प्यारे दोस्तों,
ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान की ओर से अभिवादन।
अमेरिका की स्पीकर नैन्सी पेलोसी के ताइपे पहुँचते ही दुनिया भर के लोगों की साँसें थम गईं। उनकी यात्रा का मक़सद है उकसाना। दिसंबर 1978 में, अमेरिकी सरकार ने – 1971 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा लिए गए फ़ैसले के बाद – ताइवान के प्रति अपने पिछले संधि बाध्यताओं को दरकिनार करते हुए पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को मान्यता दी थी। इसके बावजूद, अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने ताइवान संबंध अधिनियम (1979) पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत अमेरिकी अधिकारियों को हथियारों की बिक्री सहित अन्य तरीक़ों से ताइवान के साथ अंतरंग संपर्क बनाए रखने की अनुमति दी। यह निर्णय उल्लेखनीय है क्योंकि ताइवान 1949 से 1987 तक मार्शल लॉ के अधीन था, जिसके लिए उसे एक नियमित हथियार आपूर्तिकर्ता की आवश्यकता थी।
पेलोसी की ताइपे यात्रा अमेरिका द्वारा चीन को उकसाने के लिए जारी कोशिशों का हिस्सा थी। इस अभियान में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की ‘एशिया की धुरी’ नीति, पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की ‘व्यापार युद्ध‘ नीति, क्वाड और एयूकेयूएस जैसी सुरक्षा साझेदारियों का निर्माण, और चीन के ख़िलाफ़ नाटो के रुख़ में होने वाला लगातार परिवर्तन शामिल है। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने भी चीन को कमज़ोर करने का यह एजेंडा बरक़रार रखा है। क्योंकि उनका मानना है कि चीन ‘एकमात्र ऐसा प्रतियोगी है जो अपनी आर्थिक, कूटनीतिक, सैन्य और तकनीकी शक्ति को एक साथ मिलाकर’ अमेरिकी-प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था को ‘निरंतर चुनौती देने के लिए संभावित रूप से सक्षम है’।
पेलोसी और दूसरे अमेरिकी कांग्रेस नेताओं को ताइपे यात्रा करने से रोकने के लिए चीन ने अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग नहीं किया। लेकिन, जब वे चले गए, तो चीन की सरकार ने घोषणा की कि वह अमेरिका के साथ आठ प्रमुख क्षेत्रों में सहयोग रोक देगी। इनमें सैन्य आदान-प्रदान को रद्द करना और जलवायु परिवर्तन जैसे कई मुद्दों पर नागरिक सहयोग को स्थगित करना शामिल है। पेलोसी की यात्रा से यही हासिल हुआ है: टकराव बढ़ा है, और सहयोग कम हुआ है।
वास्तव में, जो कोई भी चीन के साथ सहयोग बढ़ाता है, उसे पश्चिमी मीडिया और दक्षिणी गोलार्ध में मौजूद पश्चिम से संबद्ध मीडिया में चीन का ‘एजेंट’ या ‘ग़लत खबर’ फैलाने वाला कह कर बदनाम किया जाता है। मैंने इनमें से कुछ आरोपों का जवाब दक्षिण अफ़्रीका में छपने वाले द संडे टाइम्स में 7 अगस्त 2022 को दिया है। इस न्यूज़लेटर के द्वारा मैं उस लेख को आप तक पहुँचा रहा हूँ।
वैश्विक राजनीतिक विमर्श में एक नये तरह का पागलपन छा रहा है, एक ज़हरीला कोहरा जो तर्क का दम घोंट देता है। श्वेत वर्चस्व और पश्चिमी श्रेष्ठता के पुराने और कुरूप विचारों में लम्बे समय से व्याप्त यह कोहरा, मानवता के हमारे विचारों को धूमिल कर रहा है। इसके कारण जो सामान्य बीमारी पैदा हो रही है वह है चीन के प्रति गहरा संदेह और तीव्र घृणा। केवल उसके वर्तमान नेतृत्व या सिर्फ़ चीन की राजनीतिक व्यवस्था के प्रति नहीं, बल्कि पूरे देश और चीनी सभ्यता से घृणा – चीन से ताल्लुक़ रखने वाली किसी भी चीज़ से घृणा।
