प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
9 से 15 अक्टूबर तक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) और विश्व बैंक ने अपनी वार्षिक संयुक्त बैठक में हिस्सा लिया। यह बैठक माराकेश (मोरक्को) में हुई। इससे पहले ये दोनों ब्रेटन वुड्स संस्थान अफ़्रीकी धरती पर 1973 में मिले थे, जब आईएमएफ़ और विश्व बैंक की बैठक नैरोबी (केन्या) में हुई थी। केन्या के तत्कालीन राष्ट्रपति जोमो केन्याटा (1897-1978) ने तब एकत्रित लोगों से आग्रह किया था कि वे ‘दुनिया पर मंडरा रही, मुद्रास्फीति और अस्थिरता की मौद्रिक बीमारी का शीघ्र इलाज खोजें।‘ केन्याटा, जो 1964 में केन्या के पहले राष्ट्रपति बने थे, ने कहा कि, ‘पिछले पंद्रह वर्षों से असमान व्यापार शर्तों के कारण कई विकासशील देश,प्रतिवर्ष अपनी वार्षिक आय का बड़ा हिस्सा गँवा रहे हैं।‘ विकासशील देश विश्व बाज़ार में कच्चे माल या प्राथमिक स्तर के संसाधित माल बेचते थे और महंगी तैयार वस्तुओं और ऊर्जा के लिए आयात पर निर्भर रहते थे। ऐसी स्थिति में अपने निर्यात की मात्रा बढ़ाकर भी वे व्यापार की नकारात्मक शर्तों पर क़ाबू नहीं पा सकते थे। केन्याटा ने यह भी कहा कि, ‘औद्योगिक देशों में हालिया मुद्रास्फीति के कारण विकासशील देशों को और अधिक नुक़सान हुआ है।‘
केन्याटा ने गुहार लगाई कि, ‘पूरी दुनिया की निगाहें आप पर टिकी हुई हैं। इसलिए नहीं कि बहुत से लोग समझते हैं कि आप किस बारे में चर्चा कर रहे हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि दुनिया आपसे उनके दैनिक जीवन को प्रभावित करने वाली समस्याओं के तत्काल समाधान की उम्मीद कर रही है।‘ केन्याटा की चेतावनियाँ अनसुनी कर दी गईं। नैरोबी में हुई बैठक के छह दशक बाद, आज भी क़र्ज़ और मुद्रास्फीति के कारण राष्ट्रीय आय का नुक़सान विकासशील देशों के लिए एक गंभीर समस्या बनी हुई है। लेकिन, आज की दुनिया पहले की तरह निगहबान नहीं है। अधिकांश लोगों को यह भी नहीं पता कि आईएमएफ़ तथा विश्व बैंक की मोरक्को में बैठक हुई थी, और बहुत कम लोग उनसे विश्व की समस्याओं का समाधान करने की उम्मीद रखते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि दुनिया भर के लोग यह जानते हैं कि ये संस्थान खुद ही पीड़ा के जनक हैं और अपने ही द्वारा पैदा की गई व बढ़ाई गई समस्याओं को हल करने की क्षमता इनके पास नहीं है।
मोरक्को की बैठक से पहले, ऑक्सफ़ैम ने एक बयान जारी कर ‘दशकों बाद उसी पुराने असफल संदेश –– कि बजट कटौती करें, सार्वजनिक सेवा में बहाल कर्मचारियों को बर्ख़ास्त करें, और भारी मानवीय लागत के बावजूद अपने क़र्ज़ का भुगतान करें –– के साथ अफ़्रीका लौटने’ के लिए आईएमएफ़ तथा विश्व बैंक की कड़ी आलोचना की। ऑक्सफ़ैम ने दक्षिणी गोलार्ध के देशों के सामने खड़े आर्थिक संकट पर प्रकाश डालते हुए बताया कि ‘दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में से आधे से अधिक (लगभग 57 प्रतिशत) देशों को, जहाँ 2.4 अरब लोग रहते हैं, अगले पाँच वर्षों में सार्वजनिक ख़र्च में कुल मिलाकर 229 अरब डॉलर की कटौती करनी पड़ेगी।