एक जंग लगी बेल्ट और टूटी सड़क का देश: तीसवाँ न्यूज़लेटर (2024)
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन
20 जनवरी 2017 को डॉनल्ड ट्रम्प ने अपने पहले राष्ट्रपति अभिभाषण में यूनाइटेड स्टेट्स की तत्कालीन परिस्थितियों को यूं बयां किया: ‘अमेरिका की बर्बादी’। इस भाषण से 76 साल पहले, 1941 में हेनरी ल्यूस ने Life मैगजीन में ‘अमेरिकी सदी’ और ‘उद्यमों के लगातार बढ़ते क्षेत्रों के लिए एक गतिमान केंद्र’ बने रहने को लेकर अमेरिकी नेतृत्व के वायदे के बारे में एक लेख लिखा था। इन दो घोषणाओं के बीच में संयुक्त राज्य अमेरिका तीव्र विकास के दौर से गुज़रा जिसे ‘स्वर्ण युग’ कहा गया और उसके बाद एक उल्लेखनीय पतन के दौर से भी।
पतन का यह विषय ट्रम्प के 2024 के राष्ट्रपति चुनाव अभियान में लौट आया है। 19 जुलाई को रिपब्लिकन नेशनल कन्वेंशन में अपनी पार्टी की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनना स्वीकार करते हुए अपने भाषण में ट्रम्प ने घोषणा की ‘हम [दूसरे] देशों को हमारी नौकरियाँ छीनने और हमारा राष्ट्र लूटने नहीं देंगे’। ट्रम्प ने कुछ ऐसी ही बात अपने 2017 के पहले भाषण में कही थी कि ‘हमने दूसरे देशों को अमीर बनाया है जबकि हमारे अपने देश की संपदा, शक्ति और आत्मविश्वास कहीं हवा में गायब हो गया है’।
सात दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका की आत्म–छवि एक ‘अमेरिकी सदी’ के ऊँचे पायदान से गिरकर आज ‘अमेरिका की बर्बादी’ तक पहुँच गई है। इस ‘बर्बादी’ से ट्रम्प का आशय सिर्फ आर्थिक क्षेत्र में नहीं है; यह राजनीतिक पटल की भी परिस्थिति स्पष्ट करती है। ट्रम्प की हत्या की नाकाम कोशिश हुई, इसके साथ ही डेमोक्रेटिक पार्टी में खुला विद्रोह दिखाई दिया जिसका अंत मौजूदा यूएस राष्ट्रपति जो बाइडेन का अपनी उम्मीदवारी का दावा वापस लेने और उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को अपनी जगह देने से हुआ। सभी दृष्टियों से लग रहा है कि नवंबर में होने वाले चुनावों में ट्रम्प किसी भी डेमोक्रेटिक उम्मीदवार को हरा सकते हैं क्योंकि कुछ खास ‘स्विंग राज्यों’ में वे आगे चल रहे हैं (यह ऐसे राज्य हैं जिनमें यूएस की आबादी का पांचवा हिस्सा बसता है और ये राज्य पारंपरिक रूप से किसी एक पार्टी को वोट नहीं देते इसलिए चुनाव–दर–चुनाव ये विजेता चुनने में अहम भूमिका निभाते हैं)।
रिपब्लिकन सम्मेलन में ट्रम्प ने एकता की बात करने की कोशिश की लेकिन यह मिथ्या प्रचार है। यूएस के राजनेता जितना ज़्यादा ‘देश को एकजुट करने’ या भेदभाव रहित होने की बात करते हैं, लिब्रलस् (उदारवादी) और कन्सर्वेटिवस् (रूढ़िवादी) के बीच की खाई उतनी ही गहरी होती जाती है। यह खाई नीतियों की नहीं है क्योंकि दोनों ही राजनीतिक दल चरम सेन्ट्रिस्ट हैं जो आम जनता पर मितव्ययिता (जन कल्याण के कार्यक्रमों में सरकारी खर्च में कटौती) थोपकर प्रभुत्वशाली वर्गों को आर्थिक सुरक्षा मुहैया करवाते हैं, इनके सिर्फ रवैये और अभिरुचि में आपसी फ़र्क है। कुछ घरेलू नीतियों (जैसे कि गर्भपात का अधिकार) में फ़र्क ही इनके रवैये के इस अंतर को उजागर कर पाता है।
