प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
19 नवंबर 2021 को किसान आंदोलन के एक साल पूरा होने से एक हफ़्ते पहले, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने सरेंडर कर दिया। उन्होंने स्वीकार किया कि 2020 में संसद से पास हुए तीन कृषि क़ानून रद्द किए जाएँगे। भारत के किसानों की जीत हुई है। इस विरोध आंदोलन के आयोजकों में से एक अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) ने जीत का जश्न मनाते हुए घोषणा की कि ‘यह जीत भविष्य के संघर्षों के लिए विश्वास जगाती है’।
लेकिन अभी कई संघर्ष बाक़ी हैं, जैसे सभी किसानों को उनकी फ़सलों के उत्पादन लागत के डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने के लिए क़ानून बनवाने की लड़ाई अभी बाक़ी है। एआईकेएस का कहना है कि इस माँग को स्वीकार करने में सरकार की विफलता ‘पिछले 25 सालों में कृषि संकट के बढ़ने और [400,000 से अधिक] किसानों की आत्महत्या का कारण बनी है’। इन आत्माहत्याओं में से एक चौथाई मौतें पिछले सात वर्षों में मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में हुई हैं।
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान से हमने भारत के कृषि संकट से जुड़े चार महत्वपूर्ण डोज़ियर प्रकाशित किए हैं: किसानों के विद्रोह पर (भारत में किसान विद्रोह, जून 2021); कृषि से जुड़े कामों और संघर्षों दोनों में महिलाओं की केंद्रीय भूमिका पर (समानता की कठिन राह पर भारत की महिलाएँ, अक्टूबर 2021); ग्रामीण समुदायों पर नवउदारवाद के प्रभाव के संदर्भ में (द नीओलिबरल अटैक ऑन रुरल इंडिया: टू रिपोर्ट्स बाय पी साईनाथ, अक्टूबर 2019); और खेत मज़दूरों व किसानों को ऊबर टैक्सी ड्राईवरों की तरह गिग वर्कर बनाने की कोशिशों का एक अध्ययन (बिग टेक एंड द करंट चैलेंजेस फेसिंग द क्लास स्ट्रगल, नवंबर 2021, जिसका हिंदी संस्करण अगले महीने जारी होगा)। हमारे वरिष्ठ साथी, पी. साईनाथ, कृषि संकट और किसानों के संघर्ष को उजागर करने वाले एक महत्वपूर्ण व्यक्ति रहे हैं। नीचे मैं पीपुल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया में उनके द्वारा हाल ही में लिखे गए संपादकीय के एक अंश का हिंदी अनुवाद पेश कर रहा हूँ:
इस बात को मीडिया कभी खुले तौर पर नहीं स्वीकारेगा कि दुनिया ने लम्बे अंतराल के बाद जिस सबसे बड़े शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक प्रतिरोध -और निश्चित रूप से महामारी के चरम के दिनों में सबसे बड़े संगठित विरोध- को देखा उसने एक शक्तिशाली जीत हासिल की है।
ये एक ऐसी जीत है जो एक विरासत को आगे बढ़ाती है। आदिवासी और दलित समुदायों सहित सभी प्रकार के किसानों -पुरुषों और महिलाओं- ने [भारत के] स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। और [भारत की] स्वतंत्रता के 75वें वर्ष में, दिल्ली के बॉर्डरों पर किसानों ने उस महान संघर्ष को फिर से दोहराया है।
प्रधान मंत्री मोदी ने हार मानते हुए यह घोषणा की है कि वह 29 [नवंबर] से शुरू होने वाले संसद के आगामी शीतकालीन सत्र में कृषि क़ानूनों को निरस्त करने जा रहे हैं। उनका कहना है कि ‘बेहतरीन प्रयासों के बावजूद किसानों के एक वर्ग’ को मनाने में विफल रहने के बाद वह ऐसा कर रहे हैं। बस एक वर्ग, याद रखिए, जिसे वह यह मानने के लिए राज़ी नहीं कर पाए कि तीन बदनाम कृषि क़ानून वास्तव में उनके लिए अच्छे हैं। इस ऐतिहासिक संघर्ष के दौरान शहीद हुए 600 से अधिक किसानों के बारे में या उनके लिए एक शब्द भी उन्होंने नहीं कहा। वे स्पष्ट करते हैं, उनकी विफलता का कारण केवल उनके समझा सकने के कौशल की कमी है, जिसके चलते वे ‘किसानों के [उस] वर्ग’ को प्रकाश नहीं दिखा सके।… समझाने का ढंग और तरीक़ा क्या था? अपनी शिकायतें दर्ज करवाने के लिए जब वे आ रहे थे तो उन्हें राजधानी में प्रवेश करने से वंचित करना? सड़कों पर खाइयाँ और कँटीली तारें लगाकर उनका रास्ता रोकना? उनपर वाटर कैनन से हमला करना? … गोदी मीडिया द्वारा हर दिन किसानों को बदनाम करवाना? उन्हें गाड़ियों से कुचलना –जो गाड़ी कथित तौर पर एक केंद्रीय मंत्री या उनके बेटे की थी? यही है इस सरकार का समझने का तरीक़ा? अगर ये इनके ‘बेहतरीन प्रयास’ हैं तो इनके बुरे प्रयास तो हम कभी नहीं देखना चाहते।
प्रधान मंत्री ने केवल इस एक साल में कम-से-कम सात विदेश यात्राएँ की हैं (जैसे कि सीओपी26 के लिए उन्होंने हाल ही में यात्रा की)। लेकिन अपने आवास से कुछ किलोमीटर दूर जाकर दिल्ली के बॉर्डरों पर बैठे हज़ारों किसानों से मिलने के लिए उन्हें कभी समय नहीं मिला, जबकि किसानों के दुःख ने देश भर के लोगों को छुआ। क्या उनसे मिलने जाना उन्हें समझने की दिशा में एक सच्चा प्रयास नहीं होता?
