प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
डॉ. ज़फरुल्लाह चौधरी की याद में (1941-2023)
बुधवार 24 अप्रैल 2013 को, 3,000 मज़दूर राणा प्लाज़ा के अंदर काम करने के लिए गए। बांग्लादेश में ढाका के उपनगरीय इलाक़े सावर में यह आठ मंज़िला इमारत स्थित थी। वे मज़दूर अंतर्राष्ट्रीय कमोडिटी शृंखला के लिए वस्त्रों का उत्पादन करते हैं, जिसके लिए दक्षिण एशिया के खेतों में कपास का उत्पादन होता है, बांग्लादेश की मशीनों और मज़दूरों द्वारा कपड़ा तैयार किया जाता है और पश्चिमी दुनिया में रिटेल स्टोर में इसकी बिक्री होती है। बेनेटन, बोनमार्चे, प्रादा, गुच्ची, वर्साचे और ज़ारा जैसे प्रसिद्ध ब्रांडों के कपड़े यहाँ सिले जाते हैं, साथ ही वॉलमार्ट के रैक पर लटकने वाले सस्ते कपड़े भी यहीं सिले जाते हैं। एक दिन पहले, बांग्लादेशी अधिकारियों ने इमारत के मालिक सोहेल राणा को इमारत ख़ाली करने के लिए कहा था क्योंकि इस इमारत में दरारें पड़ गई थीं। राणा ने कहा, ‘इमारत को मामूली नुक़सान हुआ है। चिंता की कोई बात नहीं है‘। लेकिन 24 अप्रैल को सुबह 8:57 बजे, दो मिनट के अंतराल में इमारत ढह गई, जिसमें कम–से–कम 1,132 लोग मारे गए और 2,500 से अधिक लोग घायल हो गए। न्यूयॉर्क शहर में 1911 के ट्राएंगल शर्टवेस्ट फ़ैक्ट्री की इमारत जिन परस्थितियों में ढही थी, जिसमें 146 लोग मारे गए थे, ये भी ठीक वैसी ही घटना थी। दुख की बात है कि एक सदी बाद भी कपड़ा उद्योग में काम करने वाले मज़दूर अभी भी इन ख़तरनाक श्रम स्थितियों में काम करने को मजबूर हैं।
सावर में होने वाली ‘दुर्घटनाओं‘ की फ़ेहरिस्त लंबी और दर्दनाक है, जिन्हें टाला जा सकता था। अप्रैल 2005 में, कारख़ाने के ढहने से कम–से–कम 79 मज़दूरों की मौत हो गई; फ़रवरी 2006 में, 18 मज़दूरों की एक और दुर्घटना में मौत हो गई, इसके बाद जून 2010 में 25 और नवंबर 2012 में ताज़रीन फैशन फ़ैक्ट्री में 124 मज़दूरों की मौत हो गई। दस साल पहले राणा प्लाज़ा की तबाही के बाद से, इस क्षेत्र में कम–से–कम 109 अन्य इमारतें ढही हैं, जिसमें (कम–से–कम) 27 मज़दूरों की मौत हो गई। ये इक्कीसवीं सदी के वैश्वीकरण के भयावह कारख़ाने हैं: लंबे समय तक काम करने वाली उत्पादन प्रक्रिया के लिए ख़राब तरीक़े से बना शेल्टर, तीसरे दर्जे की मशीनें, और मज़दूर जिनका जीवन जस्ट–इन–टाईम प्रोडक्शन की अनिवार्यताओं के अधीन है। उन्नीसवीं सदी के इंग्लैंड में कारख़ाने के शासन के बारे में लिखते हुए, कार्ल मार्क्स ने कैपिटल के अध्याय 10 में लिखा:
लेकिन अपने अंध अनियंत्रित जुनून में, अधिशेष श्रम के लिए कभी न मिटने वाली भूख में, पूँजी न केवल नैतिक, बल्कि शरीर की भौतिक अधिकतम सीमाओं को भी पार कर जाती है। यह ताज़ी हवा और धूप की खपत के लिए आवश्यक समय की चोरी करता है… इसकी एकमात्र चिंता है अधिकतम श्रम शक्ति जिससे एक कार्य दिवस का काम आसानी से कराया जा सके। यह मज़दूर के जीवन की अवधी को कम करके प्राप्त किया जाता है, जैसे एक लालची किसान मिट्टी से उसकी उर्वरता को लूटकर अधिक–से–अधिक फ़सल उगाता है।
