प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान कि ओर से अभिवादन।
उत्तरी भारत के किसान और खेत मज़दूर 26 नवंबर की आम हड़ताल में शामिल होने के लिए विभिन्न राष्ट्रीय राजमार्गों पर मार्च करते हुए दिल्ली की ओर बढ़ रहे थे। उनके हाथों में तख़्तियाँ थीं, जिनपर सितंबर में लोकसभा द्वारा पारित किए गए, और फिर केवल ध्वनि मत से राज्यसभा से पास कर दिए गए किसान विरोधी और कॉर्पोरेट समर्थक क़ानूनों के ख़िलाफ़ नारे लिखे हुए थे। हड़ताली खेत मज़दूरों और किसानों के हाथों में जो झंडे थे, उनसे पता चल रहा था कि वे कम्युनिस्ट आंदोलन से लेकर किसान संगठनों के व्यापक मोर्चे जैसे कई अलग–अलग संगठनों से जुड़े हुए हैं। उनका मार्च कृषि के निजीकरण के ख़िलाफ़ था, क्योंकि वे मानते हैं कृषि का निजीकरण भारत की खाद्य संप्रभुता को कमज़ोर करेगा और उनके कृषक बने रहने की संभावना भी समाप्त करेगा।
भारत के लगभग दो–तिहाई लोग अपनी आय के लिए कृषि पर निर्भर हैं, जो कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगभग 18% का योगदान देती है। सितंबर में पारित हुए ये तीन किसान विरोधी बिल सरकार की न्यूनतम समर्थन मूल्य ख़रीद योजनाओं को कमज़ोर करने वाली है। देश के 85% किसानों के पास दो हेक्टेयर से कम ज़मीन है, ये बिल ऐसे किसानों को एकाधिकार थोक विक्रेताओं के साथ मोलभाव करने के लिए उनकी रहम पर छोड़ देगा। और ये बिल उस सिस्टम को नष्ट कर देंगे जिससे अभी तक उत्पादित खाद्य सामग्रियों की क़ीमतें अनियमित होने के बावजूद कृषि उत्पादन जारी रहता था। इस मार्च में एक सौ पचास किसान संगठन शामिल हुए हैं। वे अनिश्चित काल के लिए दिल्ली में रहने को तैयार हैं।
भारत भर में लगभग 25 करोड़ लोग 26 नवंबर की आम हड़ताल में शामिल हुए थे; यह विश्व इतिहास की सबसे बड़ी हड़ताल बन गई है। अगर इन हड़तालियों को एक देश बनाना हो तो वह चीन, भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका और इंडोनेशिया के बाद दुनिया का पाँचवा सबसे बड़ा देश होगा। जवाहरलाल नेहरू पोर्ट (महाराष्ट्र) से पारादीप पोर्ट (ओडिशा) तक के बंदरगाहों में मज़दूरों ने जब काम करना बंद कर दिया तो भारत का पूरा औद्योगिक क्षेत्र –तेलंगाना से उत्तर प्रदेश तक– एक बार के लिए रुक गया था। कोयला, लौह अयस्क और इस्पात श्रमिकों ने अपने औज़ार नहीं उठाए, और ट्रेनें व बसें ख़ाली खड़ी रहीं। असंगठित क्षेत्र के मज़दूर और बैंक कर्मचारी भी इस हड़ताल में शामिल हुए। उनकी हड़ताल उन श्रम क़ानूनों के ख़िलाफ़ थी, जिन्होंने उनके काम के घंटे बढ़ाकर बारह कर दिए हैं और 70% श्रमिकों से श्रम सुरक्षा छीन ली है। भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र के महासचिव तपन सेन ने कहा, ‘आज की हड़ताल केवल एक शुरुआत है। आगे इससे भी बड़े संघर्ष होंगे‘।
महामारी के संकट ने भारतीय मज़दूर और किसान वर्ग की –अमीर किसानों की भी– चुनौतियाँ बढ़ा दी हैं। वे इतने ज़्यादा हताश हैं कि महामारी के ख़तरे के बावजूद, मज़दूर और किसान सार्वजनिक जगहों पर निकले हैं ताकि सरकार को बता सकें कि उन्हें अब सरकार पर भरोसा नहीं रहा है। फ़िल्म अभिनेता दीप सिद्धू इस विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए, उन्होंने एक पुलिस अधिकारी से कहा, ‘ये इंक़लाब है। ये क्रांति है। अगर आप किसानों की ज़मीन छीन लोगे, तो उनके पास क्या बचेगा? सिर्फ़ क़र्ज़।’
नयी दिल्ली की सीमा पर, सरकार ने पुलिस बल तैनात कर दिए, राजमार्गों पर बैरिकेड लगा दिए, और किसानों को रोकने की पूरी तैयारी कर ली। किसानों और कृषि मज़दूरों के बड़े समूह जब बैरिकेडों तक पहुँचे तो उन्होंने किसानी छोड़ पुलिस में भर्ती हो चुके अपने भाइयों से अपील की कि उन्हें जाने दिया जाए; अधिकारियों ने किसानों और कृषि मज़दूरों पर आँसू गैस के गोले छोड़ने और वॉटर कैनन से पानी की बौछार करनी शुरू कर दी।