… कृषि संकट का अंत नहीं हुआ है। यहाँ से इस संकट के बड़े मुद्दों पर लड़ाई के एक नये चरण की शुरुआत की जगह बनी है। किसानों का संघर्ष पिछले काफ़ी समय से चल रहा है। और विशेष रूप से 2018 के बाद से, जब महाराष्ट्र के आदिवासी किसानों ने नासिक से मुंबई तक 182 किलोमीटर का पैदल मार्च कर देश को झकझोर दिया था। तब भी, शुरुआत में उन्हें ‘शहरी माओवादी’, नक़ली किसान बताकर और अन्य तरीक़ों से उनके संघर्ष को ख़ारिज किया गया। लेकिन उनके पैदल मार्च ने उनकी निंदा करने वालों को चुप करवा दिया था।
… उस राज्य के वो हज़ारों लोग, जिन्होंने उस संघर्ष में भाग लिया था, जानते हैं कि आज किसकी जीत हुई है। पंजाब के लोगों के दिल विरोध-स्थलों पर बैठे उन लोगों के साथ हैं, जिन्होंने पिछले दशकों में दिल्ली की सबसे ज़्यादा ठंड, भीषण गर्मी, उसके बाद बारिश, और इन सबके साथ श्री मोदी व उनके बंधक मीडिया के शत्रुतापूर्ण व्यवहार को झेला।
और शायद सबसे महत्वपूर्ण चीज़ जो प्रदर्शनकारियों ने हासिल की है वह यह है कि: इन्होंने अन्य क्षेत्रों में भी प्रतिरोध के लिए प्रेरणा का काम किया है, एक ऐसी सरकार के ख़िलाफ़ जो अपने आलोचकों को जेल में डाल देती है या और तरीक़ों से तंग और परेशान करती है। जो [ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम] के तहत पत्रकारों सहित आम नागरिकों को खुले तौर पर गिरफ़्तार कर लेती है, और ‘आर्थिक अपराधों’ के नाम पर स्वतंत्र मीडिया पर दबाव बनाती है। यह दिन सिर्फ़ किसानों की जीत का दिन नहीं है। यह नागरिक स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की लड़ाई की जीत है। भारतीय लोकतंत्र की जीत है।
यह केवल भारतीय लोकतंत्र की नहीं बल्कि दुनिया भर के किसानों की जीत है।
पिछले पाँच दशकों से, ये किसान वैश्विक स्तर पर ग़रीबी, बेदख़ली और निराशा का अनुभव कर रहे हैं। दो प्रक्रियाओं ने उनके संकट को तेज़ किया है: पहली है, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़), विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के माध्यम से उन्नत पूँजीवादी देशों द्वारा थोपा गया व्यापार और विकास मॉडल; दूसरी, जलवायु आपदा। आईएमएफ़ के स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट प्रोग्राम और डब्ल्यूटीओ के उदारीकृत व्यापार शासन ने दक्षिणी गोलार्ध में मूल्य समर्थन और खाद्य सब्सिडी को ख़त्म कर दिया है और सरकारों को किसानों की सहायता करने और मज़बूत राष्ट्रीय खाद्य बाज़ार बनाने की दिशा में हस्तक्षेप करने से रोका है। इस दौरान, उत्तरी गोलार्ध के देशों ने खेती में सब्सिडी देना जारा रखा है और अपने सस्ते खाद्य पदार्थों को दक्षिणी गोलार्ध के बाज़ारों में भेजना जारी रखा है। यह नीति संरचना -विनाशकारी जलवायु घटनाओं के साथ- दक्षिणी गोलार्ध के कृषकों के लिए घातक रही है।
