प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
2011 में, स्वीडिश उपन्यासकार हेनिंग मैन्केल नयी दिल्ली में सफ़दर हाशमी मेमोरियल व्याख्यान देने के लिए भारत आए थे। मैन्केल ने मोज़ाम्बिक –जहाँ वे प्रत्येक वर्ष कुछ समय बिताते हैं– की एक घटना सुनाई। 1974 में मोज़ाम्बिक के पुर्तगाल से आज़ाद होने के बाद, 1980 के दशक में, दक्षिण अफ़्रीका की रंगभेदी सरकार और रोडेशिया की औपनिवेशिक सेना ने मोज़ाम्बिक लिबरेशन फ़्रंट (FRELIMO- फ़्रेलिमो) की सरकार के ख़िलाफ़ एक कम्युनिस्ट विरोधी दल का समर्थन किया। इस युद्ध का उद्देश्य था दक्षिण अफ़्रीका और जिम्बाब्वे के राष्ट्रीय मुक्ति संगठनों के ठिकानों को नष्ट करना, जिन्हें मोज़ाम्बिक की फ़्रेलिमो सरकार से वहाँ पर काम करने की अनुमति मिली हुई थी।
मोज़ाम्बिक में अत्यंत विनाशकारी और नृशंस युद्ध चला। मैन्केल ने उस समय मोज़ाम्बिक के एक सीमावर्ती इलाक़े का दौरा किया, जहाँ हमलावर सैनिकों और उनके कम्युनिस्ट–विरोधी सहयोगियों ने गाँवों को जला डाला था। वो एक गाँव की ओर जाने वाले रास्ते पर चल रहे थे। उन्होंने देखा कि एक युवक उनकी तरफ़ आ रहा है, फटे कपड़ों में एक पतला–सा आदमी। जब वो आदमी नज़दीक आया, मैन्केल का ध्यान उसके पैरों की ओर गया। मैन्केल ने दिल्ली के श्रोताओं को बताया, ‘उसने अपने गहरे दुख में, अपने पैरों पर जूते पेंट कर रखे थे। एक तरह से, सब कुछ खो जाने पर अपनी गरिमा बजाए रखने के लिए, उसने धरती से, जड़ी–बूटियों से रंग ढूँढ़ा और उसने अपने पैरों पर जूते पेंट कर लिए।‘
मैन्केल ने कहा कि उस आदमी का ये कृत्य उम्मीद की लुप्त होती रौशनी के ख़िलाफ़ उसके प्रतिरोध का एक तरीक़ा था; हालाँकि ऐसा मुमकिन है कि वह आदमी फ़्रेलिमो की किसी एक शाखा की मीटिंग में जा रहा हो, जहाँ वे अपने संघर्ष की वर्तमान स्थिति पर चर्चा करते और अपने देश की रक्षा करने की योजना बनाते। 1981 में, जब दक्षिण अफ़्रीका ने मोज़ाम्बिक पर हमला किया, तो फ़्रेलिमो के अध्यक्ष समोरा मैशेल ने मापुटो इंडिपेंडेंस स्क्वायर में चल रही एक सार्वजनिक रैली में दक्षिण अफ़्रीका की अफ़्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस (ANC) के ओलिवर टैम्बो को गले लगा लिया और कहा, ‘हम युद्ध नहीं चाहते। हम शांतिवादी हैं क्योंकि हम समाजवादी हैं। एक पक्ष शांति चाहता है, और दूसरा युद्ध चाहता है। हम क्या करें? हम दक्षिण अफ़्रीका को चुनने देंगे। हम युद्ध से डरते नहीं हैं।‘ ये वो शब्द हो सकते हैं जो उस व्यक्ति के कान में गूँज रहे हों जिसे मैन्केल ने देखा था।
मैशेल ने कहा था कि राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष के दौरान, क्रांतिकारी प्रक्रिया का उद्देश्य केवल पुर्तगालियों –या दक्षिण अफ़्रीकी रंगभेद सरकार या रोडेशियन औपनिवेशिक राज्य– पर जीत हासिल करना नहीं है, बल्कि ‘एक नयी मानसिकता वाले, नये मानव का निर्माण‘ करना है। यह उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ वो संघर्ष था जिसने एक ऐसे समाज का निर्माण किया जहाँ लोग ख़ुश थे, भले ही, अभी, उनके पास जूतों जैसे आवश्यक सामान नहीं थे।
