प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
मार्च 2022 में, संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने यूक्रेन युद्ध के कारण ‘भुखमरी का तूफ़ान’ आने की चेतावनी दी थी। पैंतालीस विकासशील देश, जिनमें से अधिकांश अफ़्रीकी महाद्वीप में हैं, उन्होंने कहा, ‘यूक्रेन या रूस से अपने गेहूँ का कम से कम एक तिहाई आयात करते हैं, [और] उनमें से भी 18 [देश] कम से कम 50 प्रतिशत आयात करते हैं’। रूस और यूक्रेन वैश्विक स्टॉक में जौ का 33%, गेहूँ का 29%, मकई का 17% और सूरजमुखी के तेल की दुनिया की आपूर्ति का लगभग 80% निर्यात करते हैं। रूस और यूक्रेन के बाहर के किसान, निर्यात की कमी को पूरा करने की कोशिश करने के साथ, अब युद्ध के कारण ईंधन की बढ़ी क़ीमतों का भी सामना कर रहे हैं। ईंधन की क़ीमतें रासायनिक उर्वरकों की लागत और किसानों की फ़सल उगाने की क्षमता दोनों को प्रभावित करती हैं। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के मुख्य अर्थशास्त्री मैक्सिमो टोरेरो कलन ने कहा कि ‘लोगों द्वारा खाए जाने वाले प्रत्येक पाँच कैलोरी में से एक कैलोरी कम से कम एक अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार से आती है, यह [आँकड़ा] 40 साल पहले के मुक़ाबले 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा बढ़ चुका है’। वैश्विक खाद्य व्यापार में यह अशांति निश्चित रूप से पोषण (न्यूट्रिशन) और भोजन के सेवन (फ़ूड इन्टेक) के लिए समस्या पैदा करेगी, विशेष रूप से इस धरती पर रहने वाले सबसे ग़रीब लोगों के लिए।
ग़रीब देशों के पास भुखमरी के ज्वार को रोकने के लिए कोई समुचित उपाय नहीं हैं। इसका अहम कारण है विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के नियम, जो एक तरफ़ अमीर देशों को विशेषाधिकार सब्सिडी देता है, और दूसरी ओर यदि ग़रीब देश अपने किसानों और भूखे लोगों की सहायता के लिए किसी तरह की सरकारी मदद करते हैं तो उन्हें दंडित करता है। और किसी की नहीं बल्कि विश्व व्यापार संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन की एक हालिया रिपोर्ट ने इन सब्सिडी लाभों का प्रमाण प्रदान किया है जिससे धनी देशों को लाभ होता है। जून के मध्य में होने वाले विश्व व्यापार संगठन के 12वें मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में, जी-33 देश, ग़रीब देशों में भोजन की सरकारी ख़रीद के माध्यम से अपने किसानों की आजीविका की रक्षा करने और सार्वजनिक खाद्य वितरण प्रणाली को बेहतर करने के लिए (2013 में स्थापित) ‘शांति खंड’ के उपयोग का विस्तार करने की कोशिश करेंगे।
जो लोग हमारा भोजन पैदा करते हैं, वे भूखे हैं, फिर भी, आश्चर्यजनक रूप से किसानों और खेत मज़दूरों की ग़रीबी और भुखमरी के बारे में बहुत कम बातचीत होती है। 3.4 अरब से भी अधिक लोग, यानी दुनिया की लगभग आधी आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है; दुनिया के 80% ग़रीब यही लोग हैं। अधिकांश ग्रामीण ग़रीबों के लिए, कृषि ही आय का प्रमुख स्रोत है। यह क्षेत्र अरबों लोगों को रोज़गार देता है। ग्रामीण ग़रीबी का पुनरुत्पादन इसलिए नहीं होता है क्योंकि लोग कड़ी मेहनत नहीं करते, बल्कि इसलिए होता है क्योंकि ग्रामीण श्रमिकों को ज़मीन नहीं मिलती, और छोटे किसानों को सरकार का समर्थन नहीं मिलता।
