शेरिन शेरपा (नेपाल), खो चुका उत्साह, 2014

 

 

प्यारे दोस्तों,

ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।

आज मानवता दुविधाओं से घिरी पड़ी है। आँकड़ों को देखे बिना भी हम जानते हैं कि मानवता जलवायु व पर्यावरण से लेकर ग़रीबी और भुखमरी आदि कई संकटों से जूझ रही है। 1993 में, दार्शनिक एडगर मोरिन और ऐनीब्रिगिट केर्न ने अपनी पुस्तक Terre-Patrie (मातृभूमि) में पॉलीक्राइसिस‘ (यानी, बहुसंकट) शब्द का इस्तेमाल किया था। मोरिन और केर्न ने तर्क दिया कि कोई एक बड़ी समस्या नहीं है, बल्कि कई बड़ी समस्याएँ हैं, और ये इन समस्याओं, संकटों, अनियंत्रित प्रक्रियाओं व ग्रह के सामान्य संकट की अंतरएकजुटता है जो कि सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। समस्या इन संकटों का क्रमिक रूप से आना नहीं है, बल्कि एक दूसरे से जुड़ा होना और ग्रह पर पड़ने वाले एक दूसरे के प्रभावों को विकराल बनाना है।। 2016 में यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष, जीनक्लाउड जंकर, ने अपने एक भाषण में इस तर्क का इस्तेमाल कर इसे लोकप्रिय बना दिया। उन्होंने कहा कि दुनिया में विभिन्न संकट एकदूसरे को बढ़ावा देते हैं, [और] लोगों के मन में संदेह और अनिश्चितता की भावना पैदा करते हैं।‘ (पर्यावरणीय, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि) तमाम संकटों को एक ही शब्द से बयान किया जा सकता है: ‘बहुसंकट‘ (पॉलीक्राइसिस) – कई संकटों से मिलकर बना एक वृहद संकट।

बेशक, मार्क्सवादी दृष्टिकोण से, ‘बहुसंकटशब्द पूरी तरह से स्पष्टता प्रदान नहीं करता, क्योंकि इसके अनुसार ये कई संकट न तो एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और न ही ये संकट, इन्हें क्रमिक रूप से या समग्र रूप से हल करने की पूँजीवादी विफलताओं का नतीजा हैं। 1992 के रियो शिखर सम्मेलन के बाद से – (अमेज़ॅन वर्षा वनों की तबाही जैसे) पर्यावरण संकट से निपटने के लिए कई स्पष्ट प्रस्ताव पेश किए गए हैं, लेकिन ग्रह पर उपलब्ध संसाधनों पर पूंजीवादी क़ब्ज़े और वैश्विक स्तर पर तथा अमेज़ॅन क्षेत्र में आने वाले विभिन्न राज्यों के नीति निर्धारण निकायों पर पूँजीवादी निजी संपत्ति की पकड़ के कारण ये प्रस्ताव अधिनियमित नहीं हो सके हैं।

 

दाइरा तुकानो (ब्राजील), माहा लाल तोता, 2021

 

जंकर का यह कहना कि बहुसंकट संदेह और अनिश्चिततापैदा करता है, सही भी है और कपटपूर्ण भी; क्योंकि इसमें दुनिया में व्याप्त संदेह की पहचान तो की गई है, लेकिन इस बहुसंकट के उद्भव को स्पष्ट नहीं किया गया। यह कथन दुनिया के अरबों लोगों को इन अनेक संकटों के कारणों की पड़ताल करने और इनसे पार पाने की एकजुट कोशिश करने के काबिल नहीं बनाता। 2016 के उसी भाषण में, जंकर ने, यूरोप के ईसाई दक्षिणपंथी दृष्टिकोण से, दुनिया के लिए नहीं, बल्कि केवल यूरोप के लिए नया प्रस्ताव रखते हुए कहा था कि, ‘[]में अंधाधुन मितव्ययिता, जिसकी बहुत से लोग कल्पना करते हैं, नहीं लागू करनी है‘; इसकी बजाय वो बुनियादी ढांचे के निर्माण और रोजमर्रा की सामान्य स्थितियों में सुधार के लिए निवेश जुटाना चाहते थे। पर ऐसी कोई परियोजना सामने नहीं आई। उन्होंने तब कहा था कि, ‘यूरोप सुधार की ओर बढ़ रहा है।लेकिन अब, जैसा कि पीटर मर्टेंस (बेल्जियम की वर्कर्स पार्टी के महासचिव) ने मुझे इस साल की शुरुआत में बताया था, नवउदारवादी सर्वसम्मतियूरोप का गला घोंट रही है और महाद्वीप को मुद्रास्फीति के कारण निराशा की ओर धकेल रही है; जिससे वर्तमान में कट्टर दक्षिणपंथ को फ़ायदा हो रहा है।