‘ इसके अलावा ऑक्सफ़ैम ने यह भी बताया कि ‘निम्न तथा निम्न–मध्यम आय वाले देशों को अब से 2029 तक ब्याज और ऋण भुगतान के लिए प्रतिदिन लगभग आधा बिलियन डॉलर का भुगतान करना पड़ेगा।‘ हालाँकि आईएमएफ़ ने कहा है कि वह सार्वजनिक सेवाओं पर सरकारी ख़र्च में कटौती को रोकने के लिए ‘सामाजिक व्यय के स्तर‘ बनाने की योजना बना रहा है, लेकिन ऑक्सफ़ैम ने आईएमएफ़ के 27 ऋण कार्यक्रमों के विश्लेषण कर यह पाया है कि ‘ये [सामाजिक व्यय] स्तर पहले से भी बड़ी नवउदारवादी कटौतियों पर पर्दा डालने के लिए इस्तेमाल होते हैं: सरकारों को सार्वजनिक सेवाओं पर ख़र्च हेतु दिए जाने वाले प्रत्येक 1 डॉलर पर, आईएमएफ़ सरकारों से छह गुना अधिक कटौती करने को कहता है’। ह्यूमन राइट्स वॉच ने भी अपनी हालिया रिपोर्ट ‘बैंडेज ऑन अ बुलेट वूँड: आईएमएफ़ सोशल स्पेंडिंग फ़्लोर्स एंड सीओवीआईडी-19 पैंडेमिक’ में ‘सामाजिक ख़र्च के स्तर‘ के झूठ का पर्दाफ़ाश किया है।
ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर आईएमएफ़ के प्रभाव पर लगातार विश्लेषण पेश करता रहा है। इसी कड़ी में हमने हमारा नया डोसियर, How the International Monetary Fund Is Squeezing Pakistan (October 2023) प्रकाशित किया है। लाहौर में स्थित रीसर्च एंड पब्लिकेशन्स सेंटर में तैमूर रहमान व उनके सहयोगियों द्वारा किए गए शोध के आधार पर लिखे गए इस डोसियर में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी संरचनात्मक समस्याओं का उल्लेख किया गया है, जैसे कि इसके निर्यात–उन्मुख उद्योग में कम उत्पादकता तथा आयातित लक्ज़री वस्तुओं की उच्च लागत। उद्योग में निवेश की कमी के कारण, पाकिस्तान की श्रम उत्पादकता कम है, और इसलिए इसके निर्यात की क़ीमत अन्य देशों से कम है (जैसा कि बांग्लादेश, चीन और वियतनाम में कपड़ा उद्योग के उदाहरण को देखा जा सकता है)। वहीं लक्ज़री वस्तुओं का आयात पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था के लिए कहीं अधिक विनाशकारी सिद्ध हो सकता है। मुल्क के बाहर (जैसे खाड़ी देशों में) कड़ी मेहनत करने वाले, लेकिन उपेक्षा के शिकार, पाकिस्तानी श्रमिकों द्वारा भेजे जाने वाले प्रेषण धन पर भी इस आयात का असर पड़ता है। डोज़ियर में बताया गया है कि पाकिस्तान का बढ़ता घाटा ‘इस तथ्य से प्रेरित है कि पाकिस्तान अब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में प्रतिस्पर्धी नहीं रहा और उसने ऐसी दर पर वस्तुओं व सेवाओं का आयात करना जारी रखा है जिसे वह सह नहीं कर सकता।‘ इसके अलावा, ‘आईएमएफ़ द्वारा लगाई गई शर्तों ने उस निवेश को और भी कम कर दिया है जिसकी पाकिस्तान को अपने बुनियादी ढाँचे में सुधार करने तथा औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए सख़्त ज़रूरत है।‘ आईएमएफ़ केवल औद्योगीकरण के लिए जरूरी निवेश ही नहीं रोकता, बल्कि सार्वजनिक सेवाओं (महत्वपूर्ण रूप से, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सेवाओं) में कटौती लागू करने के लिए भी बाध्य करता है।
