प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
3 अक्टूबर को, भारत में सौ से अधिक पत्रकारों और शोधकर्ताओं के घरों व कार्यालयों पर दिल्ली पुलिस ने छापा मारा। दिल्ली पुलिस देश के गृह मंत्रालय के अधीन काम करती है। पत्रकारों की सुरक्षा समिति ने दिल्ली पुलिस की कारवाई को ‘सरासर उत्पीड़न करना और धमकाना‘ करार दिया।। दिल्ली पुलिस ने ट्राईकॉन्टिनेंटल रिसर्च सर्विसेज़ (टीआरएस) की टीम के यहाँ भी छापा मारा और उनसे पूछताछ की। दिल्ली में स्थित टीआरएस को ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश में श्रमिकों व किसानों के संघर्ष, महिला आंदोलन, जाति उत्पीड़न से दलित मुक्ति के आंदोलन जैसी हमारे समय की युग प्रवर्तक प्रक्रियाओं पर लेख तैयार करने के लिए अनुबंधित किया है। करोड़ों भारतीयों के जीवन को प्रभावित करने वाले इन महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को नजरअंदाज करना टीआरएस में कार्यरत शोधकर्ताओं के लिए कर्तव्य की उपेक्षा होता, लेकिन राष्ट्रीय महत्व के इन्हीं मुद्दों पर उनके काम ने उन्हें प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की नाराजगी का कोपभाजन बना दिया है। क्या दुनिया में एक विवेकशील व्यक्ति के रूप में रहते हुए जनता के रोज़मर्रा के संघर्षों को नजरअंदाज करना संभव है?
3 अक्टूबर का दिन ढलने तक दिल्ली पुलिस ने न्यूज़क्लिक के प्रबीर पुरकायस्थ और अमित चक्रवर्ती को गिरफ्तार कर लिया था।
टीआरएस कार्यालय पर छापेमारी के दौरान दिल्ली पुलिस ने वहाँ मौजूद कंप्यूटर, फोन और हार्ड ड्राइव जब्त कर लिए। मुझे पूरी उम्मीद है कि दिल्ली पुलिस के जांचकर्ता टीआरएस टीम द्वारा तैयार किए गए सभी लेखों को ध्यान से और रुचि के साथ पढ़ेंगे। दिल्ली पुलिस ट्राईकॉन्टिनेंटल के लिए टीआरएस द्वारा तैयार किए गए एक भी महत्वपूर्ण लेख को छोड़ न दे, इसलिए यहां उनके लिए एक अध्ययन सूची पेश कर रहा हूँ:
1. भारत के सोलापुर ज़िले की कहानी, जहां सहकारी आवास समितियाँ मजदूरों के एक शहर का निर्माण कर रही हैं (डोसियर संख्या 6, जुलाई 2018)। बीड़ी बनाने वाली बालामणि अंबैया मेरगु ने टीआरएस के शोधकर्ताओं को बताया कि वो ‘सोलापुर शहर के शास्त्री नगर में एक झुग्गी बस्ती में छोटी सी झोपड़ी में रहती थीं। बरसात होने पर उनकी झोपड़ी से पानी टपकने लगता था और अंदर एक भी सूखा कोना नहीं बचता था‘। सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्स (सीटू) महाराष्ट्र राज्य के इस शहर में सन् 1992 से मजदूरों के लिए सम्मानजनक आवास बनाने का अभियान चला रहा है। और 2001 से, सीटू इस उद्देश्य के लिए सरकारी धनराशि का आवंटन सुनिश्चित करने और हजारों घरों का निर्माण करने में सक्षम रहा है। इस प्रक्रिया का नेतृत्व सहकारी आवास समितियों के ज़रिए मजदूरों ने खुद किया है। सीटू नेता नरसैया एडम ने टीआरएस को बताया कि मजदूरों ने ‘केवल मजदूर वर्ग के लिए एक शहर‘ बनाया है।