2007-08 के ऋण संकट के दौरान, विश्व बैंक ने खेतों से दुकानों तक की ‘मूल्य शृंखला’ में निजी क्षेत्र (बड़े पैमाने पर बड़ी कृषि) के प्रवेश को बढ़ावा देने के लिए हस्तक्षेप किया। विश्व बैंक ने 2008 की एक प्रमुख रिपोर्ट में लिखा कि, ‘निजी क्षेत्र उन मूल्य शृंखलाओं के संगठन को संचालित करता है जो कि बाज़ार को छोटे धारकों और वाणिज्यिक खेतों के पास लाती हैं’। उस वर्ष जून में, संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य और कृषि संगठन के विश्व खाद्य सुरक्षा पर उच्च स्तरीय सम्मेलन ने विश्व बैंक के लिए बड़ी कृषि को लाभ पहुँचाने हेतु कृषि नीति को आकार देने का रास्ता खोला था। अगले वर्ष, विश्व बैंक की विश्व विकास रिपोर्ट ने ‘ग़रीब देशों [की खेती] को विश्व बाज़ारों’ में एकीकृत करने का तर्क दिया, जिसका अर्थ था किसानों को बड़ी कृषि के साथ बाज़ारू वस्तु की तरह जोड़ना। दिलचस्प बात यह है कि विश्व बैंक अपने कृषि ज्ञान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर अंतर्राष्ट्रीय कृषि आकलन 2008 में यह तर्क देते हुए इस बात से असहमत था कि औद्योगिक कृषि ने प्रकृति और ग़रीब किसानों का नुक़सान किया है।
सितंबर 2021 में, संयुक्त राष्ट्र संघ ने न्यूयॉर्क में एक खाद्य प्रणाली शिखर सम्मेलन आयोजित किया, जिसे किसान संगठनों ने नहीं बल्कि विश्व आर्थिक मंच (डबल्यूईएफ़) ने डिज़ाइन किया था; डबल्यूईएफ़ एक निजी निकाय है जो कि कृषकों के बड़े दिलों की बजाय बड़े व्यापार का प्रतिनिधित्व करता है। पूँजीवाद द्वारा बनाए गए संकट को स्वीकार करते हुए, डब्ल्यूईएफ़ अब कहता है कि उसने नागरिक कार्रवाई से सीखा है और वो ‘हितधारक पूँजीवाद’ को बढ़ावा देना चाहता है। यह नये प्रकार का पूँजीवाद, जो कि पुराने पूँजीवाद जैसा ही दिखता है, बड़े निगमों को ‘समाज के ट्रस्टियों’ के रूप में बढ़ावा देना चाहता है; यह हमारे हितों को समाज में मूल्य उत्पन्न करने वाले श्रमिकों के बजाय निगमों के हाथ में सौंपना चाहता है।
भारत के किसान आंदोलन ने मोदी के तीन क़ानूनों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी है, उन क़ानूनों को अब रद्द कर दिया जाएगा। लेकिन यह आंदोलन ‘सार्वजनिक-निजी भागीदारी’ और ‘समाज के ट्रस्टियों’ के नाम पर लोकतांत्रिक, बहुपक्षीय और राष्ट्रीय परियोजनाओं से निगमों के हाथ में नीति निर्माण के हस्तांतरण के ख़िलाफ़ संघर्ष करना जारी रखेगा। मोदी के क़ानूनों का रद्द किया जाना एक जीत है। इससे लोगों का विश्वास बढ़ा है। लेकिन आगे और भी लड़ाइयाँ बाक़ी हैं।
विरोध स्थलों पर, किसानों ने सामुदायिक रसोई और पुस्तकालयों के साथ पूरे गाँव बसा लिए थे। पढ़ना और संगीत नियमित गतिविधियाँ थीं। पाश (1950-1988) और संत राम उदासी (1939-1986) जैसी हस्तियों की क्रांतिकारी पंजाबी कविताएँ उनका उत्साह बढ़ाती रहीं। इस न्यूज़लेटर का अंत संत राम उदासी के इन शब्दों के साथ करूँगा:
तू चमकता रहना सूरज मज़दूरों के आँगन में
अगर सूखा पड़ा तो ये ही जलते हैं
अगर बाढ़ आए तो ये ही मरते हैं
सब क़हर इनके सर ही पड़ते हैं
जहाँ फ़सलें कुचल देती हैं अरमान सारे
जहाँ रोटी को मन तरसता है
जहाँ पुरज़ोर अंधेरा जुटा है
जहाँ ग़ैरत का धागा टूटा है
जहाँ आकर वोट वालों ने दलाल बिठाए
ख़ुद को ही चमकाता है
मज़दूरों से क्यूँ शर्माता है
ये सदा-सदा नहीं रहेंगे बदहाल ऐसे
तू चमकता रहना सूरज मज़दूरों के आँगन में
स्नेह-सहित,
विजय।