गरिमा का संघर्ष एक मौलिक संघर्ष है, और ये संघर्ष राष्ट्रीय मुक्ति की विचारधारा का एक प्रमुख हिस्सा था। यही संघर्ष फ़्रांत्ज़ फ़ैनन और पाउलो फ़्रेरे की कृतियों का आधार था। दो विचारक जिनका लेखन राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष और समाजवादी परंपराओं से निकाला था, और जिन्होंने इन संघर्षों को प्रभावित और प्रेरित भी किया। इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हमारे ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के जोहानेसबर्ग (दक्षिण अफ़्रीका) कार्यालय ने इन दो महत्वपूर्ण विचारकों पर दो डोज़ियर तैयार किए हैं: मार्च 2020 में जारी किया गया ‘फ़्रांत्ज़ फ़ैनन: द ब्राइटनेस ऑफ़ मेटल‘, और अब नवंबर 2020 में ‘पाउलो फ़्रेरे एंड पॉप्युलर स्ट्रगल इन साउथ अफ़्रीका’। इस संस्थान में हमारे काम का एक हिस्सा है आगे बढ़ने के लिए पीछे जाना; हमारी परंपरा के स्रोतों पर वापिस जाना, उनके महत्वपूर्ण लेखों को अच्छे से पढ़ना, और फिर हमारे वर्तमान संघर्षों को आगे बढ़ाने के लिए उनके विचारों को हमारे संदर्भ में लागू करना। फ़ैनन और फ़्रेरे –जो अपनी पुस्तक पेडागोजी ऑफ़ द औप्रेस्ड लिखते वक़्त फ़ैनन की 1961 में प्रकाशित एक किताब रैचेड ऑफ़ द अर्थ से प्रभावित हुए थे– दोनों ने आम जनता की आलोचनात्मक चेतना के विकास में सामूहिक अध्ययन और संघर्ष के महत्व पर ज़ोर दिया। सामूहिक अध्ययन और संघर्ष के बीच अविभाज्य संबंध के प्रति उनका सामान्य दृष्टिकोण ही हमारे संस्थान का भी दृष्टिकोण है, जिसे फ़रवरी 2019 में जारी किया गया हमारा डोज़ियर ‘द न्यू इंटेलेक्चुअल‘ दर्शाता है।
फ़्रेरे ने पेडागोजी ऑफ़ द औप्रेस्ड तब लिखी थी जब वे चिली में निर्वासन में रह रहे थे; ये ब्राज़ीलियाई बुद्धिजीवी, 1964 के अमेरिका द्वारा समर्थित सैन्य तख़्तापलट के शुरुआती दिनों में गिरफ़्तार कर लिए गए थे और ब्राज़ील के एक जेल में सत्तर दिन बिताने के बाद उन्हें देश से बहार जाने को मजबूर कर दिया गया था। यह पुस्तक उन्होंने केवल ब्राज़ील के संघर्षों में अपने अनुभवों के आधार पर नहीं लिखी थी, बल्कि अल्जीरियाई मुक्ति आंदोलन (जिसके बारे में उन्होंने फ़ैनन के लेखन से जाना) और अफ़्रीका के पुर्तगाली–उपनिवेशित हिस्सों में जारी राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों के साथ उनकी संलग्नता के अनुभव भी इस पुस्तक का आधार थे।
फ़्रेरे ने लिखा, उत्पीड़ित ज्ञान के लिए ज्ञान नहीं चाहते; वे दुनिया के लिए कई तरह की इच्छाएँ रखते हैं, इन इच्छाओं में एक ऐसी दुनिया बनाना भी शामिल है जहाँ वे गरिमा के साथ रह सकें, जहाँ उनके पैरों में जूते हों। फ़्रेरे, चे ग्वेरा की प्रबल विचार को दोहराते हैं कि ‘एक सच्चा क्रांतिकारी प्यार की मज़बूत भावनाओं द्वारा निर्देशित होता है‘, यही विचार फ़्रेरे के दृष्टिकोण का आधार है। फ़्रेरे ने लिखा कि ‘क्रांति जीवन से प्रेम करती है और जीवन का सृजन करती है; और जीवन का सृजन करने के लिए उसे कुछ लोगों को, जो जीवन को सीमाबद्ध करते हैं, रोकना पड़ सकता है।