 

बहजात सदर (ईरान), शीर्षकहीन, 1956

 

बहुसंकट के अनेक तत्वों में से एक है लैंगिक असमानता व महिलाओं के खिलाफ हिंसा की गहराती समस्या। यूएन विमेन की एक नई रिपोर्ट Progress on the Sustainable Development Goals: The gender snapshot 2023में कुछ बहुत परेशान करने वाले आंकड़े हैं। मौजूदा रुझानों को देखते हुए, इस रिपोर्ट का अनुमान है कि 2030 तक, 340 मिलियन महिलाएँ व लड़कियाँ यानी दुनिया की अनुमानित महिला आबादी में से लगभग आठ प्रतिशत महिलाएँ व लड़कियाँ अत्यधिक गरीबी में रहेंगी और प्रत्येक चार में से एक महिला मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा का अनुभव कर रही होगी। वर्तमान दर के हिसाब से, इस रिपोर्ट के अनुसार लगभग 110 मिलियन लड़कियाँ और युवा महिलाएँ स्कूल से बाहर होंगी। यह भी आश्चर्यजनक है कि, समान काम के लिए समान वेतन के मुद्दे पर वर्षों के संघर्ष के बावजूद पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन का अंतर लगातार बड़ाबना हुआ है – ‘वैश्विक स्तर पर एक पुरुष द्वारा कमाये गए प्रत्येक रुपये के मुक़ाबले एक महिला केवल 51पैसे कमाती है। कामकाजी उम्र की केवल 61.4 प्रतिशत महिलाएँ श्रम बल का हिस्सा हैं, जबकि कामकाजी उम्र के 90 प्रतिशत पुरुष श्रम बल में हैं। इस साल की उक्त रिपोर्ट वृद्ध महिलाओं (65 और उससे अधिक उम्र की महिलाओं) पर केंद्रित थी; और रिपोर्ट से यह पता चलता है कि आँकड़े भेजने वाले 116 में से 28 देशों में, आधी से भी कम वृद्ध महिलाओं को पेंशन मिलती है। यह सचमुच निराशाजनक है और हालात इससे ज्यादा बदतर हो रहे हैं।

अगस्त में, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) और यू एन विमेन ने देखभाल अर्थव्यवस्था में कार्यरत महिलाओं के लिए बेहतर रोजगार के विषय पर नेपाल में एक सेमिनार आयोजित किया था। दुनिया के बाकी कई हिस्सों की तरह नेपाल की महिलाएँ भी दैनिक अवैतनिक देखभाल कार्य का 85 प्रतिशत काम करती हैं। महिलाएँ इन कामों में प्रतिदिन उनतीस मिलियन घंटे बिताती हैं जबकि पुरुष केवल पांच मिलियन घंटे ही यह काम करते हैं। ILO के आंकड़े हमें दिखाते हैं कि वैश्विक स्तर पर, अवैतनिक देखभाल कार्य में खर्च होने वाले कुल समय में से 76.2 प्रतिशत समय में महिलाएँ ये काम करती हैं, यानी पुरुषों से तीन गुना से भी ज़्यादा समय।नेपाली सरकार के आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग चालीस प्रतिशत महिलाएँ अवैतनिक देखभाल कार्य के लिए सरकारी क्रेच जैसे विकल्पों की कमी के कारण वैतनिक रोजगार में भाग नहीं ले पा रही हैं।

