प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
7 अक्टूबर के बाद से हर दिन फ़िलीस्तीनी लोगों के साथ एकजुटता के अंतर्राष्ट्रीय दिवस की तरह महसूस हो रहा है। इस्तांबुल, जकार्ता और अफ़्रीका तथा लैटिन अमेरिका में लाखों लोग इस्राइल द्वारा (संयुक्त राज्य अमेरिका की मिलीभगत से) की जा रही इस क्रूरता को समाप्त करने की मांग कर रहे हैं। विरोध प्रदर्शन लगातार बढ़ रहे हैं और लोग राजनीतिक दलों व सरकारों पर फ़िलिस्तीन के ख़िलाफ़ इस्राइली हमले के बारे में अपना रुख स्पष्ट करने के लिए दबाव डाल रहे हैं। इन जन–प्रदर्शनों से तीन प्रकार के परिणाम उत्पन्न हुए हैं:
- इन प्रदर्शनों ने एक नई पीढ़ी को फ़िलिस्तीन–समर्थक गतिविधि में शामिल किया है और उनमें साम्राज्यवाद–विरोधी नहीं भी तो कम से कम युद्ध–विरोधी चेतना विकसित की है।
- इन प्रदर्शनों ने नए एक्टिविस्टों, विशेष रूप से ट्रेड यूनियनवादियों, को विरोध–कारवाइयों के लिए प्रेरित किया है, जो यूरोप और भारत जैसे देशों में, इस्राइल से आने वाले और इस्राइल जा रहे माल जहाज़ों को रोक रहे हैं, जबकि उनकी सरकारों ने इस्राइल के हमलों का समर्थन किया है।
- इन प्रदर्शनों ने पश्चिमी नेतृत्व वाले ‘नियम–आधारित अंतर्राष्ट्रीय क्रम‘ (rules-based international order) के पाखंड को चुनौती देने के लिए एक राजनीतिक प्रक्रिया तैयार की है, जिसके तहत यह मांग की जा रही है कि अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय इस्राइल के प्रधान मंत्री बेंजामिन नेतन्याहू व अन्य वरिष्ठ इस्राइली सरकारी अधिकारियों को दोषी ठहराए।
हाल के वर्षों का कोई भी युद्ध – यहां तक कि 2003 में इराक के खिलाफ संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा इस्तेमाल किया गया ‘शॉक एंड ऑ‘ अभियान भी – बल के उपयोग में इतना क्रूर नहीं रहा है। सबसे भयावह वास्तविकता यह है कि इस्राइली कब्जे से प्रभावित नागरिकों के पास भारी बमबारी से बचने का कोई रास्ता नहीं है। मारे गए 14,000 नागरिकों में से लगभग आधे (कम से कम 5,800) बच्चे हैं। इस्राइल का कोई भी प्रचार दुनिया भर के अरबों लोगों को यह समझाने में सक्षम नहीं हुआ है कि यह हिंसा 7 अक्टूबर के हमले के बदले में की गई एक उचित कारवाई है। ग़ज़ा से आ रही तस्वीरें पिछले पचहत्तर वर्षों से जारी इस्राइल की हिंसा की असंगत और विषम प्रकृति को दर्शाती हैं।
दक्षिणी गोलार्ध के अरबों लोगों के बीच एक नई चेतना उभर रही है और उत्तरी गोलार्ध में भी लाखों लोग इसी तरह से जागृत हो रहे हैं। वे अब अमेरिकी नेताओं और उनके पश्चिमी सहयोगियों के रवैये को बर्दाश्त नहीं करते। यूरोपियन काउंसिल ऑफ फॉरेन रिलेशंस के एक नए अध्ययन से पता चलता है कि ‘बाकी दुनिया के अधिकांश लोग चाहते हैं कि यूक्रेन में युद्ध जल्द से जल्द बंद हो जाए, भले ही इसके लिए कीव को अपना क्षेत्र खोना पड़े। और अगर ताइवान को लेकर अमेरिका तथा चीन के बीच युद्ध छिड़ जाता है तो बहुत कम लोग – यहां तक कि यूरोप में भी बहुत कम लोग – वाशिंगटन का पक्ष लेंगे।