जुलाई में, आईएमएफ़ ने पाकिस्तान के साथ 3 बिलियन डॉलर के स्टैंड–बाय समझौते को मंज़ूरी दे दी, जिसमें दावा किया गया कि इससे ‘पाकिस्तान के लोगों की मदद के लिए सामाजिक और विकास ख़र्च के लिए अवसर‘ मिलेगा। असल में, आईएमएफ़ पाकिस्तान को वही पुराना नवउदारवादी पैकेज दे रहा है, जिसमें ‘अधिक राजकोषीय अनुशासन, बाहरी दबावों को अवशोषित करने के लिए बाज़ार–निर्धारित विनिमय दर तथा ऊर्जा क्षेत्र व जलवायु संकट से बचने के लिए सुधार, और व्यापार के लिए अनुकूल माहौल’ जैसे उपाय लागू करने का आह्वान किया गया है, जबकि ये सभी उपाय संकट को बढ़ाएँगे ही। इन नीतियों का स्थायित्व सुनिश्चित करने के लिए, आईएमएफ़ ने न केवल कार्यवाहक प्रधान मंत्री अनवर–उल–हक काकर की सरकार के साथ बात की, बल्कि पूर्व प्रधान मंत्री इमरान ख़ान के साथ भी बात की थी (जिन्हें यूक्रेन युद्ध पर तटस्थ रहने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका के इशारे पर 2022 में पद से हटा दिया गया था)। इतने पर ही रुक जाने की बजाए, इस समझौते के कर्ता–धर्ता के तौर पर अमेरिकी सरकार ने पाकिस्तान की सरकार पर बदनाम हथियार डीलर ‘ग्लोबल ऑर्डनेंस’ के ज़रिए गुप्त रूप से यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति करने के लिए दबाव डाला। यानी पहले से ही बुरा सौदा और भी बुरा हो चुका है।
इसी तरह के सौदे अर्जेंटीना, श्रीलंका और जाम्बिया जैसे देशों के साथ किए गए हैं। उदाहरण के लिए, श्रीलंका के मामले को देखें: श्रीलंका के लिए आईएमएफ़ के वरिष्ठ मिशन प्रमुख, पीटर ब्रेउर, ने आईएमएफ़ समझौते को एक ‘क्रूर प्रयोग‘ बताया। निस्संदेह, इस प्रयोग के सामाजिक परिणाम श्रीलंकाई लोगों को भुगतने होंगे, जिनके आक्रोश को पुलिस तथा सैन्य बलों के ज़रिए दबा दिया गया है।
इसी से मिलती–जुलती स्थिति फ़रवरी में सूरीनाम में भी देखी गई, जहाँ आईएमएफ़ द्वारा थोपी गई नवउदारवादी कटौती पर आधारित शासन व्यवस्था के ख़िलाफ़ विरोध करने के लिए सड़कों पर उतरे सैकड़ों लोगों को आँसू गैस और रबर की गोलियों का सामना करना पड़ा था। कोविड-19 महामारी की शुरुआत के बाद से, सूरीनाम पश्चिम के धनी बांडधारकों को ऋण चुकाने में तीन बार चूक गया है। दिसंबर 2021 में राष्ट्रपति चान संतोखी की सरकार ने आईएमएफ़ से कहा था कि वे ऊर्जा सब्सिडी में कटौती करेंगे। नवउजारवादी कटौतियों के ख़िलाफ़ वी ज़िजन मो (‘हम थक चुके हैं‘) आंदोलन ने वर्षों तक विरोध किया, लेकिन आईएमएफ़ द्वारा थोपी गई भुखमरी की राजनीति के ख़िलाफ़ कोई एजेंडा नहीं चला सके। मैगी शमित्ज़ ने इन विरोध प्रदर्शनों के बारे में लिखा था कि, ‘भूखी भीड़ आक्रोशित भीड़ होती है‘।
सूरीनाम से श्रीलंका में चल रहे ये विरोध प्रदर्शन, आईएमएफ़ के विरोध (IMF riots) के लंबे इतिहास का नवीनतम अध्याय है। यह उपद्रव 1976 में लीमा (पेरू) में शुरू हुआ और उसके बाद के वर्षों में जमैका, बोलीविया, इंडोनेशिया और वेनेज़ुएला में फैल गया था। जब 1985 में इंडोनेशिया में आईएमएफ़ दंगे भड़के, तब बैंक ऑफ अमेरिका के लंबे समय तक सीईओ रहे टॉम क्लॉसन विश्व बैंक के अध्यक्ष थे। इन दंगों से पाँच साल पहले की गई टिप्पणी में, क्लॉसन ने इस तरह के लोकप्रिय विद्रोहों के प्रति ब्रेटन वुड्स संस्थानों के रवैये को स्पष्ट करते हुए कहा था कि ‘जब लोग हताश होते हैं, तो आपके आसपास क्रांतियाँ होती हैं। इसमें हमारा अपना स्वार्थ है उन्हें [लोगों को] इसके लिए [क्रांति के लिए] मजबूर नहीं किया जाए। आपको रोगी को जीवित रखना होगा, अन्यथा आप इलाज की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं कर सकते।‘
