प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
अर्जेंटीना के राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार जेवियर माइली की जीत हुई। चुनाव से पहले माइली ने एक वाइट बोर्ड के सामने अपना एक वीडियो बनाकर डाला था, जो वायरल हो गया। इनमें से एक बोर्ड के ऊपर अर्जेंटीना के विभिन्न मंत्रालयों, जैसे स्वास्थ्य मंत्रालय, शिक्षा मंत्रालय, महिला एवं लैंगिक विविधता मंत्रालय, लोक निर्माण मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय आदि के नाम चिपकाए गए थे। ऐसे संस्थान आधुनिक राज्य–प्रणाली के सामान्य हिस्सों के रूप में देखे जाते हैं। माइली उक्त वीडियो में इस बोर्ड के आगे से चलते हुए अफ़ुएरा (बाहर निकलो) बोलकर मंत्रालयों के नाम हटा रहे थे; यह कहते हुए कि अगर वो राष्ट्रपति चुने गए, तो इन मंत्रालयों को ख़त्म कर देंगे। माइली ने आधुनिक राज्य–प्रणाली के प्रमुख तत्व ख़त्म करने के साथ ही व्यवस्था को तबाह करने पर ज़ोर दिया। वो अक्सर अपने प्रचार अभियानों में हाथ में आरा (chainsaw) लिए दिखे।
उक्त वीडियो और माइली के पैंतरों पर जनता की प्रतिक्रिया अर्जेंटीना के मतदाताओं की ही तरह बंटी हुई थी। आधी आबादी ने माइली के एजेंडे को पागलपन की तरह देखा, जो वास्तविकता व तर्क से दक्षिणपंथ की दूरी को दर्शाता है, और बाकी आधी जनता ने भयावह गरीबी तथा मुद्रास्फीति में धँसे देश को बदलने के लिए इसे एक जरूरी एवं साहसिक उपाय की तरह देखा। माइली ने पिछली सरकार के वित्त मंत्री – सर्जियो मस्सा – के ख़िलाफ़ बड़ी जीत हासिल की है। दशकों से अस्थिरता से जूझ रही अर्जेंटीना की जनता को मस्सा का बासी सेंटरवादी, स्थिरता का वादा पसंद नहीं आया।
अर्जेंटीना की अर्थव्यवस्था के पतन को रोकने के लिए माइली द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव न तो बाक़ियों से अलग हैं, और न ही व्यावहारिक।
अर्थव्यवस्था का डॉलरीकरण, राजकीय कार्यों का निजीकरण, और मज़दूर संगठनों का दमन – ये सभी नव–उदारवाद के मितव्ययिता [कटौती] एजेंडे के वो महत्वपूर्ण घटक हैं, जिनसे पिछले कई दशकों से दुनिया बेहाल है। हम अलग–अलग नीतियों पर पर माइली का विरोध करते हुए हम दुनिया भर में दक्षिणपंथ के उभार को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। ये मायने नहीं रखता कि दुनिया की वास्तविक समस्याओं को हल करने के लिए वो कौन से प्रस्ताव पेश कर रहे हैं। बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि वो उन प्रस्तावों को पेश कैसे करते हैं। माइली (या ब्राज़ील के पूर्व राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो, भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प) जैसे राजनेताओं के नीतिगत प्रस्ताव जनता को आकर्षित नहीं करते। उनके प्रस्तुतीकरण की शैली – दक्षिणपंथ की शैली, जनता को मोह लेती है। माइली जैसे नेता अपने देश के लिए बेहतरीन समाधानों का वादा करते हैं। उनके निर्भीक व्यवहार से समाज उत्तेजित हो जाता है। उनके हमले अक्सर भविष्य के लिए बेहतर योजना में लिपटे ‘जुमले‘ के रूप में सामने आते हैं।