ये बांग्लादेशी कारख़ाने वैश्वीकरण के परिदृश्य का हिस्सा हैं, जो यूएस–मेक्सिको सीमा के साथ–साथ, हैती में, श्रीलंका में, और दुनिया भर के अन्य स्थानों पाए जाने वाले कारख़ानों के जैसे ही हैं, जिन्होंने 1990 के दशक में परिधान उद्योग के नये विनिर्माण और व्यापार की समझ रखने वाले लोगों के लिए अपने दरवाज़े खोल दिए। इन दबे हुए देशों में न तो अपने नागरिकों के लिए लड़ने की देशभक्ति की इच्छा थी और न ही अपनी सामाजिक व्यवस्था की दीर्घकालिक दुर्बलता के लिए कोई चिंता, ऐसे देशों में बहुराष्ट्रीय कपड़ा कंपनियों का स्वागत करने की होड़ लग गई, जो कम्पनियाँ कारख़ानों में निवेश नहीं करना चाहती थीं। इसलिए, उन कम्पनियों ने छोटे ठेकेदारों की ओर रुख़ किया, उन्हें कम लाभ मार्जिन की पेशकश की, उन्हें अपने कारख़ानों को जेल की कोठरी की तरह चलाने के लिए मजबूर किया। बांग्लादेश में कपड़ा उद्योग, जिसमें देश की कुल निर्यात से होने वाले आय का 80 प्रतिशत हिस्सा शामिल है, पूरी तरह से सुरक्षा क्षेत्रों में विकसित हुआ, जिससे मज़दूरों को यूनियन बनाने का बहुत ही कम मौक़ा मिला। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि ये कारख़ाने एक युद्धक्षेत्र हैं।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने छोटे कारख़ाने के मालिकों से अनुबंध कर लिया जिसकी वजह से उन छोटे कारख़ानों में होने वाले जान और माल के नुक़सान की जवाबदेही से बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ मुक्त हो गईं, उत्पादन की लागत कम होने से उत्तरी गोलार्ध के धनी शेयरधारकों को लाभ मिला और मज़दूरों पर जो क़हर ढाए गए उनके छींटे उन धनी शेयरधारकों के दामन तक पहुँचे भी नहीं। सोहेल राणा जैसे लोग, जो कि स्थानीय दबंग होते हैं, जो सत्ताधारी राजनीतिक दलों के क़रीब होते हैं, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए स्थानीय ठग बन जाते हैं। इमारत के ढहने के बाद सभी राजनीतिक दलों ने राणा से दूरी बना ली और उसे गिरफ़्तार कर लिया (उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा चल रहा है, हालाँकि वह ज़मानत पर बाहर है)।
राणा जैसे लोग मज़दूरों को इकट्ठा करते हैं, उन्हें इन जर्जर इमारतों में धकेलते हैं, और यह सुनिश्चित करते हैं कि अगर वे यूनियन बनाने की धमकी दें तो उन्हें पीटा जाए, जबकि गुलशन और बनानी की हवेलियों में रहने वाले कुलीन दान और मामूली भत्ता देकर तथा अपर्याप्त श्रम क़ानून बनाकर ख़ुद को उदार साबित करते हैं। श्रम निरीक्षक कम हैं, और इससे भी बुरी बात यह है कि वे शक्तिहीन हैं। जैसा कि अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने 2020 में रेखांकित किया, ‘श्रम निरीक्षकों को प्रशासन की ओर से किसी तरह की शक्ति नहीं दी गई है और वे सीधे जुर्माना नहीं लगा सकते हैं। हालाँकि, वे श्रम न्यायालय में मामला दर्ज कर सकते हैं, लेकिन इन मामलों के समाधान में आमतौर पर लंबा समय लगता है, और इनपर जो जुर्माना लगाया जाता है… उससे कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता है।