2. केरल ने लगभग एक सदी के सबसे भीषण जलप्रलय का कैसे मुकाबला किया (डोसियर संख्या 9, अक्टूबर 2018)। 2018 की गर्मियों में भारत के केरल राज्य में बारिश और उसके बाद आई बाढ़ से राज्य के 3.5 करोड़ निवासियों में से 54 लाख लोग प्रभावित हुए थे। टीआरएस शोधकर्ताओं ने बाढ़ की विभीषिका, वामपंथी व अन्य संगठनों से जुड़े संगठित स्वयंसेवकों द्वारा किए गए राहत व बचाव कार्यों तथा वाम लोकतांत्रिक मोर्चे की सरकार और अन्य सामाजिक संगठनों पुनर्वास के प्रयासों पर एक दस्तावेज़ तैयार किया था।
3. भारत के कम्युनिस्ट और 2019 का चुनाव: एक सशक्त विकल्प ही दक्षिणपंथ को हरा सकता है (डोसियर संख्या 12, जनवरी 2019)। 2019 के संसदीय चुनावों से पहले भारत के भीतर की राजनीतिक स्थिति को समझने के लिए, टीआरएस की टीम ने भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नेता बृंदा करात से बातचीत की थी। करात ने अपनी बात केवल चुनावी या राजनीतिक क्षेत्र तक सीमित रखने के बजाय, एक
समाजशास्त्रीय स्तर पर देश के सामने खड़ी चुनौतियों पर चर्चा की: ‘पूंजीवाद और बाजार द्वारा प्रचारित संस्कृतियाँ व्यक्तिवाद को बढ़ावा देती हैं और उसका महिमामंडन करती हैं और व्यक्तिवादी समाधानों को बढ़ावा देती हैं। ये सभी प्रक्रियाएँ युवाओं की एक पूरी पीढ़ी के गैर–राजनीतिकरण को बढ़ावा दे रही हैं। यह निश्चित रूप से एक चुनौती है: कि युवाओं तक अपना संदेश पहुंचाने के प्रभावी तरीके कैसे खोजे जाएँ।‘
4. श्रमिकों को संगठित करना ही एकमात्र जवाब है (डोसियर संख्या 18, जुलाई 2019)। अप्रैल–मई 2019 में, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने भारत के संसदीय चुनावों में जीत हासिल की। टीआरएस टीम ने चुनावों के बाद सीटू की अध्यक्षा के. हेमलता से मुलाकात कर देश में समय–समय पर हो रही व्यापक हड़तालों, जैसे लगभग 30 करोड़ श्रमिकों की वार्षिक आम हड़ताल, आदि के बारे में बात की। अन्य देशों में श्रमिक वर्ग के आंदोलन औपचारिक रोजगार ख़त्म होने और और काम की बढ़ती अनिश्चितता के कारण कमजोर होते दिख रहे थे, लेकिन भारत में यूनियनें दृढ़ता का प्रदर्शन कर रही थीं। हेमलता ने बताया कि ‘ठेका कर्मचारी बहुत जुझारू हैं‘ और सीटू ठेका कर्मचारियों और स्थायी कर्मचारियों की मांगों के बीच अंतर नहीं करती है। उन्होंने कहा, इसका सबसे अच्छा उदाहरण आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं, जो – मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा वर्करों) के साथ – कई प्रमुख आंदोलनों में सबसे आगे रही हैं। बाल देखभाल और स्वास्थ्य देखभाल, इन दोनों क्षेत्रों में मुख्यत: महिलाएँ ही काम करती हैं। हेमलता ने टीआरएस को बताया, ‘मजदूर वर्ग की महिलाओं को संगठित करना मजदूर वर्ग को संगठित करने का अहम हिस्सा है।‘
5. ग्रामीण भारत पर नवउदारवादी हमला (डोसियर संख्या 21, अक्टूबर 2019)। ग्रामीण भारत पर रिपोर्टिंग करने वाले सबसे महत्वपूर्ण पत्रकारों में से एक और ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के वरिष्ठ साथी पी. साईनाथ ने भारत के किसानों के सामने खड़े नवउदारवादी नीतियों व जलवायु आपदा के संकट के प्रभाव की पड़ताल की। उन्होंने केरल में 45 लाख महिला किसानों से बनी सहकारी समिति कुडुम्बश्री के बारे में लिखा, जिसे वे ‘दुनिया में लैंगिक न्याय और गरीबी उन्मूलन का सबसे बड़ा कार्यक्रम‘ कहकर संबोधित करते हैं (इस सहकारी समिति के बारे में हम आने वाले महीनों में हम टीआरएस के अध्ययन के आधार पर एक विस्तृत लेख संकलित करके प्रकाशित करेंगे)।