एक समय था जब अंतर्राष्ट्रीय मध्यम वर्ग को सुविधा पसंद थी: मध्यम वर्ग को ट्रैफिक जाम और लंबी कतारों की असुविधा से नफरत थी, अपनी पसंद के स्कूलों में अपने बच्चों को दाखिला दिलवा पाने की असमर्थता से नफ़रत थी, और सांस्कृतिक रूप से दूसरों व कामकाजी समाज से भद्र दिखने के लिए उपभोग की वस्तुएँ कर्ज़ लेकर भी न ख़रीद पाने की स्थिति से नफ़रत थी। यदि मध्यम वर्ग को असुविधा नहीं होती, तो यह वर्ग – जो अधिकांश उदार लोकतंत्रों में मतदान को प्रभावित करता है – स्थिरता के वादों से संतुष्ट रहता। लेकिन जब पूरी व्यवस्था किसी न किसी प्रकार की असुविधाओं से घिरी हो – जिसमें मुद्रास्फीति एक बड़ी असुविधा है – तब स्थिरता का वादा खोखला लगता है। अर्जेंटीना में, चुनाव की शुरुआत में मुद्रास्फीति की दर 142.7% थी। माइली के प्रतिद्वंद्वी की तरह राजनीति में सेंटर की ताक़तों को अपने देशों के सामने खड़ी चुनौतियों के बावजूद स्थिरता के वादे करने की आदत हो गई है। ये धीरे–धीरे स्थिति को ठीक करने के अलावा कोई बात नहीं करते। ऐसी परिस्थिति में मध्यम वर्ग को कायरता पसंद नहीं आती, मजदूरों और किसानों की बात तो छोड़ ही दें। बड़े व्यापारियों के लिए कराधान से आज़ादी और आम जनता के लिए जीवन–यापन में मामूली बेहतरी जैसे उपायों की बजाय लोग एक साहसिक दृष्टिकोण ढूँढ रहे हैं।
कायरता का संदर्भ केवल इस समय ज़ोरदार दिख रही राजनीतिक ताक़त के चरित्र तक सीमित नहीं है। यदि ऐसा होता, तो ज़ोर–ज़ोर से चिल्लाकर सेंटर–लेफ़्ट और लेफ़्ट की ताक़तें भी ज़्यादा वोट बटोर लेतीं। असल में सेंटर–लेफ़्ट ताक़तों के राजनीतिक कार्यक्रम में कायरता घर कर गई है। इसका कारण है वो तनाव और दबाव जिनसे समाज का मानसिक ह्रास हुआ है। रोजगार की अनिश्चितता, देखभाल के प्रावधान से सरकारों का पीछे हटना, फ़ुरसत की गतिविधियों (leisure) का निजीकरण, शिक्षा का वैयक्तिकरण आदि से गंभीर सामाजिक समस्याएँ पैदा हुई हैं। इसके ऊपर से जलवायु परिवर्तन और क्रूर युद्धों से खड़ी हुई समस्याएँ हैं। इस परिस्थिति ने सेंटर–लेफ़्ट के बड़े हिस्से को पतनशील सभ्यता के प्रबंधक की नई राजनीतिक भूमिका अपनाने को मजबूर कर दिया है। (हमारा हालिया डोसियर What Can We Expect from the New Progressive Wave in Latin America? भी इस बात की तरफ इशारा करता है)। समाज की समस्याओं को हल करने में सरकारों की विफलता के कारण जनता के बड़े हिस्से का राजनीति से ही विश्वास उठ गया है।
बजट कटौतियों की दुनिया में पली दो पीढ़ियों ने तकनीकी विशेषज्ञों को उनकी सामाजिक स्थिति में सुधार के नाम पर नवउदारवादी आर्थिक विकास का झूठ बेचते देखा है। आज जब कोई विशेषज्ञ धुर दक्षिणपंथियों द्वारा प्रचारित आर्थिक नीतियों के प्रति आगाह करता है तो अब वो उन पर विश्वास कैसे कर लें? इसके अलावा, शिक्षा प्रणालियों का क्षरण हुआ है और जनसंचार माध्यम चिल्ल–पों में बदल गए हैं। यानी हमारे समाज की समस्याओं व उन समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक समाधानों के बारे में गंभीर सार्वजनिक चर्चा की बहुत कम जगहें बची हैं। बेसिर–पैर के वादे किए जा रहे हैं, बेसिर–पैर की नीतियाँ लागू की जा रही हैं। इन नीतियों के विनाशकारी परिणाम – जैसा नोटबंदी – के बावजूद उन्हें सफलता के रूप में प्रचारित किया जाता है और नेता की होशियारी का जश्न मनाया जाता है।