बेशक, वेतन में लैंगिक भेदभाव और अवैतनिक देखभाल कार्य का गैरबराबर विभाजन पितृसत्ता की पुरानी आदतें हैं, जिनसे ठोस संघर्ष के माध्यम से ही निपटा जाना चाहिए। लेकिन आज़माये हुए और पुख़्ता समाधान भी मौजूद हैं, जिन्हें समाजवादी देशों ने संस्थागत रूप से लागू किया है। सामाजिक धन का उपयोग करके (मुहल्ला बाल देखभाल केंद्र, स्कूल के बाद के लिए देखभाल केंद्र, बुजुर्ग देखभाल केंद्र आदि बनाकर) घरेलू देखभाल कार्य को सामाजिक कार्य में बदला जा सकता है। बाल देखभाल केंद्र घर पर किए जाने वाले अवैतनिक देखभाल कार्य के बोझ को भी कम करते हैं और बच्चों को आवश्यक सामाजिक व शैक्षणिक कौशल प्रदान कर स्कूल के लिए भी तैयार करते हैं। इस साल की शुरुआत में, संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) ने बाल देखभाल केंद्र सहित सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को बढ़ाने का आह्वान किया था। दशकों की नवउदारवादी बजट कटौतियों ने पूंजीवादी राज्यों में जो थोड़ीबहुत सामाजिक सुरक्षा योजनाएँ मौजूद थीं, उन्हें भी खत्म कर दिया है; इसके साथ ही दक्षिणपंथ के परिवारसमर्थकहोने के दावों का सीधा असर महिलाओं पर घर के भीतर बढ़ते अवैतनिक देखभाल कार्य के बोझ के रूप में पड़ा है। इन निराशाजनक आंकड़ों की जड़ केवल पितृसत्ता नहीं है, बल्कि वो एक कारण है जो मौजूदा बहुसंकट (पॉलीक्राइसिस ) के कई तत्वों का भी कारक है; और वो कारण है पूंजीवादी व्यवस्था, जिसे वो वर्ग संचालित करता है जो सामाजिक संपत्ति को मानवता की बेहतरी के लिए नहीं बल्कि अपने निजी लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहता है।

 

Saurganga Darshandhari (Nepal), Delight, 2015.

सौरगंगा दर्शनधारी (नेपाल), ख़ुशी, 2015

 

नेपाल में चले पीपुल्स वॉर (1996-2006) के दौरान, एक कुलीन परिवार की युवा महिला निभा शाह माओवादियों के संघर्ष में भाग लेने के लिए जंगल तक चली आई। वहाँ, अपने देश में न्याय के लिए लड़ते हुए, निभा शाह ने कई कविताएँ लिखीं। 2005 में उन्होंने पक्षियों की दृढ़ता पर एक कविता लिखी। यह कविता हमें सिखाती है कि बेहतर भविष्य के निर्माण की उम्मीद रखना ही काफ़ी नहीं है, इस बहुसंकट और पूंजीवाद रूपी आपदा का जुझारू संघर्ष के द्वारा अंत करने का दृढ़ संकल्प भी जरूरी है।

लोगों ने सिर्फ पेड़ को गिरते देखा।

छोटी चिड़िया का घोंसला गिरते हुए किसने देखा?

बेकार चीज!

वो घर उसने एकएक टहनी जोड़कर बनाया था

उसकी आँखों के आँसू किसने देखे?

किसी ने यदि आँसू देखे भी तो उसके दर्द को कौन समझ पाया?

चिड़िया ने हार नहीं मानी,

उम्मीद करना बंद नहीं किया

उड़ना बंद नहीं किया

बल्कि, वो अपना पुराना घर छोड़ कर

एक नया बनाने निकल पड़ी, फिर से जोड़ने लगी

एक टहनी, दूसरी टहनी।

वो सदाबहार पेड़ में अपना घोंसला बना रही है

वो अपने अंडों की रखवाली कर रही है।

चिड़िया को हारना नहीं आता था।

वह नये आसमानों में पंख फैलाती है

वह नये आसमानों में उड़ान भरती है।

स्नेहसहित,

विजय।