मानसिक स्वास्थ्य के लिए जूझती दुनियाः उनचालीसवां न्यूज़लेटर (2024)
मानसिक स्वास्थ्य संकट का प्रतिकार हमारे समाज के पुनर्निर्माण में निहित है। पूंजीवाद की गला-काट प्रतिस्पर्धा की संस्कृति की बजाय हमें एकजुटता और देखभाल पर आधारित संस्कृति को स्थापित करना होगा।
प्यारे दोस्तो,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन
1930 में फ़्रांस के लोज़ेरे क्षेत्र के एक चरवाहे क्लेमेंटे फखाइस (1901-1980) को पास ही के मानसिक रोग के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसने अपने माता-पिता के फार्महाउस को आग लगाने की कोशिश की थी। दो साल तक उसे एक छोटे, अंधेरे सेल में क़ैद रखा गया। वहाँ उसने पहले एक चम्मच से और बाद में अपने चैम्बर पॉट (शयन कक्ष में लघुशंका के लिए रखे जाने वाला एक पात्र) के हैन्डल के सहारे अपने इर्द-गिर्द की लकड़ी की खुरदरी दीवारों पर कई सुडौल आकृतियां खींचीं। मनोरोग अस्पतालों की अमानवीय परिस्थितियों के बावजूद फखाइस ने अपने सेल के अँधेरे में ख़ूबसूरत चित्र उकेरे। लोज़ेरे से कुछ दूर ही सेंट रेमी डी प्रोवेंस की सेंट पॉल डे मौसोल ईसाई मठ में इससे चार दशक (1889-1890) पहले विंसेंट वैन गो (गॉग) को भी क़ैद रखा गया था। यहीं उन्होंने लगभग 150 चित्र बनाए (जिनमें 1889 में बना द स्टारी नाइट भी शामिल है)।
मैं सितंबर में नेपल्स(इटली) के ऑसपेडाले साईकियात्रिको जुडीसियारिओ (ओपीजी) एक फ़ेस्टिवल के लिए गया था। यहाँ एक ज़माने में मानसिक रोग से ग्रस्त ऐसे अपराधियों को क़ैद रखा जाता था, जिन्होंने बहुत जघन्य अपराध किए हों। इसी इमारत में अब यह फ़ेस्टिवल होता है। मुझे फखाइस और वैन गो दोनों का ख़याल आया। नेपल्सके बीचोंबीच मोंटे डी सांट एफ़रमो पर खड़ी यह विशाल इमारत पहले एक मठ (1573-1859) हुआ करती थी, फिर 1861 में इटली के एकीकरण के दौरान सवॉय शासन में यह सेना का एक बैरक बन गई और 1920 के दशक में फ़ासीवादी राज में यहाँ एक जेल बना दी गई। 2008 में जेल बंद कर दी गई और फिर 2015 में कुछ लोगों ने इसे अपने क़ब्ज़े में ले लिया जिन्होंने आगे चलकर पोतेरे अल पोपोलो! [जनता सशक्त हो!] नाम से एक राजनीतिक संगठन बनाया। इन्होंने इस इमारत का नाम बदलकर एक्स ओपीजी – जे सो पाज़ो कर दिया, ‘एक्स’ का मतलब यह इमारत अब पागलखाना नहीं है और जे सो पाज़ो एक लोकप्रिय स्थानीय गायक पीनो डेनियले (1955-2015) के पसंदीदा गीत का शीर्षक है; डेनियले की मौत लगभग उसी समय हुई थी जब इस इमारत को इन लोगों ने अपने क़ब्ज़े में लिया था:
मैं पागल हूँ। मैं पागल हूँ।
लोग कर रहे हैं
मेरा इंतज़ार।
….
मैं कम-अज़-कम
एक दिन जीना चाहता हूँ
शेर की तरह।
C’ho il popolo che mi aspetta.….
Nella vita voglio vivere almeno un giorno da leone.