‘भूख के तूफ़ान’ को समझने के हमारे प्रोजेक्ट के तहत, ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान (दक्षिण अफ़्रीका) उस क्षेत्र के कृषि श्रमिकों की दुर्दशा पर क़रीब से ध्यान दे रहा है। हमारा सबसे हालिया डोज़ियर, ‘दिस लैंड इज़ द लैंड ऑफ़ आवर ऐन्सेस्टर्ज़’ (यह ज़मीन हमारे पूर्वजों की ज़मीन है), कृषि श्रमिकों का उनके अपने दृष्टिकोण से किया गया एक बारीक अध्ययन है। दक्षिण अफ़्रीका में भूमि सुधार की विफलताओं और कृषि श्रमिकों के जीवन पर इसके प्रभावों के बारे में जानने के लिए शोधकर्ता यवोन फ़िलिस ने क्वाज़ुलु-नताल से पश्चिमी और उत्तरी केप प्रांतों की यात्रा की और कृषि श्रमिकों तथा उनके संगठनों से बात की। यह उन कुछ डोजियरों में से एक है जो आई (मैं) से शुरू होता है। यह दक्षिण अफ़्रीका में ज़मीन के मुद्दे की आत्मीय प्रकृति को दर्शाता है। ‘ज़मीन आपके लिए क्या मायने रखती है?’, हाल ही में जब हम जोहान्सबर्ग में थे, तब मैंने यवोन से पूछा था। उसने जवाब दिया:
मैं पूर्वी केप प्रांत के बेडफ़ोर्ड में एक खेत में पला-बढ़ा हूँ। मेरी परवरिश ने मुझे अपने जीवन के कुछ बेहतरीन सबक़ दिए हैं। एक सबक़ खेत में काम करने वालों और खेत में रहने वालों के समुदाय से मिला था; उन्होंने मुझे अन्य लोगों के साथ एक समुदाय में रहने का मूल्य सिखाया। उन्होंने मुझे यह भी सिखाया कि ज़मीन को पोषित करने और खेती करने का क्या मतलब है और [यह भी कि] कैसे मैं यह अर्थ निकालूँ कि ज़मीन मेरे लिए क्या है। उन्हीं सबक़ों ने ज़मीन की प्रकृति के बारे में मेरी व्यक्तिगत मान्यताओं को गढ़ा है। सभी लोग ज़मीन से जीने के हक़दार हैं। ज़मीन केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि हम इससे उत्पादन कर सकते हैं; [बल्कि] यह लोगों के इतिहास, मानवता और सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है।
डच (बोअर) और ब्रिटिश उपनिवेशवाद की प्रक्रिया ने अफ़्रीकी किसानों को ज़मीन से वंचित कर उन्हें भूमिहीन श्रमिकों, अवैतनिक श्रमिक किरायेदारों या ग्रामीण बेरोज़गारों में बदल दिया। इस प्रक्रिया को नेटिव लैंड एक्ट (1913 की संख्या 27) ने और पक्का कर दिया था, जिसकी मौजूदगी आज भी महसूस की जाती है। संगीतकार रूबेन कालुज़ा (1895-1969) ने सत्रह साल की उम्र में अपने गीत ‘उमटेटो वी लैंड एक्ट‘ (‘द लैंड एक्ट’) के माध्यम से इस क़ानून पर अपनी प्रक्रिया दी थी। उनका गीत देश में मुक्ति आंदोलन के शुरुआती गानों में से एक बन गया:
जिस अधिकार के लिए हमारे हमवतन लड़े
राष्ट्र के लिए हमारा रुदन
यही है कि हमारे पास अपना देश हो
हम हमारे पिताओं के बेघर
बेटों के लिए रोते हैं
जिनके पास [अपने लिए] जगह नहीं हैं
हमारे पूर्वजों की इस जगह में।
अफ़्रीकन नेशनल कांग्रेस (एएनसी) और उसके सहयोगियों के स्वतंत्रता चार्टर (1955) ने रंगभेद, जो औपचारिक रूप से 1994 में समाप्त हो गया था, के ख़िलाफ़ संघर्ष करने वालों से वादा किया था कि ‘ज़मीन उसपर काम करने वालों की साझी संपत्ति होगी’। इस वादे का 1996 के दक्षिण अफ़्रीकी संविधान, अध्याय 2, खंड 25.5 में फिर से उल्लेख किया गया था, लेकिन इसमें खेत मज़दूरों का स्पष्ट उल्लेख शामिल नहीं है।
वास्तव में, 1993 के अंतरिम संविधान से ही, रंगभेद के बाद की नयी व्यवस्था ने अध्याय 2, खंड 28 में एक ‘संपत्ति खंड’ के माध्यम से खेत मालिकों के अधिकारों का बचाव किया। एएनसी के भीतर के मतभेदों के कारण अधिक प्रगतिशील पुनर्निर्माण और विकास (आरडीपी) परियोजना के बजाय नवउदारवादी विकास, रोज़गार और पुनर्वितरण (जीईएआर) रणनीति को अपनाया गया। यह अपने आप ख़ुद पर लगाया गया संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम था। इसका मतलब यह हुआ कि भूमि पुनर्स्थापन, भूमि कार्यकाल सुधार और भूमि पुनर्वितरण कार्यक्रमों के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और राज्य निधि आवंटन बहुत कम था। जैसा कि हमारे डोज़ियर में लिखा है कि आज भी स्वतंत्रता चार्टर के वादे ‘पूरे किए जाने बाक़ी हैं’।