‘ यह ‘प्रेम‘ अमूर्त नहीं बल्कि मूर्त और बहुत ही ठोस चीज़ है। फ़्रेरे लिखते हैं कि ब्राज़ील में अधिकतर लोग ‘ज़िंदा लाशें हैं‘, मानवीय प्राणियों की ‘छायाएँ‘ हैं, जो भूख और बीमारी, अशिक्षा और अपमान के ‘अदृश्य युद्ध‘ का सामना कर रहे हैं; पूँजीवाद के संरचनात्मक प्रभुत्व से उनकी मुक्ति के लिए उन वास्तविक लोगों की हार ज़रूरी है, जो इस व्यवस्था से लाभान्वित होते हैं, जो कि उत्पीड़ितों को बुनियादी ज़रूरतों से भी वंचित रखती है। उत्पीड़ितों की लहर –यानी क्रांति– बहुत बड़ी संख्या में लोगों के जीवन को सुधारेगी, लेकिन निश्चित तौर पर पूँजीपतियों के जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगी। फ़्रेरे कोई आदर्शवादी नहीं थे –उन्होंने केवल उस वास्तविक दुनिया, जिसमें हम रहते हैं के भीतर रहते हुए अध्ययन और संघर्ष करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया।
ये शायद सामाजिक जीवन की वास्तविक प्रक्रियाओं पर फ़्रेरे की गहरी समझ थी जिसने दक्षिण अफ़्रीकी स्वतंत्रता सेनानियों की कई पीढ़ियों को प्रभावित किया है। अभी हाल में प्रकाशित हुआ हमारा डोज़ियर, पॉलो फ़्रेरे एंड पॉप्युलर स्ट्रगल इन साउथ अफ़्रीका बताता है कि वहाँ कैसे अश्वेत चेतना आंदोलन, चर्च, श्रमिक आंदोलन, और मुक्ति संघर्ष फ़्रेरे के विचारों से प्रेरित हुए हैं। ऑब्रे मोकोपे, जिन्होंने स्टीव बिको, बार्नी पिटयाना और अन्यों के साथ मिल्कर 1968 में दक्षिण अफ़्रीकी छात्र संगठन (सासो) की स्थापना की थी, ने इस डोज़ियर के लिए ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान को साक्षात्कार देते हुए बताया कि कैसे फ़्रेरे के ‘विवेकीकरण‘ के विचार ने अश्वेत चेतना आंदोलन के समाजवादी एजेंडे को आगे बढ़ाया:
इस सरकार को उखाड़ फेंकने का एकमात्र तरीक़ा यही है कि हमारे लोगों को यह समझ में आने लगे कि हम क्या करना चाहते हैं और इस वे प्रक्रिया को अपने हाथ में ले लें, दूसरे शब्दों में कहें तो, [वे] समाज में अपनी स्थिति के प्रति सचेत हो जाएँ, यानी … [अलग–अलग दिखने वाली] बिंदुओं को जोड़ें, समझें कि यदि आपके पास अपने बच्चे के स्कूल की फ़ीस देने के लिए, मेडिकल स्कूल की फ़ीस देने के लिए पैसे नहीं हैं… और आपके पास ठीक तरह से रहने की जगह नहीं है, आपके परिवहन के साधन बेहद ख़राब हैं, तो ये सभी चीज़ें एक ही क्रम बनाती हैं; ये सभी चीज़ें वास्तव में एक–दूसरे से जुड़ी हुई हैं। ये सभी चीज़ें हमारी सामाजिक प्रणाली में अंतर्निहित हैं, यानी समाज में आपकी जो स्थिति है वो यूँ ही नहीं, बल्कि व्यवस्थागत है।
गरिमा और प्रेम के साथ जीने का अर्थ है एक ऐसी व्यवस्था को बदलना जो अपने से उत्पन्न समस्याओं को हल करने में असमर्थ है। शिक्षा – ‘विवेकीकरण‘- का मतलब है अध्ययन और संघर्ष की अंत:संबंधित प्रक्रिया जिससे एक ऐसी चेतना और एक ऐसे विवेक का विकास हो जो केवल उदारवादी सुधारों से अधिक की माँग करे। इसका मतलब ये नहीं कि सब को जूते दिए जाएँ, बल्कि इसका मतलब यह है कि एक ऐसी व्यवस्था के लिए संघर्ष करना जहाँ जूते से वंचित होने की कल्पना ही न की जा सकती हो।