आज एक्स ओपीजी में कानूनी सलाह केंद्र है, क्लिनिक है, एक जिम है, थिएटर है और एक बार भी है। यह अब एक विचार करने की जगह बन गई है, जनता की एक जगह जिसका इस्तेमाल समुदाय के निर्माण के लिए और पूँजीवाद से उपजे अकेलेपन और अनिश्चितता से लड़ने के लिए हो रहा है। यह दुनिया में अपनी तरह का अनूठा संस्थान है, एक ऐसी जगह जहाँ एक अकेला और अलग-थलग पड़ता हुआ समाज और असफल आकांक्षाओं में क़ैद इंसान अपने अदने औज़ारों (एक चम्मच, चैम्बर पॉट का हैन्डल) से अपने ख़्वाब तराशकर तारों भरी एक रात बुन सकता है।
विश्व स्वास्थ संगठन (WHO) के पास भी मानसिक स्वास्थ्य को लेकर पर्याप्त आँकड़ें नहीं हैं क्योंकि ग़रीब देश भीषण मनोवैज्ञानिक संकट से जूझ रही अपनी आबादी के आँकड़े जुटाने में सक्षम नहीं हैं। नतीजतन इस मामले में सारा फोकस अमीर देशों पर ही है, जहाँ सरकारें इस तरह के आँकड़े इकट्ठा करती हैं और जहाँ मनोवैज्ञानिक सुविधाएँ और दवाएँ अपेक्षाकृत आसानी से उपलब्ध हैं। इकत्तीस देशों (अधिकतर यूरोप और उत्तरी अमेरिका लेकिन इनमें ब्राज़ील, भारत और दक्षिण अफ्रीका जैसे कुछ ग़रीब देश भी शामिल थे) में हुए एक हालिया सर्वे के मुताबिक लोगों का रवैया बदल रहा है और मानसिक स्वास्थ्य के विषय में वे गंभीर हो रहे हैं। सर्वे से पता चलता है कि जिन लोगों से बात की गई उनमें से 45% मानते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य ‘[उनके] देश के लोगों के सामने आज सबसे बड़ी स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या है’। यह आँकड़ा 2018 में हुए पिछले सर्वे से बहुत बढ़ गया है, तब केवल 27% ऐसा मानते थे। स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं की लिस्ट में तनाव तीसरे नंबर पर है, 31% लोग इसे एक मुख्य समस्या मानते हैं। युवा आबादी में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति रवैये में एक बहुत स्पष्ट जेन्डर गैप दिखता है। 55% युवा महिलाएँ इसे एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या मानती हैं जबकि पुरुषों में यह आँकड़ा 37% है (इससे पता चलता है कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े रोग से पुरुषों के मुकाबले महिलाएँ ज़्यादा जूझती हैं)।
हालांकि यह सच है कि कोविड-19 महामारी की वजह से मानसिक रोग ज़्यादा चर्चा में आए हैं लेकिन यह संकट इससे पहले से मौजूद था। ग्लोबल हेल्थ डाटा एक्सचेंज से पता चलता है कि महामारी फैलने से पहले 2019 में दुनिया में हर आठ में से एक व्यक्ति या 97 करोड़ लोग किसी न किसी मानसिक रोग से ग्रस्त थे। इनमें से 30.1 करोड़ लोग चिंता या ऐंग्ज़ाइटी के शिकार थे और 28 करोड़ मानसिक अवसाद के। इन आँकड़ों को सिर्फ एक अनुमान माना जाना चाहिए। ये मौजूदा सामाजिक व्यवस्था से उपजे असंतोष और उससे तालमेल न बिठा पाने की वजह से खड़े हुए भयानक संकट की बहुत सतही तस्वीर सामने रखते हैं।
‘मनोविकार’ के अंतर्गत बहुत अलग-अलग रोग आते हैं, इसमें सिज़ोफ़्रेनिया से लेकर अवसाद के वे तमाम रूप शामिल हैं जो आत्महत्या जैसे विचार उत्पन्न करते हैं। WHO की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार हर 200 में से एक वयस्क सिज़ोफ़्रेनिया से जूझ रहा है, इस बीमारी की वजह से जीवन प्रत्याशा औसतन दस से बीस साल कम हो जाती है। इसी के साथ दुनियाभर में युवा आबादी में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है आत्महत्या। हर 100 मौतों में से एक आत्महत्या होती है (यहाँ याद रखा जाना चाहिए कि आत्महत्या के हर 20 प्रयासों में से केवल एक में मौत होती है)। हम नई तालिका बना सकते हैं, अपने आँकड़ों में संशोधन कर सकते हैं तथा और भी लंबी रिपोर्टें लिख सकते हैं लेकिन इस सबसे वो सामाजिक उपेक्षा हल नहीं होगी जो हमारी दुनिया में पसरी हुई है।
