला।
एक तरफ़ भारत की सरकार डबल्यूएचओ के कोविड-19 से हुई मौतों के आँकड़े पर संदेह व्यक्त करने में व्यस्त है, दूसरी तरफ़ केरल में लेफ़्ट डेमोक्रैटिक फ़्रंट की सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र को बढ़ाने के लिए हर साधन का उपयोग करने पर ध्यान दिया है। लगभग 3.5 करोड़ की आबादी वाला केरल नियमित रूप से भारत के अट्ठाईस राज्यों में देश के स्वास्थ्य संकेतकों में सबसे ऊपर रहता है। केरल की लेफ़्ट डेमोक्रैटिक फ़्रंट की सरकार स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में मज़बूत सार्वजनिक निवेश, सरकार से जुड़े जीवंत सामाजिक आंदोलनों के पब्लिक ऐक्शन और सामाजिक अल्पसंख्यकों को सार्वजनिक संस्थानों से अलग करने वाले जातीय और पितृसत्तात्मक पदानुक्रमों को कम करने के लिए अपनाई गई सामाजिक समावेशीकरण की नीतियों के कारण महामारी से निपटने में सक्षम रही है।
2016 में, जब लेफ़्ट डेमोक्रेटिक फ़्रंट ने राज्य का नेतृत्व संभाला, तो उसने जर्जर होती सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को दुरुस्त करना शुरू किया। 2017 में शुरू हुए, मिशन आर्द्रम, का उद्देश्य था आपातकालीन विभागों और ट्रॉमा इकाइयों सहित सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल में सुधार करना, और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को महंगे निजी स्वास्थ्य क्षेत्र से सार्वजनिक प्रणालियों की ओर आकर्षित करना। सरकार ने मिशन आर्द्रम को स्थानीय स्वशासन की संरचनाओं के बीच स्थापित किया, ताकि संपूर्ण स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को विकेंद्रीकृत किया जा सके और उसे समुदायों की ज़रूरतों के साथ जोड़ा जा सके। उदाहरण के लिए, मिशन आर्द्रम को 45 लाख महिला सदस्यों वाले ग़रीबी-विरोधी कार्यक्रम कूदुम्बश्री जैसी अन्य सहकारी समितियों के साथ जोड़ा गया। पुनर्जीवित सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के कारण केरल की जनता इन सरकारी सुविधाओं के पक्ष में निजी स्वास्थ्य क्षेत्र को छोड़ रही है। इन सुविधाओं का इस्तेमाल 1980 के दशक में 28 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 70 प्रतिशत तक पहुँच गया है।
मिशन आर्द्रम के तहत, केरल में लेफ़्ट डेमोक्रेटिक फ़्रंट की सरकार ने पूरे राज्य में पारिवारिक स्वास्थ्य केंद्र बनाए। सरकार ने अब कोविड-19 से संबंधित दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित लोगों के निदान और उपचार के लिए इन केंद्रों पर पोस्ट–कोविड क्लीनिक स्थापित किए हैं। ये क्लीनिक नयी दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार के कम समर्थन के बावजूद बनाए गए हैं। केरल के कई सार्वजनिक स्वास्थ्य व अनुसंधान संस्थानों ने संचारी रोगों की हमारी समझ को विकसित किया है और उन रोगों के इलाज के लिए नयी दवाएँ विकसित करने में मदद की है। इन संस्थानों में इंस्टीट्यूट फ़ॉर एडवांस्ड वायरोलॉजी, इंटर्नेशनल आयुर्वेद रीसर्च इन्स्टिटूट और बायो360 लाइफ़ साइंसेज़ पार्क स्थित जैव प्रौद्योगिकी तथा फ़ार्मास्युटिकल दवाओं के अनुसंधान केंद्र शामिल हैं। यह है नेकदिली का एजेंडा, जो हम में एक ऐसी दुनिया की संभावनाओं की उम्मीद जगाता है जिसका आधार निजी लाभ नहीं बल्कि सामाजिक भलाई पर टिका हो।
नवंबर 2021 में, ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने छब्बीस अन्य शोध संस्थानों के साथ मिलकर ग्रह को बचाने की एक योजना बनाई थी। योजना के कई हिस्से हैं, जिनमें से प्रत्येक को गहन अध्ययन और विश्लेषण से तैयार किया गया है। इनमें से एक महत्वपूर्ण भाग है स्वास्थ्य, जिसमें तेरह स्पष्ट नीतिगत प्रस्ताव पेश किए गए हैं:
- कोविड-19 और भविष्य की बीमारियों के लिए पीपुल्स वैक्सीन के काम को आगे बढ़ाएँ।
