प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
1991 में सोवियत समाजवादी गणराज्य (यूएसएसआर) के पतन के बाद एक पूरी पीढ़ी गुज़र चुकी है। इसके दो साल पहले, 1989 में, हंगरी द्वारा अपने बॉर्डर खोले जाने के बाद, पूर्वी यूरोप की साम्यवादी सरकारों का विघटन हो चुका था। 3 मार्च 1989 को, हंगरी के आख़िरी कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री मिक्लॉस नेमेथ ने यूएसएसआर के आख़िरी राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव से पूछा कि क्या पश्चिमी यूरोप के बॉर्डरों को खोला जा सकता है। गोर्बाचेव ने नेमेथ से कहा था, ‘हमारी सीमाओं पर सख़्त पहरा है, लेकिन अब हम भी ज़्यादा खुल रहे हैं’। तीन महीने बाद, 15 जून को गोर्बाचेव ने बॉन (पश्चिम जर्मनी) में प्रेस वार्ता में कहा कि बर्लिन की दीवार’ख़त्म हो सकती है, यदि उसे अस्तित्व में लाने वाले कारण (प्री-कंडिशंज़) ख़त्म हो जाएँ’। उन्होंने उन कारणों की कोई सूची नहीं दी थी, लेकिन उन्होंने कहा था कि, ’इस दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं है’। 9 नवंबर 1989 को बर्लिन की दीवार तोड़ दी गई थी। अक्टूबर 1990 तक, जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (ड्यूश डेमोक्राटिशे रिपुब्लिक- डीडीआर) एकीकृत जर्मनी का हिस्सा बन गया था, जिस पर पश्चिम जर्मनी का प्रभुत्व था।
एकीकरण को वैधानिक रूप देने के लिए डीडीआर की संरचनाओं को ध्वस्त करना ज़रूरी था। सोशल डेमोक्रेटिक नेता डेटलेव रोहवेडर के नेतृत्व में, नये शासकों ने 40 लाख लोगों को रोज़गार देने वाले 8,500 सार्वजनिक उद्यमों के निजीकरण के लिए ट्रूहांडेनस्टाल्ट (’ट्रस्ट एजेंसी’) की स्थापना की। रोहवेडर ने कहा था, ’तुरंत निजीकरण करो, पूर्ण रूप से पुनर्गठन करो, और सावधानी से बंद करो’। लेकिन इससे पहले कि ऐसा होता, अप्रैल 1991 में रोहवेडर की हत्या कर दी गई। रोहवेडर के उत्तराधिकारी अर्थशास्त्री बर्जिट ब्रूएल ने वाशिंगटन पोस्ट से कहा, ’हम लोगों को अपने बारे में समझाने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन वे हमसे कभी प्यार नहीं करेंगे। क्योंकि हम जो कुछ भी करें, वह लोगों की ज़िंदगी को कठिन ही बनाएगा। 8,500 उद्यमों में से हर एक का निजीकरण या पुनर्गठन या उसे बंद करने से, हर तरह से लोग अपनी नौकरियाँ खो रहे हैं’। सैकड़ों उपक्रम जो अभी तक सार्वजनिक संपत्ति थीं अब निजी हाथों में चली गईं थीं और लाखों लोगों को अपनी नौकरी गँवानी पड़ी थी; उस दौरान, 70% महिलाओं की नौकरियाँ ख़त्म हुईं थीं। भ्रष्टाचार और सत्ता के साथ मिलीभगत का क्या स्तर था यह तो दशकों बाद 2009 में हुई जर्मन संसदीय जाँच में सामने आया।
केवल डीडीआर के द्वारा बनाई गई सार्वजनिक संपत्ति निजी हाथों में नहीं गई थी, बल्कि डीडीआर की परियोजना का पूरा इतिहास साम्यवाद-विरोधी बयानबाज़ियों की धुंध में गुम हो गया था। डीडीआर इतिहास के चालीस वर्षों को परिभाषित करने के लिए अब केवल एकमात्र शब्द बचा था, स्टैसी -राज्य सुरक्षा मंत्रालय के लिए आम बोलचाल की भाषा में इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द। इसके अलावा किसी और चीज़ के कोई मायने नहीं रहे थे। न जर्मनी के उस हिस्से का वि-नाज़ीकरण -जो कि पश्चिम जर्मनी में नहीं किया गया था- और न आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक जीवन के क्षेत्रों में प्रभावशाली तरक़्क़ी ही सामाजिक कल्पना का हिस्सा बन पाई। उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष या वियतनाम से लेकर तंज़ानिया तक समाजवाद निर्माण के प्रयोगों में डीडीआर के योगदान का बहुत ही कम उल्लेख मिलता है। यह सब कुछ ग़ायब हो गया था; एकीकरण के भूकंप में डीडीआर की उपलब्धियाँ लुप्त हो गईं और सिर्फ़ सामाजिक निराशा और स्मृतिलोप की राख बची रह गई। