प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
16 फ़रवरी 2015 को, गोविंद पानसरे और उमा पानसरे महाराष्ट्र के कोल्हापुर शहर में अपने घर के पास सुबह सैर कर रहे थे। मोटरसाइकिल पर सवार दो आदमियों ने रास्ता पूछने के लिए उन्हें रोका। पानसरे दंपति उनकी मदद नहीं कर सके। उनमें से एक आदमी ने हँसते हुए बंदूक़ निकाली और उन दोनों को गोली मार दी। उमा पानसरे को गहरी चोट लगी लेकिन वो इस हमले में बच गईं। उनके पति गोविंद पानसरे का 20 फ़रवरी को अस्पताल में निधन हो गया। वे तब 82 वर्ष के थे।
ग़रीबी में पले-बढ़े गोविंद पानसरे को स्कूल जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, जहाँ उन्हें मार्क्सवादी विचारों से रूबरू होने का मौक़ा मिला। 1952 में, 19 साल की उम्र में, पानसरे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) में शामिल हो गए। कोल्हापुर में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान, पानसरे अक्सर रिपब्लिक बुक स्टॉल में मार्क्सवाद का क्लासिक साहित्य और सोवियत उपन्यास पढ़ते मिल जाते, जो कि सीपीआई के पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस के माध्यम से भारत आता था। वकील बनने के बाद, पानसरे ने ग़रीब बस्तियों में काम करने वाले संगठनों और ट्रेड यूनियनों के साथ काम करना शुरू किया। जाति व्यवस्था और धार्मिक कट्टरवाद जैसे घटिया रिवाजों से कैसे छुटकारा पाया जाए, इस बात को बेहतर ढंग से समझने के लिए वे महाराष्ट्र के इतिहास का गहन अध्ययन करते थे।
संघर्ष की दुनिया और किताबों की दुनिया से, संस्कृति और बौद्धिक मुक्ति के लिए पानसरे की प्रतिबद्धता का विकास हुआ। अपने साथियों के साथ मिलकर उन्होंने श्रमिक प्रतिष्ठान की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था पुस्तकें प्रकाशित करना और सेमिनार व व्याख्यान आयोजित करना। श्रमिक प्रतिष्ठान द्वारा आयोजित सबसे लोकप्रिय कार्यक्रमों में से एक था मराठी लेखक अन्नाभाऊ साठे के सम्मान में होने वाला वार्षिक साहित्यिक उत्सव। 1987 में, पानसरे ने ‘शिवाजी कोन होता?’ नामक एक पुस्तक लिखी थी, जो कि लेफ़्टवर्ड बुक्स के पास ‘हू वॉज़ शिवाजी?’ नाम से अंग्रेज़ी में उपलब्ध है। उन्होंने 17वीं शताब्दी के योद्धा शिवाजी को भारत में दक्षिणपंथियों की तिकड़म से आज़ाद कर दिया, जिन्होंने आपनी किताबों में उनको मुसलमानों से लड़ने वाले एक हिंदू योद्धा के रूप में चित्रित किया था। वास्तव में शिवाजी मुसलमानों के प्रति उदार थे, इसलिए पानसरे ने उन्हें दक्षिणपंथियों के चंगुल से छुड़ाया।
वामपंथी लेखकों और राजनीतिक हस्तियों की होने वाली हत्याओं में से एक हत्या पानसरे की भी हुई। कोई भी देश इस हिंसा से अछूता नहीं है। दुनिया भर में वामपंथी किताबों को बेचने वाली दुकानों पर हमले हो रहे हैं और वामपंथी प्रकाशकों को डराया जा रहा है। पेरू के पूर्व विदेश मंत्री हेक्टर बेजर ने हमें हाल में जारी हुए हमारे ड़ोज़ियर में बताया था कि दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों के पास हमारे समय के प्रमुख मुद्दों पर बहस करने के लिए कोई वज़नदार विचार