ऐतिहासिक अन्यायों की भरपाई के लिए भू-मालिकों (जो कि मुख्यतः श्वेत हैं) के वर्ग से भूमि को ज़ब्त करने के बजाय सरकार भूस्वामियों को मुआवज़े देती है और ‘इच्छुक ख़रीदार, इच्छुक विक्रेता’ के सिद्धांत पर काम करती है। नौकरशाही लालफ़ीताशाही और निधि की कमी किसी भी वास्तविक भूमि सुधार परियोजना को असफल बना देती है। अपने 2014 के रूथ फ़र्स्ट लेक्चर में, देश की सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन, नेशनल यूनियन ऑफ़ मेटलवर्कर्स ऑफ़ साउथ अफ़्रीका (एनयूएमएसए) के महासचिव, इरविन जिम ने उल्लेख किया कि 1913 भूमि अधिनियम की शताब्दी सरकार ने नहीं मनाई थी, उसे केवल खेत मज़दूरों ने 2012 और 2013 की हड़ताल के साथ मनाया था। जिम ने कहा, ‘हड़ताल अभी भी हमारी यादों में ताज़ा है। यह इस औपनिवेशिक ऐतिहासिक तथ्य को उजागर किए रखती है कि ज़मीन, और उससे आने वाली उपज, ज़मीन पर काम करने वालों के बीच समान रूप से साझा नहीं की जा रही है।’ ज़मीन के सवाल को नवउदारवादी तरीक़े से हल करने के कारण, पुनर्स्थापन और पुनर्वितरण के कुछ कार्यक्रमों ने अंतत: जीवन निर्वाह के लिए कृषि करने वाले किसानों या आजीवन खेत मज़दूरी करने वालों के बजाय बड़े किसानों को ही फ़ायदा पहुँचाया है।
दक्षिण अफ़्रीका में सही मायने में लागू किसी कृषि सुधार परियोजना को केवल ज़मीन के सवाल को नहीं बल्कि देश के ग्रामीण इलाक़ों में फैले भूख के संकट को भी हल करना चाहिए। हमारा डोज़ियर खेत-मज़दूरों व उनके संगठनों के साथ हमारी बातचीत सें विकसित छ: माँगों की सूची के साथ ख़त्म होता है:
1. दक्षिण अफ़्रीका की सरकार भूमि सुधार कार्यक्रम विकसित करने के लिए खेत-मज़दूरों और खेत में रहने वालों से परामर्श कर उनके सुझाव शामिल कर ऐसा कार्यक्रम बनाए जो उनकी भूमि ज़रूरतों को पूरा करता हो।
2. मज़दूर किरायेदारों के भूमि स्वामित्व के दावों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए ताकि ऐसे भूमि सुधार से बचा जा सके जो केवल काले अभिजात वर्ग को समृद्ध करता हो।
3. कृषि, भूमि सुधार और ग्रामीण विकास विभाग को श्वेत खेत मालिक द्वारा खेत का कुछ हिस्सा आजीवन मज़दूरों और कई पीढ़ियों तक उनके खेतों पर काम करते रहे परिवारों के वंशजों को बाँटने की प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाना चाहिए।
4. सरकार को ख़ुद खेत-मज़दूरों को खेत ख़रीदकर देने चाहिए और शुरुआती लागत, कृषि उपकरण और कृषि कौशल के लिए पैसा देकर उनकी सहायता करनी चाहिए।
5. दक्षिण अफ़्रीका में भूमि सुधार कार्यक्रम को खाद्य असुरक्षा बढ़ाने वाले सामाजिक कारकों को ध्यान में रखना चाहिए और भूमि पुनर्वितरण के माध्यम से इसे सुधारने के अवसरों को स्वीकार करना चाहिए।
6. भूमि सुधार प्रक्रिया को लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए कृषि उद्योग में महिला श्रमिकों की उपेक्षा और महिला किसानों के भू-स्वामित्व की कमी को दूर करना चाहिए।
लू न्गुम्लाबा वूखोखो बेथु! (यह हमारे पूर्वजों की ज़मीन है)! यही वो नारा है जो हमारे डोज़ियर के शीर्षक की प्रेरणा है। अब समय आ गया है कि ज़मीन पर काम करने वालों को ज़मीन का मालिकाना हक़ मिले।
स्नेह-सहित,
विजय।