6. जनता के पॉलीक्लिनिक: तेलुगु कम्युनिस्ट आंदोलन की पहल (डोसियर संख्या 25, फरवरी 2020)। भारत के तेलुगु भाषी हिस्सों (जहां 8.4 करोड़ से ज़्यादा लोग रहते हैं) में कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े डॉक्टरों ने श्रमिक वर्ग और किसानों को स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए क्लीनिक और अस्पताल खोले हैं। इनमें विशेष रूप से ज़िक्र आता है नेल्लोर पीपुल्स पॉलीक्लिनिक का। पॉलीक्लिनिकों ने न केवल स्वास्थ्य सेवा प्रदान की है, बल्कि ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को दूर करने के लिए चिकित्साकर्मियों को प्रशिक्षित भी किया है। यह दस्तावेज़ वामपंथी चिकित्सा कर्मियों के काम की एक झलक प्रदान करता है। सुर्खियों से दूर इन वामपंथी चिकित्सा कर्मियों के प्रयास सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में प्रयोगों के माध्यम से निजीकरण के एजेंडे के खिलाफ सफल विकल्प तैयार कर रहे हैं।
7. भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के एक सौ साल (डोसियर संख्या 32, सितंबर 2020)। 1917 की अक्टूबर क्रांति ने ज़ार साम्राज्य को घुटनों पर ला दिया।इसके कुछ ही समय बाद, बॉम्बे के एक उदारवादी अखबार ने लिखा कि, ‘सच्चाई यह है कि बोल्शेविज्म लेनिन या किसी व्यक्ति मात्र का आविष्कार नहीं है। यह उस आर्थिक व्यवस्था का निष्ठुर उत्पाद है जो लाखों लोगों को अनुचित परिश्रम का जीवन जीने के लिए बाध्य करती है ताकि कुछ हजार लोग विलासिता का आनंद उठा सकें।‘ दूसरे शब्दों में, कम्युनिस्ट आंदोलन पूंजीवाद की खामियों और विफलताओं का उत्पाद है। 17 अक्टूबर 1920 को, भारत के विभिन्न हिस्सों में उभर रहे, लेकिन बिखरे हुए, कम्युनिस्ट समूहों को मिलाकर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ था। इस संक्षिप्त लेख में, टीआरएस की टीम ने पिछली एक शताब्दी के दौरान भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की भूमिका का ब्यौरा पेश किया है।
8. भारत में किसान विद्रोह (डोसियर संख्या 41, जून 2021)। 1995 और 2014 के बीच, भारत में लगभग 300,000 किसानों ने आत्महत्या की थी – यानी लगभग हर 30 मिनट में एक किसान की आत्महत्या। इसका मुख्य कारण लागत का बढ़ना और फसलों की क़ीमतों में गिरावट रही। और यह हालत 1991 के बाद से नवउदारवादी कृषि नीतियों और अन्य संकटों (जलवायु आपदा सहित) के बढ़ने से और भी बदतर हो गई है। हालाँकि, पिछले दशक में, किसानों ने किसानों व खेत–मजदूरों की यूनियनों के नेतृत्व में देश भर में बड़ी लामबंदी के साथ लड़ाई लड़ाइयाँ छेड़ी हैं। जब सरकार ने 2020 में ग्रामीण भारत के निजीकरण को गहरा करने के उद्देश्य वाले तीन बिल पेश किए, तो किसानों, खेत–मजदूरों और उनके परिवारों ने बड़े पैमाने पर विरोध शुरू कर दिया। यह दस्तावेज़ इन विरोध प्रदर्शनों के केंद्र में रहे बड़े मुद्दों का बेहतरीन सारांश पेश करता है।