इस पागलपन ने चीन के बारे में समझदारी से बातचीत करना असंभव बना दिया है। ‘सत्तावादी’ और ‘नरसंहार’ जैसे शब्दों और वाक्यांशों का बेझिझक इस्तेमाल किया जाता है। चीन 140 करोड़ लोगों का देश है, और एक प्राचीन सभ्यता है, जिसने दक्षिणी गोलार्ध के अधिकतर हिस्से की तरह, शोषण की एक सदी झेली है; 1839 में शुरू हुए तथा ब्रिटेन द्वारा थोपे गए अफीम युद्धों से लेकर 1949 की चीनी क्रांति तक, जब माओत्से तुंग ने जान-बूझकर यह घोषणा कर दी थी कि चीन के लोग खड़े हो चुके हैं। भूख, निरक्षरता, निराशा और पितृसत्ता की सदियों पुरानी समस्याओं को दूर करने के लिए अपने सामाजिक धन का उपयोग करके चीन तब से अब तक बहुत ज़्यादा बदल गया है। और सभी सामाजिक प्रयोगों की ही तरह, इसमें भी बड़ी समस्याएँ रही हैं। लेकिन किसी भी सामूहिक मानवीय क्रिया में ऐसा होता है। चीन को उसकी सफलताओं और विरोधाभासों दोनों के लिए एक साथ आँकने के बजाय, हमारे समय का यह पागलपन चीन को एक प्राच्यवादी देश (orientalist state) के खाँचे में सीमित करना चाहता है – एक ऐसा सत्तावादी देश जो नरसंहार कर के दुनिया पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है।
इस पागलपन की उत्पत्ति का एक निश्चित बिंदु संयुक्त राज्य अमेरिका में है, जिसके अभिजात शासक वर्ग को चीनी लोगों की प्रगति से बहुत ख़तरा है – विशेष रूप से रोबोटिक्स, दूरसंचार, हाई-स्पीड रेल और कंप्यूटर प्रौद्योगिकी में। ये प्रगति सदियों के उपनिवेशवाद और बौद्धिक संपदा क़ानूनों की वजह से लम्बे समय से पश्चिमी निगमों को प्राप्त लाभ और उनके अस्तित्व के लिए ख़तरा बन रही है। अपनी ख़ुद की नाज़ुक हालत और यूरेशिया के आर्थिक विकास में यूरोप के एकीकरण से डर के कारण पश्चिम चीन के ख़िलाफ़ सूचना युद्ध कर रहा है।
इस वैचारिक ज्वार की लहर दुनिया में चीन की भूमिका के बारे में गंभीर और संतुलित बातचीत करने की हमारी क्षमता को अवरुद्ध कर रही है। उदाहरण के लिए, अफ़्रीका में क्रूर उपनिवेशवाद के लम्बे इतिहास वाले पश्चिमी देश, अब नियमित रूप से अफ़्रीका में चीनी उपनिवेशवाद की बात करते हैं, जबकि वे अपने स्वयं के अतीत या आज के दौर में पूरे अफ़्रीकी महाद्वीप में फ़्रांसीसी और अमेरिकी सैन्य उपस्थिति पर कोई बात नहीं करते। ‘नरसंहार’ के आरोप हमेशा दुनिया के गहरे रंग के लोगों पर ही मढ़े जाते हैं – वे चाहे दारफुर में हों या झिंजियांग में हों। अमेरिका पर ऐसे आरोप कभी नहीं लगते, जिसके अकेले इराक़ पर अवैध युद्ध के परिणामस्वरूप दस लाख से भी ज़्यादा लोग मारे गए। यूरोकेन्द्रीयता (eurocentricism) में डूबा हुआ अंतर्राष्ट्रीय अपराध न्यायालय, मानवता के ख़िलाफ़ अपराधों के लिए एक के बाद एक अफ़्रीकी नेताओं को दोषी ठहराता है, लेकिन उसने कभी भी किसी पश्चिमी नेता को आक्रामकता के अंतहीन युद्धों के लिए दोषी नहीं ठहराया है।
इस नये शीत युद्ध का कोहरा आज हमें घेर रहा है। हाल ही में, डेली मावेरिक और मेल एंड गार्जियन में, मुझ पर ‘चीनी और रूसी प्रॉपगैंडा’ करने और चीनी पार्टी-राज्य से घनिष्ठ संबंध रखने का आरोप लगाया गया था। इन दावों का आधार क्या है?