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि -1990 या 2000 के दशक में हुए- हर चुनाव में पहले पूर्व जर्मनी में रहने वाले लोगों की बड़ी संख्या डीडीआर के दौर को याद करती रही है। पूर्व जर्मनी के लिए यह विषाद और लालसा ज्यों-की-त्यों बनी हुई है, बल्कि पूर्व जर्मनी में पश्चिम जर्मनी के मुक़ाबले अधिक बेरोज़गारी और कम वेतन के कारण प्रबल होती रही है।
1998 में, जर्मन संसद ने पूर्वी जर्मनी में कम्युनिस्ट तानाशाही पर अध्ययन के लिए एक फ़ेडरल फ़ाउंडेशन की स्थापना की, जिसने कम्युनिस्ट इतिहास के राष्ट्रीय मूल्यांकन के लिए शर्तें निर्धारित कीं। इस संगठन का एजेंडा था डीडीआर पर ऐसे अनुसंधान के लिए आर्थिक मदद करना जो कि उसे एक ऐतिहासिक परियोजना के बजाय एक आपराधिक कार्यक्रम के रूप में चित्रित करे। इस प्रकार इस ऐतिहासिक परियोजना को उन्माद के रूप में पेश किया गया। जर्मनी में मार्क्सवाद और साम्यवाद को अवैध बनाने का प्रयास ठीक उसी समय हो रहा था जब यूरोप और उत्तरी अमेरिका के कई देशों में पुनर्जीवित हो रही वाम विचारधाराओं को दबाया जा रहा था। जिस तीव्रता से इतिहास का पुन: लेखन किया जा रहा था उससे पता चलता है कि वे इतिहास के पुनरागमन से कितने डरे हुए थे।
इस महीने, ट्राइकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने इंटरनेशनेल फोर्सचुंगस्टेल्ले डीडीआर (आईएफ़डीडीआर) के साथ मिलकर डीडीआर स्टडीज़ सीरीज़ का पहला भाग प्रकाशित किया है। ’रिज़ेन फ़्रॉम द रूइंज़: द इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ़ सोशलिज़्म इन द जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक’ के नाम से प्रकाशित यह अध्ययन, डीडीआर की चालीस साल लंबी परियोजना के ऐतिहासिक विकास को उजागर करता है। इस अध्ययन के लेखक बर्लिन के निवासी हैं, उन्होंने इस लेख को तैयार करने के लिए अभिलेखागारों का सहारा लिया व उस समय जर्मनी के समाज में विभिन्न स्तरों पर समाजवाद का निर्माण करने में मदद करने वाले लोगों का साक्षात्कार लिया।
पीटर हैक्स, डीडीआर के एक कवि, ने उस समय को याद करते हुए कहा कि ’सबसे ख़राब समाजवाद सबसे अच्छे पूँजीवाद से बेहतर होता है। समाजवाद, वो समाज जिसे नष्ट कर दिया गया क्योंकि वह समाज भला था (जिसका दोष विश्व बाजार पर है)। वो समाज जिसकी अर्थव्यवस्था पूँजी के संचय के अलावा अन्य मूल्यों का सम्मान करती है: [जैसे] अपने नागरिकों के जीवन, ख़ुशी और स्वास्थ्य का अधिकार; कला और विज्ञान; कचरे की उपयोगिता और उसे कम करना’। हैक्स ने कहा, क्योंकि समाजवाद में आर्थिक विकास नहीं, बल्कि ’अपने लोगों का विकास अर्थव्यवस्था का वास्तविक लक्ष्य होता है’। इस अध्ययन में फ़ासीवाद की हार के बाद के जर्मनी से लेकर 1989 के बाद डीडीआर की आर्थिक लूट तक की कहानी है।
