प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
ये साल महामारी से प्रभावित रहा, एक वायरस ने दुनिया भर के समाजों को अपनी चपेट में ले लिया। कुछ सरकारों ने महामारी से निपटने के लिए अधिक वैज्ञानिक और मानवीय दृष्टिकोण अपनाया; इनमें से कई सरकारें (हालाँकि सभी नहीं) समाजवाद से प्रेरणा लेने वाली सरकारें थीं। ऐसी ही एक सरकार है भारत के दक्षिण–पश्चिम में स्थित 3.5 करोड़ की आबादी वाले केरल राज्य की एलडीएफ़ (वाम लोकतांत्रिक मोर्चा) सरकार। केरल की सरकार जनता की ज़रूरतों को मुनाफ़े और अंधविश्वास से ऊपर रखती है। केरल की स्वास्थ्य मंत्री के. के शैलजा को सरकार के भीतर उनकी नेतृत्वकारी क्षमता की वजह से ‘कोरोनावायरस का वध करने वाली‘ के रूप में जाना जाने लगा है।
ऐसा नहीं है कि केरल में कोविड-19 के कोई मामले नहीं आए या उससे कोई मौत नहीं हुई; लेकिन जनता को सूचित करने के लिए और जनता का कोविड-19 टेस्ट करने, कांटैक्ट ट्रेसिंग करने, संक्रमित लोगों को अलग–थलग करने और उनके इलाज के लिए व संक्रमण के मामलों को कम करने लिए केरल की सरकार ने सभी संभव क़दम उठाए। इसके अलावा, राज्य में संगठित सार्वजनिक कार्रवाई के लंबे इतिहास के परिणामस्वरूप –जिनका अक्सर कम्युनिस्टों और समाज सुधारकों ने नेतृत्व किया– ट्रेड यूनियनों, सहकारी समितियों, छात्र और युवा संगठनों, महिला संगठनों और अन्य संगठनों ने जनता तक जानकारी पहुँचाने और राहत प्रदान करने के लिए बहुत ही अनुशासित तरीक़े से काम किया।
दिसंबर की शुरुआत में, केरल में स्थानीय निकाय चुनाव हुए। इस चुनाव में कम्युनिस्टों ने विपक्ष द्वारा जीती गई सभी सीटों से ज़्यादा सीटें जीतीं हैं। दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में जिस पार्टी की सरकार है, और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जो कि केरल में मुख्य विपक्षी दल है, ने वामपंथ के ख़िलाफ़ एक शातिर अभियान चलाया; केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन के ऊपर भी व्यक्तिगत आरोप लगाए गए। मीडिया –जिस पर बड़े निजी निगमों का नियंत्रण है– ने इन हमलों का नेतृत्व किया; और इस बेहद कठिन समय में केरल सरकार द्वारा उठाए गए क़दमों को पूरी तरह से नज़रंदाज़ कर दिया।
उदाहरण के लिए, कॉर्पोरेट मीडिया ने ‘सेंटर ऑफ़ एक्सीलेंस’ परियोजना के तहत चौंतीस नये सरकारी स्कूलों के उद्घाटन को नज़रअंदाज़ कर दिया; इस परियोजना के परिणामस्वरूप महंगे निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे अब धीरे–धीरे पुनर्निर्मित सरकारी स्कूलों में लौटने लगे हैं। ‘लाइफ़ मिशन‘ परियोजना के तहत मज़दूरों और ग़रीबों के लिए जिन लगभग 2,50,000 घरों का निर्माण हुआ, उनके बारे में ख़बर प्रसारित करने के बजाय मीडिया अनाप–शनाप आरोपों पर ध्यान देता रहा। इनमें से एक आरोप यह है कि दान के रूप में संयुक्त अरब अमारात से आए पैसे ने विदेशी मुद्रा विनियमों का उल्लंघन किया। दिसम्बर के महीने में हुए स्थानीय निकाय चुनाव इन निराधार हमलों की पृष्ठभूमि में हुए।