दक्षिण अफ़्रीका के कवि मोंगाने वैली सेरोट, अफ़्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने से पहले, सोवेटो में अपने स्कूल के दौरान अश्वेत चेतना आंदोलन में ‘विवेकीकरण‘ की प्रक्रिया में से निकले थे। 1969 में, सेरोट को गिरफ़्तार कर लिया गया और उन्होंने नौ महीने एकांत कारावास में बिताए। वे अंततः निर्वासन में चले गए: सबसे पहले बोत्सवाना में, जहाँ वे एएनसी के सैन्य विंग ऊमखांतो वेसिज़वे में शामिल हो गए, और बाद में उन्होंने थामी म्नएले और अन्य लोगों के साथ मिल्कर मेडु आर्ट्स एन्सेम्बल का गठन किया। बाद में, सेरोट एएनसी के कला और संस्कृति विभाग में काम करने के लिए लंदन चले गए। वे 1990 में दक्षिण अफ़्रीका लौटे।
1977 में, सेरोट और अन्य लोगों ने गैबोरोन (बोत्सवाना) में पेलैंडाबा कल्चरल एफ़र्ट का गठन किया और पेलक्यूलेफ का प्रकाशन शुरू किया। इस पत्रिका के पहले अंक में, जो कि अक्टूबर 1977 में प्रकाशित हुई थी, सेरोट ने अपनी एक कविता ‘नो मोर स्ट्रेंजर्स‘ प्रकाशित की। कविता की लय उस संघर्ष का मनोभाव व्यक्त करती है, जिसके लिए सेरोट और उनके साथियों ने अपना जीवन समर्पित किया था। यहाँ हम उस कविता का एक संक्षिप्त हिस्सा पेश कर रहे हैं, जिसमें फ़्रेरे के ‘विवेकीकरण‘ का प्रभाव स्पष्ट दिखता है:
वो हम ही थे, वो हम ही हैं
सोवेतो के बच्चे
लांगा, कगीसो, अलेक्जेंड्रा, गुगुलेथु और न्यांगा
हम
प्रतिरोध का एक लंबा इतिहास है जिनका
हम
जो ताक़तवर को चुनौती देंगे
क्योंकि आज़ादी, केवल आज़ादी ही हमारी प्यास बुझा सकेगी–
हमने दहशत से भी सीखा है कि वो हम ही होंगे जो इतिहास बनाएँगे
हमारी आज़ादी।
…
याद है मलबे की तरह बेकार महसूस करने से होने वाली दमघोंटू निराशा
याद है मौत की वो जगहें जिनके लिए हम तड़पते थे
यहाँ हैं अब हम
…
हम ही होंगे
आज़ादी को छीन लेने के लिए इस्पात की तरह तने
और –
हम बताएँगे आज़ादी को
कि अब हम अजनबी नहीं रहे।
वो हम ही होंगे। हम किसी–और का इंतज़ार नहीं कर रहे। वो केवल हम ही हो सकते हैं। हम अपने जूते ख़ुद बनाएँगे। हम गरिमा और सम्मान के साथ चलेंगे। हम जीतेंगे।
स्नेह–सहित,
विजय।
सिलीना डेला क्रोचे, समन्वयक, इंटर -रीजनल ऑफ़िस।
पिछले महीनों में, मैंने हमारे डोज़ियर, अध्ययन, न्यूज़लेटर, और अन्य प्रकाशनों के संपादन, अनुवाद और समन्वयन का काम किया है। जब महामारी का शुरू हुई, हमारी टीम ने तुरंत दुनिया भर के कामकाजी लोगों पर इसके प्रभाव और महामारी के लैंगिक, भू–राजनीतिक प्रभावों का अध्ययन व इससे भविष्य की नई संभावनाओं पर काम शुरू कर दिया। ‘विचारों की जंग‘ में ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान के हस्तक्षेपों को संपादित करने और उनका अनुवाद करने की हमारी क्षमता बढ़ाने के उद्देश्य से मैं हमारी प्रकाशन टीम के साथ काम कर रही हूँ। मैंने हाल ही में लॉन्च हुई पुस्तक ‘चे‘ के संपादन से जुड़ा किया और कोरोनाशॉक के लैंगिक प्रभाव पर किए गए हालिया अध्ययन में लेखन, संपादन और अनुवाद कार्यों में योगदान दिया। अपने खाली समय में, मैं पिछले साल के तख्तापलट के बाद से बोलीविया में अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध में अपने साथियों के साथ सांगठनिक काम कर रही हूँ, व पॉप्युलर एजुकेशन कार्यक्रमों और रीडिंग सर्कल्ज़ में हिस्सा लेती हूँ। और अब महामारी के दौरान दोस्तों और परिवार वालों का दूर बैठे हाल चाल भी लेती रहती हूँ।