नवउदारवाद ने दुनिया की ज़्यादातर आबादी के लिए मुश्किलें बढ़ाने के साथ–साथ बौद्धिकता–विरोधी (anti-intellectualism) और लोकतंत्र–विरोधी (anti-democratisation) भावनाओं को बढ़ावा दिया है। यानी अब विशेषज्ञ और विशेषज्ञता के साथ–साथ गंभीर, लोकतांत्रिक सार्वजनिक शिक्षा व चर्चा की मृत्यु हो चुकी है। माइली की जीत, माइली के व्यक्तित्व की नहीं बल्कि एक सामाजिक प्रक्रिया का नतीजा है। और यह प्रक्रिया अर्जेंटीना ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में जारी है।
नवउदारवाद के तहत लागू निजीकरण और पण्यीकरण (commodification) ने भ्रष्टाचार तथा अपराध की जुड़वा समस्याओं के लिए सटीक सामाजिक परिस्थितियाँ उत्पन्न की हैं। निजी उद्यम के विनियमन और सरकारी कार्यों के निजीकरण ने राजनीतिक वर्ग और पूंजीपति वर्ग के बीच संबंध गहरा कर दिया है। उदाहरण के लिए राज्य द्वारा निजी उद्यमों को ठेका देने और नियम–कानूनों में कटौती करने से रिश्वत, दलाली और ट्रान्स्फ़र पेमेंट आदि ढाँचों के लिए अपार रास्ते खुल गए हैं।। इसके साथ ही, जीवन की बढ़ती अनिश्चितता और सामाजिक कल्याण ज़िम्मेदारियों से सरकारों के पीछे हटने से नशाखोरी समेत अन्य अपराध भी बढ़े हैं। (ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ड्रग्स के ख़िलाफ़ युद्ध (war on drugs) तथा साम्राज्यवाद के दूसरे नशों पर एक शोध कर रहा है, जिसे हम जल्द ही आपके सामने लाएँगे)। नवउदारवादी नीति के परिणामस्वरूप पैदा हुई ये समस्याएँ – भ्रष्टाचार और अपराध – सभी वर्गों की समस्याएँ हैं, और समाज पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं।
दक्षिणपंथ का इन समस्याओं से लगाव का कारण इनको हल करने में नहीं, अपितु इनके माध्यम से दो परिणामों को हासिल करने में निहित है::
- पूंजीवादी कंपनियों के भ्रष्टाचार को नज़रअंदाज़ करके सिर्फ राजकीय अधिकारियों के भ्रष्टाचार पर हमला करके, दक्षिणपंथी सामाजिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में राज्य का अवमूल्यन करने में कामयाब रहे हैं।
- अपराध के प्रति समाज में आम बेचैनी को भुनाकर, दक्षिणपंथी राजकीय प्रणाली के घोर निंदक होने के बावजूद, गरीब समुदायों तथा उनके प्रतिनिधित्व की तमाम गतिविधियों का अपराधीकरण करने के लिए राज्य के हर संभव उपकरण का इस्तेमाल करते हैं। हमले का यह रूप बढ़कर मजदूर वर्ग और गरीबों की आवाज उठाने वाले किसी भी व्यक्ति/समूह के खिलाफ राज्य की शक्ति के सामान्य उपयोग में बदल जाता है। फिर पत्रकारों से लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, वामपंथी विचारकों से लेकर स्थानीय नेताओं आदि के ख़िलाफ़ राजकीय शक्ति का इस्तेमाल आम हो जाता है।