‘ उत्तरी गोलार्ध में कभी–कभी उदार भावना का विस्फोट होता है और कुछ कंपनियों को ‘स्व–विनियमन‘ करने के लिए मजबूर किया जाता है, जो वैश्विक वस्तु शृंखला की भयावहता पर पर्दा डालने की एक क़वायद है। पूँजीवादी लोकतंत्र को क्रूरता और सुधार, नवफासीवाद और पितृसत्तावाद के इस गठबंधन की आवश्यकता है। यह दुनिया के राणाओं का तब तक उपयोग करते हैं जब तक कि वे बोझ नहीं बन जाते, और फिर यह उन्हें बदल देते हैं।
इमारत के ढहने के एक दिन बाद, तसलीमा अख़्तर राणा प्लाज़ा गईं और उन्होंने जो देखा उसे याद रखने के लिए खंडहरों की तस्वीरें लीं। उनकी कुछ तस्वीरों को इस न्यूज़लेटर में शामिल किया गया है। बाद में, अख़्तर ने 500 पन्नों की एक किताब, चोबिश अप्रैल: हज़ार प्राणेर चितकार प्रकाशित की, जिसमें परिवार के सदस्यों द्वारा अपने प्रियजनों की तलाश में लगाए गए पोस्टर और मृतकों की पासपोर्ट साइज़ तस्वीरों को प्रदर्शित किया गया है, जिनके साथ उनका जीवन परिचय भी है।
चोबिश अप्रैल की शुरुआत होती है 35 वर्षीय बेबी अख़्तर की कहानी से, जो एथरटेक्स गारमेंट में एक स्विंग ऑपरेटर थी, जिसने अपनी मृत्यु से केवल 16 दिन पहले राणा प्लाज़ा में काम करना शुरू किया था। अख़्तर रंगपुर से ढाका आईं, जहाँ उनके पिता एक भूमिहीन किसान थे। इन कारख़ानों में अस्सी प्रतिशत मज़दूर महिलाएँ ही हैं, और बेबी अख़्तर की तरह अधिकांश महलाएँ भूमिहीन होने की वजह से पलायन करके शहर आती हैं। वे अपने साथ ग्रामीण इलाक़ों की वीरानी, अत्यधिक इस्तेमाल की गई मिट्टी और औद्योगिक कृषि द्वारा बरबाद किए गए ज़हरीले पानी के साथ–साथ उन क़ायदे–क़ानूनों को लेकर आती हैं जिसने छोटे किसानों को पूँजीवादी खेतों की ताक़त के आगे बेमानी बना दिया है। बेबी अख़्तर के पति, देलोवर याद करते हैं कि उनकी (पत्नी की) विलासिता पान चबाना और हाथ से पंखा डुलाना था। उन्होंने कहा, ‘वह कोई भी युद्ध लड़ने के लिए तैयार थी‘। उसकी तस्वीर में अवज्ञा और दया झलकती है, मुस्कान भी, जो उनके चेहरे में छिपी है।
बेबी अख़्तर जैसी बांग्लादेशी मज़दूर नियमित रूप से अपनी दयनीय परिस्थितियों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए संगठित होते रहे हैं। जून 2012 में, राणा प्लाज़ा के ढहने से एक साल पहले, ढाका के बाहर अशुलिया औद्योगिक क्षेत्र में हज़ारों मज़दूरों ने उच्च मज़दूरी और बेहतर कामकाजी परिस्थितियों के लिए विरोध किया। कई दिनों तक इन मज़दूरों ने नरसिंहपुर में ढाका–तंगैल राजमार्ग को अवरुद्ध करते हुए 300 कारख़ानों में काम रोक दिया। प्रतिशोध में, मालिकों ने कारख़ानों को बंद कर दिया, और सरकार ने उनका पक्ष लिया, इंस्पेक्टर अबुल कलाम आज़ाद ने घोषणा की कि कारख़ाने तभी फिर से खुलेंगे जब मज़दूर ‘ठीक से व्यवहार‘ करेंगे। तथाकथित उचित व्यवहार के बारे में मज़दूरों को ‘शिक्षित‘ करने के लिए पुलिस अधिकारियों ने लाठी और आँसू गैस के साथ सड़क पर मार्च किया। 