डीडीआर के इतिहास की सबसे कम ज्ञात बातों में से एक है उसका अंतर्राष्ट्रीयतावाद, जिसे यह अध्ययन बख़ूबी उजागर करता है। निम्नलिखित तीन बिंदुओं से आप इसे समझ सकते हैं:
(1) एकजुटता कार्य: 1964 से 1988 के बीच, फ़्री जर्मन यूथ (डीडीआर का युवाओं का जन संगठन) की साठ फ़्रेंडशिप ब्रिगेड्स अपना ज्ञान साझा करने, निर्माण में मदद करने और आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए प्रशिक्षण के अवसर पैदा करने के लिए सत्ताईस देशों में भेजी गईं थीं। इन परियोजनाओं में से कई आज भी मौजूद हैं, हालाँकि कइयों के नाम बदल गए हैं, जैसे कि मानागुआ, निकारागुआ में कार्लोस मार्क्स अस्पताल; हनोई, वियतनाम में जर्मन-वियतनामी मैत्री अस्पताल; और चीनफुएगोस, क्यूबा में कार्ल मार्क्स सीमेंट कारख़ाना।
(2) अधिगम और आदान-प्रदान कार्यक्रम: कुल मिलाकर, 50,000 से अधिक विदेशी छात्रों ने डीडीआर के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में सफलतापूर्वक अपनी शिक्षा पूरी की थी। उनकी पढ़ाई का ख़र्चा डीडीआर के राज्य बजट ने उठाया था। नियमानुसार, कोई ट्यूशन फ़ीस नहीं ली जाती थी, बड़ी संख्या में विदेशी छात्रों को छात्रवृत्ति मिलती थी, और उन्हें छात्र हॉल में रहने की जगह दी जाती थी। छात्रों के अलावा, सहयोगी देशों जैसे कि मोज़ाम्बिक, वियतनाम, अंगोला, यहाँ तक कि पोलैंड और हंगरी के कई कॉन्ट्रैक्ट वर्कर डीडीआर में जॉब ट्रेनिंग लेने या उत्पादन क्षेत्र में काम करने के लिए भी जाते थे। डीडीआर के अंत तक, विदेशी श्रमिक उनकी प्राथमिकता बने रहे थे; 1981-1989 के दौरान कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों की संख्या 24,000 से बढ़कर 94,000 हो गई थी। 1989 में, डीडीआर में सभी विदेशियों को नगरपालिका में मतदान करने का पूर्ण अधिकार मिल गया था और उन्होंने स्वयं अपने उम्मीदवारों को नामांकित करना भी शुरू कर दिया था।
(3) राजनीतिक समर्थन: जब पश्चिम के देश नेल्सन मंडेला और अफ़्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस (एएनसी) को आतंकवादी और ’नस्लवादी’ कह कर बदनाम कर रहे थे और -हथियारों का जहाज़ भेजकर व अन्य तरीक़ों से- दक्षिण अफ़्रीका के रंगभेद शासन की मदद कर रहे थे तब डीडीआर ने एएनसी का समर्थन किया, उनके स्वतंत्रता सेनानियों को सैन्य प्रशिक्षण दिया, उनके दस्तावेज़ों को छापा, और उनके घायलों की देखभाल भी की। 16 जून 1976 को सॉवेटो में अश्वेत छात्रों द्वारा रंगभेद शासन के ख़िलाफ विद्रोह शुरू किए जाने के बाद से डीडीआर ने दक्षिण अफ़्रीकी लोगों व उनके संघर्ष के साथ एकजुटता दिखाते हुए हर साल अंतर्राष्ट्रीय सॉवेटो दिवस मनाया। डीडीआर शेर के मुँह में बैठे लोगों के साथ भी खड़ा रहा: जब संयुक्त राज्य अमेरिका में एंजेला डेविस पर आतंकवादी होने का मुक़दमा चल रहा था, तब डीडीआर के एक संवाददाता ने उन्हें महिला दिवस के अवसर पर फूल भेंट किया और छात्रों ने एंजेला डेविस के लिए लाखों गुलाब अभियान चलाया, जिस दौरान उन्होंने डेविस को जेल के अंदर कार्ड या पेंट किए गए गुलाबों से लदे हुए ट्रक के ट्रक भेजे।