क्लॉसन का ‘इलाज‘ – निजीकरण, वस्तुकरण और उदारीकरण – अब विश्वसनीय नहीं रहा है। सूरीनाम जैसे लोकप्रिय विरोध प्रदर्शन, नवउदारवादी एजेंडे की विफलताओं के बारे में व्यापक जागरूकता को दर्शाते हैं। अब निम्नलिखित विचारों पर आधारित नये एजेंडों की आवश्यकता है:
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कुत्सित ऋणों को रद्द करना, अर्थात् वे ऋण जो अलोकतांत्रिक सरकारों द्वारा लिए गए और लोगों की भलाई के विरुद्ध उपयोग किए गए उन्हें रद्द किया जाए।
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ऋण का पुनर्गठन करना और धनी बांडधारकों को उन ऋणों का बोझ साझा करने के लिए मजबूर करना जिन्हें (विनाशकारी और घातक सामाजिक परिणामों के बिना) पूरी तरह से चुकाया नहीं जा सकता लेकिन जिनसे धनी बांडधारकों को दशकों तक लाभ हुआ।
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यह जाँच करना कि बहुराष्ट्रीय निगम ग़रीब देशों को उनके कर का उचित हिस्सा देने में विफल क्यों रहे हैं, और ट्रान्स्फ़र मिस्प्राइस जैसी चोरी को रोकने के लिए क़ानून बनाना।
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ग़रीब देशों के अभिजात्य वर्ग द्वारा अपने देश की सामाजिक संपदा को देश से बाहर ले जाने में अवैध टैक्स हेवेन्स की भूमिका की जाँच करना और सार्वजनिक उपयोग के लिए उस धन को वापस लाने की प्रक्रियाओं की पड़ताल करना।
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ग़रीब देशों को ऐसे ऋणदाताओं का लाभ उठाने के लिए प्रोत्साहित करना जो कि ऋण––कटौती चक्रव्यूह के विविध रूपों का उपयोग नहीं करते, जैसे कि पीपुल्स बैंक ऑफ़ चाइना और न्यू डेवलपमेंट बैंक।
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ऐसी औद्योगिक नीतियाँ विकसित करना जो रोज़गार पैदा करने, प्रकृति के विनाश को कम करने और नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को उत्तरोत्तर अपनाने पर बल दें।
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श्रमिकों के लिए उचित आय के साथ–साथ धन वितरण सुनिश्चित करने के लिए (विशेष रूप से लाभ पर) प्रगतिशील कराधान तथा जीवन जीने योग्य मज़दूरी को लागू करना।
यह सूची संपूर्ण नहीं है। यदि आपके पास विश्वसनीय ‘इलाज‘ के लिए अन्य विचार हैं, तो मुझे अवश्य लिखें।
इस न्यूज़लेटर और डोज़ियर में छपी तस्वीरें अली अब्बास (‘नाद ई अली‘) की हैं, जो एक दृश्य (visual) कलाकार हैं और लाहौर, पाकिस्तान में रहते हैं। अब्बास अपनी तस्वीरों के ज़रिए अलगाव, अपनेपन और सभी संस्कृतियों में सामान्य तौर पर मौजूद साझा विषयों की खोज करते हैं। ये तस्वीरें अब्बास की दार्शनिक जैक डेरिडा की अवधारणा से प्रेरित ‘हॉन्टोलॉजी ऑफ़ लाहौर‘ (2017-वर्तमान) नामक शृंखला से ली गई हैं। अब्बास का कहना है कि, ‘लाहौर के परिदृश्य के भीतर, इसकी हलचल भरी सड़कों, प्राचीन संरचनाओं और जीवंत समुदायों के बीच में अप्रयुक्त भविष्य और अचेतन संभावनाओं का भंडार छिपा है।‘
स्नेह–सहित,
विजय।