उपेक्षा यहाँ सही शब्द भी नहीं है। मनोविकारों के प्रति आम राय यही है कि इन्हें जैविक समस्या के रूप में देखकर इसका इलाज व्यक्तिगत दृष्टिकोण के आधार पर दवाओं से किया जाना चाहिए। अगर हम इस संकीर्ण अवधारणात्मक संरचना को स्वीकार कर भी लें तब भी मनोचिकित्सकों के प्रशिक्षण, जनता के लिए सस्ती दवाएँ बनाने और उन तक पहुँचाने और बृहत् स्वास्थ्य व्यवस्था में मानसिक स्वास्थ्य को सम्मिलित करने के लिए तो सरकार की ही ज़रूरत है। 2022 में WHO ने पाया कि औसतन देश अपने स्वास्थ्य बजट का केवल 2% ही मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं। संगठन ने यह भी पाया कि अधिकतर ग़रीब देशों में रहने वाली दुनिया की आधी आबादी ऐसी परिस्थितियों में जी रही है जहाँ दो लाख या उससे भी ज़्यादा लोगों के लिए सिर्फ एक मनोचिकित्सक उपलब्ध है। यही वास्तविक स्थिति है और इस सबके बीच हम देख रहे हैं कि कैसे स्वास्थ्य सुविधाओं के बजट गिरते जा रहे हैं और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर उदार रवैया अपनाने के लिए जनता को शिक्षित करने के प्रयासों में भी कमी आ रही है। WHO के नवीनतम आँकड़े (दिसंबर 2023) में महामारी के दौर में स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च में आया उछाल भी सम्मिलित हैं। इससे पता चलता है कि 2021 में अधिकतर देशों में स्वास्थ्य पर ख़र्च उनके सकल घरेलू उत्पाद के 5% से कम था। जबकि संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (UNCTAD) ने अपनी 2024 की रिपोर्ट, ए वर्ल्ड ऑफ डेट [ऋण की दुनिया] में दिखाया है कि लगभग सौ देशों ने स्वास्थ्य पर ख़र्च करने की बजाय अपने ऋण चुकाने पर ज़्यादा ख़र्च किया। ये आँकड़ें पूर्वाभास हैं इसलिए यह समस्या की जड़ तक नहीं पहुँचते।
पिछली सदी में मनोविकारों के प्रति रवैया बेहद व्यक्तिपरक रहा है, इन समस्याओं के इलाज में तमाम तरह की थेरेपी से लेकर विभिन्न दवाएँ शामिल हैं। मानसिक अवसाद से लेकर सिज़ोफ़्रेनिया तक तमाम तरह के मानसिक स्वास्थ्य संकटों को न सुलझा पाने के पीछे कुछ हद तक यह कारण भी है कि कोई स्वीकार नहीं करना चाहता कि यह समस्याएँ केवल जैविक तत्वों से प्रभावित नहीं होतीं, बल्कि ये सामाजिक संरचनाओं से भी पनप और बढ़ सकती हैं और अमूमन होती भी हैं। क्रिटिकल साइकेट्री नेटवर्क के संस्थापकों में से एक डॉ. जोआना मोनक्रीफ़ लिखती हैं कि ‘हम जिन स्थितियों को मनोविकार कहते हैं ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है कि उनमें से कोई भी जैविक रोगों से पैदा हुई दिखाई देती हों’ या और निश्चित तौर पर कहें ‘किसी विशेष शारीरिक और जीवरसायन प्रक्रिया से’। ऐसा नहीं कि जीवविज्ञान की कोई भूमिका नहीं है लेकिन इस तरह के रोगों के संबंध में हमारी समझ का निर्माण करने में केवल यही एकमात्र आधार नहीं होना चाहिए।