इस एकजुटता की कोई स्मृति अब न जर्मनी में और न ही दक्षिण अफ़्रीका में बची है। डीडीआर, यूएसएसआर और क्यूबा द्वारा दिए गए समर्थन के बिना दक्षिण अफ़्रीका में राष्ट्रीय मुक्ति का संघर्ष और लम्बा चला होता। 1987 में क्यूतो कुआनावाले की लड़ाई में राष्ट्रीय मुक्ति सेनानियों को क्यूबा से मिले सैन्य समर्थन की दक्षिण अफ़्रीकी रंगभेदी सेना को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका रही थी, जिसके बाद अंततः 1994 में रंगभेद शासन का अंत हुआ।
फ़ेडरल फ़ाउंडेशन फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ कम्युनिस्ट डिक्टेटरशिप इन ईस्ट जर्मनी (बर्लिन) या विक्टिम्ज़ ऑफ़ कम्युनिज़्म मेमोरियल फ़ाउंडेशन (वाशिंगटन, संयुक्त राज्य अमेरिका) जैसे संगठन केवल कम्युनिस्ट अतीत को बदनाम करने और साम्यवाद को बदनाम करने के लिए नहीं बनाए जाते हैं, बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए भी बनाए जाते हैं कि वर्तमान में साम्यवादी परियोजनाएँ इनके द्वारा पेश की गई छवियों से कमज़ोर होती रहें। हमारे समय में वाम परियोजना को आगे बढ़ाना -जो कि बेहद ज़रूरी है - इसलिए और मुश्किल हो गया है। और यही वजह है कि आईएफ़डीडीआर के नेतृत्व में किया गया ये अध्ययन एक महत्वपूर्ण पहल है। इस अध्ययन का उद्देश्य केवल डीडीआर के बारे में बताना नहीं है; इसके मूल में, समाजवादी समाज बनाने के लिए किए गए प्रयोगों द्वारा खोली गई संभावनाओं के बारे में एक व्यापक तर्क पेश करना और लोगों के जीवन में उनके कारण आए भौतिक सुधारों को उजागर करना है।
समाजवाद पूरी तरह से निपुण और संपूर्ण रूप में नहीं उभरता है। किसी भी समाजवादी परियोजना को उसके अतीत की सभी समस्याएँ विरासत में मिलती हैं। किसी देश को उसकी वर्ग असमानताओं और रूढ़ियों से आगे बढ़ाकर एक समाजवादी समाज में बदलने के लिए धैर्यपूर्वक मेहनत करनी पड़ती हैं। डीडीआर केवल चालीस साल तक रहा; जर्मनी के औसत नागरिक की जीवन प्रत्याशा के आधे के बराबर। उसके पतन के बाद, समाजवाद-विरोधियों ने उसकी समस्याओं को इस क़दर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है कि उनकी उपलब्धियाँ नज़र नहीं आतीं।
पूर्वी जर्मनी के कवि, वोल्कर ब्रौन ने अक्टूबर 1989 में अपने भूले हुए देश के लिए ’दास ऐगेंटम’ (संपत्ति) नामक एक शोकगीत लिखा था:
मैं अभी भी यहीं हूँ: मेरा देश पश्चिम चला गया है।
महलों के लिए शांति और झुग्गियों पर वार
मैंने ख़ुद ही अपने देश को इसकी ताक़त दी है।
जो भी तुच्छ गुण इसका था, अब जल रहा है।
सर्दी के बाद इच्छाओं की गर्मी आती है।
मैं भी खो ही जाऊँगा, किसको पड़ी है कि आगे क्या होगा
और भविष्य में कोई भी मेरे गीत नहीं गाएगा।
जो मेरा कभी नहीं था, मुझसे वो छीन लिया गया।
मैं अंत तक उसके लिए पछताऊँगा जिसमें मैंने हिस्सा नहीं लिया।
उम्मीद एक जाल की तरह रास्ते पर दिखाई दी थी
तुम टटोलते हो और क़ब्ज़ा लेते हो जो भी मेरी संपत्ति थी।
मैं फिर कब मेरा कह पाऊँगा जिसका मतलब होगा हम और हमारा।
हमारा मक़सद समस्याओं को छिपाकर डीडीआर की उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाना नहीं है। हमारी समझ में अतीत सामाजिक विकास की जटिलताओं को समझने के लिए एक संसाधन के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए ताकि हमें सबक़ मिले कि क्या ग़लत हुआ और क्या सही। आईएफ़डीडीआर परियोजना,ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के साथ मिलकर जो अध्ययन कर रही है उसका यही उद्देश्य है कि हम अतीत को समझकर अपने संघर्ष के तरीक़ों में सुधार लाएँ।
सनेह-सहित,
विजय ।