सबसे पहले तो, पश्चिमी ख़ुफ़िया तत्व चीन पर पश्चिमी हमले के ख़िलाफ़ किसी भी तरह के असंतोष को ग़लत ख़बर और प्रॉपगैंडा के रूप में प्रचारित करने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए, युगांडा पर मेरी दिसंबर 2021 की रिपोर्ट ने इस झूठे दावे को ख़ारिज किया था कि युगांडा को ऋण देकर चीन देश को दुर्भावनापूर्ण ‘ऋण जाल परियोजना’ में फँसाकर उसके एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर क़ब्ज़ा करना चाहेगा। इस दावे को ख़ुद अमेरिका के विद्वान भी ख़ारिज कर चुके हैं। युगांडा के सरकारी अधिकारियों के साथ बातचीत से और वित्त मंत्री मतिया कसैजा के सार्वजनिक बयानों का अध्ययन कर, मैंने पाया कि सरकार ने सौदे के बारे में ठीक से नहीं समझा था, लेकिन उसमें एंटेबे अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर क़ब्ज़ा कर लेने जैसी कोई बात नहीं थी। इस सच्चाई के बावजूद कि ब्लूमबर्ग द्वारा इस ऋण के बारे में बयान की गई कहानी झूठ पर आधारित थी, उन्हें ‘वाशिंगटन का नौकर’ आदि कह कर अपमानित नहीं किया गया। यही सूचना युद्ध की ताक़त है।
दूसरा, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मेरे कथित संबंधों के बारे में दावा किया जाता है। यह दावा इस साधारण तथ्य के आधार पर किया जाता है कि मैं चीनी बुद्धिजीवियों के साथ काम करता हूँ और रेनमिन विश्वविद्यालय के चोंगयांग इंस्टीट्यूट फ़ॉर फ़ाइनेंशियल स्टडीज़ – बीजिंग के प्रमुख थिंक टैंक – में मुझे एक अवैतनिक पद मिला हुआ है। जबकि, जिन दक्षिण अफ़्रीकी प्रकाशनों ने यह अपमानजनक दावे किए हैं उन्हें मुख्य रूप से जॉर्ज सोरोस की ओपन सोसाइटी फ़ाउंडेशन से फ़ंड मिलते हैं। सोरोस ने अपनी संस्था का नाम कार्ल पॉपर की पुस्तक, द ओपन सोसाइटी एंड इट्स एनिमीज़ (1945) से लिया है। इस किताब में पॉपर ने ‘असीमित सहिष्णुता’ के सिद्धांत को विकसित किया था। पॉपर ने अधिकतम संवाद पर ज़ोर दिया और कहा कि किसी भी व्यक्ति को अपनी व्यक्तिगत राय के विपरीत किसी समझ को ‘विवेकशील तर्क के द्वारा’ काउंटर करना चाहिए। इस तरह से बदनाम करने के अभियान में विवेकशील तर्क कहाँ हैं। इस अभियान के तहत चीनी बुद्धिजीवियों के साथ बातचीत करना तो नाक़ाबिले-बर्दाश्त है लेकिन अमेरिकी सरकार के अधिकारियों के साथ बातचीत पूरी तरह से स्वीकार्य है? यहाँ किस स्तर का सभ्यतागत रंगभेद पैदा किया जा रहा है, दक्षिण अफ़्रीका के उदारवादी ‘सभ्यताओं के बीच संवाद’ कराने के बजाय ‘सभ्यताओं के बीच टकराव’ को बढ़ावा दे रहे हैं?
दक्षिणी गोलार्ध के देश समाजवाद के साथ चीन के प्रयोगों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। महामारी के दौरान अत्यधिक ग़रीबी का उन्मूलन एक ऐसी उपलब्धि है जिसका ज़िक्र संयुक्त राष्ट्र ने भी ख़ुशी से किया। यह उपलब्धि हमें सिखा सकती है कि हम अपने देशों में इस तरह की जटिल समस्याओं से कैसे निपटें। (यही कारण है कि ट्राईकॉन्टिनेंटल: सामाजिक शोध संस्थान ने चीन द्वारा इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए अपनाई गई तकनीकों के बारे में एक विस्तृत अध्ययन किया है)। दुनिया में कोई भी देश संपूर्ण नहीं है और कोई भी आलोचना से ऊपर नहीं है। लेकिन एक देश के प्रति द्वेषपूर्ण रवैया विकसित करना और उसे अलग-थलग करने का प्रयास करना सामाजिक रूप से ख़तरनाक है। हमें मौजूद दीवारें गिरानी हैं, नयी बनानी नहीं हैं। चीन की आर्थिक प्रगति के बारे में अपनी चिंताओं के कारण अमेरिका इस टकराव को भड़का रहा है: हमें ज़रूरतमंद बेवक़ूफ़ों की तरह उनके इस प्रचार में नहीं फँसना चाहिए। हमें चीन के बारे में एक समझदार बातचीत करने की ज़रूरत है, लेकिन उन मुद्दों पर नहीं जो हम पर थोपे जा रहे हैं और वास्तव में हमारे हैं नहीं।
द संडे टाइम्स में मैंने जो लेख लिखा है उसमें मैंने अमेरिका-चीन टकराव से संबंधित सभी मुद्दों को संबोधित नहीं किया है। वह लेख संवाद स्थापित करने के लिए एक निमंत्रण है। यदि आपके पास इन मुद्दों के बारे में कोई विचार है, तो कृपया मुझे ईमेल करें।
स्नेह-सहित,
विजय।