यूएस सरकारी दस्तावेज़ों से जो जानकारियाँ और अफवाहें छनकर आती हैं उनसे सामाजिक जीवन की हो रही क्षति की झलक मिलती है। युवा आबादी अनिश्चित रोज़गार के भरोसे है। कम आय वाले वर्गों के घरों की कुर्की और बेदखली जारी है और साथ ही शेरिफ़ व कर्ज़ उगाही करने वाले अर्द्धसैन्य दल घूम–घूम कर तथाकथित गुनहगारों की तलाश करते रहते हैं। आम जनता की आय उनके ज़रूरी खर्चों के लिए नाकाफ़ी है इसलिए वे भुखमरी से बचने के लिए क्रेडिट कार्ड और संदेहपूर्ण निजी कर्ज़ देने वाली एजेंसियों का सहारा लेते हैं, इस सबसे निजी कर्ज़ का आँकड़ा आसमान छू रहा है। तीसरी महामंदी ने कम आय वाले सेवा क्षेत्र के उन कामगारों की स्थिति और भी बद्दतर कर दी है जिन्हें पहले से ही कोई खास सुविधाएँ नहीं मिलतीं, इन कामगारों में ज़्यादातर महिलाएँ हैं। इससे पहले की आर्थिक मंदी में इन महिलाओं ने अपनी इन्हीं नौकरियों से अपने अदृश्य दिलों का विस्तार कर उनमें अपने परिवार समा लिए थे; लेकिन अब यह प्यार से बनी डोर भी टूट चुकी है।
18 जुलाई को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) ने यूनाइटेड स्टेट्स पर एक स्टाफ रिपोर्ट जारी की जिससे पता चलता है कि देश में गरीबी की दर ‘2022 में 4.6 प्रतिशत बढ़ी और बच्चों में गरीबी की दर दुगुनी से ज़्यादा हो गई’। आईएमएफ़ ने लिखा कि बच्चों में गरीबी का बढ़ना ‘सीधे तौर से महामारी [कोविड] से पहले मिलने वाली सहायता को खत्म कर देने से जुड़ा है’। डूबती अर्थव्यवस्था और बढ़ते सैन्य खर्च के बीच संयुक्त राज्य अमेरिका की कोई भी सरकार अब वह मूलभूत परिस्थितियाँ उत्पन्न नहीं कर सकती जो लाखों परिवारों के ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी हैं। इस रिपोर्ट का एक पैराग्राफ मुझे खासतौर से ज़रूरी लगा:
कम आय वाले परिवारों पर बढ़ रहा बोझ रिवॉल्विंग क्रेडिट से जुड़े अपराधों में आए उछाल में साफ दिखता है। इसके साथ ही घर खरीद पाने का सामर्थ्य कम होता जा रहा है जिसकी वजह से खासतौर से युवाओं और कम आय वाले वर्गों में रहने की जगह नहीं मिल पाने का संकट बढ़ रहा है। बेघर जीने के लिए मजबूर लोगों की बढ़ती संख्या में यह स्थिति साफ दिखाई दे रही है, बेघरों का आँकड़ा इकट्ठा करना 2007 में शुरू हुआ था और आज यह आँकड़ा अपने चरम पर है।
यूएस प्राकृतिक परिदृश्य की दूर तक फैली ज़मीनें अब वीरान हो चुकी हैं: बंद हो चुकी फैक्ट्रियों में अब चिमनी स्वॉलो (एक तरह के पक्षी) रहते हैं, जबकि पुराने फार्महोऊसों में गैरकानूनी ढंग से मेथामफेटामाइन जैसे ड्रग्स बनाए और इस्तेमाल किए जाते हैं। ग्रामीण इलाकों में टूटे हुए सपनों की उदासी छाई है, आयोवा के परेशान किसानों की स्थिति ब्राज़ील, भारत और दक्षिण अफ्रीका में संकट झेल रहे किसानों से बहुत अलग नहीं है। जो लोग पहले बड़े स्तर के औद्योगिक उत्पादन में लगे हुए थे या खेती से जुड़े थे, उनकी अब यूनाइटेड स्टेट्स में पूँजी संचय की प्रक्रियाओं में कोई जगह नहीं बची है। वे अब बेकार और त्याज्य हो चुके हैं।