26 नवंबर, किसानों और मज़दूरों की हड़ताल का दिन, भारत में संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है, और राजनीतिक संप्रभुता की एक महान उपलब्धि का प्रतीक है। भारतीय संविधान (1950) का अनुच्छेद 19 काफ़ी स्पष्ट रूप से कहता है कि भारतीय नागरिकों को (1.क) ‘वाक्–स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति–स्वातंत्र्य का‘, (1. ख) ‘शांतिपूर्वक और निरायुध सम्मेलन का‘, (1. ग) ‘संगम या संघ बनाने का‘, और (1. घ) ‘भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण का‘ अधिकार होगा। संविधान के ये अनुच्छेद भुला दिए गए, तो भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने 2012 के एक कोर्ट केस (रामलीला मैदान हादसा बनाम गृह सचिव) में पुलिस को याद दिलाया कि ‘नागरिकों को सम्मेलन और शांतिपूर्ण विरोध करने का मौलिक अधिकार है, जिसे एकपक्षीय शासनात्मक या विधायी कार्रवाई द्वारा छीना नहीं जा सकता है।‘ पुलिस बैरिकेड लगाना, आँसू गैस का उपयोग करना, और घुटन पैदा करने वाले ख़मीर और बेकिंग पाउडर के इज़रायली आविष्कार से भरे हुए वॉटर कैनन का इस्तेमाल करना संविधान की भावना का उल्लंघन है; और किसान चिल्ला–चिल्लाकर हर नाकेबंदी पर पुलिस को यही याद दिलाते रहे हैं। लेकिन उत्तरी भारत में इतनी ठंड के बावजूद पुलिस ने किसानों पर पानी और आँसू गैस के गोले छोड़े।
पर किसान डटे रहे, बल्कि कुछ बहादुर नौजवानों ने वॉटर कैनन के ट्रकों पर चढ़कर पानी बंद कर दिया, किसान बैरिकेड तोड़कर अपने ट्रैक्टरों के साथ आगे बढ़ते रहे; मज़दूर वर्ग और किसान वर्ग उन के ख़िलाफ़ छिड़े वर्ग युद्ध के ख़िलाफ़ लड़ पड़ा। ट्रेड यूनियनों द्वारा उठाई गई बारह माँगें बेहद ज़रूरी माँगें हैं। उन्होंने माँग की है कि सितंबर में सरकार द्वारा पास किए गए मज़दूर–विरोधी, किसान–विरोधी क़ानून वापस लिए जाएँ; प्रमुख सरकारी उद्यमों का निजीकरण बंद कर उन्हें फिर से सार्वजनिक क्षेत्र में लाया जाए; और कोरोनावायरस मंदी और दशकों की नवउदारवादी नीतियों के कारण आर्थिक कष्ट झेल रही जनता को तत्काल राहत दी जाए। ये बेहद स्पष्ट माँगें हैं, मानवीय और सच्ची; कोई बेरहम दिल ही इन माँगों को ठुकरा सकता है और इनके जबाव में मज़दूरों पर पानी और आँसू गैस के गोले छोड़ सकता है।
जनता के लिए तत्काल राहत की माँग, श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा की माँग और किसानों के लिए कृषि सब्सिडी की माँग; पूरी दुनिया भर के श्रमिकों और किसानों की यही माँगे हैं। इन्हीं माँगों को लेकर ग्वाटेमाला में हाल के विरोध प्रदर्शन हुए थे और ग्रीस में 26 नवंबर को हुई आम हड़ताल में भी यही माँगें उठाई गईं।
बुर्जुआ सरकारों वाले देशों में अपने देश के अभिजात्य तबक़े के अत्याचारी रवैये से तंग आ चुके लोगों की तादाद लगातार बढ़ रही है। हम अब इस महामारी के एक ऐसे दौर में प्रवेश करने जा रहे हैं जब जनता में अशांति और ज़्यादा बढ़ने की संभावना है। एक के बाद एक रिपोर्ट हमें बता रही है कि उत्पीड़ितों और उत्पीड़कों के बीच की खाई चौड़ी और गहरी होती जा रही है, हालाँकि ये काम महामारी से बहुत पहले शुरू हो गया था, लेकिन महामारी के परिणामस्वरूप ये विभाजन अधिक व्यापक और गहरा हो गया है। किसानों और खेत मज़दूरों का आंदोलित होना स्वाभाविक ही है। लैंड इनिक्वालिटी इनिशियेटिव की एक नयी रिपोर्ट से पता चलता है कि दुनिया के केवल 1% कम्पनियाँ दुनिया के 70% से अधिक खेतों को संचालित करते हैं; इसका अर्थ है कि कॉर्पोरेट खाद्य प्रणाली में बड़े कॉर्पोरेट खेतों की अधिकता है जिससे कि अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर 250 करोड़ लोगों का अस्तित्व ख़तरे में है। यदि भूमिहीनता और भूमि के मूल्य को भूमि असमानता के रूप में देखा जाए तो, (चीन और वियतनाम जैसे उल्लेखनीय अपवादों को छोड़कर, जिनमें ‘असमानता का स्तर न्यूनतम है‘) लैटिन अमेरिका, दक्षिण एशिया और अफ़्रीका के कुछ हिस्सों में यह असमानता सबसे ज़्यादा है।