एरिक फ़्रॉम (1900-1980) ने अपने लोकप्रिय क्लासिक किताब द सेन सोसाइटी (1955) में कार्ल मार्क्स की अंतर्दृष्टि के आधार पर पूँजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत मनोवैज्ञानिक परिदृश्य के सटीक अध्ययन का विकास किया। उनकी अंतर्दृष्टि को फिर से देखे जाने की आवश्यकता है (फ़्रॉम को ‘मनुष्य’ के लिए पुल्लिंग शब्द और समस्त मानवता के लिए पुल्लिंग सर्वनाम के प्रयोग के लिए क्षमा करें):
एक व्यक्ति स्वस्थ है या नहीं यह मुख्य रूप से व्यक्तिगत विषय नहीं है, बल्कि यह उसके समाज की संरचना पर आधारित है। एक स्वस्थ समाज मनुष्य को अन्य मनुष्यों से प्रेम करने के लिए, रचनात्मक रूप से कार्य करने के लिए, स्वयं में तर्क और वस्तुनिष्ठता के विकास के लिए, अपनी उत्पादक क्षमताओं पर आधारित अनुभवों से आत्म का भाव उत्पन्न करने के लिए प्रेरित करता है। एक अस्वस्थ समाज वह है जो परस्पर द्वेष, अविश्वास को जन्म देता है जिससे मनुष्य दूसरों द्वारा शोषित होने वाला एक उपकरण बन जाता है, जिससे उसके आत्म का भाव लगभग छिन जाता है, वह केवल इतना ही बचता है कि खुद को दूसरों को समर्पित कर दे या एक इच्छाशक्ति से वंचित स्वचालित पुतला बन जाए। समाज दो तरह से कार्य कर सकता है; वह मनुष्य के स्वस्थ विकास को बढ़ावा दे सकता है या वह इसमें रुकावट खड़ी कर सकता है; असल में, अधिकतर समाज दोनों करते हैं, प्रश्न सिर्फ यह है कि वह अपने सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव किस दिशा में और कितनी मात्रा में प्रयोग करता है।
हमारी कई मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का इलाज समाज के पुनर्निर्माण से और समुदाय की संस्कृति से आना चाहिए न कि विरोध और विषैलेपन की संस्कृति से। कल्पना करें कि अगर हम अधिक सामुदायिक केंद्रों वाले शहर बनाएं, नेपल्स में एक्स ओपीजी – जे सो पाज़ो जैसे अधिक स्थलों का निर्माण करें, जहाँ युवाओं को इकट्ठा होने और सामाजिक रिश्ते बनाने और उनके व्यक्तित्व और आत्मविश्वास के विकास के लिए स्पेस मिले। कल्पना करें कि हम अपने संसाधनों का अधिक हिस्सा लोगों को संगीत सिखाने, खेल-कूद का आयोजन करने, कविता लिखने-पढ़ने और अपने पड़ोस में सामाजिक गतिविधियों को आयोजित करने में ख़र्च करें तो कैसा रहेगा। इन सामुदायिक केंद्रों में चिकित्सा क्लीनिक खोला जा सकता है, युवाओं के लिए कार्यक्रम किए जा सकते हैं। इनमें सामाजिक कार्यकर्ता और चिकित्सक काम कर सकते हैं। उन फ़ेस्टिवलों की कल्पना करें जो ऐसे केंद्र में किए जा सकते हैं, संगीत समारोह, रेड बुक्स डे जैसे गतिशील आयोजन। उन गतिविधियों की कल्पना करें – भित्तिचित्र बनाना, आस-पड़ोस की सफ़ाई और पौधारोपण – ये सब इसलिए हो पाएगा क्योंकि इन केंद्रों में लोग आपस में बातचीत करेंगे कि वे कैसी दुनिया का निर्माण करना चाहते हैं। वास्तव में, हमें इसकी कोई कल्पना करने की आवश्यकता नहीं है: यह पहले से ही छोटे-छोटे प्रयासों में हमारे सामने है, चाहे नेपल्स में हो या दिल्ली में, जोहान्सबर्ग में या सैंटियागो में।
कवयित्री एन सेक्स्टन (1928-1974) लिखती हैं ‘अवसाद उबाऊ है, मुझे ऐसा लगता है’। ‘मैं कोई सूप बनाना और एक गुफ़ा को रोशन करना ज़्यादा पसंद करूँगी।’ आएं, हम किसी सामुदायिक केंद्र में सूप बनायें, गिटार और ड्रम बजायें और नाचें, तब तक नाचते रहें जब तक सबके मन में यह भाव न जागे कि हमें मिलकर अपनी खंडित मनुष्यता को स्वस्थ करना है।
सस्नेह,
विजय