9. समानता की कठिन राह पर भारत की महिलाएँ (डोसियर संख्या 45, अक्टूबर 2021)। पितृसत्ता, अर्थव्यवस्था और संस्कृति में इतनी गहरी जड़ें जमा कर बैठी है कि इसे केवल न्यायिक निर्णय द्वारा पराजित नहीं किया जा सकता है। इस वास्तविकता के बीच, यह डोसियर समानता के हक़ में भारत के महिला आंदोलन की एक झलक पेश करता है और लोकतंत्र की रक्षा करने, धर्मनिरपेक्षता को अक्षुण्ण रखने, महिलाओं के आर्थिक अधिकारों के लिए लड़ने और हिंसा का अंत करने के उद्देश्य से देश भर में कामकाजी महिलाओं द्वारा किए गए संघर्षों को दर्शाता है। डोसियर निम्नलिखित मूल्यांकन के साथ समाप्त होता है: ‘मौजूदा भारतीय किसान आंदोलन, जो महामारी से पहले शुरू हुआ था और लगातार मजबूत बना हुआ है, राष्ट्रीय चर्चा को ऐसे एजेंडे की ओर ले जाने का अवसर प्रदान करता है। ग्रामीण महिलाओं की जबरदस्त भागीदारी, जो विभिन्न राज्यों से यात्रा करके राष्ट्रीय राजधानी की सीमाओं पर कई दिनों तक बैठी रहीं, एक ऐतिहासिक घटना है। किसान आंदोलन में उनकी उपस्थिति महामारी के बाद यानी भविष्य के महिला आंदोलन के प्रति आशा प्रदान करती है।
10. जनता का स्टील कारख़ाना: विशाखापत्तनम में निजीकरण के खिलाफ जारी संघर्ष की एक अनूठी दास्तान (डोसियर संख्या 55, अगस्त 2022)। टीआरएस टीम द्वारा तैयार किए गए लेखों में से यह लेख मुझे विशेष रूप से पसंद है। यह डोसियर राष्ट्रीय इस्पात निगम लिमिटेड के मजदूरों की कहानी बताता है, जिन्होंने इस सार्वजनिक इस्पात कंपनी के निजीकरण के लिए सरकार द्वारा की गई कोशिशों के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी है। बहादुर इस्पात श्रमिकों के संघर्ष के बारे में ज्यादा नहीं लिखा गया है। इन श्रमिकों को अक्सर भुला दिया जाता है या यदि याद किया भी जाता है तो बदनाम करते हुए। वे भट्टियों के पास खड़े होते हैं, स्टील को रोल करते हैं, उसे टेम्पर करते हैं, वे किसानों के लिए बेहतर नहरें बनाना चाहते हैं, स्कूलों और अस्पतालों के लिए बीम बनाना चाहते हैं, और बुनियादी ढांचे का निर्माण करना चाहते हैं ताकि उनका समुदाय मानवता के सामने खड़ी समस्याओं को पार कर सके। वो अपने गीत से ललकारते हैं कि यदि आप कारखाने का निजीकरण करने का प्रयास करोगे, तो ‘विशाखा शहर स्टील भट्टी में बदल जाएगा, उत्तरी आंध्र युद्ध के मैदान में… हम अपने स्टील की रक्षा अपने जीवन से करेंगे।‘
11. संघर्ष की समरभूमि में ज्ञान का सृजन: एक बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए समर्पित अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की एक कार्यकर्त्री का साक्षात्कार (डोसियर संख्या 58, नवंबर 2022)। जनता का स्टील कारख़ाना डोसियर स्टील श्रमिकों के साथ बातचीत के आधार पर तैयार किया गया था और टीआरएस की विकासशील कार्यप्रणाली को दर्शाता है। इसी कड़ी में टीआरएस की टीम ने आर. चंद्रा से मुलाकात कर उनसे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (ऐडवा) द्वारा तमिलनाडु में प्रयोग किए गए शोध के तरीकों पर बात की। चंद्रा ने बताया कि ऐडवा ने किस प्रकार सर्वेक्षण तैयार किए, स्थानीय