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पाश।
1970 के दशक की शुरुआत में पंजाब के एक नौजवान, अवतार सिंह संधू (1950-1988), ने मैक्सिम गोर्की का माँ (1906) उपन्यास पढ़ा था। ये नौजवान इस उपन्यास में एक मज़दूर महिला निलोव्ना और उसके अपने बेटे, पावेल या पाशा के बीच के रिश्ते से बहुत प्रेरित हुआ था। पाशा समाजवादी आंदोलन में हिस्सा लेने लगता है, क्रांतिकारी साहित्य घर लाता है, और धीरे–धीरे माँ और बेटा दोनों ही मूलभूत परिवर्तनवादी क्रांतिकारी बन जाते हैं। जब निलोव्ना एकजुटता के विचार के बारे में अपने बेटे से पूछती है, तो पाशा कहता है, ‘ये दुनिया हमारी है! ये दुनिया मज़दूरों के लिए है! हमारे लिए कोई देश नहीं, कोई जाति नहीं। हमारे, सिर्फ़ दोस्त या दुश्मन होते हैं।‘ पाशा कहता है, ‘एकजुटता और सामाजिकता का ये विचार हमें सूरज की तरह गर्म रखता है; यह न्याय के स्वर्ग का दूसरा सूरज है, और ये स्वर्ग मज़दूर के दिल में रहता है।‘ नीलोव्ना और पाशा एक साथ क्रांतिकारी बनते हैं। बर्तोल्त ब्रेख़्त ने अपने नाटक ‘मदर करेज़’ (1932) में यह कहानी फिर से बताई थी।
अवतार सिंह संधू इस उपन्यास और नाटक से इतने प्रेरित हुए कि उन्होंने अपना तख़ल्लुस ‘पाश’ रख लिया। पाश अपने समय के सबसे क्रांतिकारी कवियों में से एक बन गए थे। 1988 में आतंकवादियों ने उनकी हत्या कर दी। ‘मैं घास हूँ‘ उन क्रांतिकारी कविताओं में से एक है जो वे हमारे लिए छोड़ गए:
बम फेंक दो चाहे विश्वविद्यालय पर
बना दो हॉस्टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
मेरा क्या करोगे?
मैं तो घास हूँ, हर चीज़ पर उग आऊँगा।
भारत के किसान और मज़दूर देश के अभिजात्य तबक़े को यही कह रहे हैं, और यही दुनिया के सभी मज़दूर अपने–अपने देश के अभिजात्य तबक़े से कहते हैं। इन अभिजात्य तबक़ों को महामारी के बीच में भी अपनी ताक़त, अपनी संपत्ति और अपने विशेषाधिकारों की रक्षा करने की चिंता लगी है। लेकिन हम घास हैं। हम हर चीज़ पर उग आते हैं।
इस सप्ताह, ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने द पीपुल्ज़ फ़ोरम के साथ मिलकर दो कार्यक्रम किया है। 4 दिसंबर को वेनेजुएला, दक्षिण अफ़्रीका और चीन / कनाडा के संस्कृतिकर्मियों ने कोरोनाशॉक के समय में जन–संघर्षों के लिए कला बनाने पर चर्चा की। इस चर्चा में साम्राज्यवादी–विरोधी पोस्टर प्रदर्शनी पर भी बात हुई; जिन्होंने ‘हाइब्रिड युद्ध‘ की थीम पर अपनी अंतिम प्रदर्शनी 3 दिसंबर को लॉन्च की है। इस प्रदर्शनी में दुनिया भर के 18 देशों के 37 कलाकारों की कलाकृति शामिल है। इसके बारे में अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें।
8 दिसंबर को, ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान हाल ही में जारी हुए हमारे अध्ययन ‘कोरोनाशॉक एंड पैट्रिआर्की‘ और महामारी के लैंगिक प्रभावों पर ऑनलाइन चर्चा का आयोजन करेगा। इसके बारे में आप यहाँ से ज़्यादा जानकारी ले सकते हैं।
स्नेह–सहित,
विजय।
मैं हूँ ट्राईकॉन्टिनेंटल:
स्रुजना बोडापति, भारत कार्यालय, समन्वयक
1997 में जब बैंकिग क्षेत्र को सार्वजनिक नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया और निजी क्षेत्र को भी बैंकिंग व्यवस्था में प्रवेश करने की अनुमति दी गई, उसके बाद बैंकिंग क्षेत्र में किस तरह के ढाँचागत परिवर्तन हुए, मैं इस विषय के बारे में अध्ययन कर रही हूँ। मैं उन ऐतिहासिक तथा राजनैतिक–आर्थिक प्रक्रियाओं के बारे में लिख रही हूँ जिसका चरमबिंदु भारतीय बैंकिंग व्यवस्था निजीकरण के रूप में सामने आया।