‘ काउंसिल के अनुसार इसका कारण है ‘दुनिया को व्यवस्थित करने के लिए पश्चिम पर [लोगों के] विश्वास में आई कमी‘। ज़्यादा सटीक तरीक़े से कहें तो, दुनिया का अधिकांश हिस्सा अब पश्चिम से धमकियाँ सुनने को तैयार नहीं है (जैसा कि दक्षिण अफ़्रीका की विदेश मंत्री नलेदी पंडोर ने कहा है)। पिछले 200 वर्षों से अमेरिकी सरकार का मुनरो सिद्धांत उसकी बदमाशियों को उचित ठहराने में सहायक रहा है। विश्व व्यवस्था पर अमेरिकी प्रभुत्व को कायम रखने में इस प्रमुख नीति के महत्व को बेहतर ढंग से समझने के लिए, इस न्यूज़लेटर के बाकी हिस्सों में पढ़ें नो कोल्ड वार की ओर से जारी ब्रीफ़िंग नं. 11 “मुनरो सिद्धांत को दफनाने का समय आ गया है“।
1823 में, संयुक्त राज्य अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जेम्स मुनरो ने अमेरिकी कांग्रेस में कहा कि उनकी सरकार अमेरिकाओं में यूरोपीय हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करेगी। मुनरो का मतलब यह था कि वाशिंगटन, अब लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र को अपना ‘बैकयार्ड (अहाता)’ मानेगा। इसी नीति को मुनरो सिद्धांत के नाम से जाना जाता है।
पिछले 200 वर्षों से, संयुक्त राज्य अमेरिका अमेरिकाओं में इसी नीति के आधार पर काम कर रहा है। इसका उदाहरण हैं वो 100 से अधिक सैन्य हस्तक्षेप जो अमेरिका ने इस क्षेत्र में किए हैं। 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद से, अमेरिका और उत्तरी गोलार्ध में उसके सहयोगी इस नीति को वैश्विक मुनरो सिद्धांत के रूप में विस्तारित करने का प्रयास कर रहे हैं। इसका विस्तार सबसे ख़तरनाक रूप से पश्चिमी एशिया में हुआ है।
मुनरो सिद्धांत की हिंसा
दुनिया की सबसे पहली उपनिवेशवाद–विरोधी क्रांति मुनरो की उद्घोषणा से दो दशक पहले हैती में हुई थी। 1804 की हैती क्रांति ने अमेरिका की बागान अर्थव्यवस्थाओं – जो अफ़्रीका से लाए गए गुलामों के श्रम पर निर्भर थीं – के लिए एक गंभीर खतरा पैदा कर दिया, और इसलिए अमेरिका ने इसे दबाने और इसे फैलने से रोकने की प्रक्रिया शुरू की। अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप के माध्यम से मुनरो सिद्धांत ने लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र में राष्ट्रीय आत्मनिर्णय की प्रक्रियाओं के उदय को रोका और बाग़ान अर्थव्यवस्था में दासता को क़ायम रखने की क़वायद की तथा कुलीन वर्गों के वर्चस्व की रक्षा की।
इसके बावजूद, हैती क्रांति की भावनाओं को पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया जा सका, और 1959 में यह क्यूबा की क्रांति के रूप में फिर से उठ खड़ी हुई। क्यूबा की क्रांति ने दुनिया भर में और, सबसे महत्वपूर्ण रूप से, संयुक्त राज्य अमेरिका के तथाकथित बैकयार्ड में क्रांतिकारी संघर्षों को प्रेरित किया। एक बार फिर से, अमेरिका ने क्यूबा के क्रांतिकारी उदाहरण को नष्ट करने, उसे दूसरों का प्रेरणा–स्त्रोत बनने से रोकने, और लैटिन अमेरिका व कैरेबियन क्षेत्र में अपनी संप्रभुता का प्रयोग करने वाली सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए हिंसा का चक्र शुरू कर दिया।