- आवश्यक दवाओं पर पेटेंट नियंत्रण हटाएँ और विकासशील देशों तक चिकित्सा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण की सुविधा प्रदान करें।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों का वस्तुकरण करना बंद करें, उन्हें विकसित करें और निवेश बढ़ाकर उन्हें मज़बूत बनाएँ।
- विशेष रूप से विकासशील देशों में, सार्वजनिक क्षेत्र के दवा उत्पादन का विकास करें।
- स्वास्थ्य ख़तरों पर संयुक्त राष्ट्र अंतर-सरकारी पैनल का गठन करें।
- कार्यस्थल और अर्थव्यवस्था में स्वास्थ्य कर्मियों की यूनियनों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका का समर्थन करें और उसे मज़बूत करें।
- सुनिश्चित करें कि वंचित पृष्ठभूमि और ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को डॉक्टरों के रूप में प्रशिक्षित किया जाए।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन और क्षेत्रीय निकायों से जुड़े स्वास्थ्य मंचों सहित चिकित्सा एकजुटता को व्यापक बनाएँ।
- प्रजनन और यौन अधिकारों की रक्षा और विस्तार करने वाले अभियान और कार्य आयोजित करें।
- ऐसे पेय पदार्थों और खाद्य पदार्थों का उत्पादन करने वाले बड़े निगमों पर स्वास्थ्य कर लगाएँ जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य संगठनों द्वारा व्यापक रूप से बच्चों और सामान्य सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मना जाता है (जैसे कि वे मोटापे या अन्य स्थाई बीमारियों का कारण बनते हैं)।
- दवा निगमों की प्रचार गतिविधियों और विज्ञापन व्यय पर अंकुश लगाएँ।
- सुलभ और सार्वजनिक रूप से वित्त पोशित डायग्नॉस्टिक (नैदानिक) केंद्रों का नेट्वर्क बनाएँ और नैदानिक परीक्षणों की सलाह और क़ीमतों को सख़्ती से विनियमित करें।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों के हिस्से की तरह मनोवैज्ञानिक चिकित्सा प्रदान करें।
यदि इन नीतिगत प्रस्तावों में से आधे भी लागू कर दिए जाएँ, तो दुनिया कम ख़तरनाक और ज़्यादा नेकदिल हो जाएगी। संदर्भ के लिए आप छटा बिंदु लें। महामारी के शुरुआती महीनों के दौरान, स्वास्थ्य देखभाल कर्मियों सहित सभी ‘आवश्यक श्रमिकों (इसेंशियल वर्कर्स)’ का समर्थन करने की आवश्यकता के बारे में बात करना सामान्य हो गया था (हमारे जून 2020 के डोज़ियर, ‘स्वास्थ्य एक राजनीतिक विकल्प है‘ में इन श्रमिकों के हक़ में बात की गई थी)। लेकिन इस शुरुआती हो हल्ले और बर्तन-घंटियाँ बजाने के बाद सब चुप हो गए, जबकि स्वास्थ्य देखभाल कर्मी कम वेतन और बेहद ख़राब परिस्थितियों में काम करते रहे। और जब संयुक्त राज्य अमेरिका से लेकर केन्या तक ये स्वास्थ्य देखभाल कर्मचारी अपनी माँगों के लिए हड़ताल करने लगे तो उनके समर्थन में कोई नहीं आया। यदि स्वास्थ्य देखभाल कर्मचारियों को अपने कार्यस्थलों में और स्वास्थ्य नीति के निर्माण में अपनी बात रखने की जगह दी जाती, तो हमारे समाज में बार-बार उत्पन्न होने वाली स्वास्थ्य संबंधी आपदाओं का ख़तरा कम होता।
रोक डाल्टन की एक पुरानी कविता है सिरदर्द और समाजवाद के बारे में। 1968 लिखी गई यह कविता हमें इस बात को महसूस कराती है कि ग्रह को बचाने का काम बड़ा है:
कम्युनिस्ट होना खूबसूरत है,
भले ही यह आपको कई सिरदर्द देता हो।
कम्युनिस्टों का सिरदर्द
ऐतिहासिक माना जाता है; यानी,
यह दर्द निवारकों से ठीक नहीं होता,
बल्कि ठीक होगा केवल पृथ्वी पर स्वर्ग की प्राप्ति से।
ऐसा ही होता है यह दर्द।
पूँजीवाद में, हमें सिरदर्द होता है
और हमारे सिर काट दिए जाते हैं।
क्रांति के संघर्ष में सिर टाइम-बम होता है।
समाजवादी निर्माण में,
हम सिरदर्द की योजना बनाते हैं
इसे ख़त्म करने के लिए नहीं, बल्कि इसके ठीक विपरीत।
साम्यवाद, अन्य चीज़ों के अलावा,
सूरज जितनी बड़ी एक एस्पिरिन होगा।
स्नेह-सहित,
विजय।