2013 तक जब चीन दुनिया में इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर करने के लिए बेल्ट एण्ड रोड इनिश्यटिव (बीआरआई) का निर्माण करने में लगा था यूनाइटेड स्टेट्स अपनी ही जंग लगी बेल्ट और टूटी सड़क के यथार्थ की गर्त में जा चुका था।
यूएस का राजनीतिक वर्ग जो मितव्ययिता की राजनीति के प्रति वफ़ादारी निभा रहा है, उसके लिए देश की इस बर्बादी को रोक पाना भर नामुमकिन है, इसे खत्म तो वे क्या ही कर पाएंगे। मितव्ययिता की नीतियाँ सामाजिक जीवन को खोखला कर देती हैं, वे हर उस चीज़ को बर्बाद कर देतीं हैं जो आज के आधुनिक युग में इंसानों के लिए ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी हैं। दशकों तक उदारवादी और रूढ़िवादी रहे दलों ने अपनी ऐतिहासिक परंपराओं को दबा दिया है और लगभग एक–दूसरे की परछाई बन गए हैं। जिस तरह समंदर में उठते भंवर के केंद्र में आस–पास का पानी खिंचता चला जाता है वैसे ही सत्तारूढ़ वर्ग के राजनीतिक दल चरम सेंटरिस्ट धुरी की ओर दौड़ रहे हैं और मितव्ययिता की पैरवी कर रहे हैं। इसके साथ ही ये दल उद्यमिता और विकास को बढ़ावा देने के नाम पर संपत्ति के वितरण को केवल एक उच्च वर्ग तक सीमित रहने देते हैं।
चाहे यूरोप हो या उत्तरी अमेरिका आज मंदी की मार झेल रही ग्लोबल नॉर्थ की आबादी का चरम सेन्ट्रिस्ट नीतियों में विश्वास कम होता जा रहा है। विकास को बढ़ावा देने वाले जो भद्दे सुझाव दिए जा रहे थे – जैसे करों में कटौती और सैन्य खर्च को बढ़ाना – उनका खोखलापन अब सामने आ चुका है। राजनीतिक वर्ग के पास ठहरे हुए विकास और नष्ट होते इंफ्रास्ट्रक्चर जैसी समस्याओं के लिए कोई उपाय नहीं है। यूनाइटेड स्टेट्स की मौजूदा समस्याओं के बारे में ट्रम्प बात तो ऐसे करते हैं जैसे इनका कोई राजनीतिक हल दे रहे हों, लेकिन देश की सरहदों पर ज़्यादा सेना तैनात करना या व्यापार युद्धों को और तेज़ कर ‘अमेरिका को फिर से महान’ बनाने के ट्रम्प के सुझाव उतने ही खोखले हैं जितने उनके प्रतिद्वन्द्वियों के। उत्पादन के लिए निवेश बढ़ाने के मकसद से कई कानून (मसलन इन्फ्लैशन रीडक्शन ऐक्ट, क्रीएटिंग हेल्पफुल इंसेन्टीवस् टू प्रडूस सेमीकन्डक्टरस् [CHIPS] और इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट एण्ड जॉब्स ऐक्ट) लागू करने के बावजूद यूएस सरकार स्थायी पूँजी के निर्माण में नाकामयाब रही है। कर्ज़ के अलावा देश के इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश के चंद ही स्रोत हैं। यूएस फेड्रल रिजर्व बैंक को भी इस बात पर शक है कि यूएस अपनी अर्थव्यवस्था को चीन जैसी फलती–फूलती अर्थव्यवस्था से अलग कर सकता है।