हत्या, कैद, यातनाओं और सत्ता परिवर्तन आदि के माध्यम से वामपंथियों को हिंसक रूप से दबाने के लिए अमेरिका और लैटिन अमेरिकी कुलीन वर्गों ने मिलकर ऑपरेशन कोंडोर जैसे कई अभियान चलाए। इन अभियानों के कारण डोमिनिकन गणराज्य (1965), चिली (1973), उरुग्वे (1973), अर्जेंटीना (1976) और अल साल्वाडोर (1980) में वामपंथी ताकतों के खिलाफ एक के बाद एक तख़्तापलट हुए। इन तख़्तापलटों के बाद स्थापित हुईं सैन्य सरकारों ने इन देशों से संप्रभुता के एजेंडे को रद्द कर उसके स्थान पर नवउदारवादी परियोजना थोप दी। लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र अमेरिका के नेतृत्व वाली अंतरराष्ट्रीय एकाधिकार कंपनियों को लाभ पहुँचाने हेतु आर्थिक नीतियाँ तैयार करने के लिए उर्वर ज़मीन बन गए। वाशिंगटन ने क्षेत्र के पूंजीपति वर्ग के बड़े हिस्से को अपने साथ मिला लिया, जिसके लिए उन्हें यह भ्रम बेचा गया कि अमेरिका की ताक़त के विकास के साथ ही उनके देशों में राष्ट्रीय विकास होगा।
प्रगतिशील लहरें
इस दमन के बावजूद, प्रगतिशील आंदोलनों की लहरें क्षेत्र की राजनीतिक संस्कृति को आकार देती रहीं। 1980 और 1990 के दशक के दौरान इन आंदोलनों ने ऑपरेशन कोंडोर द्वारा स्थापित सैन्य तानाशाही की सरकारों को उखाड़ फेंका, और 1998 में वेनेजुएला में ह्यूगो चावेज़ की चुनावी जीत से मिले नए उत्साह के साथ फिर से क्यूबा व निकारागुआ क्रांतियों से प्रेरित प्रगतिशील सरकारों के चक्र की शुरुआत की। इस प्रगतिशील उभार के बदले अमेरिका का जवाब एक बार फिर से मुनरो सिद्धांत से प्रेरित था, क्योंकि उसके लिए जनता की जरूरतों से पहले निजी संपत्ति के हितों को सुरक्षित करना जरूरी था। इस प्रतिक्रांति में मुख्य रूप से तीन उपकरणों का उपयोग हुआ:
- तख़्तापलट: 2000 के बाद से अमेरिका ने कम से कम सत्ताईस मौकों पर ‘पारंपरिक‘ सैन्य तख़्तापलट करने का प्रयास किया है। इनमें से कुछ प्रयास सफल रहे, जैसे कि होंडुरास (2009 में), जबकि कई अन्य प्रयास विफल रहे, जैसे कि वेनेजुएला (2002 में)।
- हाइब्रिड युद्ध: सैन्य तख़्तापलट के अलावा, अमेरिका ने संप्रभुता क़ायम करने का प्रयास कर रहे देशों पर हावी होने के लिए कई अन्य रणनीतियां भी विकसित की हैं, जैसे सूचना युद्ध, कानून का हथियार के रूप में इस्तेमाल, राजनयिक युद्ध और चुनावी हस्तक्षेप। इस हाइब्रिड युद्ध रणनीति में महाभियोगों का षड्यंत्र तैयार करना (उदाहरण के लिए, 2012 में पराग्वे के फर्नांडो लूगो के खिलाफ महाभियोग का मुक़द्दमा चलाया गया) और ‘भ्रष्टाचार–विरोधी‘ उपाय (जैसे कि 2021 में अर्जेंटीना की क्रिस्टीना किर्चनर के खिलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया) शामिल हैं। ब्राज़ील में, अमेरिका ने 2016 में तत्कालीन राष्ट्रपति डिल्मा रूसेफ पर महाभियोग चलाने और 2018 में पूर्व राष्ट्रपति लुइज़ इनासियो लूला दा सिल्वा को जेल में डालने के उद्देश्य से भ्रष्टाचार विरोधी मंच में हेरफेर करने के लिए ब्राज़ीलियाई दक्षिणपंथ के साथ काम किया, जिसके नतीजतन 2018 में धुर दक्षिणपंथी जेयर बोल्सोनारो को चुनाव में जीत मिली। .