नहीं है। उनके पास धर्मांधता या जलवायु तबाही, सामाजिक असमानता या इतिहास की व्याख्या के बारे में कोई सुसंगत तर्क देने के लिए तथ्य या सिद्धांत नहीं है। इसके बजाय दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी रूढ़िवादी और तर्कहीन विचारों को बढ़ावा देते हैं: और खुली धमकियाँ देते हैं व हिंसा करते हैं। नव-फ़ासीवादी राजनेता और पार्टियाँ पानसरे जैसे लोगों पर बंदूक़ों और लाठियों से हमला कर उन्हें मारने वालों को इज़्ज़त का लिबास पहना देते हैं।
गोविंद पानसरे, गौरी लंकेश, चोकरी बेलाद (ट्यूनीशिया), क्रिस हानी (दक्षिण अफ़्रीका), मारिएल फ़्रेंको (ब्राजील), नाहेद हत्तर (जॉर्डन) और इन जैसे कई और लोगों के लिए न्याय बहुत दूर है। ये सभी संवेदनशील लोग थे, जिन्होंने हमारी वर्तमान दुनिया से बड़ी किसी चीज़ के लिए लड़ने का ख़तरनाक रास्ता चुना था।
पानसरे की बहू डॉ. मेघा पानसरे ने ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान को एक संदेश भेजा है: ‘हमारे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का स्थान सिकुड़ रहा है। पत्रकारों और कलाकारों, बुद्धिजीवियों और किसानों पर लगातार हमले होते रहे हैं। हम सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार करने के लिए लड़ने को मजबूर हो गए हैं। सरकार द्वारा धार्मिक कट्टरपंथी ताक़तों को संरक्षण देते देखना बेहद चिंताजनक है। हमें अपनी आवाज़ उठानी चाहिए ताकि बंदूक़ों से हमारी आवाज़ को बंद किया जाना रोका जा सके’।
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ लेफ़्ट पब्लिशर्स ने गोविंद पानसरे के लिए न्याय की माँग करते हुए एक कड़ा बयान जारी किया है। बयान में कहा गया है: ‘सात साल बीत चुके हैं, फिर भी पुलिस ने ठोस तथ्य नहीं जुटाए हैं। पूरी दुनिया भारत में घृणा अपराधों की बढ़ती प्रवृत्ति और भारतीय संस्कृति के ख़िलाफ़ अपराध (लेखकों की हत्या सहित) की गवाह है। हम, इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ लेफ़्ट पब्लिशर्स, पीड़ितों के परिवारों के साथ एकजुटता से खड़े हैं और हम अपनी धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक प्रगति और सामाजिक न्याय के प्रगतिशील और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करते हैं।’
गोविंद पानसरे की हत्या के कुछ साल बाद, नयी दिल्ली स्थित लेफ़्टवर्ड बुक्स (एक प्रकाशन संस्थान) ने रेड बुक्स डे पर विचार करना शुरू किया। एक ऐसा दिन जब परिवर्तनवादी किताबों और उन्हें तैयार करने वाले लोगों और संस्थानों का उत्सव मनाया जाए। पानसरे को मैं जितना जानता हूँ उसके आधार पर कह सकता हूँ कि वे जानते होंगे कि जिस तारीख़ को उनकी मृत्यु हुई उससे अगली तारीख़ कितनी महत्वपूर्ण है। 