केरल के वामपंथी कई महत्वपूर्ण उपलब्धियों के साथ इस चुनाव में उतरे थे। सबसे पहले तो, एक सदी से लड़े जा रहे संघर्ष और प्रशासन के दौरान, कम्युनिस्ट आंदोलन ने स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास जैसी बुनियादी ज़रूरतों के साथ–साथ लोगों की जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के एजेंडा को आगे बढ़ाया है और सार्वजनिक कार्रवाई की परंपरा को भी विकसित किया है। दूसरा, वामपंथियों ने ही पच्चीस साल पहले जन–योजना अभियान (पीपुल्स प्लानिंग कैम्पेन) चलाया था; इस प्रक्रिया ने स्थानीय स्वशासन निकायों को पुनर्जीवित कर दिया, सार्वजनिक कार्रवाई की परंपरा और वामपंथी विकल्प के विकास में जिसका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। तीसरा, महामारी, और उससे पहले 2018 में आई बाढ़ और उसी साल फैले निप्पा वायरस जैसे संकटों का अच्छा प्रबंधन करने में मौजूदा एलडीएफ़ सरकार का अनुकरणीय रिकार्ड रहा है। चौथा, केरल के वामपंथी जन संगठन लोगों की ज़रूरतों के प्रति सतर्क हैं और अक्सर राहत कार्य करते हुए या सामाजिक तिरस्कार का विरोध करते हुए और लोगों के अधिकारों का विस्तार करने के लिए चलाए जा रहे संघर्षों में भाग लेते देखे जा सकते हैं। महामारी के दौरान उनकी भागीदारी सबसे स्पष्ट रूप से दिखाई दी, जब छात्र, युवा, महिला, मज़दूर और किसान संगठनों ने जनता तक भोजन और दवा पहुँचाई, सार्वजनिक जगहों पर हाथ धोने की सुविधाओं का निर्माण किया, और टेस्टिंग व ट्रेसिंग करने और क्वारनटीन लागू करने में स्थानीय सरकारों की सहायता की। यही सामूहिक कार्य कॉर्पोरेट मीडिया के ज़हर का सबसे कारगर उपाय साबित हुआ।
इन्हीं उल्लेखनीय सामूहिक गतिविधियों से वाम दलों ने स्थानीय निकाय चुनावों के लिए अपने उम्मीदवार चुने; जो कि अधिकांशत: युवा थे जिनमें बड़ी संख्या में युवा महिला नेत्रियाँ थी। आइए इन नवनिर्वाचित पदाधिकारियों में से पाँच से मिलें।
रेशमा मरियम रॉय ने अरुवाप्पुलम ग्राम पंचायत का चुनाव जीता है, जिस सीट पर पिछले पंद्रह सालों से कांग्रेस पार्टी का क़ब्ज़ा था। रेशमा अपना नामांकन भरने से एक दिन पहले ही इक्कीस साल की हुईं थीं। वह स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफ़आई) और डेमोक्रेटिक यूथ फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया (डीवाईएफ़आई) की सदस्य हैं, और अपनी कॉलेज यूनियन की नेता हैं; ये दोनों ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी) के जन संगठन हैं। महामारी के दौरान रेशमा ने के.यू. जिनेश कुमार द्वारा शुरू किए गए ‘हेल्पिंग हैंड‘ कार्यक्रम में काम किया था। जिनेश कुमार भी एक वामपंथी युवा नेता हैं और केरल विधानसभा के स्थानीय प्रतिनिधि हैं। इस कार्यक्रम का उद्देश्य था लॉकडाउन के दौरान हर उस व्यक्ति की सहायता करना जिसे उसकी ज़रूरत थी। अपने चुनाव अभियान के दौरान, रेशमा अपने साथ एक डायरी रखती थीं, जिसमें वे जनता की निराशा और उनकी ज़रूरतें व माँगें नोट करती थीं। उन्हें इस बात की ख़ुशी थी कि वामपंथी दलों ने इन चुनावों में युवाओं को खड़े होने का मौक़ा दिया। उन्होंने कहा, ‘पाँच साल बाद यदि लोग मेरे बारे में अच्छी राय रखते हैं तो वो असली जीत होगी।‘
इक्कीस साल की आर्या राजेंद्रन, ‘बालसंघम‘ की अध्यक्ष हैं। बालसंघम लगभग दस लाख बच्चों का एक संगठन है, जिसकी स्थापना 28 दिसंबर, 1938 को कल्लियास्सेरी, कन्नूर (केरल) में हुई थी। ये संगठन बच्चों में वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए काम करता है। इस संगठन के पहले अध्यक्ष थे युवा कम्युनिस्ट ई.