आबादी के बीच सर्वेक्षण करने के लिए स्थानीय कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया और कार्यकर्ताओं को परिणामों का आकलन करना सिखाया। उन्होंने टीआरएस की टीम से से कहा कि , ‘AIDWA की सदस्याओं को अब किसी प्रोफ़ेसर के मदद की आवश्यकता नहीं रही है। जब वो कोई मुद्दा उठाती हैं तो वो अपने सवालों को खुद ही तैयार करती हैं और खुद ही सर्वेक्षण करती हैं। अध्ययन के महत्व को जानने वाली ये महिलाएँ AIDWA के स्थानीय कार्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गयी हैं। ये महिलाएँ शोधकार्यों का उपयोग संगठन के अभियानो में करती हैं, हमारी विभिन्न समितियों में इनके निष्कर्षों पर चर्चा करती हैं और इन्हें हमारे विभिन्न सम्मेलनों में प्रस्तुत करती हैं।‘ इस प्रकार के शोध भेदभाव की विशिष्टताओं को उजागर कर उनके बारे में तो समझ पैदा करते ही हैं, इसके अलावा इस प्रकार का शोध कार्यकर्ताओं को उनके संघर्षों के लिए ‘नए बुद्धिजीवी‘ और उनके समुदायों में नेता बनने के लिए भी प्रशिक्षित करता है।
12. हाशिए पर खड़ा भारत का कामगार वर्ग (डोसियर संख्या 64, मई 2023)। महामारी के शुरुआती दिनों में, भारत सरकार ने लाखों मजदूरों को अपने घर (अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में) वापस जाने का फरमान जारी कर दिया था। लोग चिलचिलाती धूप में हज़ारों किलोमीटर पैदल अपने अपने गाँवों की ओर चल पड़े, मौत और निराशा की भयानक कहानियाँ उनके पीछे चलने लगीं। टीआरएस की टीम लंबे समय से भारत के श्रमिकों की अनिश्चित काम की परिस्थितियों पर लिखना चाहती थी, और महामारी के शुरुआती दिनों में ही अनिश्चितता की भयावह सच्चाई सबके सामने आने लगी थी। इस लेख का अंतिम भाग मजदूरों के संघर्षों को दर्शाता है: ‘मजदूरों अथवा यूनियनों ने वर्ग संघर्ष का आविष्कार नहीं किया। पूंजीवादी व्यवस्था में वर्ग संघर्ष जिंदगी की हकीकत होती है। …अगस्त 1992 में, बॉम्बे के कपड़ा मजदूर अपने अंतर्वस्त्र पहनकर सड़कों पर उतर गए और घोषणा की कि नया आदेश उनको गरीबी के दलदल में धकेल देगा। उनकी प्रतीकात्मक भंगिमा इक्कीसवीं सदी के भारतीय मजदूरों की हकीकत को प्रतिबंबित करती है: पूंजी की बढ़ती शक्ति के बावजूद उन्होंने अपने हथियार नहीं डाले हैं। उनका वर्ग संघर्ष जिंदगी से लबरेज़ है‘।
टीआरएस कार्यालय से सामग्री लेकर गए दिल्ली पुलिस जांचकर्ताओं के हाथ में ये सभी बारह दस्तावेज हैं । मेरा सुझाव है कि वे इन सभी लेखों का प्रिंट निकालें और पुलिस आयुक्त संजय अरोड़ा सहित बाकी बल के साथ साझा करें। यदि दिल्ली पुलिस चाहे, तो मुझे उनके लिए हमारे लेखों ओर आधारित एक सेमिनार आयोजित करने में खुशी होगी।
अध्ययन और संघर्ष से ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को आकार मिला था। उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी बहुत पढ़ते थे और उन्होंने प्लेटो की ‘द अपोलॉजी‘ का गुजराती में अनुवाद भी किया है। गांधी को यह विश्वास था कि पढ़ने और अध्ययन करने से न केवल संघर्ष करने की बल्कि एक बेहतर दुनिया बनाने की उनकी समझ भी बेहतर होती है।
स्नेह–सहित,
विजय