21 फ़रवरी 1848 को, कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने पूरे यूरोप में क्रांतियों के दौर (स्प्रिंगटाइम ऑफ़ द पीपल्ज़) से कुछ महीने पहले द कम्युनिस्ट मेनिफ़ेस्टो (कम्युनिस्ट घोषणापत्र) प्रकाशित किया था। यह घोषणापत्र न केवल हमारे समय में सबसे अधिक पढ़ी जाने वाली पुस्तकों में से एक है, बल्कि 2013 में, संयुक्त राष्ट्र के शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने इस पुस्तक को विश्व की स्मृति (मेमरी ऑफ़ द वर्ल्ड) कार्यक्रम में अंगीकार भी किया था। यूनेस्को के इस कार्यक्रम का उद्देश्य मानवता की विरासतों को ‘समय के कारण बर्बाद होने’ और ‘सामूहिक विस्मृति की बीमारी’ से बचाना है। इसलिए, लेफ़्टवर्ड बुक्स -और इंडियन सोसाइटी ऑफ़ लेफ़्ट पब्लिशर्स- ने हर साल 21 फ़रवरी को दुनिया भर में रेड बुक्स डे मानने का आह्वान करने का फ़ैसला किया।
जब 21 फ़रवरी 2020 को पहला रेड बुक्स डे आयोजित किया गया था, तो कम्यूनिस्ट घोषणापत्र को सार्वजनिक रूप से पढ़ने में दक्षिण कोरिया से लेकर वेनेज़ुएला तक तीस हज़ार लोग शामिल हुए थे। संयुक्त राष्ट्र ने 21 फ़रवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में नामित किया था। इसलिए घोषणापत्र को सभी लोगों ने उस भाषा में पढ़ा जिसमें वे पढ़ते हैं -कोरियाई में जब दिन शुरू हुआ और स्पेनिश में जब दिन समाप्त हुआ। उस दिन घोषणापत्र को पढ़ने के लिए सबसे अधिक संख्या में लोग तमिलनाडु में इकट्ठा हुए थे, जहाँ भारती पुस्तकाल्यम प्रकाशन गृह और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने लगभग दस हज़ार लोगों के साथ यह दिन मनाया था। घोषणापत्र का पहला पाठ उस दिन चेन्नई के मरीना बीच पर बने 1959 में ट्राइंफ़ ऑफ़ लेबर स्टैच्यू के नीचे किया गया। ठीक उसी स्थान पर 1923 में भारत में पहली बार मई दिवस मनाया गया था। नेपाल में किसानों के कम्युनिस्ट संगठनों ने खेतों में और ब्राज़ील के भूमिहीन श्रमिक आंदोलन (एमएसटी) द्वारा बसाई गई बस्तियों में घोषणापत्र पढ़ा गया था। हवाना (क्यूबा) में स्टडी सर्कल्ज़ में इसे पढ़ा गया। और पहली बार इसे सेसोथो भाषा (दक्षिण अफ़्रीका की ग्यारह आधिकारिक भाषाओं में से एक) में पढ़ा गया। इसे गेलिक भाषा में कोनोली बुक्स (डबलिन, आयरलैंड) में पढ़ा गया और अरबी में बेरूत (लेबनान) के एक कैफ़े में पढ़ा गया। भारती पुस्तकाल्यम ने इस अवसर पर एम. शिवलिंगम द्वारा घोषणापत्र का तमिल में किया गया एक नया अनुवाद प्रकाशित किया था। प्रजाशक्ति और नव तेलंगाना ने ए गाँधी द्वारा तेलुगु में किया अनुवाद प्रकाशित किया था।
रेड बुक्स डे के बाद, इंडियन सोसाइटी ऑफ़ लेफ़्ट पब्लिशर्स के आमंत्रण पर प्रकाशकों के एक समूह ने इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ लेफ़्ट पब्लिशर्स (आईयूएलपी) का गठन किया। पिछले दो वर्षों के दौरान, आईयूएलपी ने चार संयुक्त पुस्तकों का निर्माण किया है: लेनिन 150, मारीयातेगी, चे और पेरिस कम्यून 150। पेरिस कम्यून की 150वीं वर्षगांठ मनाने के लिए, सत्ताईस प्रकाशन संस्थानों ने 28 मई 2021 को पेरिस कम्यून 150 किताब का अनेकों भाषाओं में एक साथ विमोचन किया था। यह प्रकाशन के इतिहास में एक अद्वितीय उपलब्धि थी। इस साल, आईयूएलपी दो और पुस्तकें प्रकाशित करेगा: एलेक्जेंड्रा कोल्लोंताई के लेखों का संकलन मई के महीने में और रूथ फ़र्स्ट के लेखों का संकलन अगस्त के महीने में। इन कामों के साथ-साथ आईयूएलपी विभिन्न प्रकाशकों के बीच पुस्तकों का आदान-प्रदान करने और लेखकों, प्रकाशकों, मुद्रकों और किताबों की दुकानों पर होने वाले हमलों के ख़िलाफ़ एक साथ खड़े होने के सिद्धांतों को विकसित कर रहा है।