2012 के विरोध के बाद, सरकार ने संकट प्रबंधन प्रकोष्ठ और औद्योगिक पुलिस की स्थापना की, दोनों ही ‘ख़ुफ़िया जानकारी एकत्र करते हैं और औद्योगिक क्षेत्रों में श्रमिक अशांति को रोकते हैं‘। जब ह्यूमन राइट्स वॉच ने 2014-15 में स्थिति की जाँच की, तो एक मज़दूर ने जाँचकर्ता को बताया कि गर्भवती होने के बावजूद, उसे ‘धातु के पर्दे लगे रॉड से पीटा गया‘। एक बड़े कारख़ाने के मालिकों में से एक ने जाँचकर्ता को समझाया कि हिंसा को क्यों आवश्यक समझा जाता है:
कारख़ाने के मालिक अधिक–से–अधिक लाभ कमाना चाहते हैं, इसलिए वे सुरक्षा के मुद्दों पर, वेंटिलेशन पर, स्वच्छता पर ख़र्च में कटौती करेंगे। वे ओवरटाइम का भुगतान नहीं करेंगे या चोट लगने पर किसी प्रकार की सहायता की पेशकश नहीं करेंगे। वे मज़दूरों से बहुत अधिक काम लेते हैं ताकि तय समय सीमा के भीतर काम पूरा हो जाए… मज़दूरों के पास कोई यूनियन नहीं है, इसलिए वे अपने अधिकारों की लड़ाई नहीं लड़ सकते हैं … इसका कुछ दोष ब्रांडेड खुदरा विक्रेताओं पर भी दिया जा सकता है जो थोक में ऑर्डर देते हैं और कहते हैं, ‘उत्पादन बढ़ाओ क्योंकि यह एक बड़ा ऑर्डर है और इससे मार्जिन में सुधार आएगा‘। यहाँ तक कि 2-3 सेंट से भी काफ़ी अंतर आ सकता है, लेकिन ये कंपनियाँ लागत निर्धारण में [श्रम अधिकार और सुरक्षा] अनुपालन को शामिल नहीं करना चाहती हैं।
इनमें से प्रत्येक वाक्य 150 साल पहले लिखे गए मार्क्स की कैपिटल से सीधे उठाया गया लगता है। वैश्विक वस्तु शृंखला द्वारा निर्धारित कठोर परिस्थितियाँ बांग्लादेश को मज़दूरों के लिए दुनिया के सबसे ख़राब देशों में से एक बनाती हैं। जनवरी 2023 में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चलता है कि महामारी के दौरान, बहुराष्ट्रीय परिधान कंपनियों ने लागत में कटौती करने के लिए छोटे ठेकेदारों को निचोड़ लिया, जिसके परिणामस्वरूप मज़दूरों के लिए कठोर परिस्थितियाँ पैदा हुईं।
1926 में, कृष्णानगर में कीर्ति किसान (‘मज़दूर–किसान‘) पार्टी बनाने के लिए ऑल बंगाल टेनेंट्स कांफ़्रेंस हुई, जो दक्षिण एशिया में एक शुरुआती कम्युनिस्ट राजनीतिक मंच था। काज़ी नज़रुल इस्लाम ने इस बैठक में अपना श्रमिकेर गान (‘श्रमिकों का गीत‘) गाया, एक कविता जो राणा प्लाज़ा के मज़दूरों के लिए और उन लाखों लोगों के लिए लिखी जा सकती थी जो एक वैश्विक वस्तु शृंखला के लिए काम करते हैं जिसे वे नियंत्रित नहीं करते हैं:
हम मशीनों पर काम करने वाले क़ुली हैं
इन भयानक समय में।
हम केवल ठग और मूर्ख हैं
हीरे की खोज करना और उसका उपहार देना
राजा को, उसके मुकुट को सजाने के लिए।
…
अपना हथौड़ा तेज़ी से पकड़ो, अपना फावड़ा उठाओ,
एक सुर में गाओ और आगे बढ़ो।
मशीन की बत्ती, शैतान की आँख बंद कर दो।
साथ आओ, ओ कॉमरेड, और अपना हथियार ऊँचा रखो।
स्नेह–सहित
विजय