- आर्थिक प्रतिबंध: आर्थिक प्रतिबंधों और नाकाबंदी सहित अवैध, एकतरफा क्रूर उपायों का उपयोग मुनरो सिद्धांत का एक प्रमुख घटक है। अमेरिका दशकों से (क्यूबा के मामले में 1960 से) ऐसे उपकरणों का उपयोग कर रहा है और इक्कीसवीं सदी में उसने वेनेजुएला व अन्य देशों के खिलाफ इनका उपयोग शुरू कर इन प्रतिबंधों का विस्तार किया है। लैटिन अमेरिकी रणनीतिक भू–राजनीति केंद्र (सीईएलएजी) ने दिखाया है कि वेनेजुएला के खिलाफ अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण 2013 से 2017 के बीच तीस लाख से अधिक नौकरियों का नुकसान हुआ, जबकि आर्थिक एवं नीति अनुसंधान केंद्र ने पाया कि इन प्रतिबंधों ने जनता के कैलोरी सेवन को घटाया है तथा जनता में बीमारियाँ व मृत्यु दर बढ़ाई हैं, जिनसे एक ही वर्ष में 40,000 लोगों की मौत हो गई जबकि 3,00,000 अन्य लोगों का जीवन खतरे में पाया गया।
मुनरो सिद्धांत का अंत हो
मुनरो सिद्धांत के तहत लैटिन अमेरिका में प्रगतिशील राजनीति को कमजोर करने के अमेरिकी प्रयास पूरी तरह से सफल नहीं रहे हैं। अमेरिका समर्थित दक्षिणपंथी शासन के बाद बोलीविया, ब्राज़ील और होंडुरास में वामपंथी सरकारों की सत्ता में वापसी इस विफलता को दर्शाती है। दूसरा उदाहरण है लगातार डटी रहीं क्यूबा और वेनेजुएला की क्रांतियाँ। दुनिया भर में मुनरो सिद्धांत का विस्तार करने के प्रयासों ने भारी विनाश किया है, लेकिन आज तक ये प्रयास स्थिर कठपुलती शासन स्थापित करने में विफल रहे हैं, जैसा कि हमने अफगानिस्तान और इराक में अमेरिकी परियोजनाओं की हार के साथ देखा था। इसके बावजूद वाशिंगटन पुरज़ोर कोशिशें कर रहा है और अब उसने चीन का मुकाबला करने के लिए अपना ध्यान एशिया–प्रशांत पर केंद्रित कर दिया है।
दो सौ साल पहले, सिमोन बोलिवार की सेना ने 1821 में काराबोबो की लड़ाई में स्पेनिश साम्राज्य को हराया था और लैटिन अमेरिका के लिए स्वतंत्रता का दौर शुरू किया था। उसके दो साल बाद, 1823 में, अमेरिकी सरकार ने अपने मुनरो सिद्धांत की घोषणा कर दी। काराबोबो तथा मुनरो के बीच का द्वंद्व आज भी दुनिया का आधार है, और बोलिवार की स्मृति न्यायपूर्ण समाज की आशा तथा उसके लिए संघर्ष को प्रेरित करती है।
आज ग़ज़ा पर जारी युद्ध की वीभत्सता हमारी चेतना का दम घोंट रही है। एओटेरोआ, न्यूज़ीलैंड के एक कवि एम. बेरी ने ग़ज़ा के नाम और रंगभेदी इस्राइल द्वारा उसके लोगों पर किए जा रहे अत्याचारों पर एक सुंदर कविता लिखी है:
आज सुबह मुझे पता चला
कि अंग्रेजी शब्द गॉज़
(बारीकी से बुना हुआ एक मेडिकल कपड़ा)
अरबी शब्द غزة या ग़ज़ा से आया है
क्योंकि ग़ज़ावासी सदियों से कुशल बुनकर रहे हैं
मुझे तब आश्चर्य हुआ
हमारे कितने ही घाव
भरे गए होंगे
उनके कारण
और उनके कितने
घाव खुले रह गए होंगे
हमारी वजह से
स्नेह–सहित,
विजय।