रेड बुक्स डे आईयूएलपी की एक पहल है, लेकिन हमें उम्मीद है कि यह उत्सव वार्षिक सांस्कृतिक गतिविधियों के व्यापक वैश्विक कैलेंडर का हिस्सा बनेगा। रेड बुक्स डे वेबसाइट पर आप इस दिन को मनाते हुए आपके द्वारा इस साल की गई गतिविधियों के बारे में जानकारी पोस्ट कर सकते हैं। इस साल सबको एक ही किताब पढ़ने पर ज़ोर देने की बजाए हमारा विचार है कि इस साल लोग कोई भी एक रेड बुक पढ़ें, सार्वजनिक रूप से या ऑनलाइन। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में इस साल एंगेल्स की किताब समाजवाद: यूटोपियन एंड साइंटिफ़िक (1880) पढ़ी जाएगी। अन्य जगहों पर लोग मानवमुक्ति पर लिखी गई कविताओं या घोषणापत्रों को पढ़ेंगे।
सिएरा मेइस्त्रा में, फ़िदेल कास्त्रो और उनके साथी शाम का अधिकतर समय पढ़ने में बिताते थे, जो कुछ भी उनके पास पढ़ने के लिए होता वे उसे पढ़ते थे। जब वे लोग मेक्सिको से ग्रानमा में सवार हुए थे, तो बंदूक़ें, भोजन और दवाएँ लेकर चले थे, उन्होंने ज़्यादा किताबें साथ नहीं ली थीं। उनके पास जो थोड़ी बहुत किताबें थीं, जैसे कर्ज़ियो मालापार्ट द्वारा नेपल्स पर नाज़ी अधिग्रहण के बारे में लिखी गई ‘द स्किन (1949)’ और एमिल ज़ोला की भयानक थ्रिलर किताब ‘द बीस्ट विदिन (1890)’, वो उन्हें आपस में बाँटकर पढ़ते थे। उनके पास एडवर्ड गिब्बन की ‘द हिस्ट्री ऑफ़ द डिक्लाइन एंड फ़ॉल ऑफ़ द रोमन एम्पायर (1776)’ की भी एक प्रति थी, और यही शायद हवाई हमले के दौरान चे ग्वेरा के मारे जाने का कारण था।
गुरिल्ला सैनिकों में से एक, सैलुस्टियानो डे ला क्रूज़ एनरिकेज़ (जिन्हें क्रूसिटो के नाम से भी जाना जाता है), क्यूबा की पुरानी गजिरा शैली में गाथागीत रचते थे। वो कैम्प फ़ायर के पास बैठकर गिटार बजाते हुए अपनी कविताएँ गाते थे। चे ग्वेरा ने अपनी किताब रेमिनिसेन्सेज़ ऑफ़ द क्यूबन रेवलूशनेरी वॉर (1968) में क्रूसिटो के बारे में लिखा है कि ‘इस शानदार कॉमरेड ने गाथागीतों में क्रांति का पूरा इतिहास लिखा था, जिन्हें वे हमारे विश्राम के समय में अपनी पाइप पीते हुए लिखते थे। चूँकि सिएरा में बहुत कम काग़ज़ उपलब्ध था, तो वो अपने दिमाग़ में ही ये गाथागीत रचते थे, इसलिए जब एक गोली ने सितंबर 1957 में पिनो डेल अगुआ की लड़ाई में उनकी मौत हो गई तब उनका गीत भी उनके साथ ही चला गया’। क्रूसिटो ख़ुद को एल रुइज़नर डे ला सिएरा मेइस्त्रा कहते थे, इसका मतलब है ‘सिएरा मेइस्त्रा की कोकिला’। इस रेड बुक्स डे पर, मैं उनके गाथागीतों की कल्पना करते हुए दुनिया को इंसानों और प्रकृति के लिए एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश करने वाले क्रूसिटो और गोविंद पानसरे जैसे लोगों के सम्मान में उन गीतों की भूली हुई धुनों को गुनगुनाऊँगा।
स्नेह-सहित,
विजय।
पुनश्च: इस साल मैं जिस रेड बुक को पढ़ने वाला हूँ वो है, वो न्ग़ुएन जियाप की किताब ‘अन्फ़ॉर्गेटेबल डेज़’, जिसे हनोई स्थित फ़ॉरेन लैंग्वेजेज़ पब्लिशिंग हाऊस ने 1975 में प्रकाशित किया था।