ट्रम्प और यूरोप के दक्षिणपंथी नेताओं का गुट जिस किस्म के राजनीतिक रुझान पेश कर रहे हैं उनके लिए ‘फ़ासीवाद’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना बहुत आकर्षक लगता है। लेकिन इस शब्द का इस्तेमाल सटीक नहीं है क्योंकि इससे एक बात को नज़रंदाज़ किया जाता है कि ट्रम्प और उसके जैसे दूसरे लोग एक खास तरह का दक्षिणपंथ है, एक ऐसा दक्षिणपंथ जो लोकतांत्रिक संस्थाओं को लेकर काफी हद तक सहज है। इस तरह का दक्षिणपंथ नवउदारवादी वाग्मिता को भेदता है। ऐसा वह अपने देशों के पतन के कारण उपजे गुस्से और देशभक्ति की ज़बान से जनता को अपनी ओर खींचने की कोशिश द्वारा करते हैं, यह देशभक्ति की भावना ऐसी जनता में एक किस्म के राष्ट्रवाद से पैदा होती है जो कम–से–कम एक पीढ़ी से खुद को ‘विकास से कटा’ महसूस कर रही है। इसके बावजूद राष्ट्रीय पतन के लिए नवउदारवादी नीतियों को कसूरवार ठहराने की बजाय इस तरह के दक्षिणपंथी नेता मज़दूर वर्ग के प्रवासियों और अपने देशों में पनप रहे नई किस्म की सांस्कृतियों (खासतौर से जेन्डर और नस्लों में समानता और लैंगिक आज़ादी को मिल रही सामाजिक स्वीकृति) पर सारा दोष डाल देते हैं। चूंकि इस पतन को पलटने के लिए इस दक्षिणपंथ के पास कोई भी नई नीतियाँ नहीं है, यह चरम सेन्ट्रिस्ट की ही तरह नवउदारवादी नीतियों को उत्साह के साथ आगे बढ़ाते हैं।
इस बीच खुद को चरम सेन्ट्रिस्ट विचारों से अलग कर पाने में असमर्थ लिब्रल या उदारवादी लोग सिर्फ चिल्ला–चिल्लाकर यही कह पाते हैं कि वे अति–दक्षिणपंथ के मुकाबले एक बेहतर विकल्प हैं। इस छद्म चुनाव ने राजनीतिक जीवन को चरम सेंटरवाद के विभिन्न पहलुओं तक ही सीमित कर दिया है। इस बर्बादी से सही मायने में छुटकारा पाने की ज़रूरत है। और यह छुटकारा न तो यह खास किस्म का दक्षिणपंथ दिला सकता है और न ही उदारवाद।
1942 में अर्थशास्त्री जोसेफ शूम्पेटर ने पूँजीवाद, समाजवाद और लोकतंत्र नाम से एक किताब छापी। शूम्पेटर का मत था कि अपने इतिहास में, पूँजीवाद असफल उद्यमों के बंद होने पर उद्योगों में गिरावट की एक शृंखला पैदा करता आया है। शूम्पेटर का कहना है कि इन गिरावटों की राख़ के ‘सृजनात्मक विध्वंस’ से फीनिक्स उत्पन्न हुए हैं। लेकिन भले ही इस ‘सृजनात्मक विध्वंस’ से अंतत: दूसरे उद्यम और रोज़गार पैदा हुए भी हों, लेकिन इस विध्वंस से समाजवाद की ओर एक राजनीतिक मोड़ की संभावना बर्बाद हो जाती है। हालांकि यूनाइटेड स्टेट्स में समाजवाद की ओर रुझान अब तक नहीं आया है, लेकिन फिर भी लोग ज़्यादा–से–ज़्यादा इसकी संभावना के प्रति आकर्षित ज़रूर हो रहे हैं।
1968 में अपनी हत्या से पिछली रात मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था, ‘घने अंधेरे में ही आप तारे देख पाते हैं’। अब लग रहा है कि अंधेरा घना हो चला है। शायद इस चुनाव में नहीं अगले में सही, या शायद उससे भी अगले चुनाव में ही, लेकिन विकल्प जल्द ही कम होते जाएंगे, चरम सेंटर – पहले से ही असंगत हो चुका है – खत्म हो जाएगा, और नए विचार अंकुरित होंगे जो ग्लोबल नॉर्थ की सामाजिक पूँजी का इस्तेमाल बाकी दुनिया को डराने और चंद लोगों को फ़ायदा पहुँचाने की बजाय जनता के जीवन को बेहतर करने के लिए करेंगे। हमें तारे नज़र आने लगे हैं। हाथ अब उन्हें छूने के लिए तड़प रहे हैं।
सस्नेह,
विजय