के. नयनार (जो बाद में ग्यारह साल तक केरल के मुख्यमंत्री रहे)। एसएफ़आई की सदस्य आर्या, उस समय अपने कॉलेज की अंतिम परीक्षाएँ दे रहीं थीं, जब वे तिरुवनंतपुरम नगर परिषद में अपने चुनाव अभियान का नेतृत्व कर रही थीं। आर्या ने कहा, ‘स्थानीय निकाय केरल की लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मज़बूत बनाते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि जनतंत्र के लिए प्रतिबद्ध युवा–युवति इन निकायों में चुने जा रहे हैं। केवल स्थानीय निकायों के माध्यम से ही हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि राज्य में विकसित हो रहे वामपंथी विकल्प से सभी को लाभ हो।‘
छत्तीस साल की पी पी दिव्या कम्युनिस्ट आंदोलन की एक अनुभवी नेता हैं। वह भारत की जनवादी नौजवान सभा और अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की नेता हैं तथा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी) की ज़िला कमिटी की सदस्य भी हैं। वो 2015 से ही ज़िला पंचायत (परिषद) की सदस्य रही हैं, और अब एक बार फिर से चुनी गई हैं। इस बार उम्मीद है कि वे ज़िला परिषद की अध्यक्ष बन जाएँ। दिव्या ने न केवल अपने ज़िले में कोविड-19 के ख़िलाफ़ लड़ाई में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, बल्कि वे अपने ज़िले के लोगों के दैनिक जीवन में बुनियादी सुधार लाने के मोर्चे का भी नेतृत्व करती रहीं हैं। भारत में चल रहे किसान आंदोलन के साथ एकजुटता में उन्होंने कई विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व किया है।
रेशमा और आर्या की ही तरह ई. अफ़सल एसएफ़आई के नेता हैं। वे पच्चीस साल के हैं और मलप्पुरम ज़िला परिषद के मंगलम वार्ड से जीते हैं। अफ़सल, रेशमा और आर्या के. वी. सुधीश के नक़्शे–क़दम पर चल रहे हैं; सुधीश एक छात्र नेता थे और कन्नूर ज़िला परिषद के निर्वाचित अधिकारी थे। 26 जनवरी 1994 को, आरएसएस–भारत की सत्तारूढ़ भाजपा से जुड़ा एक संगठन– के सदस्यों ने सुधीश को मार डाला था।
कॉमरेड प्रमीला, एक खेत मजदूर हैं, और उन 58% महिलाओं में से एक हैं जिन्होंने इस स्थानीय निकाय चुनाव में सीटें जीती हैं। प्रमीला मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्य हैं, कोडाक्कड़ सेवा सहकारी बैंक के बोर्ड में एक डायरेक्टर हैं, और जनवादी महिला समिति की नेता भी हैं। ये 90% से भी अधिक वोट जीत कर पिलिकोड पंचायत की सदस्य बनी हैं।
श्रीलक्ष्मी एस बी (भारत), कदम्मानित्ता रामकृष्णन, 2020
1976 में, कम्युनिस्ट कवि कदम्मानित्ता रामकृष्णन ने ‘कन्नूरकोटा‘ (कन्नूर का क़िला) नाम से एक कविता लिखी थी। यह कविता उनकी इस उम्मीद को बयान करती है कि पुरानी व्यवस्था ढह जाएगी और नौजवान पीढ़ी एक नयी दुनिया बना लेगी। रामकृष्णन पुरोगामना कला साहित्य संघ (प्रगतिशील लेखक संघ) के अध्यक्ष थे और केरल विधानसभा के एक निर्वाचित सदस्य थे (उन्हें उम्मीदवार के रूप में वामपंथी दलों ने समर्थन दिया था)।
सारे क़िले पुराने हो जाएँगे।
सारी तोपें चुपचाप खड़ी ज़ंग खाती रहेंगी।
सारे सुल्तान अंधेरी गुफाओं में जाकर छुप जाएँगे।
मेरे बच्चे, जो नींद से वंचित नहीं हैं,
इन सभी घटनाओं को उत्सुकता से देखेंगे।
वे उत्सुकता से इन घटनाओं को देखेंगे क्योंकि वे अतीत में जमे हुए नहीं होंगे। रेशमा, आर्या, दिव्या, अफ़सल और प्रमीला जैसे युवा तोपों और सुल्तानों को परे हटाकर एक लोकतांत्रिक दुनिया का निर्माण करेंगे। और हम उनके साथ उनके कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे होंगे।
स्नेह–सहित,
विजय।