‘भ्रष्टाचार‘ और ‘अपराध‘ की अवधारणाओं को दक्षिणपंथी जिस ग़लत तरह से पेश करके उनका शस्त्रीकरण कर रहे हैं, उससे वामपंथ को बड़ा नुकसान हुआ है। पुराने सामाजिक लोकतंत्र और पारंपरिक उदारवाद दोनों के दक्षिणपंथ के साथ घनिष्ठ संबंध हैं, क्योंकि इन मुद्दों पर वे दक्षिणपंथ के दृष्टिकोण से बिलकुल असहमत नहीं हैं। वे अगर किसी बात से असहमत होते हैं तो वह है दक्षिणपंथ का उग्र हिंसक रूप। इसलिए जब इन मुख्य मुद्दों पर संघर्ष की बात आती है, तो वामपंथ के पास कुछ ही राजनीतिक सहयोगी बचते हैं। यानी नवउदारवादी नीति से उपजे भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ते हुए भी वामपंथ को राजकीय प्रणाली का बचाव करना पड़ता है। इसके साथ ही रोजगार व सामाजिक कल्याण के पतन के कारण श्रमिक वर्ग में बढ़ते अपराध की वास्तविक समस्या के बावजूद वामपंथियों को श्रमिक वर्ग की रक्षा करनी पड़ती है। आम बहस भ्रष्टाचार और अपराध की सतही उपस्थिति के इर्द–गिर्द बुनी जाती है। लेकिन बहस को आगे बढ़ा कर इन वास्तविक समस्याओं की नवउदारवादी जड़ों की पड़ताल करने की अनुमति नहीं होती है।
जब अर्जेंटीना के चुनावी नतीजे सामने आए, तो मैंने ब्यूनस आयर्स और ला प्लाटा में अपने सहयोगियों से वर्तमान भावनाओं को बयान करने वाले कुछ गाने भेजने के लिए कहा। इस बीच, मैंने ‘हार‘ और ‘पराजय‘ जैसे विषयों पर अर्जेंटीना से लिखी गई कविताएँ पढ़ीं (मैं विशेष रूप से जुआना बिग्नोजी, 1937-2015, की कविताओं से प्रभावित हुआ)। लेकिन मेरे सहयोगी नहीं चाहते थे कि मैं उनमें से कोई कविता इस न्यूज़लेटर में शामिल करूँ। वो चाहते थे कि कोई ऐसी मुकम्मल और ठोस कला शामिल की जाए जो इस घड़ी में वामपंथ की प्रतिक्रिया को बखूबी बयान कर सके। रैपर ट्रूनो (जिनका जन्म 2002 में हुआ था) और गायक विक्टर हेरेड्रिया (जिनका जन्म 1947 में हुआ था) ने उम्र की सीमा और गायन शैलियों का बंधन तोड़ कर एक वीडियो गीत ‘टिएरा ज़ांता (पवित्र धरती) बनाया था। यह गीत उस मूड को पूर्ण रूप से दर्शाता है। अर्जेंटीना के इस गीत को सुनें:
मैं दुनिया में आया था अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए।
मैं इस युद्ध में शांतिपूर्ण रक्षक हूं।
मैं लड़ते हुए मर जाऊँगा, वेनेज़ुएला के दृढ़ नागरिकों की तरह।
मैं अटाकामा, गुआरानी, कोया, बारी और टुकानो हूँ।
अगर वो मेरे देश को दबाना चाहते हैं, तो हम इसे अपनी बाजुओं पर उठा लेंगे।
हम इंडीयंज़ ने अपने हाथों से साम्राज्य बनाए थे।
क्या तुम्हें भविष्य से नफरत है? मैं और मेरे भाई–बहन
अलग–अलग माता–पिता से आए, लेकिन हम अलग नहीं हैं।
मैं कैरेबियन की आग हूँ और पेरू का योद्धा हूँ।
और मैं हमें ज़िंदा रखने वाली हवा के लिए ब्राजील का आभारी हूँ।
कभी मैं हार जाता हूँ। [और] कभी जीतता हूँ।
पर जिस मातृभूमि से मैं प्यार करता हूँ उसके लिए मरना व्यर्थ नहीं जाएगा।
और यदि कोई बाहरी पूछे कि मेरा नाम क्या है:
तो ‘लैटिन‘ है मेरा नाम और ‘अमेरिका‘ कुलनाम।
स्नेह–सहित,
विजय।